करणानुयोग के परिप्रेक्ष्य में तथ्य सत्यदृष्टि तथा करण (गणित) की अनिवार्यता
इसमें अनुष्ठान रूप उपयोग के अशुभ, शुभ, शुद्ध इन तीन भेदों में करणानुयोग की दृष्टि में चौथे गुणस्थान से दशम गुणस्थान तक शुभ और द्रव्यानुयोग की दृष्टि में चौथे गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक शुभ तथा सातवें से बारहवें गुणस्थान तक शुद्ध उपयोग सहेतुक सिद्ध किया गया है। करण (गणित) के लौकिक एवं अलौकिक के भेद—प्रभेदों व उपमान के आठ भेदों का विस्तृत वर्णन तथा मंदिर, वेदी, प्रतिमा निर्माण में और चक्षुरिन्द्रिय विषय, जीव संख्या आदि में गणित की अनिवार्यता बताई गई है। जीवों की आयु, संख्या व कर्मों की स्थिति बिना गणित के ज्ञात नहीं हो सकती। जैनागम में उपदेश चार अनुयोग द्वारा दिया गया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन अनुयोगों में से त्रिलोक आदि (भूगोल) का, कर्मों का, गुणस्थान मार्गणादि रूप जीव का जिसमें कथन को वह करणानुयोग है। त्रिलोक में नरक—स्वर्ग आदि के स्थान पहिचानकर पाप से भयभीत होकर जीव धर्म में स्थिर चित्त हो, तथा कर्म गुणस्थान मार्गणा से अपनी वास्तविक स्थिति जानकर आत्महित की ओर संलग्न हो। साथ ही इस सूक्ष्म विषय में उपयोग लग जाने से तत्वज्ञान की भी प्राप्ति होती है। करण अर्थात् गणित के कारण रूप सूत्र का जिसमें निरूपण हो वह अनुयोग या अधिकार करणानुयोग है। इसमें गणित विषय के वर्णन की मुख्यता है।
त्रिलोकसार आदि ग्रंथ इस प्रकार के हैं। करण का अर्थ परिणाम भी होता है अत: जिसमें जीव के भावों की तरतमता गुणस्थान द्वारा तथा अनन्त प्रकार शक्ति युक्त कर्मवर्गणा, उनकी जाति आठ या एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों का सूक्ष्म विस्तृत विवेचन हो वह करणानुयोग है। ऐसे ग्रंथ गोम्मटसार कर्मकांड, जीवकांड, धवला टीका आदि हैं। करणानुयोग में यथार्थ (तथ्य) स्वरूप बताने का प्रयोगन है। आचरण कराने की मुख्यता नहीं है। इस अनुयोग की दृष्टि से जीव में जिस तरह के भावों या कर्मों की स्थिति होती है उसे उसी रूप कहा जाता है। इस कथन को स्पष्ट करने के लिए यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है। अनुष्ठान रूप उपयोग के अशुभ, शुभ और शुद्ध ये तीन भेद हैं। तीव्र राग द्वेष रूप, पाप परिणाम अशुभ, मंदता धर्मानुरूप परिणाम शुभ और वीतराग परिणाम शुद्धोपयोग है। इनमें वृहद् द्रव्यसंग्रह आदि के प्रमाण से प्रथम तीन गुणस्थानों में अशुभ, चतुर्थ पंचम एवं षष्ठ इन गुणस्थानों में शुभ और सातवें से बारहवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग बताया गया है। तथा धर्मध्यान भी चौथे से सातवें तक और शुक्ल ध्यान आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक सिद्ध किया है। यह कथन तत्वार्थसूत्र के टीकाकार आचार्य श्री पूज्यपाद आदि द्वारा भी प्रतिपादित है।
किन्तु श्री आचार्य वीरसेन
किन्तु श्री आचार्य वीरसेन ने धवला टीका में अपने १३वें वर्गणा खण्ड में ध्यान का वर्णन करते हुए धर्मध्यान—शुभोपयोग—चौथे से दशम् गुणस्थान तक और शुक्ल ध्यान ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक लिखा है। यहाँ शुद्धोपयोग ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में है। उपयोग कर्मफल, कर्म और ज्ञान चेतना इन तीन चेतनाओं में से कर्म चेतना के अन्तर्गत है, अत: शुद्धोपयोग बारहवें गुणस्थान तक है। उससे आगे तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग का फल है क्योंकि उपयोग क्षयोपशमिकभाव है, जबकि बारहवें से ऊपर क्षायिकभाव है। धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान तथा शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग संबंधी कथन का यह परस्पर विरोधी आगम करने की प्रमाण दृष्टिभेद से ही समझा जावे। धवलाकार की दृष्टि करणानुयोग में कर्मप्रकृतियों के उपशमादि की अपेक्षा से जहाँ जैसी सूक्ष्मशक्ति उपलब्ध होती है तदनुसार गुणस्थानादि में ज्ञान चारित्र आदि का निरूपण करने की है। उपयोग में चौथे गुणस्थान से दशम तक धम्र्यध्यान या शुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग या शुक्लध्यान जो दशम गुण स्थान के ऊपर बताया है उसका कारण दशम गुणस्थान तक कषायों का सद्भाव है। कषाय जब तक है चाहे वह सूक्ष्म क्यों न हो आत्मा में शुद्धता नहीं मानी जा सकती। यह रियलिटी (तथ्य) दृष्टि है जो चार प्रकार के निश्चय नयों में अशुद्ध निश्चय से जानी जाती है। यहाँ गुणश्रेणि में कर्म निर्जरा भी होती है। जो आचार्य सातवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग और आठवें गुणस्थान में शुक्लध्यान बताते हैं उनकी आइडियलिटि (आदर्श) दृष्टि है, जो एक देश शुद्ध निश्चय से मानी जाती है। इसे द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत जानना चाहिए, क्योंकि शुद्धोपयोग में शुद्ध बुद्धैक स्वभाव निजात्मा ध्येय है। वह शुद्धोपयोग, शुद्धध्येय, शुद्धावलंबन और शुद्ध स्वरूप साधक होने से संवर शब्द के द्वारा कहा जाता है। यहाँ कषायांश होने पर भी उसकी विवक्षा नहीं है और यदि ध्यानी का पूर्ण शुद्ध लक्ष्य नहीं हो तो पूर्णता प्राप्त भी नहीं हो सकती है। चरणानुयोग में सम्यग्दृष्टि (४ गु.) को नि:शंकित अर्थात् शंका (भय) आदि रहित कहा है किन्तु करणानुयोग की सूक्ष्म शक्ति की अपेक्षा भय अष्टम गुणस्थान तक पाया जाता है। इसका समाधान यह है कि भय कर्म का उदय चाहे अष्टम गुणस्थान तक हो, परन्तु सम्यक्त्वी सदा आत्म लोक में रमता हुआ बाह्यलोक में सदा सप्त भयों से भयभीत नहीं होता। इसी प्रकार लोभ, प्रमाद, वेद आदि के संबंध में समाधान आगम में निरूपित है। करणानुयोग में भूगोल व गणित का प्रकरण मुख्य रूप में होने से स्वर्ग नरक आदि तथा द्वीप समुद्रादि की रचना जानकर पुण्य में प्रवृत्ति और पाप के त्याग करने का भाव होगा।
गणित विद्या को अंक विद्या भी कहते हैं।
गणित विद्या को अंक विद्या भी कहते हैं। इसके शब्दजन्य और लिगजन्य दो भेद हैं। शब्दजन्य के अन्तर्गत अक्षरात्मक विद्या में गणित, ज्योतिष, वैद्यक, इतिहास, कोष, अलंकार और व्याकरण है। अनक्षरात्मक लिगजन्य में संकेत द्वारा ज्ञान प्राप्त करना, हस्तकला, कुश्ती आदि सम्मिलित है। अंक विद्या के लौकिक और अलौकिक भेदों में से लौकिक के वर्तमान में इकाई से दश शंख तक १९ अंक प्रमाण। ‘गणितसार संग्रह’ की दृष्टि से महाक्षोभ तक २४ अंक प्रमाण। इस लौकिक संख्या को ‘वृहद्जैन शब्दार्णवकार’ ने ऋषभ निर्वाण संवत् को, जो ७६ अंक प्रमाण है, पढ़ने की रीति लिखी है—४ पदम, १३ निपल, ४५ खर्व, २६ अर्वुद, ३० कोटि, ३० लक्ष, ८२ सहस्र और ०३१ महामहाशंख, ७७७ परार्ध, ४९ पद्म, ५१ निपल, २१ खर्व, ९१ अकेद, ९९ कोटि, ९९ लक्ष, ९९ सहस्र, और ९९९ महाशंख, ९९९ परार्ध, पद्म, ९९ निपल, ९९ खर्व, ९९ अर्वुद, ९९ कोटि, ९९ सहस्र और ९९९ शंख, ९९९ परार्ध, ९९ पदम, ९९ निपल, ९९ खर्व, ९९ अर्युद, ९९ कोटि, ९९ लक्ष, ६० सहस्र और ४६९ इसमें वर्तमान वि. सं. के ६८ जोड़ने पर ५३७ वर्तमान में होते हैं। लोकोत्तर या अलौकिक अंक गणना के २१ विभाग हैं। संख्यात ३—जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट असंख्यात ९—जघन्य, मध्य, उत्कृष्टपरीत, जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट युक्त, जघन्य, मध्य, उत्कृष्ट असंख्यात अनन्त ९—जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट परीत, जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट युक्त, जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अनन्त। अंक एक गणना में आता है, किन्तु दो जघन्य संख्यात है, जहाँ से संख्या प्रारम्भ होती है। जघन्य परीतासंख्यात समझने के लिए अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ये चार गोलकुंड हैं। उनमें प्रथम कुंड का व्यास एक लाख योजन गहराई एक हजार योजन हो जिसमें ४६ अंक प्रमाण सरसों दाने समायेंगे। प्रत्येक द्वीप समुद्र में एक एक सरसों डालते हुए वह कुंड खाली हो जाये, जहाँ वह अंतिम सरसों डाली गई है, उसी द्वीप या समुद्र की सूची के समान सूची (एक तट से दूसरे तट तक की चौड़ाई) बाला एक हजार योजन गहरा दूसरा अनवस्था कुंड बनावें। इस तरह गिनती हेतु शलाकाकुंड में एक एक सरसों डालते हुए जहाँ दूसरे अनवस्था कुंड की सरसों समाप्त हो जावे, वहाँ की सूची वाला व एक हजार योजन महाकुंड बनाते जावें इसी प्रकार शलाका व प्रतिशलाका तथा महाशलाका कुंड भरने पर अंत के अनवस्था कुंड की सरसों संख्या बराबर परीतासंख्यात जघन्य प्रमाण आता है। इसके आगे युक्तासंख्यात हेतु विरलन देय शलाका का विधान करें।
आगे उपमामान के आठ भेद हैं
पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत् श्रेणी, जगत्प्रतर, घनलोक। पल्य के व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, अद्धापल्य ये तीन भेद हैं। अनंतानंत परमाणु के समूह को अवसत्रासत्र, ८ अवसत्रासत्र का एक सत्रासत्र, इसके आगे ८—८ के एक—एक तृटरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु, उत्तमभोग भूमि बालाग्र, मध्यमभोग भूमिबालाग्र, जघन्यभोगभूमि बालाग्र, कर्मभूमिबालाग्र, लीख, सरसों, जौ, अंगुल—इसे उत्सेधांगुल कहते हैं। इससे चतुर्गति जीव शरीर, देवनगर—मंदिर का वर्णन किया गया है। इससे पाँच सौ गुणा प्रमाणांगुल (भरत चक्री का अंगुल) इससे पर्वत, नदी, द्वीप समुद्र का परिमाण बताया गया है। आत्मांगुल से झारी, कलश, छत्र, चमर आदि का प्रमाण माना गया है। ६ अंगुल का एक पाद, २ पाद का एक वितस्त, २ वितस्त का एक हाथ, ४ हाथ का एक धनुष, २००० धनुष का एक कोश, ४ कोश का एक योजन होता है। उत्तम भोगभूमि के मेढे के बालाग्र भागों से भरे गये गड्ढे को व्यवहारपल्य कहते हैं। यह पल्य दो हजार कोश गहरा और उतना ही चौड़ा गोल माना जाता है। सौवर्य में एक रोम निकालते रहने पर उसके खाली होने पर एक व्यवहार पल्योपम काल होता है। इसके रोमों की संख्या निम्नलिखित है—४१३४५२६३३०३०८२०३१७७७४९५१२११९ २००००००००००००० कुल ४५ व्यवहार पल्य के रोमों के असंख्यात कोटि वर्ष के समय प्रमाण टुकड़े कर उन्हें उक्त प्रमाण गड्ढे में भरकर प्रति समय एक एक रोम निकालते हुए खाली होने पर जितना काल हो वह उद्धार पल्योपम है। उद्धारपल्य के रोम खंडों का भी पूर्वोक्तरीति प्रमाण करने पर जो काल हो वह अद्धापल्योपम है। इसी प्रकार दश कोड़ा—कोड़ी अद्धापल्यों का एक अद्धासागरोपम होता है। प्रथम पल्य गणना, द्वितीय द्वीप समुद्र की संख्या और तृतीय कर्म स्थिति हेतु हैं। अद्धापल्यों की अद्र्धच्छेदों का विरलन कर प्रत्येक पर अद्धापल्य रखकर परस्पर गुणा करने पर जो राशि हो वह सूच्यंगुल है। वह एक अंगुल लंबे प्रदेशों का प्रमाण है। सूच्यंगुल के वर्ग को प्रतरांगुल कहते हैं। सूच्यंगुल के घन को घनांगुल कहते हैं। पल्य के अद्र्धच्छेदों के असंख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुल परस्पर गुणा करने पर जो राशि हो वह जगत्श्रेणी है। यह सात राजू लंबी आकाश प्रदेश प्रमाण है।
जगत्श्रेणी के घन को घनलोक कहते हैं।
जगत्श्रेणी के वर्ग को जगत्प्रतर और जगत्श्रेणी के घन को घनलोक कहते हैं। जगत्श्रेणी का सातवाँ भाग राजू होता है। गणित में परिकर्माष्टक आठ है— संकलन, व्यवकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल। ये लौकिक है अत: प्रसिद्ध होने से समझाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। उक्त लोकोत्तर गणना के संख्यात आदि २१ विभाग बताये हैं, उनमें जघन्यपरीतासंख्यात और शेष भेदों को समझने के लिए अनवस्था आदि चार कुंड बताये हैं। अनवस्था कुंड में ४६ अंक १९९७११२९३८४५११३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ प्रमाण सरसों के दाने समाते हैं। तथा पुष्करवर समुद्र की सूची १२५ लक्ष महायोजन है। आगे पूर्वोक्त रीति से सूची निकाल लेना चाहिए। आगे असंख्यात एवं अनंत भेदों के संबंध में ज्ञातव्य यह है कि जघन्ययुक्तासंख्यात को आवली कहते हैं। क्योंकि एक आवली काल में जघन्ययुक्तासंख्यात प्रमाण समय होते हैं। इसी प्रकार मध्यम असंख्यात संख्यात में शलाकात्रय निष्ठापन के पश्चात् धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, एक जीव द्रव्य, लोकाकाश इनके असंख्यात प्रदेशों की राशि तथा अप्रतिष्ठित व प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति जीवों की संख्या, जो असंख्यात लोक प्रमाण है, जोड़ देवें तथा शलाकात्रय निष्ठायन पूर्वक कल्पकाल के समयों की संख्या, असंख्यातलोक प्रमाण स्थिति व अनुभागबंधाध्यवसाय व योगत्रय के उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद जोड़ने पर शलाकात्रय निष्ठापन जघन्यरीतानंत की संख्या आती है। इसी प्रकार मध्य अनंतानंत राशि लाने के लिए जीव राशि के अनन्तवें भाग सिद्ध राशि, सिद्धों से अनन्तगुणी निगोद व वनस्पतिकायिक राशि, जीवों से अनन्तगुणी पुद्गल संख्या व उससे भी अनन्तानंत व्यवहार के त्रिकालवर्ती समय व अलोक के अनन्तप्रदेश जोड़ना चाहिए। उक्त पल्य, सागर आदि के उल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि उद्धारपल्य के द्वीप समुद्रों की संख्या एवं सागर से जीवों की आयु व कर्मों की स्थिति का ज्ञान होता है। घनांगुल के दूसरे वर्गमूल का जग्च्श्रेणी से गुणा करने पर जो राशि आवे उतने सातों नरकों के नारकी हैं।
सूच्यंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूल का जगत्श्रेणी में भाग देने से जो शेष रहे उसमें एक और घटाने पर सामान्य मनुष्य राशि का प्रमाण है। इसमें पर्याप्त मनुष्य संख्या २९ अंक प्रमाण ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६/२५६ प्रमाणांगुलों के वर्ग का जगत्प्रतर में भाग देने से ज्योतिषीदेवों का प्रमाण आता है। उनसे कुछ अधिक सर्व देवों की संख्या है। संसार राशि में से उक्त नारक, मनुष्य, देव इन तीन राशियों को घटाने पर तिर्यचों का प्रमाण है। एक उतर्सिपणी या अब र्सिपणी काल की संख्या २७ अंक ५० शून्य प्रमाण है। वह इस प्रकार है— ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२ इसके आगे ५० शून्य जोड़ें। एक घन फुट स्थान में ३० सेर ६ छटांक नदी का जल और ३१ सेर ४ छटांक समुद्री खरा जल आता है। एक घन हस्त प्रमाण स्थान में २ मन २५ सेर ७.५ छटांक, एक गज लंबे चौड़े और गहरे स्थान में २१ मन ३१११ सेर और इसी रीति से एक घन महायोजन क्षेत्र में १०८ इसके आगे २० शून्य इतना मन जल समाता है। नोट पूर्व ४० सेर का एक मन ग्रहण किया है। उक्त प्रकार हिसाब लगाने पर लवण समुद्र का पाताल सहित जल १६ अंक २२ शून्य प्रमाण मन है। १८३४४४२८०४५५१९०५ आगे २२ शून्य। ३. जिन मंदिर, शिखर, वेदी, प्रतिमा, हवन कुंड, ध्वजादंड आदि के निर्माण में भी गणित के नियमों का उपयोग होता है। माप में न्यूनाधिकता होने पर किस प्रकार की हानि होती है यह प्रतिष्ठाशास्त्र में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। प्रतिमा की टेढ़ी नाक, छोटे अवयव, खराब नेत्र, छोटामुख हो तो क्रमश: दु:ख, क्षय, नेत्रविनाश और भोग हानि हो। ऊध्र्वमुख, टेढ़ीगर्दन, अधोमुख, ऊँचानीचा मुख होतो क्रमश: धनक्षय, स्वदेशनाश, चिता व विदेशगमन हो। र्मूित के नख, अंगुली, बाहु, नासिका, चरण में जो अंग खंडित हों तो क्रमश: शत्रुभय, देश विनाश, बंधन, कुलनाश और द्रव्यक्षय हो। मंदिर के आगे के द्वारा के ८ भाग करें उसमें ७ वें भाग प्रमाण पीठिका सहित प्रतिमा की ऊँचाई हो अथवा उस ७वें भाग के ३ भाग करें, उस एक भाग की पीठिका और २ की खडगासन प्रतिमा की ऊँचाई हो। पदमासन प्रतिमा में २ भाग पीठिका व १ भाग र्मूित रखें। मंदिर के गर्भगृह का ३रा भाग प्रमाण प्रतिमा निर्माण करावें। द्वार के ९ भाग करके उसके ७ वें भाग के भी ९ भाग करें, उसमें ७ वें भाग में प्रतिमा की दृष्टि रखी जावे (वसुनंदि प्रतिष्ठासार) अथवा द्वार की ऊँचाई ८ भाग करें उसमें ७ वें भाग के भी ८ भाग करें उसके ७ वें भाग (गज आय) में दृष्टि रखी जावे। अथवा ७ वें भाग के ८ भाग में से ५-३-१ ले भाग में भी दृष्टि रख सकते हैं। या द्वार के ६४ भाग करके ५५ वें भाग पर दृष्टि रखी जावे। (प्रासाद मंडन)।
कायोत्सर्ग प्रतिमा ९ या १० ताल की होती है।
कायोत्सर्ग प्रतिमा ९ या १० ताल की होती है। पद्मासन प्रतिमा ५४ अंगुल की होती है, जिसमें दोनों घुटने तक सूत्र का मान, दाहिने घुटने से बांये कंधे तक और बाँये घुटने से दाहिने कंधे तक इन दोनों तिरछे सूत्रों का मान तथा सीधे में नीचे से ऊपर के शांत भाग तक लंबे सूत्र का मान ये चारों मान समान होना चाहिए। इसी प्रकार दोनों हाथ की अंगुली के और पेडू के अंतर ४ भाग रखें। नाभि से लिग ८ भाग नीचा, ५ भाग लंबा बनावें आदि। प्रतिमा निर्माण में मुख, हाथ, वक्षस्थल, उदर, पेडू, जांघ घुटना, चरण आदि कितने भाग प्रमाण बनावें यह सब प्रतिष्ठा शास्त्र में बताया गया है। उसका उल्लंघन होने से प्रतिष्ठाकारक की हानि होती है यह विस्तार से प्रत्येक अंग के अनुसार बताया गया है। कर्मों की स्थिति के सम्बन्ध में भी त्रैराशिक गणित की आवश्यकता होती है यथा एकेन्द्री जीव के सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की उत्कृष्ट स्थिति बाला मिथ्यात्व कर्म एक सागर प्रमाण बंधता है तो तीस कोड़ाकोड़ी सागर आदि की स्थिति वाले शेष कर्मों का एकेन्द्री के कितना स्थिति प्रमाण बंध सकता है। इस प्रकार त्रैराशिक विधि से एकेन्द्री जीव की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर के सात भाग में से तीन भाग प्रमाण होती है। इसी प्रकार दो इन्द्रीआदि के भी संपूर्ण कर्मों की स्थिति निकाल लेना चाहिए। चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र निकालने के लिए त्रैराशिक करना पड़ेगा। सूर्य का चार क्षेत्र पांच सौ बारह योजन चौड़ा है उसमें ३३२ लवणसमुद्र में, शेष १८० जम्बूद्वीप में है। जम्बूद्वीप के एक लाख योजन विष्कंभ में से उक्त ३६० योजन छोड़कर ९९६४० योजन जम्बूद्वीप की परिधि करण (गणित) सूत्रानुसार ३१५८९ योजन होती है।
इस अभ्यंतर परिधि को एक सूर्य ६० मुहूर्त में समाप्त करता है और निषध पर्वत (उदयाचल) की अभ्यंतर वीथी (एक भाग से दूसरे भाग तक) को १८ मुहूर्त में समाप्त करता है। इसके मध्य में अयोध्या पड़ती है। ऊपर अपने महल से भरत चक्रवर्ती अभ्यंतर वीथी में उदय होते सूर्य के भीतर जिन प्रतिमा के दर्शन करता है और निषध से अयोध्या तक सूर्य ९ मुहूर्त में भ्रमण करता है इसलिए ६० मुहूर्त में इतने क्षेत्र पर भ्रमण करे तो ९ मुहूर्त में कितना भ्रमण करेगा इस त्रैराशिक से फल राशि (परिधि) और इच्छाराशि नव का गुणाकर प्रमाणराशि ६० का भाग देने से चक्षुरिन्द्रिय का ४७२६३. ७/२० योजन विषय क्षेत्र निकलता है। यहाँ भी परिधि के लिए वर्गमूल निकालना होगा। इस प्रकार लौकिक एव लोकोत्तर गणित के नियम (करण सूत्र) की अनिवार्यता जैन भूगोल के लिए ज्ञातव्य है।