जैन धर्म में दान वैशिष्ट्य: शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य
जैन धर्म में दान के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखा गया है। जैनधर्म में आत्मा के अविनाशी गुणों में दान को भी सम्मिलित किया गया है। दानांतराय कर्म के क्षय से आत्मा में क्षायिकदान नामक गुण प्रगट होता है। एक अपेक्षा से दान क्षायिक गुण होने के कारण आत्मा के साथ अरिहंत एवं सिद्ध अवस्थाओं में भी विद्यमान रहता है। इस संदर्भ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में लिखा है कि ‘‘दानांतराय कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त प्राणियों के समुदाय का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है।’’ वे आगे लिखते हैं कि—‘‘यद्यपि अभयदानादि के होने में शरीर नाम कर्म एवं तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है, परन्तु सिद्धों के नाम कर्म नहीं होने से अभयदानादि प्राप्त नहीं होते, तो भी जिस प्रकार सिद्धों के नाम कर्म नहीं होने से अभयदानादि प्राप्त नहीं होते, तो भी जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनन्तवीर्य का सद्भाव माना गया है, उसी प्रकार परमानन्द के अव्याबाध रूप से क्षायिक दान का भी सिद्धों में सद्भाव है’’।आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, २/४ उक्त संदर्भो से हम स्पष्ट जान सकते हैं कि दान कोई सामाजिक व्यवस्था का वित्त प्रबंधन नहीं है अपितु यह चित्त—प्रबंधन का एक उत्कृष्ट माध्यम है। वर्तमान समय में दान शब्द से बड़ा ही संकुचित अर्थ ग्रहण कर लिया है। आज जनसामान्य विधान एवं पंचकल्याणक महोत्सवों में होने वाली बोलियों में दिये जाने वाले धन को ही दान समझने लगा है। अनेक अवसरों पर ऐसा लगता है कि प्रभावना के कार्यों पर होने वाले सामाजिक व्यय को ही हम दान का उत्कृष्ट स्वरूप मान बैठे हैं। आवश्यकता है कि दान स्वरूप और उसके माहात्म्य को शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में समाज के समक्ष रखने की कोशिश की जाये।
दान का लक्षण
अनेक आचार्यों ने दान की विभिन्न परिभाषायें दी हैं। इनमें प्रमुखरूप से आचार्य उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थ सूत्र में दान का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि— ‘‘अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्’’ अर्थात् स्वयं अपना एवं दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु त्याग करना दान है।आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, ७/८ इसी लक्षण को स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि— ‘‘परानुग्रहबुद्धया स्वस्यातिसर्जनं दानम्।’’ अर्थात् दूसरे का उपकार हो उस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है।आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६/१२ धवलाकार आचार्य वीरसेन ने दान का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि— ‘‘रत्नत्रयवद्भ्य: स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्नत्रयसाधनादित्सा वा।’’ अर्थात् रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रयोग करने की इच्छा का नाम दान है।आचार्य वीरसेन, धवला, १३/५,५,१३७
दान के भेद
आगम में दान के भेदों की व्याख्या करते हुए सामान्यत: आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, अभयदान इन चार प्रकार के दानों का वर्णन किया गया है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आहार, औषध, उपकरण, आवास के भेद से दान के चार भेद बताये हैं।आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ११७ सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी में लिखा है—‘‘त्याग दान है। वह आहार दान, अभयदान और ज्ञानदान के भेद से तीन प्रकार का है।’’आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६/२४ महापुराणकार आचार्य गुणभद्र ने दान शब्द के स्थान पर दत्ति शब्द का प्रयोग करते हुए दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति के भेद से दत्ति के चार भेद किये हैं।आचार्य गुणभद्र, महापुराण, ३८/३५ आचार्य पद्मनंदी पंचिंवशतिका में अभयदान, औषधदान, आहारदान, शास्त्रदान के भेद से दान के चार भेद किये हैं।. आचार्य पद्मनंदी, पद्मनंदी पंचिंवशतिका, २४८ दान के परंपरागत भेदों से हटकर सागारधर्मामृत में पं. आशाधर ने सात्त्विक, राजसिक और तामसिक दानों को भी उद्धरित किया है।पं. आशाधर, सागर धर्ममृत, २/२४० उन्होंने लिखा है कि जिस दान में अतिथि का कल्याण हो, जिसमें पात्र की परीक्षा व निरीक्षण स्वयं किया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हों, उसे सात्विक दान कहते हैं। जो दान केवल अपने यश के लिए किया गया हो, जो थोड़े ही समय के लिए सुन्दर और आश्चर्यचकित करने वाला हो और दूसरे से दिलाया गया हो उसे राजस दान कहते हैं। जिसमें पात्र—अपात्र का कुछ ध्यान न दिया गया हो, अतिथि का सत्कार न किया गया हो, जो निन्द्य हो और जिसके सब उद्योग दास और सेवकों से कराये गये हों, उस दान को तामस दान कहते हैं। सामान्य रूप से सभी शास्त्रों में चार प्रकार के ही दान का उल्लेख किया गया है। वह कहीं—कहीं ज्ञान दान को शास्त्र दान का उपकरण दान कहा गया है एवं अभयदान के स्थान पर आवास दान या वसतिकादान कहा गया है। उक्त नामांतर पात्रों की आवश्यकतानुसार किया गया है। वर्तमान समय में अर्थ की प्रधानता है। इस अर्थ प्रधान युग में लोग संपत्ति का संचय करके उसे केवल विषय भोग एवं विलासिता की सामग्री को क्रय करने एवं शादी—विवाह एवं अन्य घरेलू कार्यों में ही खर्च करते हैं। आज अनेक लोगों की धारणा बनती जा रही है कि दान करना अपव्यय है एवं इससे किसी प्रकार के फल की प्राप्ति नहीं होती। इस संदर्भ में जैनाचार्यों ने हमारे श्रावक जीवन में दान को आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य बतलाया है। रयणसार में आचार्य कुन्दकुन्द देव ने स्पष्ट लिखा है कि— ‘‘दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा’’ अर्थात् दान एवं पूजा श्रावक के मुख्य धर्म हैं, इसके बिना श्रावक धर्म की कल्पना नहीं की जा सकती।आचार्य कुन्दकुन्द, रयणसार,।। श्रावक के षट् आवश्यकों में दान को प्रमुख स्थान दिया गया है। आचार्य पद्मनंदी ने पंचिंवशतिका में स्पष्ट रूप से लिखा है कि ‘‘देशव्रती श्रावक के जीवन में प्रतिदिन जिन पूजनादि बहुत से कार्यों के होने के बाद भी सत्पात्र दान उसका महान् गुण है। उन्होंने दान की परंपरा से मोक्ष का कारण भी माना है।’’ पद्मपुराणकार आचार्य रविषेण ने लिखा है कि—‘‘जीवितान्मरणं श्रेष्ठं बिना दानेन देहिनाम्’’ अर्थात् प्राणियों के दान रहित जीवन से मरण श्रेष्ठ है।आचार्य रविषेण, पद्मपुराण, १७/६ आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में भगवान् ऋषभदेव को आहार दान देने के कारण हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने ‘‘दान तीर्थंकर’’ का पद प्राप्त किया। उनके इस महान् कार्य के कारण ही षट्खंडाधिपति भरत चक्रवर्ती ने आकर राजा श्रेयांस की पूजा (सम्मान) की।आचार्य जिनसेन, हरिवंश पुराण, सर्ग १० श्लो. ८ र्काित्तकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में स्वामिकुमार धनिकों के लिए दान की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं कि ‘‘जो सम्पत्ति का संग्रह कर न तो उसका उपभोग करता है और न ही सत्पात्रों को दान देता है, वह बहुत बड़ी आत्मवंचना करता है, उसका मनुष्यत्व निष्फल है। जो पुरुष परिश्रमपूर्वक धन र्अिजत करके उसे धरती के नीचे गाड़कर रखते हैं, वे अपनी संपत्ति को पाषाण के समान बना रहे हैं।’’ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में आचार्य सकलर्कीित ने गृहस्थ जीवन में दान का महत्त्व स्पष्ट करते हुए लिखा है कि— ‘‘जिस गृहस्थाश्रम में दान नहीं दिया जाता वह गृहस्थाश्रम पत्थर की नीव के समान समझना चाहिए’’ ऐसे गृहस्थाश्रम में रहकर मूर्ख लोग अत्यन्त अथाह संसार रूपी महासागर में डूब जाते हैं।१६ मुनियों के लिए दिये जाने वाले आहार दान का अतिशय महत्त्व बतलाते हुए आचार्य सकलर्कीित ने लिखा है कि—
‘‘मुनिपादोदकेनैव यस्यगेहं पवित्रितम्। नैव श्मशानतुल्यं हि तस्यागारं बुधै: स्मृतम्।।’’
अर्थात् जिनका घर मुनियों के चरण कमलों के जल से पवित्र नहीं हुआ है उनका घर श्मशान के समान है ऐसा विद्वान लोग मानते हैं। आचार्य पद्मनंदी पात्र दान की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं— ‘‘सूनोर्मृतेरपि दिनं न सतस्तथा स्याद्बाधाकरम् , यथामुनिदानशून्यम्’’ अर्थात् सज्जन पुरुष के लिए अपने पुत्र की मृत्यु का दिन भी उतना बाधक नहीं होता जितना मुनि दान से रहित दिन उसके लिए बाधक होता है। दान के अभाव में र्धािमकता मात्र दिखावा है— आचार्य पद्मनंदी जी पद्मनंदी पंचिंवशतिका में लिखते हैं—‘‘जो मनुष्य धन के रहने पर भी दान में उत्सुक तो नहीं होता, परन्तु अपनी र्धािमकता को प्रकट करता है उसके हृदय में कुटिलता रहती है वह परलोक में उसके मुखरूपी पर्वतों के विनाश के लिए बिजली का काम करती है।’’ अन्यायोर्पािजत धन की दान में उपयोगिता कितनी सार्थक ? धर्म यद्यपि पाप करने की अनुमति किसी भी रूप में नहीं देता िंकतु पाप का क्षय करने एवं प्रायश्चित्त अंगीकार करने के लिए एक मात्र धर्म ही माध्यम है। इसी प्रकार जैन शास्त्र किसी भी रूप में यह आज्ञा नहीं देते कि अन्याय एवं पाप से धन र्अिजत करो और उसका दान करते रहो एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करो। आचार्य पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेश में लिखते हैं—‘‘जो मनुय दान करने की आशा से धन संचय करते हैं, वे उस मनुष्य की तरह है जो ‘‘स्नान कर लूँगा’’ इस आशा से पहले कीचड़ लपेटता है। संचय से त्याग श्रेष्ठ है। आत्मानुशासन में आचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि—‘‘कोई विद्वान् मनुष्य विषयों को तृण के समान तुच्छ समझकर लक्ष्मी को याचकों के लिए देता है, कोई पाप रूप समझकर किसी को बिना दिये ही त्याग देता है। सर्वोत्तम वह है जो पहिले से ही अकल्याणकारी जानकर इसे ग्रहण नहीं करता।’’ दूसरी ओर अनेक आचार्यों ने दान का वर्णन पाप प्रक्षालिनी क्रिया के रूप में किया है आचार्य सकलर्कीित ने लिखा है कि—
‘‘महािंहसादिजे पापकर्मेन्धनसमुत्करे। जगु: सुपात्रदानं हि बुधा: संज्वलनोपमम्।।’’
अर्थात् विद्वान् लोग इस पात्र दान को आदि से उत्पन्न हुए पाप कर्म रूपी र्इंधन के समूह को जलाने के लिए अग्नि के समान बतलाते हैं। आचार्य पद्मनंदी ने पद्मनंदी पंचिंवशतिका ग्रंथ में विभिन्न श्लोकों के माध्यम से उपदेश दिया है कि गृहस्थ द्वारा उर्पािजत लक्ष्मी का सच्चा सदुपयोग दान में ही है। उन्होंने लिखा है कि—‘‘करोड़ों परिश्रमों से संचित किया हुआ जो धन प्राणियों को पुत्रों और अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत होता है उसका सदुपयोग केवल दान देने में ही होता है। इसके विपरीत दुव्र्यसनादि में उसका उपयोग करने से प्राणी को अनेक कष्ट ही भोगने पड़ते हैं।’’ आचार्य पद्मनंदी ने श्रावकों को समझाते हुए कहा है कि ‘‘सम्पत्ति दान करने से क्षय को प्राप्त नहीं होती, वह तो पुण्य के क्षय से क्षय को प्राप्त होती है।’’ कुरलकाव्य में लिखा है ‘‘श्रीमानों को गरीबों के पेट की ज्वाला शांत करने के उद्देश्य से धन संचय करना चाहिए, अर्थात् संचित धन से परोपकार करना चाहिए।’’ सत्पात्र को दान करने के अभाव से इस जन्म के संचित पाप भी क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। हरिवंशपुराण में र्विणत कथानुसार कौशाम्बी नगरी के राजा सुमुख पर आसक्त हो गयी थी। उसी भव में उन दोनों ने श्रद्धा—भक्ति पूर्वक उत्कृष्ट चारित्र के धारी वरधर्म मुनि को आहार दान दिया था। आकाश से बिजली गिरने से एक दिन दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए पर सत्पात्र दान के प्रभाव से विजयार्ध पर्वत की श्रेणियों में विद्याधर एवं विद्याधरनी के रूप में उत्पन्न हुए। आगम प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि दान के प्रभाव से कृषि, व्यापार आदि में आरंभ से उत्पन्न हुए पाप का प्रक्षालन होता है। लेकिन अन्याय, अनीति एवं पाप से उर्पािजत धन को दान के लिए श्रेष्ठ द्रव्य नहीं माना गया है इसलिए दान के उद्देश्य से पाप करके लक्ष्मी का संचय करना बुद्धिमानी नहीं है।
दान का फल
आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है कि ‘‘सत्पात्रों को दिया गया अल्पदान भी समय पर विशाल फल देता है, जैसे भूमि में बोया गया बट का छोटा सा बीज कालांतर में विशाल वृक्ष बनकर छाया देता है।’’ हरिवंश पुराण में लिखा है कि—‘‘राजा श्रेयांस ने दान का फल बतलाते हुए भरत चक्रवर्ती आदि से कहा कि दान से पुण्य संचित होता है वह दाता को पहले स्वर्गादि रूप फल देकर अन्त में मोक्षरूपी फल देता है।’’ दान देने के प्रभाव से मनुष्य भोगभूमि एवं स्वर्ग के सुखों को भोगते हैं यहाँ तक कि दान की अनुमोदना के पुण्य से पशु भी भोगभूमि में जन्म लेते हैं।
दान के फल संबंधी विशेषाएँ
दान का फल सदैव एक समान प्राप्त नहीं होता, विधि, द्रव्य एवं दाता और पात्र की विशेषताओं से दान का फल भी प्रभावित होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा है कि—‘‘यादृग्विवर्यते दानं, तावदासाद्यते फलम्।’’ अर्थात् जो जैसा दान देता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। आचार्य उमास्वामी ने दान की विशेषताओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि—‘‘विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्तिशेष:।’’ अर्थात् दान के फल को उसकी विधि, द्रव्य, दाता एवं पात्र की विशेषताएँ प्रभावित करती है। इनके हीन एवं निकृष्ट रहने से हीन फल की प्राप्ति होती है एवं इनके उत्कृष्ट रहने पर उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती है।
दान की विधि
दान सदैव विधिपूर्वक ही देना चाहिए, इसके लिए दाता को पात्र की योग्यता एवं उसकी आवश्यकता अवश्य देखनी चाहिए। तीन प्रकार के पात्रों में उत्कृष्ट पात्र केवल मुनिराज ही हैं, अत: उन्हें नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान देना चाहिए। शेष मध्यम एवं जघन्य पात्रों को उनके योग्य आदर सत्कार देते हुए दान देना चाहिए। मुनियों को आहार दान देते समय की जाने वाली नवधाभक्ति का शास्त्रों में निम्न प्रकार से उल्लेख मिलता है— १. प्रतिग्रहण (पड़गाहन करना), २. उच्च स्थान पर बैठाना, ३. पाद—प्रक्षालन करना, ४. पूजन करना, ५. नमस्कार करना, ६. मनशुद्धि, ७. वचन शुद्धि, ८. कायशुद्धि, ९. आहार शुद्धि।३०
दान—विधि में शुद्धि का महत्त्व:
श्री नेमिचन्द्राचार्य ने त्रिलोकसार में लिखा है कि—
अर्थात् जो सप्त व्यसन पूर्वक सूतक—पातक आदि के समय एवं रजस्वला अवस्था में (स्त्रियों द्वारा) दान दिया जाता है अथवा रजस्वला स्त्री से संस्पृष्ट वस्तु का दान दिया जाता है, उस दान के फल से दाता को कुभोग भूमि में जन्म लेना पड़ता है।
दान के योग्य द्रव्य :
दान का उत्कृष्ट फल प्राप्त करने के लिये द्रव्य न्याय एवं नीति से उर्पािजत होना चाहिए। न्याय एवं नीतिपूर्वक कमाये गये धन से कराये गये जिनिंबब पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें एवं विधि—विधान आदि समस्त अनुष्ठान सातिशय संपन्न होते हैं। जहाँ एक ओर ऐसे अनुष्ठानों से अतिशय पुण्य का आस्रव होता है, वहीं दूसरी ओर मोक्ष मार्ग भी प्रशस्त होता है। कवि संतलाल जी ने सिद्धचक्र विधान में श्रेष्ठ यजमान का लक्षण बतलाते हुए लिखा है कि—
अर्थात् यजमान (आयोजनकर्ता) का धन नीति द्वारा र्अिजत किया हुआ होना चाहिए। इस संदर्भ में पंडित आशाधर जी ने लिखा है कि—‘‘न्यायोपात्त धनो यजन् ….. चरेत्।।’’ अर्थात् धर्म पालन करने वाले श्रावक की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता यह भी है कि वह अपना धन न्यायपूर्वक अर्जित करता हो। दान का फल द्रव्य की मात्रा पर नहीं अपितु उसकी शुद्धि पर निर्भर करता है। आहार दान एवं औषधि दान में दिया जाने वाला आहार एवं औषधियाँ प्रासुक एवं शुद्ध होनी चाहिए अिंहसक विधि से तैयार हों मर्यादित एवं भक्ष्य होनी चाहिए। दान के अयोग्य द्रव्य एवं सामग्री का वर्णन करते हुए आचार्य पद्मनंदी ने लिखा है कि—‘‘गाय, सुवर्ण, पृथ्वी, रथ, स्त्री आदि का दान महान् फल देने वाले नहीं है क्योंकि वे निश्चय से पाप उत्पन्न करने वाले हैं। लेकिन दाता जिनालय के निमित्त से भूमि आदि का दान कर सकता है क्योंकि वह धर्म संस्कृति का कारण है।’’
दाता के गुण :
दान का उत्कृष्ट फल प्राप्त करने के लिए दाता में सात विशेष गुण होने चाहिए। इनका वर्णन करते हुए आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में लिखा है कि—‘‘श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, त्याग ये दानपति अर्थात् दान देने वाले के सात गुण कहलाते हैं। श्रद्धा आस्तिक्य बुद्धि को कहते हैं। आस्तिक्य बुद्धि अर्थात् पात्र के प्रति श्रद्धा के न होने पर अनादर हो सकता है। दान देने में आलस्य नहीं करना शक्ति गुण है। पात्र के गुणों में आदर करना भक्ति है। दान देने आदि के क्रम का ज्ञान होना एवं पात्र—अपात्र की पहचान होना विज्ञान गुण है। दान देने आदि के क्रम का ज्ञान होना एवं पात्र—अपात्र की पहचान होना विज्ञान गुण है। दान देने की शक्ति को अलुब्धता कहते हैं। सहनशीलता होना क्षमा गुण है। उत्तम द्रव्य दान में देना त्याग है। जो दाता इन सात गुणों से सहित होकर एवं निदान आदि दोषों से रहित होकर पात्रों को दान देता है वह मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्पर होता है।’ दान करते समय दाता के मन में प्रत्युपकार की इच्छा नहीं होनी चाहिए न ही किसी प्रकार का निदान बाँधना चाहिए।
दान के योग्य पात्र एवं उनका दान के फल पर प्रभाव :
दान के फल की प्राप्ति में पात्र गुणों का अतिशय महत्त्व है। जिसके द्वारा दान ग्रहण किया जाता है। शास्त्रों में उत्तम, मध्यम जघन्य के भेद से तीन प्रकार के पात्रों का उल्लेख प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन एवं व्रत—आचरण के द्वारा ही पात्र की पात्रता निर्धारित होती है। विभिन्न शास्त्रों में पात्रों का वर्णन करते हुए लिखा है कि—‘‘जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप की शुद्धि से पवित्र है तथा शत्रु और मित्रों पर माध्यस्थ भाव रखते हैं ऐसे साधु उत्तम पात्र कहलाते हैं। संयमासंयम अर्थात् अणुव्रतों को धारण करने वाले श्रावक मध्यम पात्र कहलाते हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र कहलाते हैं। जो स्थूल हिंसादि पापों में निवृत्त हैं परन्तु मिथ्यात्व से ग्रसित हैं वे कुपात्र हैं। जो मिथ्यादृष्टि होने के साथ—साथ हिंसादि पापों से भी निवृत्त नहीं हे, वे अपात्र हैं। मिथ्यादृष्टि मनुष्य दान के प्रभाव से एवं तिर्यच दान की अनुमोदना के प्रभाव से भोगभूमि को प्राप्त करते हैं। वे बद्धायुक्त सम्यग्दृष्टि जिन्होंने पूर्व में मनुष्यायु बाँध ली है वे भी पात्र दान के प्रभाव से भोगभूमि में जन्म लेते हैं। उत्तम पात्रों को दान देने से उत्तम भोगभूमि की प्राप्ति होती है। मध्यम पात्रों को दान देने से मध्यम भोगभूमि में जन्म प्राप्त होता है। जघन्य पात्रों को दान देने के जघन्य भोगभूमि में जन्म होता है। कुपात्रों को दान देने के कारण ही जीवों को भोगभूमियों में तिर्यंच बनकर उत्पन्न होना पड़ता है। कुपात्र दान के प्रभाव से जीवों को भोगभूमियों में तिर्यंच बनकर उत्पन्न होना पड़ता है। कुपात्र दान के प्रभाव से जीवों को जन्म म्लेच्छ खंड के मनुष्य के रूप में होता है। आर्यखंड में दासी, दास, हाथी, कुत्ता आदि भोगवंत जीवों को प्राप्त होने वाले भोग भी कुपात्र दान के प्रभाव से प्राप्त होती है। आर्यखंड में नीच जाति के मनुष्यों को प्राप्त होने वाले भोग भी कुपात्र दान के प्रभाव से प्राप्त होते हैं। एवं सम्यग्दृष्टि सत्पात्रों को दान देने के प्रभाव से सोलह स्वर्गों में जन्म लेते हैं। कुपात्र को दिया गया दान दाता को कुभोग प्रदान करता है। जिस प्रकार खराब भूमि में बोया बीज अल्प फल देता है। अपात्र को दिया या दान दु:ख देने वाला है। जैसे सर्प के मुख में पड़ा हुआ दूध भी विष हो जाता है। अत: सुपात्रों के लिए ही दान देना चाहिए। शास्त्रों में पात्रों को ही दान देने का निर्देश दिया गया है। लेकिन जो कुपात्र व अपात्र दीन—दु:खी हैं, रोगी हैं, पीड़ित हैं क्या उनकी सहायता करनी चाहिए ? एक सम्यग्दृष्टि जीव में अनुकंपा गुण रहता है जिस कारण् वह संसार के सभी जीवों के दु:ख दूर करने के लिए प्रयासरत रहता है। इस हेतु से कुछ शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि—
‘‘कुपात्रायाप्यपात्रय दानं देयं यथोचितम्। पात्रबुद्धया निषिद्धं स्यान्निषिद्धं न कृपाधिया।।’’
अर्थात्—कुपात्र के लिए और अपात्र के लिए भी यथा योग्य दान देना चाहिए क्योंकि कुपात्र तथा अपात्र के लिए केवल पात्र बुद्धि से दान देना निषिद्ध है, करुणा बुद्धि से दान देना निषिद्ध नहीं है।
दान एवं त्याग में अंतर :
स्थूल रूप से दान एवं त्याग में कोई अंतर दिखाई नहीं देता क्योंकि दोनों शब्दों से एक ही अर्थ प्रकट होता है। दोनों शब्दों का प्रयोग छोड़ने के अर्थ में किया जाता है। लेकिन आगम का सूक्ष्मावलोकन करने पर त्याग एवं दान दोनों में कुछ मौलिक अंतर भी नजर आता है। आगम में त्याग का लक्षण बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि—
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि, जो जीव सारे द्रव्यों के मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने त्याग धर्म का लक्षण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि—‘‘व्युत्सर्जनं त्याग:।। अर्थात् व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है, जिसका अर्थ त्याग होता है। सर्वार्थासिद्धि में आचार्य पूज्यपाद में व्यवहार त्याग धर्म की परिभाषा देते हुए लिखा है कि— ‘‘संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग:।’’ संयत के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग कहलाता है। अकलंकदेव ने भी त्याग धर्म को परिग्रह त्याग के रूप में परिभाषित किया है— ‘‘परिग्रहस्य चेतनाचेतन लक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते।।’’अर्थात् अचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं। प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में भी त्याग धर्म की परिभाषा इसी प्रकार दी गयी है। ‘‘निजशुद्धात्म परिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तर—परिग्रहनिवृत्तिस्त्याग:।’’ अर्थात् निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति त्याग है। आगम में त्याग धर्म का वर्णन दोनों प्रकार से मिलता है। जहाँ आचार्यों ने व्यवहार त्याग धर्म की व्याख्या की है वहाँ त्याग एवं दान में एकरूपता दिखाई देती है। जहाँ निश्चय त्याग धर्म का वर्णन किया गया है। वहाँ त्याग का स्वरूप दान से उत्कृष्ट दिखाई देता है। दान एवं त्याग की समीक्षा करने पर उनके बीच कुछ मौलिक अंतर भी दिखाई देते हैं, जैसे—दान की आवश्यक शर्त है कि जो दान करता है उतना कम से कम दाता के पास अवश्य होना चाहिए। अन्यथा वह कहाँ से दे सकता है। पर त्याग में ऐसा नहीं है। जो वस्तु हमारे पास नहीं है उसके मोह को छोड़कर उसका भी त्याग किया जा सकता है। दान के लिए दाता एवं पात्र दोनों का होना आवश्यक है पर त्याग करने के लिए इस बात की चिता नहीं की जाती है कि इसे कौन ग्रहण करेगा। दान में सदैव त्याग की भावना छूपी रहती है पर त्याग में सदैव दान का भाव रहना आवश्यक नहीं है। दान एवं तयाग में भेद होते हुए भी मोक्षमार्गी जीव के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। इन दोनों क्रियाओं का फल परम्परा से मोक्ष रूप ही दिखाई देता है। इसलिए जीव प्राप्ति की अपेक्षा दान एवं त्याग दोनों ही समान रूप से आत्मा के लिए हितकारी हैं क्योंकि इन दोनों से ही मोह समाप्त होता है और जीव निर्मोही बनकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।
पंकज कुमाजर जैन
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