सुधा-माताजी! मुझे आज आहारदान का महत्त्व बतलाइये।
आर्यिका-सुनो बेटी! मैं तुम्हें बहुत ही सुन्दर एक कथा सुनाती हूँ, जो कि धर्म मेें महान प्रेम और पाप से महान भय उत्पन्न कराने वाली है। श्री रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास में घूमते-घूमते किसी महावन में पहुँच गये। वहाँ लक्ष्मण ने नाना प्रकार की मिट्टी, बाँस तथा पत्तों से सब प्रकार के बर्तन तथा उपयोगी सामान शीघ्र ही तैयार किया था। इन सब बर्तनों में राजपुत्री सीता ने स्वादिष्ट तथा सुन्दर फल और वन के सुगंधित धान्य के भोजन बनाये। अतिथि प्रेक्षण के समय सीता ने सामने आते हुए सुगुप्ति और गुप्ति नाम के दो मुनिराजों को देखा, वे मति, श्रुत, अवधिज्ञान के धारी थे, आकाश में विहार करने वाले थे और एक मास के उपवासी थे। उस समय सीता ने हर्ष से रोमांचित हो रामचन्द्र से कहा कि हे देव! देखो, देखो, महातपस्वी दिगम्बर जैन मुनियों का युगल देखो। तत्क्षण ही रामचन्द्र श्रद्धा से विभोर हो आगे बढ़े, दोनों दम्पत्तियों ने उनके सन्मुख जाकर पड़गाहन करके विधिवत् नवधाभक्ति की और आहार देना प्रारंभ किया, वह आहार वन में उत्पन्न हुई गायों और भैंसों के ताजे मनोहर घी, दूध तथा उनसे निर्मित अन्य मावा आदि पदार्थों से बना हुआ था, खजूर, इंगुद, आम, नारियल, रसदार बेर तथा भिलावा आदि फलों से निर्मित था। इस प्रकार शास्त्रोक्त शुद्धि से सहित नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों से उन मुनियों ने आहार ग्रहण किया, उन मुनियों का चित्त भोजनसंंबंधी गृद्धता से रहित था। उत्तम पात्र, उत्तम दातार और उत्तम दान के प्रभाव से आकाश से देवों द्वारा पंचाश्चर्यवृष्टि होने लगी, दिव्यरत्न और पुष्प बरसने लगे। इधर मध्य में ही एक विचित्र घटना घटी। उसी आहार के समय महावृक्ष पर एक गृद्ध पक्षी बैठा हुआ था। अतिशयपूर्ण उन दोनों मुनिराजों को देखकर उसे अपने अनेकों भवों पूर्व का स्मरण हो गया। उसके पश्चात्ताप और शोक का ठिकाना नहीं रहा तथा मुनियों के दर्शन से अत्यधिक हर्ष को प्राप्त हुआ। वह पक्षी दोनों पंख फड़फड़ाकर वृक्ष के शिखर पर से नीचे आ गया, इधर सीता इस पक्षी को देखकर क्रोध से आकुलित चित्त होकर कठोर शब्दों में बोलने लगी कि हा मात:! यहाँ इस अत्यधिक कोलाहल से हाथी तथा सिंहादिक बड़े-बड़े जन्तु तो भाग गये पर यह दुष्ट नीच पक्षी क्यों नहीं भागा? इस पापी गृद्ध की धृष्टता तो देखो! इस प्रकार सीता ने यद्यपि प्रयत्नपूर्वक उस पक्षी को रोका था तथापि वह बड़े उत्साह से मुनिराज के चरणोदक को पीने लगा। उसके प्रभाव से उसका शरीर रत्नराशि के समान तेज से व्याप्त हो गया, उसके दोनों पंख सुवर्ण के हो गये, पैर नीलमणि के समान दिखने लगे, शरीर नाना रत्नों की कांति का धारक हो गया और चोंच मूँगा के समान दिखने लगी। वह पक्षी अपना ऐसा रूप देखकर हर्ष से गद्गद हो नृत्य करने लगा और मधुर शब्द करने लगा। उस समय जो आकाश से देवदुुंदुभि का शब्द हो रहा था, वही उसके नृत्य में सुन्दर ताल का काम दे रहा था।
दोनों मुनिराज विधिपूर्वक पारणा कर वैडूर्यमणि की शिला पर विराजमान हो गये। वह गृद्ध पक्षी भी दोनों मुनियों की प्रदक्षिणा देकर अपने पंख संकुचित कर तथा मुनिराज के चरणों में प्रणाम कर अंजली बांधकर सुख से बैठ गया। उस समय श्री रामचन्द्र ने उस गृद्धपक्षी के रूप को देखकर आश्चर्यान्वित हो गुरुदेव से प्रश्न किया कि हे भगवन्! यह पक्षी तो पहले अत्यन्त कुरुप था पर अब क्षणभर में सुवर्ण तथा रत्नराशि की कांति के समान कैसे हो गया? महा अपवित्र, मांसाहारी, दुष्ट हृदय का धारक आपके चरणों में बैठकर अत्यन्त शांत कैसे हो गया? सुगुप्ति मुनिराज बोले कि हे राजन्! पहले यहाँ नाना जनपदों से व्याप्त एक बहुत बड़ा देश था, इसी में एक ‘‘कर्णकुंडल’’ नाम का बहुत ही सुन्दर नगर था। इस नगर में महाप्रतापी ‘‘दंडक’’ नाम का राजा राज्य करता था। हे रघुनंदन! राजा की रानी परिव्राजकों की परमभक्ता थी और राजा दंडक रानी के वशीभूत होने से उसी धर्म का आश्रय लेता था। एक दिन राजा नगर के बाहर निकला और भुजा लटकाये हुए ध्यानमग्न दिगम्बर जैन मुनिराज को देखा। अकारण ही राजा ने मुनिराज के गले में एक मरा हुआ काला साँप डलवा दिया। जब तक इस साँप को कोई अलग नहीं करता है, तब तक मैं ध्यान नहीं छोड़ूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करके वे मुनि वहीं खड़े रहे।
तदनन्तर बहुत रात्रियाँ व्यतीत हो जाने के बाद कोई मनुष्य मुनिराज के गले से सर्प अलग कर रहा था। राजा दंडक भी अकस्मात् उसी मार्ग से निकले और पूछा कि यह क्या है? उसने कहा-राजन्! नरक की खोज करने वाले किसी ने यह सर्प मुनिराज के गले में डाला है। उस साँप के निमित्त से मुनिराज का शरीर काला और अत्यन्त भयंकर हो गया था। मुनि द्वारा कुछ भी प्रतीकार नहीं देख मुनि के शान्त परिणाम से प्रभावित हो राजा ने उन्हें प्रणाम कर क्षमा माँगी और उसी समय से वह दिगम्बर मुनियों का भक्त बन गया। इधर रानी के साथ गुप्त समागम करने वाले परिव्राजकों के अधिपति ने जब राजा के इस परिवर्तन को जाना, तब क्रोध से युक्त हो जीवन का स्नेह छोड़कर निर्ग्रन्थ मुनि का रूप धर रानी के साथ संपर्क किया। राजा को इस बात का पता चलते ही वह अत्यन्त कुपित हुआ और पहले जो दिगम्बरों की निन्दा सुनता रहता था, वह इसकी स्मृति में झूलने लगा। उसी समय धर्मद्वेषी लोगों से भी प्रेरित हुए राजा ने सेवकों से कहा कि समस्त दिगम्बर मुनियों को घानी में पेल दो। जिसके फलस्वरूप आचार्यों के साथ-साथ समस्त मुनि संघ घानी में पेल डाला गया और मृत्यु को प्राप्त हो गया। उस समय एक मुनि कहीं बाहर गये थे, जो वापस आ रहे थे, उन्हीं किसी दयालु मनुष्य ने यह कहकर रोका कि हे मुनिराज! तुम इस समय इस नगरी में मत जावो, अन्यथा घानी में पेल दिये जावोगे। राजा ने समस्त मुनियों को घानी में पिलवा दिया है।
यह सुनते ही वे मुनि समस्त संघ की मृत्यु से क्षणभर के लिए स्तम्भवत् निश्चल रह गये, उनकी चेतना अव्यक्त हो गई, अर्थात् मृतकवत् स्तब्ध रह गये। अनन्तर उस निग्र्र्रन्थ मुनिरूपी पर्वत की शान्तिरूपी गुफा से सैकड़ों दु:खों से पे्रेरित हुआ, क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला। क्रोध से सन्तप्त मुनिराज के मुख से ‘हा’ शब्द निकला पुन: धुआँ के साथ ऐसी भयंकर अग्नि निकली, जिसने र्इंधन के बिना ही समस्त आकाश को देदीप्यमान कर दिया। चारों तरफ से हाहाकार मच गया, यह लोक क्या उल्काओं से व्याप्त हो गया है, या ज्योतिष्क देव नीचे गिर रहे हैं? या महाप्रलय काल आ पहुँचा है? या अग्निदेव कुपित हो गये हैं? हाय माता! यह क्या है? यह ताप अत्यन्त दु:सह है ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी संडासियों से नेत्र उखाड़े जा रहे हैं। इस प्रकार अत्यन्त भयंकर हाहाकार से जब तक लोक गूँजता है, तब तक उस अग्नि ने समस्त देश को भस्म कर दिया। उस समय न अन्त:पुर, न देश, न नगर, न पर्वत, न नदियाँ, न जंगल और न प्राणी ही शेष रह गये। महान् संवेग से युक्त मुनिराज ने जो चिरकाल तक तप संचय किया था, वह सब क्रोधाग्नि में भस्म हो गया फिर दूसरी वस्तुएँ तो बचती ही कैसे? यह वन वही दण्डक देश था और राजा का नाम भी दण्डक नाम से प्रसिद्ध था। बहुत समय बीत जाने के बाद यहाँ की भूमि में ये वृक्ष, पर्वत और नदियाँ दिखाई देने लगे हैं। आज भी इस वन के प्रचण्ड दावानल का शब्द सुनकर मनुष्य पिछली घटना का स्मरण कर काँपने लगते हैं। वही राजा दण्डक बहुत समय तक संसार में भ्रमण कर अब गृद्ध पर्याय को प्राप्त हुआ है। इस समय अतिशय युक्त हम दोनों को देखकर उसकी पापकर्म की मन्दता हो जाने से उसे जातिस्मरण हो गया है। दूसरे का उदाहरण भी शान्ति का कारण हो जाता है फिर यदि अपनी ही खोटी बात और उसका खोटा फल स्मरण में आ जावे तो कहना ही क्या है?
राम से इतना कहकर मुनिराज ने गृद्ध पक्षी को खूब सान्त्वना दी और सम्यग्दर्शन के साथ-साथ पंच अणुव्रत देकर उसे जैन बना दिया। मुनि बोले-देखो, पक्षिराज! यह महावन कहाँ? और सीता सहित राम कहाँ? हमारा पड़गाहन कहाँ? और तुम्हारा प्रबुद्ध होना कहाँ? कर्मों की विचित्रता के कारण यह संसार अत्यन्त विचित्र है। विनीत आत्मा का धारक यह श्रावक हम लोगों का विनोद करने वाला हो गया। ऐसा कहकर मन्दहास्य करती हुई सीता ने बार-बार उसे अपने कोमल हाथों से स्पर्श किया। मुनियों ने भी इन लोगों से कहा कि अब आप लोगों को वन में इसकी रक्षा करना उचित है, यह शान्तचित्त पक्षी बेचारा कहाँ जाएगा? गुरु की आज्ञा से सीता ने उसके पालन का भार अपने ऊपर ले लिया। रत्नत्रय की प्राप्ति से हर्षित हुआ वह पक्षी राम और सीता के बिना कहीं नहीं जाता था। अणुव्रत आश्रम में स्थित सीता भी उसे बार-बार मुनियों का उपदेश स्मरण कराती रहती थी और धर्म की शिक्षाएँ दिया करती थीं। कभी-कभी तो सीता वीणा लेकर जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन करती थी, तब वह पक्षी नृत्य किया करता था, सीता भी उसे ताल दे-देकर नचाया करती थी और उसका नाम जटायु रख दिया था क्योंकि उसके शिर पर रत्ननिर्मित जटाएँ शोभायमान थीं, अत: सार्थक नाम रखा था। वह जटायु तीनों संध्याओं में सीता के साथ अर्हन्त, सिद्ध और साधुओं को नमस्कार करता था। सीता सदा ही धर्मप्रेम से उसे स्वादिष्ट फलों को खिलाया करती थी। वह सदैव ही जिनेन्द्र भगवान को अपने हृदय में धारण करता हुआ, रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण के पास क्रीड़ा करता था। सुधा-माताजी! इस कथा से आहारदान के उत्तम फल के बोध के साथ-साथ हमें यह भी मालूम हो गया कि मुनियों का चरणोदक भी कितना पूज्य, पवित्र और महत्वशाली है। वे धन्य हैं जिन्हें मुनियों और आर्यिकाओं के चरणोदक को मस्तक में लगाने का सुअवसर प्राप्त होता है। आर्यिका-हाँ बेटी! रत्नत्रय से पवित्र साधुओं के चरणोदक और चरणरज को मस्तक पर चढ़ाकर अपना जीवन पवित्र करना चाहिए।