क्षुल्लिका श्री वीरमती जी की दीक्षाभूमि दिगम्बर जैन
अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी का परिचय
लेखक-कर्मयोगी ब्र रवीन्द्र कुमार जैन
दिगम्बर जैन संस्कृति की अमूल्य विरासत अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी तीर्थ वर्तमान में जैनसमाज के लिए सम्पूर्ण भारत का गौरव स्थल है। यह राजस्थान प्रान्त के करौली जिले के हिण्डौन उपखण्ड में गंभीर नदी के पश्चिमी तट पर चांदन गाँव में स्थित है। भगवान महावीर की अतिशययुक्त प्रतिमा के कारण यह स्थान ‘‘श्री महावीर जी’’के नाम से सुविख्यात है। आध्यात्मिकता एवं मनोकामनापूर्ति के अद्भुत समन्वय से संयुक्त इस अतिशयकारी तीर्थ पर भारतगौरव आचार्यश्री देशभूषण महाराज ने बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी कु. मैना को सन् १९५३ में चैत्र कृष्णा एकम् की पवित्र तिथि में क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर बीसवीं सदी को जो अमूल्य एवं महान देन दी है, उसके लिए भू मण्डल युगों-युगों तक उनका चिरऋणी रहेगा। महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर १८ वर्ष की अल्पवय में वीरता का परिचय देते हुए कुमारिकाओं का पथ प्रदर्शन कर उन्हें मोक्षमार्ग में आरूढ़ करने वाली उन ‘‘वीरमती माताजी’’ने गुरु आज्ञा से चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर ‘‘ज्ञानमती माताजी’’ के रूप में अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से जो कीर्तिमान स्थापित किया है, वह इस तीर्थ की महत्ता को और अधिक वृद्धिंगत करते हैं। युगों-युगों तक जब-जब पूज्य माताजी को स्मरण किया जाएगा, तब-तब प्रत्येक प्राणी इस पवित्र भूमि की गौरवगाथा गाते हुए इसको भी अवश्य नमन करेगा।
इस तीर्थक्षेत्र के प्रादुर्भाव के बारे में ऐसा बताया जाता है
कि लगभग ४०० वर्ष पूर्व चांदन गांव में विचरण करने वाली एक गाय का दूध गंभीर नदी के पास एक टीले पर स्वत: ही झर जाता था। गाय जब कई दिनों तक बिना दूध के घर पहुँचती रही तो ग्वाले ने कारण जानने के लिए गाय का पीछा किया। जब ग्वाले ने यह चमत्कार देखा तो उत्सुकतावश उसने टीले की खुदाई की। वहीं भगवान महावीर की यह दिगम्बर प्रतिमा प्रगट हुई। मूर्ति के चमत्कार और अतिशय की महिमा तेजी से सम्पूर्ण क्षेत्र में फैल गई। सभी धर्म, जाति और सम्प्रदाय के लोग भारी संख्या में दूर-दूर से दर्शनार्थ आने लगे, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होने लगीं, क्षेत्र मंगलमय हो उठा। समय के प्रवाह में विकसित होता यह तीर्थ आज सम्पूर्ण भारत का गौरवस्थल बन गया है। अतिशयकारी भगवान महावीर की प्रतिमा से प्रभावित होकर बसवा निवासी श्री अमरचंद बिलाला ने यहाँ एक मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर के चारों ओर दर्शनार्थियों के ठहरने के लिए कमरों का निर्माण भक्तजनों के सहयोग से कराया गया जिसे ‘‘कटला’’ कहा जाता है। कटले के मध्य में स्थित है मुख्य मंदिर। इस विशाल जिनालय के गगनचुम्बी धवल शिखर एवं स्वर्ण कलशों पर फहराती जैनधर्म की ध्वजाएँ रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र) का संदेश देती प्रतीत होती हैं। मंदिर की पार्श्ववेदी में मूलनायक के रूप में भूगर्भ से प्राप्त भगवान महावीर की प्रतिमा विराजित है तथा दायीं ओर तीर्थंकर पुष्पदंत एवं बायीं ओर तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमाएं विराजमान की गई हैं। मंदिर के भीतरी एवं बाहरी प्रकोष्ठों में संगमरमरी दीवारों पर बारीक खुदाई से तथा स्वर्णिम चित्रांकन कराकर मंदिर की छटा को आकर्षक व प्रभावशाली बनाया गया है। मंदिर की बाह्य परिक्रमा में कलात्मक भाव उत्कीर्ण किये गए हैं। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार की सीढ़ियों को सुविधाजनक एवं आकर्षक स्वरूप दिया गया है। श्री महावीर जी में मुख्य मंदिर के अलावा गत वर्षों में ४ और मंदिरों का निर्माण हुआ। १. शांतिवीर नगर में विशाल खड्गासन प्रतिमा एवं अन्य तीर्थंकर प्रतिमा २. कीर्ति आश्रम चैत्यालय ३. सन्मति धर्मशाला के सामने ब्र. कमलाबाई द्वारा भगवान पाश्र्वनाथ जिनालय (काँच का मंदिर) ४. ब्र. कृष्णाबाई द्वारा संचालित मुमुक्षु महिलाश्रम का जिनमंदिर। वर्तमान में मुख्य मंदिर में जहाँ भगवान महावीर की मूलनायक प्रतिमा विराजमान है, उसके नीचे की मंजिल में ही प्राचीन लाल पाषाण से निर्मित कलात्मक मंदिर विद्यमान है जिसे ‘ध्यान केन्द्र’ के रूप में विकसित किया गया है।
भगवान महावीर की प्रतिमा के उद्भव स्थल पर एक
कलात्मक छत्री में भगवान के चरण चिन्ह प्रतिष्ठित हैं। आज भी यहाँ दुग्धाभिषेक करने की होड़ सी लगी रहती है। इस छत्री के चारों ओर आकर्षक उद्यान विकसित किया गया है। इस उद्यान में चरणचिन्ह छत्री के सामने वाले भाग में २९ फीट ऊँचा ‘महावीर स्तूप’ है जिसके फलकों पर भगवान महावीर के उपदेश अंकित हैं। यह स्तूप भगवान महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव के पावन उपलक्ष्य में निर्मित किया गया था। चरणचिन्ह छत्री के पीछे वाले भाग को आधुनिक ‘‘बालवाटिका’’ का स्वरूप दिया गया है, इसमें एक आकर्षक ‘बारहदरी’ भी बनाई गई है। दूर-दूर से आए भक्तजन चरणचिन्ह छत्री के बाहर ही बालकों का पारम्परिक मुण्डन संस्कार आदि करवाकर अपनी आस्था और विश्वास प्रगट करते हैं। मंदिर के मुुख्य द्वार के सम्मुख ५२ फुट ऊँचा संगमरमर से निर्मित कलात्मक मानस्तंभ है जिसके शीर्ष पर चार तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं। यह भव्य मानस्तंभ यात्रियों को दूर से ही आकर्षित करता है। क्षेत्र पर विभिन्न नामों की ७ धर्मशालाएँ अवस्थित हैं एवं क्षेत्र पर अन्य कई सेवाभावी संस्थाएँ हैं- यहाँ के वार्षिक मेला की विशेष प्रसिद्धि है। महावीर जयंती के अवसर पर यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला तेरस से वैशाख कृष्णा द्वितीया तक ५ दिवसीय लक्खी मेला लगता है। इस मेले में साम्प्रदायिक, राष्ट्रीय एवं भावनात्मक एकता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। भारत में यह दिगम्बर जैन तीर्थ ऐसा धार्मिक स्थल है जहाँ जैन ही नहीं अपितु सभी वर्ग के लोग सम्मिलित होकर भगवान का दर्शन-वन्दन-जयकार कर मनौतियाँ मनाते हैं। श्री महावीर जी मंदिर और क्षेत्र का प्रबंध प्रारंभ से जयपुर के दिगम्बर जैनियों की पंचायत की ओर से मूलसंघ आम्नाय के आमेर गद्दी के दिगम्बर जैन भट्टारकों द्वारा होता था। इन भट्टारकों की नियुक्ति दिगम्बर जैन पंचायत करती थी और जयपुर राज्य की सरकार मान्यता देती थी। सन् १९९८ में भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्ति जी के निधन के बाद जयपुर की दिगम्बर जैन पंचायत ने परम्परानुसार भट्टारक श्री चन्द्रकीर्ति जी को पदस्थापित किया। सन् १९२३ में जब गांव के जमींदार हासिल देने में आनाकानी करने लगे तो जयपुर की दि. जैन पंचायतों के आग्रह पर जयपुर राज्य के कोर्ट ऑफ वाडर््स द्वारा प्रबंध किया गया तथा दिगम्बर जैन पंचायतों की ओर से क्षेत्र पर एक मोतमिद निरन्तर मनोनीत रहा। सन् १९२३ से १९३० तक क्षेत्र का प्रबंध कोर्ट ऑफ वार्ड्स ने किया। सन् १९३० में दिगम्बर जैन पंचायतों को उनके आवेदन पर प्रबंध वापिस संभला दिया गया। तभी से निरन्तर राज्य की मान्यता प्राप्त दिगम्बर जैन पंचों की कमेटी क्षेत्र का सम्पूर्ण प्रबंध कर रही है। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, राजस्थान सार्वजनिक प्रन्यास अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर्ड प्रन्यास है और इसकी प्रबंधकर्ता ‘‘प्रबंधकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी’’ सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत रजिस्टर्ड संस्था है। सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज एवं भक्तजनों के सहयोग से यह क्षेत्र निरन्तर प्रगति पथ की ओर अग्रसर है।