गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री माता मोहिनीदेवी का परिचय
लेखिका-ब्र. कु. बीना जैन
(संघस्थ-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी)
आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्र को भी अवध के नाम से जाना जाता है। वैसे इन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और उनके प्रथम पुत्र चक्रवर्ती सम्राट् भरत के समय वह अयोध्या नगरी १२ योजन लम्बी थी अत: ९६ मील होने से लखनऊ, टिवैतनगर, त्रिलोकपुर, बाराबंकी, महमूदाबाद आदि नगर उस समय अयोध्या नगरी की पवित्र भूमि की सीमा में विद्यमान थे। वस्तुत: आज भी अयोध्या तीर्थ की पवित्रता से सम्पूर्ण अवध का वातावरण सुवासित, धर्मपरायण एवं परम पवित्र है। उसी अवधप्रान्त के जिला सीतापुर के अन्तर्गत महमूदाबाद नामक एक नगर है, जहाँ विशाल जिनमंदिर के निकट वर्तमान में ६०-७० जैन घर हैं। उसी नगरी में एक सुखपालदास जी नाम के श्रेष्ठी निवास करते थे। अग्रवाल जातीय लाला सुखपालदास जी की धर्मपत्नी का नाम मत्तोदेवी था। पूरे नगर में धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध सुखपालदास जी भगवान की नित्य पूजन के साथ-साथ स्वाध्याय भी करते थे। सात्त्विक प्रवृत्ति वाले इन महामना श्रावक की धर्मपत्नी भी पतिव्रता आदि गुणों से सहित धर्मपरायण एवं अत्यन्त सरल प्रकृति की थीं। इन धर्मनिष्ठ दम्पत्ति के चार संताने थीं, जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- १. शिवप्यारी देवी २. मोहिनी देवी ३. महिपालदास ४. भगवानदास। पिता सुखपालदास जी ने इन सभी संतानों को धर्ममय संस्कारोें से विशेष संस्कारित किया था।
ईसवी सन् १९१४ में इन धर्मपरायण दम्पत्ति
ईसवी सन् १९१४ में इन धर्मपरायण दम्पत्ति की बगिया में द्वितीय कन्या रत्न के रूप में जन्मी ‘मोहिनी’ का नाम पिता ने बड़े ही प्यार से रखा था और माता-पिता, कुटुम्बीजनों, यहाँ तक की नगरवासियों का भी इस कन्या पर विशेष स्नेह था। अपने सहज पिता सुखपालदास जी प्रतिदिन रात्रि में अपने हाथों से बादाम भिगोकर प्रात: छीलकर दूध के साथ उस मोहिनी को देते तथा प्रतिदिन उसे अपने साथ मंदिर भी ले जाते थे। ५-६ वर्ष की उम्र में स्कूल जाने पर थोड़े ही दिनों में मोहिनी देवी ने ३-४ कक्षा तक अध्ययन कर लिया। चूँकि महमूदाबाद का इलाका मुस्लिम इलाका था अत: पिताजीने अपने महीपाल पुत्र की शिक्षा हेतु एक मौलवी अध्यापक की व्यवस्था कर रखी थी, वे उन्हें उर्दू पढ़ाते थे और तीक्ष्ण बुद्धि की धनी कन्या मोहिनी अपने छोटे भाई को उर्दू पढ़ते देख स्वयं भी उर्दू पढ़ना सीख गई। चूँकि घर में अब छोटा बालक भगवानदास था अत: उसके प्रति विशेष वात्सल्य होने से मोहिनी ने स्कूल जाना छोड़ दिया। प्राय: देखा जाता है कि होनहार, कुशाग्र बुद्धि के छात्र-छात्राएं गुरु के लिए विशेष कृपापात्र होते हैं और गुरु का उन पर विशेष स्नेह रहता है अत: जब कन्या मोहिनी कुछ दिन स्कूल नहीं गर्इं, तो उनकी अध्यापिकाएँ आकर लाला सुखपालदास जी से उसकी कुशाग्र बुद्धि के कारण उसे स्कूल भेजने का आग्रह करतीं, साथ ही कहतीं कि इसके बगैर तो हमारा स्कूल ही सूना हो जाता है। पिताजी की प्रेरणा के बाद भी मोहिनी भाई को खिलाने का बहाना कर स्कूल जाने को मना कर देंती। चूँकि उस समय कन्याओं को ज्यादा पढ़ाने की परम्परा नहीं थी और मुसलमानी इलाका होने के कारण माँ मत्तोदेवी भी कन्या को स्कूल भेजने का आग्रह नहीं करती थीं, अत: उनकी लौकिक शिक्षा अल्प ही रही। पुन: पिताजी ने मोहिनी के अन्दर धार्मिक संस्कार डालने हेतु उसे भक्तामर, तत्त्वार्थसूत्र आदि का अध्ययन कराना प्रारंभ किया और रात्रि में पूरे परिवार को एक साथ बिठाकर मोहिनी से शास्त्र पढ़वाते और बड़े खुश होते थे पुन: सबको शास्त्र का अर्थ भी समझाते थे।
पद्मनन्दिपंचविंशतिका ग्रंथ पढने की प्रेरणा
एक बार पिता ने मोहिनी को एक मुद्रित ग्रंथ पद्मनन्दिपंचविंशतिका देकर उससे उसका स्वाध्याय करने को कहा। मोहिनी ने पिता की आज्ञा स्वीकार कर उस ग्रंथ का स्वाध्याय किया और उस स्वाध्याय का प्रतिफल यह रहा कि मोहिनी ने उस ग्रंथ में पर्व के दिन ब्रह्मचर्य वेâ महत्त्व को पढ़कर भगवान की प्रतिमा के सम्मुख अष्टमी, चतुर्दशी के दिन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया और किसी को इस व्रत के बारे में विदित भी न हो सका। चूँकि जिनमंदिर में प्रतिदिन सुखपाल दास जी ही शास्त्र वांचते थे अत: सभी इन्हें पण्डित जी कहकर पुकारते थे। बड़े पुत्र महिपालदास जी कुश्ती के अच्छे खिलाड़ी बन गए थे और इलाके में बड़ी-बड़ी कुश्ती कर कई एक प्रतियोगिता जीती थीं। मोहिनी देवी के पिताजी पहले कपड़े का व्यवसाय करते थे इनका नियम था देवपूजा करके ही दुकान खोलना और अगर मंदिर न हो तो ‘जाप्य’ करके ही ग्राहक से बात करना। उनके इस नियम के कारण ही उनकी अंत समाधि बहुत ही अच्छी हुई। एक बार वे बिसवां में व्यापार हेतु गये, प्रात: ही एक ग्राहक आ गया, तब उन्होंने कहा-भाई! मैं जाप्य करके ही वार्तालाप करूँगा। तब वह ग्राहक बाहर बैठ गया पुन: वह शुद्ध वस्त्र पहनकर जाप्य करने बैठे और जाप्य करते-करते ही उनके प्राण पखेरू उड़ जाने से उन्हें उत्तम गति की प्राप्ति हुई। उधर जब बहुत देर हो गई, तो उस ग्राहक ने अंदर जाकर देखा, तो उन्हें मृत पाया। तब परिवार के लोगों को बुलाकर उनकी अन्त्येष्टि की गई। वास्तव में बंधुओं! एक छोटा से छोटा नियम भी इस जीव को संसार से पार करने में सहकारी कारण बन जाता है, इसीलिए धर्मगुरु सदैव हमें कोई न कोई व्रत नियम लेने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। सेठ सुखपालदास जी ने अपने सामने ही अपने सभी पुत्र-पुत्रियों का विवाह कर दिया था, जिसमें लाडली पुत्री मोहिनी का उन्होंने अयोध्या के निकट बसे धर्मपरायण नगर बाराबंकी जिले में स्थित टिवैतनगर नामक ग्राम धर्मात्मा श्रावक लाला धन्यकुमार जी एवं उनकी धर्मपत्नी फूलमती के द्वितीय पुत्र छोटेलाल जी के साथ किया था। लाला धन्यकुमार जी ने महमूदाबाद के लाला सुखपाल जी की बहुत ही प्रशंसा सुन रखी थी, साथ ही मोहिनी के गुणों से भी बहुत प्रभावित थे। सुखपालदास जी ने भी उनके पुत्र में एक वर के सभी गुणों को देखकर तुरंत स्वीकृति प्रदान कर दी और शुभ मुहूर्त में चि. छोटेलाल जी के साथ आयु. मोहिनी देवी का पाणिग्रह संस्कार हो गया। माता-पिता ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपनी प्यारी पुत्री को विदाई दी, उस समय सन् १९३२ में मोहिनी देवी की उम्र १८ वर्ष मात्र थी। विदाई के समय यूँ तो पिता जी ने अपनी दुलारी को दहेज में यथायोग्य सब कुछ प्रदान किया, किन्तु जब उनके मन को पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई, तो उन्होंने मोहिनी को ‘‘पद्मनन्दिपंचविंशतिका’’ ग्रंथ को सच्चे दहेज के रूप में देकर कहा-बिटिया मोहिनी! तुम हमेशा इस ग्रंथ का स्वाध्याय करती रहना, इसी से तुम्हारे गृहस्थाश्रम में सुख और शांति की वृद्धि होगी और तुम्हारा यह नरभव पाना सफल हो जायेगा। पुत्री मोहिनी ने भी पिता के द्वारा स्नेहपूर्वक प्रदत्त सच्चे दहेज को उसे सबसे अधिक मूल्यवान समझा।
ससुराल में मंगल प्रवेश
ससुराल में मंगल प्रवेश कर मोहिनी ने पिता द्वारा प्रदत्त उस ग्रंथ को अनमोल निधि के रूप में संभाल कर रखा और नियमत: प्रतिदिन देवदर्शन के पश्चात् उसका स्वाध्याय किया। यहाँ इस भरे-पूरे परिवार में मोहिनी को घुलते-मिलते देर न लगी। घर में देवदर्शन, रात्रि भोजन त्याग, जल छानकर पीना, सायंकाल मंदिर जाकर आरती करना और शास्त्र सभा में बैठकर विनयपूर्वक शास्त्र सुनना आदि श्रावकोचित्त सभी क्रियाएँ होती थीं। घर के निकट जिनमंदिर होने से मंदिर के घंटे, पूजा-पाठ व आरती की आवाज घर बैठे कानों में गूंजा करती थी। गृहस्थधर्म का परिपालन करती हुई मोहिनी देवी ने सन् १९३४ में आसोज सुदी पूर्णिमा-शरदपूर्णिमा की रात्रि में प्रथम पुष्प के रूप में एक कन्या रत्न को जन्म दिया, जिसकी शुभ्र चांदनी आज सारे भारतवर्ष में फैल रही है। मैना के जन्म से पहले ही मोहिनी देवी ने मैना सुन्दरी नाटक पढ़ा था और उन्हें सुरसुन्दरी-मैना सुन्दरी का संवाद याद था, उसे वे हमेशा गुनगुनाया करती थीं और यही संस्कार गर्भस्थ बालिका पर अच्छे तरह से पड़ गए। माता मोहिनी प्रतिदिन प्रात: उठकर सामायिक करती, पुन: स्नानादि से निवृत्त होकर मंदिर में जाकर भगवान की पूजा करके रसोई बनाती थीं और छोटे बच्चों को दूध पिलाते समय स्वाध्याय और भक्तामर आदि के पाठ किया करती थीं, जिससे वह दूध भी अमृत तुल्य बन जाता था और बच्चों में धार्मिक संस्कार पड़ते जाते थे। प्रतिदिन सायंकाल वे स्वयं मंदिर जातीं और बच्चों को भी भेजती थीं, प्रतिदिन किसी भी बालक को मंदिर जाए बिना नाश्ता भी नहीं मिलता था, यही कारण था कि माता मोहिनी की १३ संतानें इसी धर्म के साँचे में ढलती चली गर्इं। माता मोहिनी ने अपनी पुत्री मैना की बातों को जैनागम से प्रमाणित समझकर मान्य किया और मैना की बातों को मान्यता देती रहती थीं। इस प्रकार माता मोहिनी ने अपनी सभी सन्तानों को सुसंस्कारित कर गृहस्थोचित सभी क्रियाओं का कुशल संचालन करते हुए अपने पति लाला छोटेलाल जी के अन्त समय में उनकी सुन्दर समाधि कराकर नारी जाति के लिए एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने पुत्र-पुत्रियों को उन्होंने उसी प्रकार पालने में शिक्षा प्रदान की, जिस प्रकार रानी मदालसा ने अपने पुत्रों को पालने में शिक्षा दिया था कि-शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसार माया परिवर्जितोऽसि’ हे पुत्र! तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है और संसार की माया से रहित है। ऐसा सुन-सुनकर उसके सभी पुत्र युवा होकर विरक्त हो घर से चले जाते थे।
उन पुत्र-पुत्रियों की भांति ही माता मोहिनी
उन पुत्र-पुत्रियों की भांति ही माता मोहिनी की भी तीन पुत्रियाँ एवं एक पुत्र गृहबंधन से निकलते गए और शेष ६ पुत्रियाँ व ३ पुत्र गृहस्थ धर्म में रहकर देव-शास्त्र-गुरु का दृढ़ श्रद्धान कर धर्माराधनापूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। स्वयं माता मोहिनी ने अपने गृहस्थ जीवन में भगवान नेमिनाथ जी की प्रतिमा एवं टिकैतनगर में विराजमान ढ़ाई फुट ऊँचे १६ चैत्यालयों से समन्वित सुमेरु पर्वत का प्रतिदिन इच्छानुसार खूब पंचामृत अभिषेक किया तथा पूजा में भी उनकी गहन रुचि रही है। मोहिनी माता बनीं आर्यिका रत्नमती-सन् १९७१ में संघ का चातुर्मास अजमेर शहर में हो रहा था। उस समय मोहिनी देवी अपने बड़े पुत्र कैलाशचंद व पुत्रवधू के साथ संघ के दर्शनार्थ आर्इं, उस समय उनके साथ उनकी १२वें नं. की पुत्री कु. माधुरी भी थीं। संघ में आर्यिका पद्मावती माताजी ने पूर्व की भांति ही भाद्रपद मास में सोलहकारण व्रत का १ माह का उपवास कर रखा था और पूज्य ज्ञानमती माताजी के अत्यधिक आग्रह पर भी २१ दिनों तक जल नहीं लिया, २२वें दिन उन्होंने अपनी चर्या पालन हेतु अंतिम बार जल लिया, जिसे देने का सौभाग्य माता मोहिनी और आर्यिका पद्मावती माताजी के गृहस्थावस्था के पति को प्राप्त हुआ, जो उस समय म्हसवड़ से आए थे। इस प्रकार माता मोहिनी प्रतिदिन अपने चौके में कई एक साधुओं को आहार देकर अपना जीवन सफल कर रही थीं। आसोज वदी प्रतिपदा को सायंकाल में आ. पद्मावती माताजी की प्रकृति बिगड़ी। संघ के सभी साधुगण आ गए और पद्मावती माताजी ने आचार्यश्री एवं सभी साधुओं के दर्शन कर सबसे क्षमायाचना की और साधुओं के मुख से णमोकार महामंत्र सुनते हुए इस नश्वर देह को छोड़कर स्वर्ग पद प्राप्त कर लिया। वे पद्मावती माताजी जब तक माताजी के पास रहीं, सदैव इनकी छाया की भांति रहीं और माताजी ने बड़ी तन्मयता से इनकी समाधि बनवाई थी। माता मोहिनी ने बड़ी तन्मयता से पद्मावती माताजी की सल्लेखना देखी, उसके बाद पुत्र के साथ केशरिया जी तीर्थ की यात्रा व श्रुतसागर महाराज के दर्शन कर वापस अजमेर आ गई और कैलाश को यह कहकर समझाकर वापस भेज दिया कि मुझे आर्यिका अभयमती जी के पास एक माह तक रुकने की इच्छा है, वह किशनगढ़ में थी, जो अजमेर के निकट ही है। माता मोहिनी जी किशनगढ़ जाकर एक माह रहकर वापस अजमेर आ गर्इं और दीपावली के बाद एक दिन आकर ज्ञानमती माताजी से कहने लगीं- माताजी! अब मेरी इच्छा घर जाने की नहीं है। कैलाश, प्रकाश, सुभाष, रवीन्द्र सभी लड़के योग्य हैं, कुशल व्यापारी हैंं। माधुरी, त्रिशला अभी छोटी हैं। कुछ दिनों बाद इनकी शादी ये भाई कर देंगे और अब मेरा मन पूर्णरूपेण विरक्त हो चुका है, मैं दीक्षा लेकर अपना आत्मकल्याण करना चाहती हूँ। चूँंकि माताजी ने तो इस संदर्भ में उन्हें अनेक बार प्रेरणा दी ही थी अत: इतना सुनते ही बहुत प्रसन्न होकर कहने लगीं कि आपने बहुत अच्छा सोचा है। देखो-
‘‘जब लो न रोग जरा गहे, तब लो झटिति निज हित करो।’’
इस पंक्ति के अनुसार अभी आपका शरीर साथ दे रहा है अत: अब आपको किसी की भी परवाह न कर आत्मसाधना में ही लग जाना है। इसके साथ ही माताजी ने उन्हें यह भी बता दिया कि मैंने सुगंध दशमी के दिन माधुरी को ब्रह्मचर्य व्रत दे दिया है, उसकी शादी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह सुनकर आश्चर्यचकित मोहिनी माता कह उठीं कि माताजी! अभी तो माधुरी मात्र १३ वर्ष की है, वह ब्रह्मचर्य का अर्थ क्या समझे। अभी से व्रत न देकर कुछ दिन संघ में रखकर धर्म पढ़ा देतीं, तो अच्छा था। पुन: वे कहने लगीं कि अब मैं किसी के मोक्षमार्ग में बाधक क्यों बनूँ, जिसका जो भाग्य होगा, सो होगा। मुझे तो अब र्आियका दीक्षा लेनी है।’’
माँ की दीक्षा
माताजी ने उसी समय रवीन्द्र कुमार को बुलाकर माँ के भाव बता दिये, जिसे सुनकर माँ के कमजोर शरीर एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से रवीन्द्र जी एकदम विक्षिप्त हो उठे, किन्तु माता मोहिनी ने उस हेतु अपना दृढ़ निश्चय रखा। माताजी ने रवीन्द्र जी की विक्षिप्तता देख उनके इधर-उधर होने पर संघस्थ शिष्य मोतीचंद जी को बुलाकर सारी बात बताई और बाजार से श्रीफल लाने को कहा। मोतीचंद जी ने यह सुनकर बहुत ही प्रसन्न हो चुपचाप बाजार से श्रीफल लाकर माता मोहिनी के हाथ में दे दिया और मोहिनी देवी उसी समय माताजी के साथ सेठ साहब की नशिया में आचार्यश्री के समक्ष श्रीफल लेकर बोलीं-महाराज जी! मैं आपके करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ और श्रीफल चढ़ा दिया। आचार्य श्री उस समय प्रसन्नमना हो माता ज्ञानमती जी की ओर देखने लगे। उपस्थित सभी साधुवर्ग उनके वैराग्य की सराहना करने लगे। तब आचार्यश्री ने कहा कि तुम्हारा शरीर बहुत कमजोर है और यह जैनी दीक्षा तलवार की धार है। तब मोहिनी माता ने सारपूर्ण उत्तर देते हुए कहा कि महाराज जी! संसार में रहकर जितने कष्ट सहन करने पड़ते हैं, उतना कष्ट दीक्षा में नहींr है। फिर माताजी ने अजमेर के एक अति विश्वस्त श्रावक जीवनलाल जी को टिकैतनगर भेजकर यह समाचार पहुँचा दिया। इधर घर में समाचार पहुँचते ही सबको बहुत झटका लगा और सब विक्षिप्त हो रोने लगे पुन: येन-केन प्रकारेण मन को समझाकर शीघ्र ही उनके पुत्र-पुत्री, भाई आदि सब अजमेर आ गए और सभी मोहिनी जी से चिपटकर रोने लगे। सभी ने इनकी दीक्षा रोकने के बहुत प्रयत्न किए और बहुत उपद्रव भी किया। आश्चर्य तो इस बात का रहा कि रवीन्द्र जी भी उसी में शामिल हो गए चूँकि तब तक उन्होंने न ही व्रत लिया था और न ही सदा संघ में रहने का उनका निर्णय था। इन सभी प्रसंगों में मोहिनी जी निर्मोहिनी बन गर्इं और अपने निर्णय पर अडिग रहीं, अन्ततोगत्वा माता मोहिनी की दीक्षा का कार्यक्रम बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ, जो कि अजमेर नगर के लिए ऐतिहासिक अवसर था। दीक्षा के दिन मोहिनी जी के सिर के बाल छोटे थे क्योंकि उन्होंने एक माह पूर्व ही अपने केश काटे थे अत: छोटे केशों का लुंचन करना बड़ा कठिन था। जब माताजी ने चुटकी से इनको केश निकालना शुरू किया तो सारा लाल-लाल हो गया उस समय माता मोहिनी के पुत्र-पुत्री और कुटुम्बी ही क्या अनेक देखने वाले लोग भी खूब रोने लगे और मोहिनी के साहस एवं वैराग्य की प्रश्ांसा करने लगे। उस समय दीक्षा के अवसर पर अनेक साधुओं ने निर्णय लिया कि चूँकि माता मोहिनी साक्षात् रत्नों की खान हैं अत: इनका ‘रत्नमती’ यह सार्थक नाम रखना चाहिए, तब आचार्य श्री धर्मसागर महाराज ने इन्हें ‘‘आर्यिका रत्नमती माताजी’’ के नाम से सम्बोधित किया। उस समय अपनी जन्मदात्री माँ के आर्यिका दीक्षा के अवसर पर आर्यिका अभयमती माताजी भी किशनगढ़ से वहाँ आ गई थीं। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को यूँ तो दीक्षा देने-दिलाने में असीम आनन्द की अनुभूति होती ही है फिर जब उनकी जन्मदात्री और वैराग्य पथ पर बढ़ने में सहयोग देने वाली सच्ची माता आर्यिका दीक्षा ले रही हैं, फिर उनकी खुशी का क्या ठिकाना। अजमेर में दीक्षा का यह भव्य कार्यक्रम मोइनिया इस्लामिया उ.मा. विद्यालय के विशाल प्रांगण में सम्पन्न हुआ था, जहाँ अगणित जैन-जैनेतरों ने भाग लिया था।
स्वाध्याय एवं धर्मचर्चा में मग्न
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी ने दीक्षा के पश्चात् पूज्य माताजी के संघ में रहते हुए १३ चातुर्मास किए और दीक्षा के पूर्व तो अनेक ग्रंथों के स्वाध्याय किए ही थे, दीक्षा के पश्चात् चारों अनुयोगों के ग्रंथों का अच्छी तरह स्वाध्याय किया। समय-समय पर, आगत यात्रियों, महिलाओं, बालिकाओं को धर्म का उपदेश देकर देवदर्शन, पूजन, रात्रि भोजन त्याग, स्वाध्याय आदि का वे उपदेश देती थीं और क्षेत्र पर आगत जैनेतर बंधुओं को मद्य, मांस, मधु त्याग की प्रेरणा देती रहती थीं। आर्यिका रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य पित्त प्रकोप की बहुलता से युक्त था अत: इन्हें जम्बूद्वीप स्थल पर खुले स्थान के कारण गर्मी की लू लपट एवं सर्दी में ठण्ड की बाधा असह्य महसूस देती थी। इनका आहार अति अल्प था, मूंंग की दाल के पानी में भीगी दो रोटी और लौकी का उबला साग वे लेती थीं तथा थोड़ी सी दूध की दलिया, थोड़ा सा दूध, अनार का रस और कभी-कभी थोड़ा सा फल, बस यही उनका आहार था। इनके इतने अधिक पथ्य को देखकर कभी-कभी वैद्य भी हैरान होकर कहते थे कि माताजी! श्रावक आहार में जो आपको देता है, सो यदि आपका त्याग न हो, तो ले लिया करें। मौसम में आने वाले फल तथा खिचड़ी, चावल भी ले लिया करें, किन्तु ये किसी की नहीं सुनती थीं। घर में भी यह अपनी सन्तानों को भी ऐसे ही पथ्य कराती रहती थीं, यही कारण है कि इनके पुत्र-पुत्रियों में खाने की जिह्वा लोलुपता नहीं दिखती है। र्आियका श्री ज्ञानमती माताजी का प्राय: सब त्याग है, मात्र दो अन्न, दो रस और गिने-चुने फल और उसमें भी अकसर उनका भी त्याग कर देती हैं, महीने में कई दिन नीरस भोजन करती हैं एवं अष्टमी-चतुर्दशी को तो उनका ५० वर्ष से अन्न का त्याग है। आर्यिका श्री रत्नमती माताजी प्रात: ३ बजे उठकर महामंत्र का जाप्य करके अपर रात्रि स्वाध्याय में तत्त्वार्थ सूत्र का पाठ कर पुन: सहस्रनाम, भक्तामर, त्रिलोकवंदना, निर्वाणकाण्ड आदि स्तोत्रों का पाठ करती थीं। ७ से ८ बजे तक सामूहिक स्वाध्याय में बैठतीं अनन्तर आहार के बाद सामायिक कर विश्राम करती थीं। पुन: २ बजे से ४ बजे तक विद्यापीठ के विद्यार्थीगण और प्राचार्य श्री आकर माताजी के सानिध्य में स्वाध्याय करते और वे मनोयोगपूर्वक उसे सुनती थीं, अनन्तर वृद्धावस्था के कारण कुछ क्षण शरीर की सेवा करवाकर दैवसिक प्रतिक्रमण करतीं पुन: सायंकाल भगवान के दर्शन कर सामायिक करती थीं।
रात्रि में सर्दी के दिनों में तो पूर्व रात्रिक स्वाध्याय के स्थान पर छहढाला का पाठ सुनती थीं। इन्हें छहढाला से विशेष प्रेम था, यदि किसी कारणवश यह छहढ़ाला न सुन सके, तो उन्हें लगता कि मैंने कुछ सुना ही नहीं है। इस प्रकार यह अपनी आगम चर्या का पूर्णत: पालन करती थीं। यदि कदाचित् पित्त प्रकोप आदि से विशेष अस्वस्थ रहती थीं, तो संघस्थ आर्यिकाएँ उन क्रियाओं को सुनाती थीं। इन्हें ऋषिमण्डल स्तोत्र और उसके मंत्र से भी विशेष प्रेम था। इनकी अस्वस्थता के कारण प्राय: संघ में चैत्यालय रहता था फिर भी मंदिर जाकर भगवान का दर्शन करके ही इन्हें संतोष होता था। पित्त प्रकोप होने से इनके शरीर के लिए उपवास हितकर नहीं था, फिर भी व्रतों का प्रेम और सल्लेखना विधि की भावना से पंचमेरु आदि व्रत (उपवासपूर्वक) किया करती थीं। इनकी सबसे बड़ी विशेषता थी इनकी निरभिमानता, ये कभी ज्ञानमती माताजी का नाम न लेकर उन्हें ‘माताजी’ कहकर सम्बोधित करती थीं। वास्तव में धन्य थीं उनके जीवन की वह घड़ियाँ, जब १५ जनवरी १९८५ को उन्होंने पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में हृदयस्पर्शी धार्मिक संबोधन प्राप्त कर सल्लेखना विधिपूर्वक जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में समाधि मरण किया। दिन में १ बजकर ४५ मिनट पर इस नश्वर शरीर से वह दिव्यआत्मा निकलकर देवलोक में जाकर विराजमान हो गर्ई। यूँ तो एक जगत माता के हमारे बीच से जाने पर एक अपूर्णनीय क्षति हुई फिर भी मृत्यु से संघर्ष करना वीरता का परिचायक है और यह निश्चित है कि शीघ्र ही उन्हें सिद्धगति की प्राप्ति होगी। पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के जीवन में १३ का अंक विशेष शुभ रहा। १३ सन्तानों को जन्म देने वाली, दीक्षा लेकर १३ प्रकार के चारित्र का परिपालन कर १३ वर्ष तक दीक्षित जीवन में रहकर उन्होंने सदैव स्व-परकल्याण का भाव रखा। जब उनकी समाधि हुई, तो उपस्थित लोगों ने रात्रि में देवों द्वारा बजाये गये बाजों की ध्वनि सुनी थी, ऐसा लगता है कि देवगति की प्राप्ति कर वे देव बनकर तीर्थ वंदना हेतु जम्बूद्वीप स्थल पर अवश्य आयी होंगी। वस्तुत: ऐसी तप:पूत रत्नों की खान, निरभिमानी, वात्सल्यमयी, अनमोल निधियों की प्रदात्री माता रत्नमती जी शीघ्र ही सिद्धगति की प्राप्ति करेंगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है और उनके चरण कमलों में कोटिश: वंदन के साथ यही प्रबल भावना है कि उनकी वंशावलि की एक कली के रूप में मुझे भी उसी वंश में (उनकी नातिन के रूप में) जन्म लेकर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की छत्रछाया में रहकर आत्मकल्याण करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है और उस आत्मकल्याण की भावना को वृद्धिंगत करते हुए मैं भी शीघ्र ही स्त्रीलिंग को छेदने वाली आर्यिका पदवी की प्राप्ति कर अपनी मानव पर्याय को सफल कर सकू। अंत में-
अनेक रत्नैरति दीप्तिमद्भि:, यथा प्रसूतै: समलंकृतोर्वी।