श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
महाभारत
अर्थात् धर्म के सार को सुनो और सुनकर धारण (ग्रहण) करो। अपने से प्रतिकूल आचरण (व्यवहार) दूसरों के साथ भी नहीं करना चाहिए। श्रावक इस कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करता है। वह धर्म को सुनता है, हित—अहित रूप विवेक से युक्त होता है और क्रियाओं में पाप से विरत होता है। श्रावक का जीवन जीने वाला स्वयं का उपकार करता है और राष्ट्र का भी हित साधन करता है। जिनेन्द्र भगवान की वाणी पर अमल करते हुए चलने वाला श्रावक अपने चरित्र और सत्कार्यो से राष्ट्र को उन्नत बनाता है। ‘दर्शनप्राभृत’ में कहा है कि—‘‘जिणवयण मोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमियभूयं।
जरामरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं।।’’
दर्शन प्राभृत
अर्थात् जिन भगवान् की वाणी परमौषधिरूप है। यह विनय सुख का त्याग कराती है। यह अमृत रूप है। जरा—मरण व्याधि को दूर करती है तथा सर्व दुखों का क्षय करती है। इसीलिए पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि—‘‘आत्मा प्रभावनीय: रत्नत्रयतेजसा सततमेव।’’
दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्म:।।
आचार्य अमृतचन्द्र: पुरुषार्थसिद्धयुपाय—३०
अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चरित्र रूप रत्नत्रय के तेज द्वारा अपनी आत्मा को प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेव की पूजा एवं विद्या की लोकोत्तरता के द्वारा जिनशासन के प्रभाव को जगत् में फैलावे। जैन श्रावक मात्र जीता नहीं है। बल्कि आदर्श को सामने रखकर, आदर्शों का अनुकरण करते हुए आदर्श जीवन जीता है। आदर्श जीवन वह है जिसमें अधिकारों की अपेक्षा नहीं और कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं हो। वह स्वयं संत नहीं है, किन्तु संतभाव उसमें समाया होता है। वह संत समागम के लिए सदैव लालायित रहता है। सत्संगति में चित्त को लगाता है। सत्संगति के लाभ के विषय में कहा गया है कि—हंति ध्वान्तं हरयति रज: सत्त्तवमाविष्करोति, प्रज्ञां सूते वितरति सुखं न्यायवृत्तिं तनोति।
धर्मे बुद्धिं रचयतितरां पापबुद्धिं धुनीते, पुंसां नो वा किमिह कुरुते संगति: सज्जनानाम्।।
आचार्य अमितगति:
संत समागम के द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, रजोभाव दूर होता है, सात्त्विक वृत्ति का आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्यायवृत्ति उत्पन्न होती है, धर्म में चित्त लगता है तथा पापबुद्धि दूर होती है अत: साधुजन की संगति द्वारा क्या नहीं मिल सकता ? नीति भी कहती है कि—संत समागम हरिभजन, तुलसी दुर्लभ दोय।
सुत, दारा और लक्ष्मी, पापी के भी होय।।
किसी भी राष्ट्र का कल्याण उसके निवासियों के उन्नत चारित्र से ही हो सकता है। जैन श्रावक चारित्रवान् होता है। वह हीन आचरण को पापार्जन का कारण मानकर छोड़ देता है। राष्ट्र की आत्मा सह—अस्तित्व की भावना से बसती है। जहाँ वेदों में—‘‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’’ कहा गया वहीं जैन ग्रंथों में ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’आचार्य उमास्वामी: तत्त्वार्थसूत्र ५/२१ अर्थात् परस्पर उपकार करना जीव का स्वभाव है; कहकर सह—अस्तित्त्व की भावना सुनिश्चित कर दी। भगवान महावीर ने कहा कि जैन श्रावक स्थूल—हिसा का त्यागी होगा, अिंहसाणुव्रती होगा। भगवान महावीर ने कहा कि जैन श्रावक स्थूल—हिसा का त्यागी होगा, अहिंसाणुव्रती होगा। भगवान महावीर की दृष्टि विशाल थी अत: उन्होंने अिंहसा के दायरे में मात्र मानव को ही नहीं लिया अपितु प्राणी को लिया। द्रव्यिंहसा के साथ भाविंहसा के त्याग की बात कही। वास्तव में वे जीवमात्र के हितैषी थे। यदि जीवों का हित नहीं होगा तो राष्ट्र का भी हित कैसे होगा ? वे कहते हैं—जीव वहो अप वहो, जीवदया अप्पणो दया होई।
ता सव्व जीविंहसा परिचत्ता अत्तकामेिंह।।
जह ते न पियं दुक्खं आणिय एमेव सव्वजीवाणं।
सव्वायरमुवउत्तो अत्तोवम्मेण कुणसु दयं।।
अर्थात् जीव का वध करना अपना ही वध करना है, जीवों पर दया करना अपने पर दया करना है अत: सभी जीवों की हिसा अपने ही प्रिय की हिंसा समझना चाहिए। जैसे तुम्हें दु:ख प्रिय नहीं है वैसे ही अन्य सभी जीवों का दु:ख प्रिय नहीं है अत: सब प्राणियों पर आत्मौपम्य दृष्टि दयाभाव रखना चाहिए। जिस तरह जंगल अकेले सुगन्धित फूल युक्त पेड़—पौधों का नाम नहीं है, अपितु उसमें तीक्ष्ण कांटों वाले पेड़ भी सम्मिलित होते हैं उसी तरह राष्ट्र भी एक जैसे लोगों से नहीं बनता। यहाँ अच्छे होते हैं तो बुरे भी, र्धािमक होते हैं तो अर्धािमक भी। काम करने वाले होते हैं तो कामचोर भी। इसलिए मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थभाव अपेक्षित है। जैन श्रावक आचार्य अमितगति के सामायिक पाठ को प्रतिदिन पढ़ता है और इन भावनाओं का अनुसरण भी करता है—सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं।
माध्यस्थभावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
आचार्य अमितगति: सामायिक पाठ
अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव, दु:खी और क्लेशयुक्त जीवों के प्रति करुणा (कृपा) भाव तथा प्रतिकूल विचार वालों के प्रति माध्यस्थ भाव रखें। हे देव ! मेरी आत्मा सदा ऐसे भाव धारण करे। ‘मेरी भावना’ में भी पढ़ते हैं कि—मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे।
दीन दु:खी जीवों पर मेरा उर से करुणास्रोत वहे।।
रहे सदा सत्संग उन्हीं का ध्यान उन्हीं का नित्य रहे।
दूर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे।
गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे।
बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै।।
पं. जुगलकिशोर मुखतार: मेरी भावना
श्रावक की सद्भावना राष्ट्र और जन—कल्याण की होती है। उसे राष्ट्र के हित में सर्व और स्वयं का हित दृष्टिगोचर होता है अत: वह भावना भाता है कि—संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीनकों और यतिनायकों को।
राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन शान्ति को दे।।
होवे सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा।
होवे वर्षा समय पै, तिलभर न रहे व्याधियों का अंदेशा।।
होवे चोरी न जारी, सुसमय बरते, हो न दुष्काल मारी।
सारे ही देश धारें, जिनवर वृष को, जो सदा सौख्यकारी।।
शान्ति पाठ
हे जिनेन्द्रदेव ! आप पूजन करने वालों को, रक्षा करने वालों को, सामान्य मुनियों को, आचार्यों को, देश राष्ट्र नगर, प्रजा और राजा को सदा शान्ति प्रदान करें। सब प्रजा की कुशल हो, राजा बलवान और धर्मात्मा हो, मेघ (बादल) समय—समय पर वर्षा करें। सब रोगों का नाश हो, संसार में प्राणियों को एक क्षण भी र्दुिभक्ष, चोरी, अग्नि और बीमारी आदि के दु:ख न हों और सब संसार सदा जिनवर धर्म को धारण करे, जो सदैव सुख देने वाला है। कहते हैं कि अर्थ अनर्थ की जड़ होता है जबकि बिना अर्थ के न राष्ट्र समृद्ध होता है और न ही उसका कल्याण होता है। विश्व मंच पर अर्थहीन राष्ट्र अपना प्रभाव, अपनी उपस्थिति भी प्रभावी तरीके से व्यक्त नहीं कर पाते हैं। श्रावक जहाँ ‘अर्थमनर्थ भावय नित्यं’ की नीति पर चलता है वहीं अर्थपुरुषार्थ में प्रयत्नशील भी होता है। वह अर्थ को आवश्यक मानता है ताकि आवश्यकताओं की र्पूित कर सके। फैडरिक बेन्थम ने ‘अर्थशास्त्र में लिखा है कि— “But it is quite impossible to provide every body with a many consument’s goods, that is with as high standard of living as he would like, If all persons were like Jains-members of an Indian sect, who try to subdue and extinguish ther physical desires, it might be done. If consumer’s goods descended frequently and in abounance from the heavens, it might be done. As things are it connot be done.”Economics by Ferderic Banthan, P. 8न्यायापात्तधनो यजन्गुणगुरून् सद् गीस्त्रिवर्ग भज न्नन्योनुगुणं तदर्हगृहिणी—स्थानालयो हृीमय:।
युक्ताहारविहारआर्यसमिति: प्राज्ञ: कृतज्ञो वशी, श्रण्वन्धर्म विधिं, दयालुरघभी: सागारधर्मं चरेत्।।
पं. आशाधर : सागार धर्मामृत १/१५
अर्थात् न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हिम—मित—प्रिय बोलने वाला, धर्म—अर्थ—काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित लज्जावान्, शास्त्रानुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेही, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला, दयावान् और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म का पालन कर सकता है। राष्ट्र के सामने आज की सबसे बड़ी समस्या काले धन (अनीति का धन) और आतंकवाद की है। श्रावक इस दृष्टि से राष्ट्र का सबसे बड़ा हितैषी है क्योंकि वह न्याय से धन कमाता है औरहिंसा से दूर रहता है। वह न किसी कीहिंसा करता है, नहिंसा करने के भाव मन में या मुख पर लाता है। यह कहाँ की नीति है कि दूसरों को मारो या दूसरों को मारने के लिए स्वयं मर जाओ। मानव बम की अवधारणा किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। ऐसे व्यक्ति के विवेक को क्या कहें जो दूसरों को मारने के लिए खुद मरता है। यह स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए उचित नहीं कही जा सकती। नागरिक अधिकार एवं राष्ट्र धर्म भी इसे उचित नहीं मानता। जैन श्रावक के लिए तो स्पष्ट विधान है कि—जं इच्छामि अप्पणतो जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्सवि य एत्तियगं जिणसासणं।।
अर्थात् जैसा तुम अपने प्रति चढ़ाते हो और जैसा तुम अपने प्रति नहीं चाहते हो, दूसरों के प्रति भी तुम वैसा ही व्यवहार करो ; जिन शासन का सार इतना ही है। आज यदि इस नीति पर समाज या देशवासी चल रहे होते तो आतंकवाद जैसी समस्या का जन्म ही नहीं होता। आतंकवाद के मूल में पद, धन और प्रतिष्ठा है जबकि श्रावक स्वपद चाहता है, सत्ता प्रतिष्ठान नहीं। श्रावक वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना रखता है। जबकि अन्य का सोच वैसा ही हो; यह जरूरी नहीं। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है कि‘वसुधैव कुटुम्बकम् ’ इसका आधुनिकीकरण हुआ है। वसु यानी धन—द्रव्य धन ही कुटुम्ब बन गया है धन की मुकुट बन गया है जीवन का।।
आचार्य श्री विद्यासागर: मूकमाटी पृ. ८२
अर्थ की बढ़ती लालसा ने अर्थ और परमार्थ दोनों को ही छला है। अर्थ के लिए हिसक संघर्ष आम बात हो गई है।हिंसा का अर्थ के लिए उपयोग सही नहीं है। आज सरकारें बदलने के लिए धनबल और बाहुबल का सहारा लिया जाने लगा है जबकि लोकतंत्र में जनबल ही सर्वोपरि होता है। इस अनर्थ से अर्थ का प्रलोभन दूर होने पर ही बचा जा सकता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज लिखते हैं कि—यह कटु सत्य है कि—‘‘अर्थ की आँखें परमार्थ को देख नहीं सकती अर्थ की अर्थ की लिप्सा ने बड़ो—बड़ों को निर्लज्ज बनाया है।’’
वही, पृ. १९२
श्रावक अर्थ का संचय अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही करता है। वह धनादिक पदार्थों को ही नहीं घटाता अपितु अपनी आवश्यकताओं को भी कम करता जाता है ताकि उसके संचित साधन अन्य के काम आ सके। इसीलिए वह अपनी स्वर्अिजत संपत्ति में से निरंतर दान किया करता है। यह दान राष्ट्र के कल्याण में सहायक बनता है। राष्ट्र के दीन—दुखी प्राणियों को अभय प्रदान करता है। तत्त्वार्थसूत्रआचार्य उमास्वामी: तत्त्वार्थ सूत्र, ७/२५—२९ में आचार्य उमास्वामी ने अणुव्रतों के अतिचारों का वर्णन किया है जिनसे जैन श्रावक बचता है। जैन श्रावक जहाँ अिंहसाणुव्रत के रूप में बंध, वंध, छेद, अतिभारारोपण एवं अन्नपाननिरोध से बच कर प्राणियों को अभयदान देता है।काहू की धन हानि किसी जय—हार न चितै।
देय न सो उपदेश होय अघ बनज कृषीतें।।
कर प्रमाद जल भूमि वृक्षा पावक न विराधे।
असि धनु हल हिंसोपकरण निंह दे यश लाधे।।
राग—द्वेष करतार कथा कबहूं न सुनीजे।
औरहु अनरथ दंड हेतु अघ तिन्हें न कीजे।।
पं. दौलतराम: छहढाला, ४/११—१२