‘तीर्थ’ शब्द की व्याख्या करते हुए जैनाचार्यों ने लिखा है—
‘‘तीर्यते संसार सागरो येनासौ तीर्थ:’’
अर्थात् जिसके द्वारा संसाररूपी महासमुद्र को तिरा जावे—पार किया जावे उसे तीर्थ कहा जाता है। उस तीर्थ के प्रथमत: दो भेद किये हैं — भावतीर्थ और द्रव्यतीर्थ। आत्मा के परमशुद्ध परिणाम को भावतीर्थ कहते हैं क्योंकि शुद्ध भावों से ही जीव परमात्मपद को प्राप्त करता है।
महापुरुषों की चरणरज से पवित्र भूमियाँ द्रव्यतीर्थ के रूप में मानी जाती हैंं इनकी यात्रा को समाप्त करने की भावना भाते हैं। मैंने एक गीत में तीर्थयात्रा का फल संजोया है—
तर्ज—जरा सामने तो………………………….
तीर्थयात्रा का पुण्य विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।टेक।।
कोई गंगा को तीरथ कह, उसमें डुबकी लगाते हैं।
कोई संगम तट पर जाकर, निज को शुद्ध बनाते हैं।।
सच्चे तीरथ की कीरत विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।।१।।
सत्य अहिंसा करुणा की, नदियाँ जहां कल कल बहती हैं।
उनमें पापों की क्षालन को, जनता आतुर रहती है।।
वही तीरथ अलौकिक विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।२।।
कहीं किसी पर्वत पर जाकर, महामुनी तप करते हैं।
वृक्षों के नीचे भी तपकर, केवलज्ञानी बनते हैं।
वे ही तीरथ कहाते विशाल हैं, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्म बनेगी परमात्मा भवसागर से होकर पार हैं।।३।।
ये सब द्रव्य तीर्थ हैं चेतन भाव तीर्थ कहलाता है।
चलते फिरते तीर्थ साधुगण जिनका मोक्ष से नामा है।।
‘‘चंदनामति’’ ये तीरथ विशाल है, इसकी दूजी न कोई मिशाल है।
इससे आत्मा बनेगी परमात्मा, भवसागर से होकर पार है।।४।।
इस प्रकार से तीर्थों की महिमा को बतलाते जो पुण्यस्थल हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं। उन तीर्थों को तीन भागों में विभक्त किया गया है—
१. तीर्थक्षेत्र, २. सिद्धक्षेत्र, ३. अतिशयक्षेत्र।
तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ—जन्म—दीक्षा—केवलज्ञान कल्याणकों से पवित्र स्थल वास्तविक तीर्थक्षेत्र की श्रेणी में आते हैं तथा अन्य महापुरुषों के भी जन्म अथवा दीक्षा आदि से पावन भूमि को भी तीर्थ की संज्ञा प्राप्त हो जाती है।
जैसे—अयोध्या, पावापुर, गिरनार, सोनागिरि, मांगीतुंगी, कुंथलगिरि आदि। जहाँ से तीर्थंकर भगवान अथवा कोई महामुनि आदि मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं वे स्थान सिद्धक्षेत्र कहे जाते हैं।
जैसे—सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, सोनागिरि, मांगीतुंगी, गजपंथा इत्यादि। जिस ग्राम, नगर या स्थान पर भूगर्भ से प्राचीन प्रतिमाएँ निकलती हैं अथवा वहाँ कोई चमत्कार उत्पन्न हो जाता है उन्हें अतिशयक्षेत्र के रूप में माना जाता है।
जैसे—श्री महावीरजी, तिजाराजी, चमत्कारजी, चांदखेड़ी आदि। इस प्रकार के तीर्थक्षेत्र, सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र वर्तमान में भारत की धरती पर सैकड़ों की संख्या में हैं। उनमें से अयोध्या और सम्मेदशिखरजी ये दो तीर्थ शाश्वततीर्थ के रूप में जैन आगम ग्रंथों में माने गये हैं क्योंकि अनादिकाल से हमेशा इस धरती पर चतुर्थकाल में होने वाले २४—२४ तीर्थंकर अयोध्या में ही जन्में हैं और आगे अनन्तकाल तक अयोध्या में ही जन्मेंगे।
इसी प्रकार से सभी तीर्थंकरों ने सम्मेदशिखर पर्वत से ही निर्वाणधाम को प्राप्त किया है और आगे भी वहीं से निर्वाण प्राप्त करेंगे। वर्तमान युग में भी सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की वन्दना का महत्व जैन समाज में अत्यधिक माना जाता है। परन्तु यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि वर्तमान युग हुण्डावर्सिपणी काल के नाम से जाना जाता है। यह असंख्यातों कल्पकालों के बाद एक बार आता है और इसमें कई प्रकार के अनहोने कार्य होते हैं। जैसे—
१. हमेशा तो चतुर्थकाल में तीर्थंकर जन्म लेते थे किन्तु इसबार तीसरे काल में ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) का जन्म हो गया और तृतीयकाल के अन्त में ही उनका निर्वाण भी हो गया। पुन: चतुर्थ काल में भगवान अजितनाथ से महावीर तक २३ तीर्थंकर हुए।
२. चौबीस तीर्थंकर में से पाँच तीर्थंकर (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ) भगवान ही अयोध्या में जन्में हैं तथा अन्य १९ तीर्थंकरों ने अन्यत्र स्थानों पर जन्म ले लिया इसलिए वर्तमान में २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियाँ हैं।
३. इसी प्रकार शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र से वर्तमान चौबीसी के २० तीर्थंकर भगवान मोक्ष गये हैं, शेष ४ तीर्थंकर कैलाशपर्वत, चम्पापुर, गिरनार और पावापुर से मोक्ष चले गये इसलिए आज २४ भगवान की ५ निर्वाणभूमियाँ मानी जाती हैं।
४. प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के १०१ पुत्रों में से भरत प्रथम चक्रवर्ती बने, बाहुबली प्रथम कामदेव बने, वृषभसेन प्रथम गणधर मुनिराज बने, अनंतवीर्य मोक्षगामी हुए, ब्राह्मी—सुन्दरी कन्याएँ प्रथम आर्यिका बनीं। किन्तु बाहुबली के द्वारा चक्रवर्ती भरत का पराभव—अपमान हुआ, यह हुण्डावर्सािपणी काल का दोष समझना चाहिए।
इसी प्रकार के कुछ दोष इस युग में उत्पन्न हो गये हैं, फिर भी अनेकानेक धर्मतीर्थों एवं धर्मगुरुओं के कारण जिनधर्म की प्रभावना आज भी निर्बाध रूप से हो रही है और आगे पंचमकाल के अन्त तक होती रहेगी। तीन प्रकार के भेदों में विभक्त तीर्थ वर्तमान में लगभग ३५० की संख्या में पाये जा रहे हैं। इन्दौर से प्रकाशित ‘‘तीर्थक्षेत्र निर्देशिका’’ पुस्तक में लगभग इन सभी तीर्थों के पते और फोन नं. उपलब्ध हो जाते हैं अत: तीर्थयात्रियों को काफी सुविधा हो जाती है।
दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार जिनमंदिर और मूर्तियों के निर्माण की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है क्योंकि जब—जब तीर्थंकर भगवन्तों के जन्म होने से पूर्व स्वर्ग से इन्द्र धरती पर आते थे तब वे अयोध्या नगरी में सर्वप्रथम चारों दिशाओं में और नगर के मध्यभाग में इस प्रकार पाँच जिनालयों की स्थापना करके ही महल की रचना करते थे एवं उसमें होने वाले तीर्थंकर के माता—पिता का मंगल प्रवेश कराते थे तथा समय—समय पर आकर तीर्थंकर के कल्याणक मनाना, रत्नवृष्टि करना आदि अपने कर्तव्य की पूर्ति करते थे।
श्रीजिनसेनाचार्य रचित महापुराण के अन्तर्गत आदिपुराण में भी वर्णन आया है— इन्द्र ने अयोध्या का निर्माण करते समय नगर की चारों दिशाओं में और नगर के मध्य में पाँच देवालयों या जिनायतनों की रचना करके जिनायतनों का निर्माण करने और उसमें मूर्तिस्थापना करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। एक बार जब सम्राट भरत कैलाशगिरि पर भगवान ऋषभदेव के दर्शन करके अयोध्या लौटे तो उनका मन भगवान की भक्ति से ओतप्रोत था। उन्होंने भगवान के दर्शन की उस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए कैलाश शिखर के आकार के घण्टे बनवाये और उन पर भगवान ऋषभदेव की मूर्तिका अंकन कराया।
ये घण्टे नगर के चतुष्पथों, गोपुरों राजप्रासाद के द्वारों और ड्यौढ़ियों में लटकवाये। कैलाशगिरि पर ७२ जिनायतनों का निर्माण किन्तु इतने से सम्राट भरत के मन को सन्तुष्टि नहीं हुई। इससे भगवान की पूजा का उनका उद्देश्य पूरा नहीं होता था। तब उन्होंने इन्द्र द्वारा बनाये गये जिनायतनों से प्रेरणा प्राप्त करके कैलाशगिरि पर ७२ जिनायतनों का निर्माण कराया और उनमें अनघ्र्य रत्नों की प्रतिमायें विराजमान करार्इं अत: साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर यह स्वीकार करना असंगत न होगा कि नागरिक सभ्यता के विकास काल की उषा—वेला में ही मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था।
पौराणिक जैन साहित्य में मन्दिरों और मूर्तियों के उल्लेख विभिन्न स्थलों पर प्रचुरता से प्राप्त होते हैं। सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनाये हुए इन मन्दिरों की रक्षा के लिए भारी उद्योग किया था और उनके चारों ओर परिखा खोदकर भागीरथी के जल से उसे पूर्ण कर दिया था। लंकाधिपति रावण इन मन्दिरों के दर्शनों के लिए कई बार आया था। लंका में एक शान्तिनाथ जिनालय था, जिसमें रावण पूजन किया करता था और लंका विजय के पश्चात् रामचन्द्र, लक्ष्मण आदि ने भी उसके दर्शन किये थे।
पं. श्री बलभद्र जी ने ‘‘जैनधर्म का प्राचीन इतिहास’’ (भाग १) में उल्लेख किया है कि— मंदिर निर्माण साहित्य में ईसा पूर्व ६०० से पहले के मन्दिरों के उल्लेख मिलते हैं। भगवान पार्श्वनाथ के काल में किसी कुवेरा देवी ने एक मन्दिर बनवाया था, जो बाद में देवर्निमित बौद्ध स्तूप कहा जाने लगा। यह सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के काल में सोने का बना था। जब लोग इसका सोना निकालकर ले जाने लगे, तब कुवेरा देवी ने इसे प्रस्तर खण्डों और ईटो से समन्वित दिया। (विविध तीर्थ कल्प—मथुरापुरी कल्प)।
स्थापना की इस अनुपम कलाकृति का उल्लेख कंकाली टीला (मथुरा) से प्राप्त भगवान मुनिसुव्रत की द्वितीय सदी की प्रतिमा की चरण—चौकी पर अंकित मिलता है। भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् दन्तिपुर (उड़ीसा) नरेश करकण्डु ने तेरापुर गुफाओं में गुहा–मन्दिर (लयण) बनवाये और उनमें पार्श्वनाथ की पाषाण प्रतिमा विराजमान कराई। ये लयण और प्रतिमा अब तक विद्यमान हैं।
‘करकण्डु चरिउ’ आदि ग्रंथों के अनुसार तो ये लयण और पार्श्वनाथ—प्रतिमा करकण्डु नरेश से भी पूर्ववर्ती थे। पुरातत्त्ववेत्ताओं के मत में लोहानीपुर (पटना का एक मुहल्ला) में नाला खोदते समय जो तीर्थंकर प्रतिमा उपलब्ध हुई हैं, वह भारत की मूर्तियों में प्राचीनतम हैं।
यह आजकल पटना म्यूजियम में सुरक्षित हैं। इसका सिर नहीं है। कुहनियों और घुटनों से भी खण्डित है किन्तु कन्धों और बाहों की मुद्रा से यह खड्गासन सिद्ध होती है तथा इसकी चमकीली पालिश से इसे मौर्यकाल (३२०-१८५ ई. पू.) की माना गया है। हड़प्पा में जो खण्डित जिनप्रतिमा मिली है उससे लोहानीपुर की इस जिनप्रतिमा में एक अद्भुत सादृश्य परिलक्षित होता है और इसी सादृश्य के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय मूर्ति—कला का इतिहास वर्तमान मान्यता से कहीं अधिक प्राचीन है।
इससे यह भी निष्कर्ष निकाला गया है कि देव मूर्तियों के निर्माण का प्रारम्भ जैनों ने किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण करके र्धािमक जगत को एक आदर्श प्रस्तुत किया। एक अन्य मूर्तिके सम्बन्ध में उदयगिरि की हाथीगुफा में एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख के अनुसार किंलग नरेश खारवेल मगध नरेश वहसतिमित्र को परास्त करके छत्र—भृगांरादि के साथ किंलग जिन ऋषभदेव की मूर्तिवापिस किंलग लाये थे जिसे नन्द सम्राट किंलग से पाटलिपुत्र ले गये थे।
सम्राट् खारवेल ने इस प्राचीन मूर्तिको कुमारी पर्वत पर अर्हत्प्रासाद बनवाकर विराजमान किया था। इस ऐतिहासिक शिलालेख की इस सूचना को अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। इसके अनुसार मौर्य काल से पूर्व में भी एक मूर्तिथी, जिसे ‘किंलगजिन’ कहा जाता था। मन्दिरों का निर्माण कब प्रारम्भ हुआ मन्दिरों का निर्माण कब प्रारम्भ हुआ, इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं।
पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार जैन मन्दिरों का निर्माणकाल जैन प्रतिमाओं के निर्माणकाल से प्राचीन प्रतीत नहीं होता। लोहानीपुर, श्रावस्ती, मथुरा आदि में जैन मन्दिरों के अवशेष उपलब्ध हुए हैं किन्तु अब तक सम्पूर्ण मन्दिर कहीं पर भी मिला इसलिये प्राचीन जैन मन्दिरों का रूप क्या था, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। किन्तु गुहा—मन्दिर और लयण ईसा पूर्व सातवीं–आठवीं शताब्दी तक के मिलते हैं। तेरापुर के लयण, उदयगिरि—खण्डगिरि के गुहामन्दिर, अजन्ता–एलोरा और बादामी की गुफाओं में उत्कीर्ण जैन र्मूितयाँ इस बात के प्रमाण हैं कि गुफाओं को मन्दिरों का रूप प्रदान कर उनका र्धािमक उपयोग ईसा पूर्व से होने लगा था। इन गुहामन्दिरों का विकास भी हुआ।
विकास का यह रूप मात्र इतना ही था कि कहीं—कहीं गुफाओं में भित्ति—चित्रों का अंकन किया गया। ऐसे कलापूर्ण भित्ति चित्र सित्तन्नवासन आदि गुफाओं में अब भी मिलते हैं। गुहा मन्दिरों का सामान्य मन्दिरों की अपेक्षा स्थायित्व अधिक रहा इसीलिये हम देखते हैं कि ईसा पूर्व का कोई मन्दिर आज विद्यमान नहीं है, जबकि गुहा मन्दिर अब भी मिलते हैं।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्यिक साक्ष्य के अनुसार कर्मभूमि के प्रारम्भिक काल में इन्द्र ने अयोध्या में पाँच मन्दिरों का निर्माण किया, भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय बनवाये। शत्रुघ्न ने मथुरा में अनेक जिनमन्दिरों का निर्माण कराया। जैन मान्यतानुसार तो तीन लोकों की रचना में कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयों का पूजा–विधान जैन परम्परा में अब तक सुरक्षित है। इसलिये यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में जिन चैत्यालयों की कल्पना बहुत प्राचीन है।
विधान कैसा था, इसमें अवश्य मतभेद दृष्टिगोचर होता है। लगता है, प्रारम्भ में मन्दिर सादे बनाये जाते थे। उन पर शिखर का विधान पाश्चात्यकाल में विकसित हुआ। शिखर सुमेरु और कैलाश के अनुकरण पर बने। अनेक प्राचीन सिक्कों पर मन्दिरों का प्रारम्भिक रूप माना है। ई. पू. द्वितीय और प्रथम शताब्दी के मथुरा—जिनालयों में दो विशेषताएँ दिखाई देती हैं—प्रथम वेदिका और द्वितीय शिखर।
इस सम्बन्ध में प्रो. कृष्णदत्त वाजपेयी का अभिमत है कि मन्दिर के चारों और वृक्षों की वेष्टनी बनाई जाती थी। इसे ही वेदिका कहा जाता था। बाद में यह वेष्टनी प्रस्तरर्नििमत होने लगी। मौर्य और शुंग काल में जैन मन्दिरों का निर्माण अच्छी संख्या में होने लगा था। उस समय ऊँचे स्थान पर स्तम्भों के ऊपर छत बनाकर मन्दिर बनाये जाते थे। छत गोलाकार होती थी, पश्चात् अण्डाकार बनने लगी।
शक—सातवाहन—काल (ई. पू. १०० से २०० ई.) में मन्दिरों का निर्माण और अधिक संख्या में होने लगा। इस काल में जैन मन्दिरों, उनके स्तम्भों और ध्वजाओं पर तीर्थंकर की मूर्तिबनाई जाने लगी। इस काल में प्रदक्षिणा—पथ भी बनने लगे जो प्राय: काष्ठ की वेष्टनी से बनाये जाते थे। कुषाण काल में ये पाषाण के बनने लगे। कुषाण काल में जैनमन्दिर कुषाण काल में जैनमन्दिर और भी अधिक बनने लगे। इस काल में मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, कम्पिला और हस्तिनापुर प्रमुख जैन केन्द्र थे।
गुप्तकाल (ई. चौथी से छठी शताब्दी) में मन्दिरों का निर्माण प्रचुरता से होने लगा। सौन्दर्य और मन्दिरों के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया। इस काल में स्तम्भों को पत्रावली और मांगलिक चिन्हों से अलंकृत किया जाने लगा। तोरण और सिरदल के ऊपर तीर्थंकर मूर्ति बनाई जाने लगी। गर्भगृह के ऊपर शिखर बनने लगा। बाहर स्तम्भों पर आधारित मण्डप की रचना होने लगी।
बाह्य भित्तियों पर मूर्तियों का अंकन होने लगा। ईस्वी सन् ६०० के बाद उत्तर भारत में ‘नागर शैली’ और दक्षिण भारत में ‘द्रविड़ शैली’ का विशेष रूप से विकास हुआ। शिखर के अलंकरण की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। इस प्रकार विभिन्न कालों में मन्दिरों के रूप और कला में विभिन्न परिवर्तन होते रहे। कला एकरूप होकर कभी स्थिर नहीं रही। समय के प्रभाव से वह अपने आपको मुक्त भी नहीं कर सकी।
एक समय था, जब तीर्थंकर प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्य युक्त बनाई जाती थी किन्तु आज तो तीर्थंकरों के साथ अष्ट प्रातिहार्य का प्रचलन ही समाप्त सा हो गया है, जबकि शास्त्रीय दृष्टि से यह आवश्यक है। यह प्रकरण इसलिये दिया गया है, जिससे विभिन्न शैलियों के प्राचीन मन्दिरों के काल—निर्णय करने में पाठकों को मार्गदर्शक तत्त्वों की जानकारी हो सके। तीर्थंकर चौबीस हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का एक चिन्ह है, जिसे लांछन कहा जाता है।
तीर्थंकर र्मूितयाँ प्राय: समान होती हैं। केवल ऋषभदेव की कुछ मूर्तियों के सिर पर जटायें पाई जाती हैं तथा पार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर सर्प का फण होता है। सुपार्श्वनाथ की कुछ मूर्तियों के सिर के ऊपर भी सर्प के फण मिलते हैं। पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ के सर्प—फणों में साधारण सा अन्तर मिलता है। सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर पाँच फण होते हैं और पार्श्वनाथ की मूर्तियों के सिर के ऊपर सात, नौ, ग्यारह अथवा सहस्र सर्प फण पाये जाते हैं। इन तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष तीर्थंकरों की मूर्तियों में कोई अन्तर नहीं होता।
उनकी पहचान चरण—चौकी पर अंकित उनके चिन्हों से ही होती है। चिन्ह न हो तो दर्शक को पहचानने में बड़ा भ्रम हो जाता है। कभी—कभी तो लांछनरहित मूर्तिको साधारण जन चतुर्थकाल की मान बैठते हैं, जबकि वस्तुत: श्रीवत्स लांछन और अष्ट प्रातिहार्य से रहित मूर्तिसिद्धों की कही जाती है इसलिये मूर्तिके द्वारा तीर्थंकर की पहचान करने का एकमात्र साधन तीर्थंकर—प्रतिमा की चरण—चौकी पर अंकित उसका चिन्ह ही है इसलिये तीर्थंकर मूर्तिविज्ञान में चिन्ह या लांछन का अपना विशेष महत्व है। इन चौबीस तीर्थंकरों के चिन्ह निम्न प्रकार हैं—
ऋषभदेव का वृषभ | अजितनाथ का हाथी | संभवनाथ का अश्व |
अभिनन्दननाथ का बन्दर | सुमतिनाथ का चक्रवाक पक्षी | पद्मप्रभु का कमल |
सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक | चन्द्रप्रभ का अर्धचन्द्र | पुष्पदन्त का मगर |
शीतलनाथ का श्रीवृक्ष | श्रेयांसनाथ का गेंडा | वासुपूज्य का महिष |
विमलनाथ का शूकर | अनन्तनाथ का सेही | धर्मनाथ का वङ्कादण्ड |
शान्तिनाथ का हिरण | कुंथुनाथ का बकरा | अरनाथ का मछली |
मल्लिनाथ का कलश | मुनिसुव्रतनाथ का कछुआ | नमिनाथ का नीलकमल |
नेमिनाथ का शंख | पार्श्वनाथ का सर्प | महावीर का सिंह लांछन था। |
यहाँ पर यह थोड़ा सा प्राचीन परिचय जिनमंदिर और मूर्तियों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रदान किया गया है। वर्तमान में भी पूरे देश के अन्दर अतिशय सुन्दर शिल्पकलायुक्त मंदिरों के निर्माण हो रहे हैं और जिनमूर्तियों का शिल्प भी अब पूर्व काल की अपेक्षा काफी अच्छे रूप में निखर कर आया है। मूर्तिनिर्माण के संदर्भ में जयपुर की मूलचन्द रामचन्द्र नाठा फर्म भी अति प्रसिद्ध हुई है।
इनके द्वारा बड़ी—बड़ी प्रतिमाएँ निर्मित करवाकर अनेक स्थान पर विराजमान की गई हैं। उनमें से हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में सूरजनारायण नाठा की देखरेख में एक इंच की अष्ट धातु प्रतिमा से लेकर (तेरहद्वीप एवं तीनलोक रचना में विराजमान) ३१—३१ फुट उत्तुंग (भगवान शांतिनाथ—कुंथुनाथ—अरनाथ की) खड़गासन प्रतिमाएँ विशेष दर्शनीय हैं।
अकृत्रिम जिनमंदिरों की गणना जो तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में कही है वह तीनों लोकों की अपेक्षा आठ करोड़ छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी (८,५७,९७,४८१) है तथा उन सबमें १०८—१०८ प्रतिमाएँ विराजमान रहती हैं अत: सब मिलाकर कुल नौ सौ पच्चीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार नौ सौ अड़तालिस (९२५ ५३, २७, ९४८) प्रतिमाओं की संख्या मानी है।
इसके अलावा भावन—व्यंतर और ज्योतिर्वासी देवों के भवनों की अपेक्षा असंख्यातों जिनमंदिर तथा असंख्यातों जिनप्रतिमाएँ जानना चाहिए। वर्तमान में हम सभी को इन अकृत्रिम मंदिरों के दर्शन उपलब्ध नहीं हैं किन्तु कृत्रिम मंदिर बनाने की परम्परा भी जो प्राचीनकाल से धरती पर चली आ रही है उन्हीं के विषय में यहाँ आप सभी को जानना है। भारतदेश की सीमा जो आज उपलब्ध हो रही है उसमें विभिन्न प्रदेशों के अन्दर दिगम्बर जैन तीर्थों की संख्या लगभग ३०० है और दिगम्बर जैन मंदिर लगभग १२००० की संख्या में हैं। पदमपुराण (जैनरामायण) में श्री रविषेणाचार्य ने ३२ वें पर्व में कहा है—
भवनं यस्तु जैनेन्द्रं, निर्मापयति मानव:।
तस्य भागोत्सव: शक्य: केन वक्तुं सुचेतस:।।१७२।।
प्रतिमां यो जिनेन्द्राणां, कारयत्यचिरादसौ।
सुरासुरोत्तमसुखं, प्राप्य याति परं पद्म।।१७३।।
व्रतज्ञान तपोदानैर्यान्युपात्तानि देहिन:।
सर्वैस्त्रिष्वपिकालेषु, पुण्यानि भुवनत्रये।।१७४।।
एकस्मादपि जैनेन्द्र बिम्बान् भावेन कारितान्।
यत्पुण्यं जायते तस्य न संमान्त्यतिमात्रत:।।१७५।।
अर्थ—जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाता है उस शुद्ध चित्त वाले मनुष्य के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है अर्थात् उसको संसार के इतने भोगोपभोग के साधन प्राप्त होते हैं जिनका वर्णन करना भी अशक्य है।।१७२।।
जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परमपद को प्राप्त होता है अर्थात् वह कुछ भवों में ही मोक्षसुख को प्राप्त कर लेता है।।१७३।।
तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत—ज्ञान—तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक जिनेन्द्र प्रतिमा बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं।।१७४-१७५।।
इसी प्रकार से आचार्य श्रीवसुनंदि स्वामी (बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं) ने अपने श्रावकाचार ग्रंथ में कहा है—
कुत्थुंभरिदलमत्तं जिनणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं।
सरिसवमेत्तं पि लहेइ सो णरो तित्थयरणुण्णं।।४८१।।
जो पुण जिणिंदभवणं समुणणयं परिहि—तोरणसमग्गं।
णिम्मावइ तस्स फलं को सक्कइ वणिणउं सयलं।।४८२।।
अर्थ—जो मनुष्य कुंथुम्भरी (धनिया) के दलमात्र अर्थात् पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बराबर भी जिनप्रतिमा की स्थापन करता है, वह तीर्थंकर पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है, तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्रभवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है।।४८१—४८२।।
आप सभी पाठकों एवं श्रद्धालु भक्तों के लिए यह मंगल प्रेरणा है कि उपलब्ध तीर्थ एवं मंदिरों के दर्शन करके असीम पुण्य का संचय करें तथा मंदिर—मूर्तियों के निर्माण में उनके जीर्णोद्धार विकास में अपने तन, मन, धन का सदुपयोग करें एवं जैन संस्कृति की सुरक्षा में अपना योगदान देकर कर्तव्य का पालन करें।