राजस्थान प्रदेश के दक्षिण पूर्व में स्थित झालावाड़ जिले में अनेकों ऐसी पुरातात्त्विक सम्पदा है, जिनका अभी तक यथोचित अध्ययन ही नहीं हो पाया है। यह पूरा ही क्षेत्र महिमामयी मालवा का है, जिसका सांस्कृतिक प्रभाव यहाँ की धरोहरों व जनजीवन पर आज भी परिलक्षित है। मुख्यालय के निकट ७ किलोमीटर दूर झालरापाटन में जैन धर्म का एक बड़ा सुन्दर और प्राचीन मंदिर है, जो पूर्व में मालवा से ही सम्पृक्त रहा है। मूलत: यह मंदिर भारतीय जैन प्राचीन स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है। मंदिर का सुन्दर शिल्प, स्थापत्य व भव्यता अध्ययन की दृष्टि से अछूती है। झालरापाटन का यह मंदिर तीर्थंकर स्वामी [[शांतिनाथ]] को सर्मिपत दिगम्बर मत का है। ९२ फीट ऊँचाई का यह मंदिर अपने प्राचीन कला वैभव के कारण पुरातत्त्वविदों के साथ—साथ पर्यटकों के आकर्षण का भी बड़ा केन्द्र है। इसे ११वीं सदी का माना जाता है। इसका निर्माण शाह पापा हूमड नामक श्रेष्ठि ने १०४६ ई. में करवाया था।जैन, के. सी. अनेकान्त वर्ष १५, अंक ६, पृ. २७९—२८२ इसकी प्रतिष्ठा भवदेवसूरी द्वारा की गई थी।अनेकांत—वर्ष १३ पृ. २४ इस मंदिर के निर्माण की लागत उस युग में रुपये ४००००० बढ़ती जाती है।चन्द्रप्रभु मंदिर झालरापाटन के जैन पुरारी से प्राप्त जैन तीर्थ के एक प्राचीन ग्रंथ से साभार, पं. १४३ श्रेष्ठी शाह पापा हूमड की मृत्यु का यहाँ नसियां की पहाड़ी पर लगे। ११०९ ई. के एक अभिलेख से पता चलता है।(१) अनेकान्त—वर्ष १२, पृ. १२५ (२) उक्त—वर्ष १३, पृ. २८१ इस मंदिर को राय कृष्णदेव ने कच्छापघात शैली का बताया है।वरदा—वर्ष १७, अंक १, जनवरी—मार्च १९७४, पृ. ९ मूलत: यह एक विशाल, प्राचीन और पूर्वाभिमुखी मंदिर है। इसके मूल गर्भ में काले पाषाण की साढ़े १२ फुट लम्बी तीर्थंकर स्वामी शांतिनाथ जी की दिगम्बर खड्गासन मुद्रा की र्मूित प्रतिष्ठित है। जैनधर्म की बीस पंथी आम्नाय विधि से यह सुपूजित है। र्मूित अतिसौम्य तथा तक्षण कला के तपभावों से सम्पृक्त है, जिसके दर्शन से मन में अपूर्व वीतरागद के भाव जाग्रत होते हैं।
झालावाड़ राज्य के पुरातृववेत्ता रहे
पं. गोपाललाल व्यास ने इस र्मूित पर अंकित लेख में संवत् ११४५ (सन् १०८८ ई.) पढ़ा था।पं. गोपाललाल व्यास (प्रािम क्यूरेटर, झालावाड़ राज्य संग्रहालय, १९१५ ई.) के हस्तलिखित लेख से साभार।चूँकि मंदिर का निर्माण १०४६ ई. में हुआ जो पूर्व का समय है, अत: संभावना हो सकती है कि यह अभिलेक्ष इस मंदिर में र्मूित की प्रतिष्ठाकाल का रहा होगा, क्योंकि मंदिर निर्माण के पश्चात् ही र्मूित की प्रतिष्ठा होती है अर्थात् निर्माण व प्रतिष्ठा में ४२ वर्ष का अन्तर प्रमाणित होता है। कर्नल जेम्स टाड के अपनी १८२१ ई. की इस नगर में की गई भ्रमण यात्रा के दौरान इस मंदिर के एक पाषाण फलक पर—‘‘ज्येष्ठं तृतीया संवत् १००३ (सन् १०४६ ई.) पढ़ा था। इसमें उन्होंने एक यात्री का नामोल्लेख किया है।. टाड जेम्स—एनाल्स एण्ड एण्टीक्विटीज, भा—३, पृ. १९८९ इसके अतिरिक्त मंदिर के सभा मण्डप में उत्तर की ओर एक पाषाण अभिलेख संवत् १८५४ (सन् १९९७ ई.) का स्थापित है। इस लेख का महत्त्व यह है कि संवत् १८५४ में भट्टारक नरभूषण महाराज ग्वालियर से यहाँ चातुर्मास के हेतु पधारे थे। उस समय उन्होंने यहाँ के जैन समाज पर इस मंदिर की धूप दीप की व्यवस्था हेतु एक मणी अनाज व आधा पैसा धर्मादा कर देने का निश्चय किया था।
मंदिर का स्थापत्य प्राचीन मालवा के
मंदिरों के स्थापत्य से साम्यता रखता है। इसमें मुख्य गर्भगृह के बाहर कोली मण्डप और गूढ़ मण्डप है। प्रवेश द्वार पर चीनी मिट्टी पाषाण के दो विशाल और महावत युक्त सफेद गज अपनी सूँड ऊपर उठाये अभिनंदन मुद्रा में स्थापित हैं। मंदिर की छत्रियों की तीखी नोकों और छज्जों के तीखेपन को देखकर प्रतीत होता है—जैसे देवराज इन्द्र का विमान ऐरावतों सहित ज्यों का त्यों मालवा की प्राचीन नगरी झालरापाटन की धरती पर उतार दिया हो। इस मंदिर के वितान का जर्णोद्धार १८वीं सदी में हुआ था।वरदा—पूर्वोक्त इसमें मंदिर और शिखर प्राचीन स्थापत्य के उदाहरण हैं।(१) प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑफ द र्आिकयालॉजिकल (वेस्टर्न सर्कल) १९०४—०५ ई., पृ. ३२—३३ (२) ढोढीयाल, बी. एन.—झालावाड़ डिस्ट्रिक गजेटियर, १९६४, ई., पृ. २८८ मंदिर में गूढ़ मण्डप के स्तम्भों पर शास्त्रीय विधि अनुसार पुरुष युग्म व देवर्मूितयां बनी हैंं मण्डोवर मूल रूप से मेरू मण्डोवर की श्रेणी में है, जबकि दक्षिण भाग में चन्द्रावती नगरी के किसी भग्न शिव मंदिर की सुन्दर र्मूितयाँ लाकर लगाई गई प्रतीत होती है। सभावना है यह कार्य १८वीं सदी में हुआ हो। इन र्मूितयाँ अन्धाकासुरवध, शिव स्थानक आदि हैं। मुख्य रथिकाओं में कार्योत्सर्ग जैन र्मूितयाँ है, जबकि नीचे की रथिकाओं में शाक्त र्मूितयाँ देवियों की दिखाई देती हैं। दक्षिण भाग में एक ऐसी देवी र्मूित है जिसकी अनेक भुजाओं में कटार, वङ्का, कमल, घण्टा, पुष्प व ढ़ाल है तथा एक हाथ खाली है। मंदिर पृष्ठ की रथिका में चव्रेश्वरी देवी की अष्टभुजा युक्त सुन्दर र्मूित है, वहीं उत्तरी भाग में गजलक्ष्मी का सुन्दर अंकन है। रथिकाओं में अनेक सुन्दरियों को विभिन्न भाव व मुद्राओं में अंकित कर ऊकेरा गया है। इनके मध्या व्याल बने हुए हैं। पुरातत्त्ववेत्ता कृष्णदेव ने इस मंदिर की स्थापत्य कला की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए लिखा है कियू. पी. शाह, एम. ए ठाके (स.) जैन आर्ट एण्ड र्आिकटेक्चर—१९७६, पं. २४७—२४८ उनके अनुसार मंदिर के अन्दर का अंतराल मूल रूप से है, जिसके ठीक पृष्ठ में गंधमण्डप है। इसके पश्चात् आन्तरिक गृह है। मंदिर की पीठिका, समतल पीठिका के ऊपर है। इसमें जाड़याकुम्भ, मकर, कर्णक तथा ग्रास पट्टिका से समलंकृत है। इसके ठीक उच्च भाग में वेदिबन्ध है, जिसमें खुर व लम्बवत कुम्भ सुशोभित है। इनमें जैन देव र्मूियों का अंकन है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे विशाल रत्न के साथ मध्य बन्ध की रत्न पट्टिका, कलश और कपोत से सुसज्जित अंगारिका व गंगारिका है। जन्धाओं की दो कतारों में खड़ी आकृतियाँ है, जो ग्रास पट्टी द्वारा अलग होकर मध्यबन्ध तक र्नििमत की हुई है। इनमें ऊपरी कतार, नीचे की कतार से कुछ छोटी है। इसकी जन्घा चौकोर बरानी से घिरी हुई है तथा वरन्डिका को ध्यान से देखने पर प्रतीत होता है कि वह दो कपोतों की तुलना योग्य है।
इस मंदिर का वह प्रथम और द्वितीय
जहाँ से दीवार की मुख्य र्नििमती आरंभ होती है, वह लतिकाओं द्वारा सजाया गया है और उन कुजरक्षा मण्डित है। यह सब प्रभाव मालवा की परमार कला से प्रभावित है। जैसा कि पूर्वोक्त में रेखांकित किया गया है कि मंदिर शिखर की मूल मंजरी पंचस्थ की है तथा मुख्यरथ गज आकृति में है। शिखर की अनुपमेय सज्जा बेजोड़ चैत्य गवाक्ष द्वारा की गई है। कर्णस्थ में ग्यारह भूमि अमलकाऐं सुन्दर पच्चीकारी का उदाहरण है। केन्द्रीय रथ विशाल स्कन्ध के रूप में अमलिका, केन्द्रिका, छोटी अमलिका और इसके बाद में कलशों द्वारा प्रर्दिशत है। लघु उरूशृंग यहाँ नक्काशीदार रथिका की मूल मंजरी के आधारानुरूप बने प्रतीत होते हैं—ऐसा यहाँ देखने पर स्वत: ही ज्ञात होता है। इनमें इन श्रंगों पर उरुशृंग बने है, जो कणों से छोटे है। सभी शृंग प्रदर्शित हैं, जो समानान्तर रूप में दो पंक्तियों में बेजोड़ पच्चीकारी से र्नििमत हैं। जंघाओं की क्रियान्विति आकृति शिल्प से नियोजित है, जबकि भद्रों का निर्माण जैन देव र्मूितयों से दिखाई देता है। भद्रों की शिल्पाकृतियों के मुकुट, तोरंग कथा र्कीितमुखों से र्नििमत है। इनमें जैनदेव, यक्ष—यक्षिणी व विद्या देवियों की र्मूितयाँ बनी है। प्रतिरथ के कर्णों पर दिक्पाल बने हुए हैं। मंदिर में कुछ स्थानों पर कच्छपाघात की शिल्पाकृतियाँ द्विआयामी कतारों में दिखाई देती हैं जो जंघाओं और स्तम्भ शकों को दैविक सजावट से द्वार की ओर ले जाती हुई हैं। इस प्रकार प्राचीन भारतीय कला स्थापत्य की यह धरोहर आज भी सांस्कृतिक प्रतिष्ठा संजोये हुए हैं।
जैन परम्परानुसार यह मंदिर पूरा ही परकोटे से रक्षित है।
इसके परिचर में २००० भक्तों के एक साथ बैठने की व्यवस्था है। इसमें एक विशाल कलायुक्त वेदी है। जिस पर जैन मुनि बैठकर प्रवचन करते हैं। इसी के निकट बरामदे में उत्तर की ओर सेठों की चाँदी की एक सुन्दर वेदी बनी हुई है, जो कलात्मक दृष्टि से सुन्दरता तथा र्धािमक भाव लिये हुए है। इसका निर्माण यहाँ की प्रतिष्ठित फर्म सेठ बिनोदीराम बालचन्द के समाजसेवी सेठ नेमीचन्द व सेठानी लक्ष्मीदेवी ने करवाया था। उन्होंने इस रजत वेदिका पर जैन तीर्थंकरों की र्मूितयाँ स्थापित कर भव्य समारोह किया था। प्राचीनकाल में इस मंदिर की अत्यधिक ख्याति थी। अनेक श्रावक और जैन मुनि यहाँ आते थे। इस मंदिर में कई जैन र्मूितयाँ स्थापित हैं, जो जैनधर्म के मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, कलात्कारगण के भट्टारक सकलर्कीित व उनके शिष्यों द्वारा प्रतिष्ठित है। इन र्मूितयों के नीचे दुर्लभ लेख उत्कीर्ण हैं, जो बलात्कारगण की ईडरशाखा के है।जोहरापुरकर विद्याधर—भट्टारक संप्रदाय, पं. (१३२—३३) इन लेखों को स्वयं लेखक ने भी बड़े परिश्रम से लेंस की सहायता से पढ़ा है। इनका विवरण इस प्रकार हैजैन बलभद्र—भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग—४ (इन लेखों को बरसों पूर्व यद्यपि श्री जैन ने रेखांकित किया परन्तु लेखक ललित शर्मा ने भी स्वयं इन्हें परखा, देखा, पढ़ा है,
लेखक यहीं का मूल निवासी है।
१. संवत् १४९० वर्षे माघवदी १२ गुरौ भट्टारक सकलर्कीित हूमड़ दोशी मेधा श्रेष्ठी अर्चति।
२. संवत् १४९२ वर्षे वैशाख वदी सोमे श्री मूलसघे भट्टारक श्री पद्मनंदि देवास्तत्पट्टे, भट्टारक श्री सकलर्कीित हूमडऋ जातीय……
३. संवत १५०४ वर्षे फागुन सुदी ११ श्री मूलसंघे भट्टारक श्री सकलर्कीित देवास्तत्पट्टे, भट्टारक श्री भुवनर्कीित देवा हुमड़ जातीय श्रेष्ठि खेता भार्या लाख तयो पुत्रा……
४. संवत् १५३५ पोषवदी १३ बुधे श्री मूलसंघे भट्टारक श्री सकलर्कीित भट्टारक श्री भुवनर्कीित, भट्टारक श्री ज्ञानभूषण गुरुपदेशात् हूमड़ श्रेष्ठि पद्माभार्या भाऊ सुत आसा भ. कडू सुत्कान्हा भा. कुंदेरी भ्रातधना भा. वहहनु एते चर्तुिवशिंतका नित्य प्रणमंति।
५. यहाँ प्रतिष्ठित एक तीर्थंकर पाश्र्वनाथ र्मूित पर संवत् १६२० वैशाखसुदी ९ बुध श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भ. श्री पद्मनन्दि देवास्तत्पट्टे सकलर्कीित देवास्तत्पट्टे सुमतिर्कीित गुरूपदेशात् , हुबड जातीय मंदिर गौत्रे संघवी देवा भा. देवाभदे तत्सुत संघवी भार्या परवत् भार्या परमलदे तत्भ्रातृ सं. हीरा भा. कोडमदे तत्भ्रतृ सं. हरष भा. करमादे सुत लहुआ भा. मिन्ना, भ्रातृ लाडण भा. ललितादे सुतं थापर सं. जेमल भा. जेताही भ्रा. डूंगर भा. धानदे भ्रा. जगमा सं. हीआ, बलादे एतै, सह संघवी जीवादो सागवाड़ा वासूव नित्यं प्रणमंति। (ज्ञातव्य है कि यह तीर्थंकर र्मूित सागवाड़ा जिला बांसवाड़ा में प्रतिष्ठित हुई थी और विवेच्य मंदिर में अभी प्रतिष्ठित है)
ललित शर्मा
जैकी स्टूडियो १३ मंगलपुरा स्ट्रीट, झालावाड़—३२६००१ राजस्थान