महारानी केकसी अपने राजमहल में सोयी हुई हैं। रत्नों के दीपकों का प्रकाश फैल रहा है। चारों ओर पहरे पर खड़ी हुई स्त्रियाँ निद्रा रहित होकर महारानी की रक्षा में तत्पर हैं। पिछली रात्रि में रानी आश्चर्यकारी कुछ स्वप्नों को देखती हैं। प्रभात के समय तुरही की ध्वनि से और चारण लोगों के प्रभाती पाठ से जग जाती हैं। प्रभात की मंगल-बेला में महामन्त्र का स्मरण कर शय्या का त्याग कर देती हैं। प्राभातिक क्रिया से निवृत्त होकर माँगलिक वेषभूषा धारण कर राजा रत्नश्रवा के पास पहँुचकर निवेदन करती हैं-‘‘हे नाथ! मैंने आज रात्रि के पिछले प्रहर में तीन स्वप्न देखे हैं। आपके श्रीमुख से उनका फल सुनना चाहती हूँ।’’
राजा कहते हैं–‘‘कहिये, रानी! वे स्वप्न क्या-क्या हैं?’’
रानी कहती हैं-‘‘राजन्! पहले स्वप्न में मैंने देखा है कि अपने उत्कृष्ट तेज से हाथियों के बड़े भारी झुण्ड को विध्वस्त करता हुआ एक िंसह आकाशतल से नीचे उतरकर मुख द्वार से मेरे उदर में प्रविष्ट हुआ है। दूसरे स्वप्न में देखा है कि अपनी हजारों किरणों से काले-काले अंधकार को दूर हटाता हुआ सूर्य आकाश के मध्य भाग में स्थित है और तीसरे स्वप्न में देखा कि अत्यन्त सौम्यपूर्ण चन्द्रमा मेरे सम्मुख स्थित है। इन स्वप्नों के देखने से मेरा मन आश्चर्य से भर गया है। सो हे देव! इनका क्या फल है?’’
केकसी के स्वप्नों को सुनकर राजा रत्नश्रवा अपने अष्टांग निमित्तज्ञान से इन स्वप्नों के फलों का विचार करते हैं पुन: कहते हैं-‘‘हे प्रिये! हे सुमुखि! इन स्वप्नों से यह विदित हो रहा है कि तुम्हारे तीन पुत्र होंगे जो अपनी कीर्ति से तीनों लोकों को व्याप्त करेंगे। महा-पराक्रम के धारी तथा कुल की वृद्धि करने वाले होंगे। वे कांति में चन्द्रमा के समान होंगे। अपने तेज से सूर्य को तिरस्कृत करने वाले होंगे और उन्हें देव भी पराजित नहीं कर सकेगे। वे चक्रवर्तियों के समान ऋद्धि के धारक और महादानी होंगे। उनका वक्षस्थल श्रीवत्स के चिह्न से सुशोभित होगा।
उन तीनों पुत्रों में प्रथम पुत्र साहस के कार्य में अग्रणी होगा और युद्ध का अत्यधिक प्रेमी होगा। वह घोर भयंकर कार्यों का भण्डार होगा तथा जिस कार्य को करने की सोच लेगा इन्द्र भी उससे उसे परामुख नहीं कर सकेगा।’’
पति के ऐसे वचनों को सुनकर रानी केकसी अतिशय प्रमोद को प्राप्त हो जाती है पुन: एक क्षण कुछ सोचकर पूछती है-‘‘नाथ! हम दोनों का चित्त तो जिनमतरूपी अमृत के आस्वाद से अत्यन्त निर्मल है फिर हम लोगों के जन्म प्राप्त कर यह पुत्र व्रूरकर्मी कैसे होगा? निश्चय से हम लोगों की मज्जा भी तो जिनेन्द्र भगवान के वचनों से संस्कारित है। फिर हमसे ऐसा पुत्र का जन्म कैसे होगा? क्या कहीं अमृत की बेल से विष की उत्पत्ति हो सकती है?’’
इसके उत्तर में राजा कहते हैं-‘‘हे कल्याणि! इस कार्य में जीवों के पूर्वकृत कर्म ही कारण हैं, हम नहीं। संसार के स्वरूप की योजना में कर्म ही मूल कारण होते हैं, माता-पिता तो निमित्त मात्र हैं।’’
इसके दोनों छोटे भाई जिनमार्ग के पंडित, गुणों के समूह से व्याप्त, उत्तम चेष्टाओं के धारक तथा शील के सागर होंगे। संसार में कहीं मेरा स्खलन न हो जाये, इस भय से वह सदा पुण्य कार्य में अच्छी तरह संलग्न रहेंगे। सत्यभाषी होंगे और जीवदया में तत्पर रहेंगे। हे प्रिये! उन दोनों पुत्रों का पूर्वोपार्जित पुण्य ही उनके इस स्वभाव का कारण होगा, सो ठीक ही है क्योंकि कारण के समान ही फल होता है।’’
इतना कहकर राजा रत्नश्रवा रानी केकसी को साथ लेकर विशेष उत्सवपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजाविधि सम्पन्न करते हैं।
अनन्तर गर्भ में बालक के आने के बाद माता की चेष्टा अत्यन्त व्रूर हो जाती है। वह हठपूर्वक पुरुषों के समूह को जीतने की इच्छा करती है। वह चाहती है कि मैं खून से लिप्त तथा छटपटाते हुए शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखूँ। देवराज इन्द्र के ऊपर भी आज्ञा चलाउँ। बिना कारण ही उसका मुख हुँकार से मुखर हो जाता है। उसका शरीर कठोर हो जाता है। उसकी वाणी कर्कश हो जाती है और उसका दृष्टिपात भी नि:शब्द होने से स्पष्ट दिखता है। दर्पण रहते हुए भी वह तलवार में अपना मुख देखती है। गुरूजनों की वंदना में उसका मस्तक बड़ी कठिनाई से झुकता है।
नावमास व्यतीत होने के बाद महातेजस्वी बालक जन्म लेता है। सूर्य के समान बालक के तेज को देखकर प्रसूतिगृह में कार्य करने वाली महिलाओं के नेत्र चक्कर खाने लगते हैं। भूतजाति के देव दुंदुभि बाजे बजाने लगते हैं और शत्रुओं के घरों में सिर रहित धड़ से उत्पातसूचक नृत्य करने लगते हैं। तदनन्तर पिताजी पुत्र का जन्मोत्सव बहुत भारी रूप में मनाते हैं। वह बालक प्रसूतिका गृह में शय्या के ऊपर पड़ा हुआ मन्द-मन्द हँस रहा है और लीला से समीपवर्ती भूमि को कंपित कर रहा है।
कई पीढ़ियों पहले राक्षसों के इन्द्र भीम ने राजा मेघवाहन के लिए जो दिव्य हार दिया था जिसकी हजार नागकुमार देव रक्षा कर रहे थे, जिसकी दिव्य किरणें चारों तरफ फैल रही थीं और जिसे इतने दिनों तक राक्षसों के भय से किसी ने भी नहीं पहना था, वह हार वहीं पर एक स्थान पर रखा हुआ था।
वह जन्मजात बालक अनायास ही उस हार को अपने हाथों से खींच लेता है। बालक को मुट्ठी में हार लिए देख माता घबड़ाने लगती है और बड़े स्नेह से उसे उठाकर गोद में ले लेती है पुन: यह आश्चर्य देख माता उस हार को लेकर निर्भय होकर बालक के गले में पहना देती है। उस समय वह हार अपनी किरणों से दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा है। उस हार में बड़े-बड़े स्वच्छ रत्न लगे हुए हैं। उनमें बालक के असली मुख के साथ-साथ नव मुख और भी प्रतिबिम्बित हो उठते हैं। इस दृश्य को देखकर बालक का नाम दशानन रखा जाता है।
पिता रत्नश्रवा बालक को हार पहने हुए देखकर आश्चर्य के साथ-साथ हर्षसागर में निमग्न हो जाते हैं। वह कहते हैं-‘‘अवश्य ही यह कोई महापुरुष होगा। यदि इसकी शक्ति लोकोत्तर न होती तो भला नागेन्द्रों के द्वारा सुरक्षित ऐसे हार को इस लीलामात्र में कैसे ग्रहण कर लेता? चारण-ऋद्धिधारी मुनिराज ने भी एक बार यही बात बतलाई थी कि तुम्हारे कुल में कोई चक्रवर्ती महापुरुष होगा और उसकी पहचान यही होगी कि वह राक्षस के इन्द्र भीम के द्वारा दिये हुए दिव्य हार को जन्म लेते ही हाथ से उठा लेगा। भला क्या महामुनियों के वचन असत्य हो सकते हैं?’’
दशानन के बाद कितना ही समय बीत जाने पर रानी केकसी एक और पुत्ररत्न को जन्म देती है। उसका नाम भानुकर्ण रखा जाता है। उसके बाद एक पुत्री का जन्म होता है जिसको चन्द्रनखा नाम से सम्बोधित करते हैं। अनन्तर तीसरे पुत्र का जन्म होने पर उसका नाम विभीषण रखा जाता है।
तेजस्वी दशानन की बालक्रीड़ाएँ भी भयंकर रहती हैं, किन्तु दोनों छोटे भाईयों की बालक्रीड़ाएँ शत्रुओं को भी आनन्द पहँुचाने वाली होती हैं। भाईयों के बीच खेलती हुई चन्द्रनखा कन्या ऐसी सुशोभित होती है मानों दिन सूर्य और चन्द्र के बीच उत्तम कांति से युक्त संध्या ही हो।
किसी समय वैलाश पर्वत को उठाकर फैकने की चेष्टा करते समय उसके नीचे दबकर जोरों से रुदन करने से दशानन का नाम ‘रावण’ प्रसिद्ध हो जाता है। एक समय भानुकर्ण के श्वसुर के ग्राम कुम्भनगर में शत्रुओं का हमला हो जाने पर भानुकर्ण द्वारा रक्षा करने से उनका कुम्भकर्ण नाम भी प्रख्यात हो जाता है। ये कुम्भकर्ण बहुत ही सात्त्विक प्रकृति के महामानव थे। जिनपूजन और गुरूभक्ति प्रतिदिन करने का इनका नियम था, ऐसा पद्मपुराण (जैन रामायण) में माना गया है। बहन चन्द्रनखा खरदूषण विद्याधर की रानी हुई है। इनका दूसरा नाम सूर्पणखा भी लोक में प्रसिद्ध है।
यहाँ पर यह बात विशेष विचारणीय है कि माता-पिता पूर्ण धर्मनिष्ठ होते हुए भी यदि कदाचित् सन्तान में कोई दुव्र्यसन आ जाते हैं तो उसके लिए माता-पिता दोषी नहीं हैं प्रत्युत् उनकी सन्तान के पूर्वसंचित पाप-कर्मों का उदय ही कारण है। कभी-कभी माता-पिता की असुरक्षा, असावधानी भी सन्तान के बिगड़ने का कारण बन जाती है अत: सर्वथा एकान्त नहीं समझना चाहिये। प्रत्युत् माता-पिता का कत्र्तव्य है कि वे सन्तान को सुसंस्कारित करने का सत्प्रयत्न करते रहें, उन्हें कुसंगतियों से, गलत वातावरण से बचाते रहें।