रत्नत्रय है धर्म, निश्चित मुक्ति प्रदाता।
सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित से सुखदाता।।
निश्चय औ व्यवहार, द्विविध धर्म रत्नत्रय।
वंदूं शीश नमाय, निज को करूँ धर्ममय।।१।।
सम्यग्दर्शन रत्न, आठ अंग युत माना।
मोक्ष मार्ग का मूल, मुनियों ने है जाना।।
नि:शंकित है अंग, जिन वच में निंह शंका।
वंदूं शीश नमाय, निज में हो दृढ़ श्रद्धा।।२।।
इह भव में विभवादि, आगे चक्री आदिक।
नाना सुख की चाह, अथवा अन्य मतादिक।।
जो निंह करते भव्य, नि:कांक्षित है उनके।
वंदूं नित्य द्वितीय, मिले आत्म सुख जिससे।।३।।
रत्नत्रय से पूत, मुनियों का तन मानो।
मलमूत्रादिक वस्तु, भरित घिनावन जानो।।
ग्लानि न करके भव्य, गुण में प्रीत बढ़ावें।
वचिकित्सा अंग, इसे नमत सुख पावें।।४।।
कुत्सित मार्ग कुधर्म, कुपथ लीन जन बहुते।
इनको मानै मूढ़, सम्यग्दृष्टी बचते।।
चौथा अंग अमूढ़, दृष्टि कहा जाता है।
इसे वंदते भव्य, उनने भव नाशा है।।५।।
सदा शुद्ध शिव मार्ग, अज्ञानी जन आश्रय।
दोष कदाचित् होंय, उन्हें ढके शुभ आशय।।
निज आत्मा के धर्म, मार्दव आदि बढ़ावें।
उपगूहन यह अंग, इसे नमत सुख पावें।।६।।
सम्यक् या चारित, से जो च्युत हो जावे।
उसमें सुस्थिर कर दे, युक्ती आदि उपाये।।
निज को भी शिव मार्ग, में ही दृढ़ रक्खे जो।
स्थितिकरण यह अंग, इसे नमें सुख लें वो।।७।।
सहधर्मी जन संघ, कपट रहित हो प्रीती।
यथा योग्य सत्कार, यह वात्सल की रीती।।
गाय वत्सवत्प्रेम, वात्सल्य गुण माना।
सम्यग्दर्शन अंग, इसे नमत सुख पाना।।८।।
जिन प्रभावना करे, निज गुण तेज बढ़ावे।
पूजा दान तप आदि, से जिन धर्म दिपावे।।
यह प्रभावना अंग, तम अज्ञान हटावे।
इसको वंदें भव्य, धर्म महात्म्य दिखावें।।९।।
अष्ट अंगयुत दृष्टि यह, दोष पच्चीस विहीन।
परमानन्द अमृत भरे, करे दोष सब क्षीण।।१०।।
समकित होते ही हुआ, सम्यग्ज्ञान अपूर्व।
फिर भी ज्ञानाराधना, करो अष्टविध पूर्व।।
स्वर व्यंजन से शुद्ध पूर्ण जो, करे प्रगट उच्चारण।
शब्दाचार करे वृिंद्धगत, शुद्ध ज्ञान आराधन।।
स्वपर भेद विज्ञान प्रकट हो, परमाह्लाद विधाता।
शीश नमाकर मैं नित वंदूं, मिले सर्वसुख साता।।११।।
सूत्र आदि का अर्थ शुद्ध हो, गुरु की परंपरा से।
पूर्वापर संबंध जुड़ा हो, निंह अनर्थ हो जिससे।।स्वपर.।।१२।।
शब्द अर्थ की पूर्ण शुद्धि हो, उभयाचार कहावे।
उभय नयों से भी सापेक्षित, ज्ञान ज्योति प्रगटावे।।स्वपर.।।१३।।
त्रय संध्या उल्का ग्रहणादिक, बहुत अकाल बखाने।
इन्हें छोड़ सिद्धांत ग्रंथ को, पढ़े जिनाज्ञा मानें।।स्वपर.।।१४।।
हाथ—पैर आदि धोकर के, शुभ स्थान में पढ़ते।
हाथ जोड़ श्रुत भक्ति आदिकर, विनय बहुत विध धरते।।स्वपर.।।१५।।
कुछ रस आदि त्याग कर श्रुत को, पढ़े नियम धर रुचि से।
यह उपधान सहित आराधन, ज्ञान बढ़े नित इससे।।स्वपर.।।१६।।
ग्रंथ और गुरुजन का आदर, पूजा भक्ति करें जो।
यह बहुमान भावश्रुत करके, केवल ज्ञान करे वो।।स्वपर.।।१७।।
जिस गुरु से या जिन शास्त्रों से, ज्ञान प्राप्त हो जाता।
उनका नाम छिपावे निंह वह, कहा अनिह्नव जाता।।स्वपर.।।१८।।
ज्ञान अष्टविध धारते, प्रगटे केवलज्ञान।
शीश नमाऊं मैं करूं, स्वात्म सुधारस पान।।१९।।
सकल विकल के भेद से, चारित द्विविध महान्।
विकल चरित श्रावक धरें, बनें शील गुणवान्।।
सम्यक्त्व सहित अणुव्रत सुपांच, गुणव्रत शिक्षाव्रत कहे सात।
ये बारहव्रत हैं गृहीधर्म, इनको वंदे वो लहें शर्म।।२०।।
जो दर्शन व्रत सामायिकादि, ग्यारह प्रतिमा व्रत हैं अनादि।
इनसे श्रावक बनते महान् , यह प्रथम धर्म वंदे सुजान।।२१।।
मुनीधर्म के भेद, तेरह विध श्रुत में कहे।
उन्हें धरें बिन खेद, वे साधु भवदधि तिरें।।
महाव्रत अिंहसा, प्रथम है जगत में।
सभी प्राणियों की, दया है प्रगट में।।
दिगंबर मुनी ही, इसे पालते हैं।
नमें जो अिंहसा, वो अघ टालते हैं।।२२।।
असत् अप्रशस्ते, वचन जो न बोलें।
हितंकर मधुर मित, सदा सत्य बोलें।।
यही सत्य व्रत, दूसरा व्रत कहाता।
इसे मैं नमूं ये वचनसिद्धि दाता।।२३।।
पराया धनं शिष्य आदी न लेना।
महाव्रत अचौर्य निधी वो बखाना।
इसे वंदते स्वात्म संपत्ति मिलती।
जिसे प्राप्त करते महासाधु गुण ही।।२४।।
सुता मात भगिनी, सदृश सर्व महिला।
महाव्रत सुब्रह्मचर, धरे कोई विरला।।
त्रिजग पूज्य इंद्रादि वंदित ये व्रत हैं।
इसी से परमब्रह्म होता प्रगट है।।२५।।
परिग्रह सभी, मुक्ति जाने में बाधे।
दिगंबर मुनी ही, सभी वस्तु त्यागें।।
जगत भार से, छूटते ही विदेही।
नमूँ पाँचवां व्रत, बनूँ मुक्तिगेही।।२६।।
चतुर्युग प्रमाणे, धरा देख चलना।
बिना कार्य के, एक भी पग न धरना।।
सुगुरूदेव तीर्थादि वंदन निमित्त से।
गमन हो समिति ईरिया को नमूं मैं।।२७।।
स्वपर हित व मित मिष्ट वच नित्य भाषें।
सुभाषासमिति को, मुनिगण प्रकाशें।।
इसे धारते मुक्तिकन्या भि हो वश।
नमूं भक्ति से प्राप्त, निर्दोष हों वच।।२८।।
कृतादी रहित अन्न, प्रासुक स्वहितकर।
गृहस्थी के द्वारा, दिया लेवें मुनिवर।।
स्वकर—पात्र में लें, खड़े एक बारे।
यही एषणा समिति, क्षुध व्याधि टारे।।२९।।
कमंडलु व शास्त्रादि जो वस्तु धरना।
उठाना यदी प्राणियों पे हो करुणा।।
प्रथम चक्षु से देख पिच्छी से शोधें।
ये आदान निक्षेप समिति सुवंदे।।३०।।
हरितकाय जंतू रहित भूमि पर जो।
स्वमलमूत्र आदी विकृति को तजें वो।।
विउत्सर्ग समिति धरें जैन साधू।
नमूं मैं इसे फिर स्वशुद्धात्म साधू।।३१।।
महादोष रागादि से चित्त दूरा।
मनोगुप्ति ये पालते साधु शूरा।।
पुन: शुभ अशुभ भाव दोनों निरोधे।
निजानंद रसलीन गुप्ती सुवंदें।।३२।।
वचनगुप्ति आगम के अनुकूल बोलें।
पुन: मौन धर, मुक्ति का द्वार खोलें।।
इसी से वचनसिद्धि, दिव्यध्वनी भी।
मिलेगी अत: मैं नमूं धार भक्ती।।३३।।
स्वतन की क्रिया सर्व शुभ ही करें जो।
पुन: काय से मोह तज सुस्थिरी हों।।
उभय कायगुप्ती शुक्ल ध्यान पूरे।।
नमूं मैं इसे नंतबल मुझ प्रपूरे।।३४।।
पाँच महाव्रत पाँच समिति औ, तीन गुप्ति ये तेरह विध।
सम्यक् चारित मुक्ति प्रदायक अठबिल मूलगुणों से युत।।
द्वादश तप बाईस परीषह, चौंतिस उत्तर गुण जानों।
लाख चौरासी गुण सर्वाधिक, वंदत ही भव दु:ख हानो।।३५।।
रत्नत्रय की वंदना, स्वर्ग मोक्ष दातार।
नमूं ज्ञानमती पूर्ण हितु, पाऊं निजपद सार।।३६।।