सोनागिरि नाम प्राचीन नहीं, सिद्ध क्षेत्र अति प्राचीन
अर्हत् वचन वर्ष—७, अंक—२, अप्रैल ९५ में डा. एच. बी. माहेश्वरी
ग्वालियर का आलेख ‘सोनागिरि तीर्थ स्थल की प्राचीनता’ प्रकाशित हुआ था। इस लेख में माननीय लेखक ने सचित्र प्रमाणों के आधार पर इस क्षेत्र को ईसा पूर्व की तीसरी शताब्दी का सिद्ध किया था। इस लेख पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए डॉ. कस्तूर चन्द्र ‘सुमन’, महावीरजी ने हमें अपनी टिप्पणी ‘सोनागिरि तीर्थ स्थल की प्राचीनता’ प्रेषित की थी जिसे हमनें वर्ष–७, अंक—४ अक्टूबर ९५ में प्रकाशित किया था। हमें यह देखकर प्रसन्नता है कि सोनागिरि की प्राचीनता पर अनेक विद्वानों ने यथेष्ट मंथन किया है एवं इसी का प्रतिफल है कि हमें श्री रामजीत जैन, एडवोकेट, ग्वालियर ने इस सन्दर्भ में तत्काल एक लेख प्रेषित किया है जो हम यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं। सुधी पाठकों की सप्रमाण प्रतिक्रियायें सादर आमंत्रित हैं। भारतवर्ष के बुन्देलखण्ड क्षेत्र तथा वर्तमान मध्य प्रदेश के दतिया जिले में अवस्थित सोनागिरि सिद्धक्षेत्र बड़ा महत्त्वपूर्ण तीर्थ क्षेत्र है। जैन संस्कृति का प्रतीक यह क्षेत्र वास्तव में विन्ध्य भूमि का गौरव है। र्धािमक जनता के लिये प्रेरणा स्रोत है तो पर्यटकों के लिये दर्शनीय स्थल और कला मर्मज्ञों एवं पुरातत्त्वज्ञों के लिये अध्ययन क्षेत्र है। सोनागिरि जिसका प्राचीन नाम श्रमणगिरि या स्वर्णगिरि है। यह बहुत ही सुन्दर एवं मनोरम पहाड़ी है। रेलगाड़ी से ही सोनागिरि के मन्दिरों के भव्य दर्शन होते हैं। मन्दिरों की पंक्ति स्वभावत: दर्शकों का मन मोह लेती है। सुन्दर पहाड़ी पर मन्दिरों की माला और प्रकृति की बूटी निरखते ही बनती है। इस पहाड़ी से नंगानंग कुमारों सहित साढ़े पाँच कोटि मुनिराज मोक्ष गये और अष्टम् तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु का समवसरण लगभग १५ बार यहाँ आया था।नंगानगकुमारा विक्खा पंचद्धकोडिरिसि सहिया। सुवण्णगिरिमत्थयत्थे गिव्वाण गया णमो तेसि।।निर्वाणकाण्ड के उपरोक्त श्लोक में ‘सुवण्णगिर’ शब्द आया है जिसका तात्पर्य श्रमणगिर से है। ‘श्रमण’ शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है।
विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध श्रमण शब्द के विविध रूप— समण, शमण, सवणु श्रवण, सरमताइ, श्रमगेर आदि श्रमण शब्द की व्यापकता सिद्ध करते हैं। वे मनुष्य धन्य हैं जो इस भारत धरा पर जन्म धारण करते हैं और अपने श्रम से देवत्व भी प्राप्त करते हैं और अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। देवता भी इस पर जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। ऐसी जैन श्रमण संस्कृति अति प्राचीन है। और जिस पर्वत श्रेणी पर कोटि कोटि मुनिराज श्रम (तपस्या) द्वारा कर्मों का नाशकर मोक्ष पधारे, वह श्रमणगिर नाम सार्थक है। ऋग्वेद में ‘श्रमण’ शब्द तथा वातरशना मुनय: (वायु जिनकी मेखला है, ऐसे नग्न मुनि) का उल्लेख हुआ। वृहदारण्यक उपनिषद में श्रमण के साथ साथ ‘तापस’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही तापस ब्राह्मण एवं श्रमण भिन्न—भिन्न माने जाते थे। तैत्तरीय अरण्यक में तो ऋग्वेद के ‘मुनयो वातरशना:’ को श्रमण ही बताया गया है। इस संक्षिप्त विवरण में जिसे जैन श्रमण संस्कृति कहा गया है, वैदिक और बौद्ध संस्कृति से पूर्व की संस्कृति है और भारत की आदि संस्कृति है। यह श्रमण संस्कृति श्रमणांचल में अपने पूर्ण प्रभावक रूप में फैली हुई थी। मध्यभारत का प्राचीन अनूप अथवा दक्षिण अवन्ति जनपद, जहाँ आजकल प. निमाड़ नामक जिला है, विन्ध्यपाद अथवा सतपुड़ा पर्वत का क्षेत्र है और उसके पश्चात् है मध्यभारत का प्रधान पर्वत विन्ध्याचल। विन्ध्याचल का माहात्म्य भारतवासियों के हृदय में सदा से बहुत अधिक रहा है। इस विशाल पर्वत श्रंखला को एक पर्वतकुल माना जाता था, जिसके विभिन्न सदस्यों के नाम थे—महेन्द्र, मलप, सह्य, शक्तिमान, ऋक्षवान, विन्ध्य और पारियाना। ये विन्ध्यासल के विभिन्न भागों के नाम थे। विन्ध्याचल बिहार से प्रारम्भ होकर गुजरात तक लगभग ७०० मील लम्बा है। इस विन्ध्याचल की पर्वतमालाएँ मेलसा, चन्देरी, कोलारस, ग्वालियर, गुना, सरदारपुर, नीमच, आगर तथा शाजापुर तक फैली हुई है।
इस विन्ध्याचल की शृंखला में ही ग्रेनाइट पत्थरों की चट्टानों के ऊपर श्रमणगिरि पर्वत शिखा है। यही तो श्रमणगिरि (सोनागिरि) है। इसी श्रमणगिरि पर्वत का संस्कृत नाम स्वर्णगिरि है। जिस संस्कृति को हम जैन संस्कृति के नाम से पहिचानते हैं उसके सर्वप्रथम आविर्भावक कौन थे ? और उनसे वह पहले किस रूप में उद्गत हुई, इसका पूरा सही वर्णन करना इतिहास की सीमा के बाहर है। फिर भी आजकल जो शोध हुई है उसके आधार पर यह कह सकते हैं कि जैन संस्कृति के प्रथम प्रणेता भगवान ऋषभ तथा अन्तिम उद्धारक महावीर थे। इस संस्कृति के सर्वमान्य पुरुष ‘जिन’ कहलाते हैं। जिसका अर्थ है इन्द्रियों के विजेता अथवा वे पुरुष जिन्होंने चार कर्मों पर विजय प्राप्त कर संसार की समस्त वस्तुओं को एक साथ जानने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। उसके नाम पर ही इस संस्कृति का नाम जैन संस्कृति है। वैदिक वाङ्गमय के अतिरिक्त रामायण, महाभारत, तथा भागवत पुराण में श्रमणों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। श्रमण संस्कृति के आद्य प्रवत्र्तक भगवान ऋषभदेव का उल्लेख वेदों तथा पुराणों में श्रद्धापूर्वक किया गया है। भारत में यही एक श्रमणगिरि पर्वत हैं जहाँ श्रमणों ने कठिन तप भी किया एवं निर्वाण पद प्राप्त किया। यहाँ भगवान चन्द्रप्रभु का सवमसरण आया और उसी समय नंग, अनंग आदि कुमारों ने दीक्षा ली और घोर तप किया। उनके साथ ही अन्य राजाओं एवं श्रावकों ने दीक्षा ली। तपश्चरण के बाद अष्ट कर्मों का नाश कर इसी स्थान से मोक्ष पद प्राप्त किया। इस प्रकार श्रमण या श्रमणगिरि नाम सार्थक हुआ।
स्वर्णगिरि
यद्यपि श्रमणगिरि का संस्कृत भाषा रूपान्तर स्वर्णगिरि है, लेकिन इस नाम के साथ भी गाथायें जुड़ी हैं जो प्राचीनता की द्योतक हैं। स्वर्णांचल महात्म्य में बताया है कि—‘‘उज्जयिनी के महाराजा श्रीदत्त की पटरानी विजया के कोई सन्तान न होने से म्लान मुख रहा करती थीं। भाग्य से एक दिन मर्हिष आदियत और प्रभागत दो चारण, ऋषिधारी मुनीश्वर महाराजा श्रीदत्त के राजमहल में आकाश से उतरे। महाराजा ने भक्तिपूर्वक आहार दिया। आहार दान के प्रभाव से पंचाश्चर्य हुए। आहार के पश्चात् महाराज और पटरानी ने पुत्र लाभ के विषय में विनयपूर्वक पूछा। ऋषियों ने उत्तर दिया कि राजन् ! चिन्ता छोड़ो, तुम्हें अवश्य पुत्र लाभ होगा। तुम श्रद्धापूर्वक श्रवणगिरि की यात्रा करो। यह पर्वत पृथ्वी पर भूषण और अद्वितीय पुण्य क्षेत्र है। यह श्रमणगिरि क्षेत्र जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में बद्र नाम का देश है। जिसे भाषा में बुन्देलों का देश कहते हैं। इस देश का पालन बड़े बड़े समृद्ध राजा करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। यह देश नाना प्रकार की समृद्धियों से भरपूर है जिस प्रकार समुद्र में रत्न भरे पड़े हैं। राजा श्रीदत्त पाँच दिन श्रवणगिर पर्वत पर रहा। पर्वत और भगवान की पूजा वन्दना में रहकर रात्रि जागरण किया। इस प्रकार धर्म कार्य करते नौ मास व्यतीत हो गये। दसवें मास में शुभ मुहूर्त और शुभ नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ। पुत्र का रूप सोने जैसा देखकर प्रसन्न होकर राजा ने उसका नाम स्वर्णभद्र रखा। इस प्रकार राजा ने इस पर्वत का नाम स्वर्णाचल प्रसिद्ध किया।’’
द्वितीय कथानक— इस पर्वत का नाम श्रवणगिर के बाद सुवर्णगिर रहा जो भी अपने नाम से विख्यात रहा। कहते हैं राजा भृतहरि के बड़े भाई शुभचन्द्र ने यहाँ पर मुनि अवस्था में तपस्या की थी। तप के प्रभाव से शरीर में कान्ति तो बहुत थी, परन्तु शरीर कृश हो गया था। राजा भृतहरि ने भी राजपाट त्याग कर सन्यास धारण कर लिया था और अपने गुरू के पास में विद्या सिद्ध कर रसायन प्राप्त की जो पत्थर पर डालने से सोना बन जाता था। एक समय राजा भृतहरि को अपने शुभचन्द्र का स्मरण आया तो एक शिष्य को भेजकर खोज करवाई। खोजने पर आचार्य शुभचन्द्र श्रवणगिर पर्वत पर ध्यान करते देखे गये तथा शरीर कृश पाया। शिष्य ने जाकर यथावत समाचार भृतहरि को बताया कि आपके भाई अत्यन्त कृश शरीर हैं और तन पर वस्त्र तक नहीं है। ऐसा सुनकर भृतहरि ने थोड़ी सी रसान सोना बनाने वाली शिष्य के हाथ भेजकर कहलाया कि पत्थर पर डालते ही सोना बन जायेगा जिसका उपयोग कर आनन्द से भोगना। शिष्य रसायन लेकर पहुँचा तो उस समय मुनि श्री शुभचन्द्र ध्यान में लीन थे। ध्यान पूर्ण होने के बाद जो रसायन लेकर आया था उसने रसायन देकर निवेदन किया कि इसे आपके भाई भृतहरि ने भेजा है। इस रसायन को पत्थर पर डालने से सोना बन जायगा। मुनिश्री शुभचन्द्र ने विचार किया कि भृतहरि कितना अज्ञानी है जो सोना—चाँदी की इच्छा रखता है। महलों में इनकी क्या कमी थी जो घर व राज छोड़ दिया। उन्होंने रसायन को उसी समय जमीन में डाल दिया। शिष्य ने यह समाचार भृतहरि को कह सुनाया। जिससे वह क्रोधित हुआ और स्वयं भाई से मिलने चले। ध्यान में महाराज को देखकर तथा कृश शरीर को देखकर दुखित हुआ। ध्यान समाप्त होते ही निवेदन किया कि मुझे कितने साल बाद यह रसायन प्राप्ति हुई और आपने इसे जमीन पर फैक कर बरबाद कर दिया। उस वचन को सुनकर महाराज श्री शुभचन्द्र बोले—‘तुमने जो भी तप किया, व्यर्थ किया। यह संसर परिभ्रमण का कारण है। अगर धन और सोना वगैरह की जरूरत थी तो महलों में क्या कमी थी ? जो छोड़कर तप करने निकले। भृतहरि ने शंका निवारणार्थ पूछा कि आपने बारह साल में क्या किया ? उस समय तुरन्त एक मुट्ठी धूल उठाकर प्रभु का नाम स्मरण कर पहाड की तरफ फैक दिया जिससे सारा पहाड़ सोने का बन गया। उस समय से इस पहाड़ का नाम सुवर्णगिर के नाम से प्रसिद्ध हैं
सोनागिरि
स्वर्णगिरि का हिन्दी सरल रूपान्तर सोनागिरि है। भट्टारकों ने बहुतायत से यहाँ मंदिर और मूर्तियों का निर्माण कराया और सोनागिरि को ख्याति प्रदान की। वैसे भी मंदिर और मूर्ति निर्माण काल तो भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् का है। निर्वाण क्षेत्र पर तो चरण ही स्थापित रहते हैं। किसी क्षेत्र पर मंदिर मूर्ति स्थापित करने से क्षेत्र की प्राचीनता नहीं समाप्त होती। भारतवर्ष में अनेक निर्वाण क्षेत्र हैं, लेकिन भक्तजनों ने वहाँ अनेक मंदिर मूर्तियों का निर्माण कराया। वे क्षेत्र सदैव प्राचीन रहे और माने जाते हैं। उदाहरणार्थ उर्जायन्तगिर पर्वत नेमिनाथ की निर्वाण भूमि है जहाँ उनके चरण विद्यमान है। जहाँ उनके चरण विद्यमान है। उर्जयन्तगिर (गिरनार) पर पहली टोंक पर जिनालय बने हैं। इससे गिरनार की प्राचीनता में गणना कम नहीं हो सकती। सोनागिरि पर्वत शृंखला की समृद्धिता भी एक पहलू है जिसके कारण यह क्षेत्र सोनागिरि की सार्थकता को सिद्ध करता है जो अत्यन्त प्राचीनता का स्वयं सिद्ध प्रमाण है। इस पर्वत शृंखलाओं में इस प्रदेश के निवासियों को सदा से ही बहुमूल्य पदार्थ मिलते हैं। अवन्ति—आकर से बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते थे, ऐसा उल्लेख ईसवीं की प्रथम और दूसरी शताब्दी में मिलता है। सतपुड़ा वैडूर्यमणि का प्रसिद्ध उत्पत्ति स्थान रहा है। भृगुकच्छ के पोतपत्तन से विदेशों में भेजने के लिये जो खनिज यहाँ से जाते थे उनमें संगेशाह, अकीक, तथा लोहितांक भी होते थे। आज भी इन गिर शृंखलाओं पर स्थित बामौर, कुलैय, मोहना, रेंहर, अमोला मोहार, सरदारपुर, मन्दसौर, श्योपुर तथा चन्देरी आदि स्थानों से भवन—निर्माण का सुन्दर पत्थर मिलता है। विजयपुर परगने में गोहरा नामक स्थान में संगमरमर के समान ही अत्यन्त बहुमूल्य पत्थर प्राप्त होता है। काँच और भवन में उपयोगी लाल पत्थर शिवपुरी, गिर्द, भेलसा, गुना, मुरैना, मन्दसौर जिलों में पाया जाता है। चूना और स्लेट के पत्थर भी इन गिर मालाओं की खदानों में मिलते हैं। अनेक गुणकारी औषधियाँ भी इन पर्वतमालाओं पर प्राप्त होती हैं इन पर्वतों का सबसे बड़ा वरदान वे नदियाँ हैं जो इनसे निकलकर यमुना में मिल जाती हैं। इन नदियों में िंसचित प्रदेश ही मध्यप्रदेश अथवा उसका ही एक रूप आज का मध्यभारत है। इस प्रकार खनिज, वन, औषधियाँ धन—धान्य आदि सम्पदा से भरपूर तथा श्रद्धा एवं भक्ति से परिपूर्ण यह क्षेत्र वास्तविक रूप से ही स्वर्णाचल रहा है। अत: स्वर्णाचल नाम सार्थक है। इस सोनागिरि तलहटी में बसा गाँव श्रमणांचल का सरल रूपान्तर सनावल है।
ऐतिहासिकता
सम्राट अशोक (ईसा पूर्व सन् २६९) का साम्राज्य पूर्वी अफगानिस्तान से बंगाल की खाड़ी तक और काश्मीर से कावेरी नदी तक फैला था। अशोक के राज्य में राजतरंगिणी के अनुसार काश्मीर भी सम्मिलित था। पाटलिपुत्र में स्वयं सम्राट अशोक साम्राज्य तथा भारत के पूर्वी भाग का शासन तंत्र देखते थे। यहाँ उनकी सहायता के लिये एक उपराजा रहता था। पाटलिपुत्र के अतिरिक्त चार ऐसी प्रान्तीय उप—राजधानियों का उल्लेख अशोक के शिलालेखों में मिलता है। जहाँ युवराज शासन भार संभाले हुए थे। तक्षशिला, उज्जयिनी, सुवर्णगिर और तोपाली चार राजधानियाँ ऐसी थी जहाँ कुमारामात्य नियुक्त थे। प्रथम शिलालेख जो दतिया के पास गुर्जराग्राम में मिला है इससे प्रगट होता है यहाँ भी एक कुमारामात्य था। यह सुवर्णगिर उत्तर भारत में ही थी। अरावली के पश्चिम और सोन के पूर्व, एवं मथुरा के दक्षिण तथा विदिशा के उत्तर प्रदेश के नियंत्रण के लिये किसी उपराजधानी की आवश्यकता थी। मथुरा, विदिशा और उज्जयिनी अशोक के समय में उसके धर्म प्रचार के तथा राजनीति के प्रधान केन्द्र थे। इसलिये इस क्षेत्र के नियंत्रण के लिये यहाँ कुमारामात्य नियुक्त था। यहाँ पर लिखना पर्याप्त होगा कि आगे जहाँ नाग पुन: प्रबल हुए थे वह क्षेत्र मथुरा से दक्षिण में था, जिसमें कान्तिपुरी (वर्तमान में मुरैना का कुलकर) और पद्मावती (पवाया) उनके प्रभाव केन्द्र थे। उनके लिये ही सुवर्णगिरि के कुमारामात्य तथा उत्तराधिकारियाँ के प्रतिवेदन करने पर इसिला के अधिकारियों को अशोक ने २५६ भिक्षुओं के व्यूथ द्वारा समारोहपूर्वक सन्देश भिजवाया था।
मौर्यों ने उज्जयिनी को अपनी उप—राजधानी बनाकर दृढ़ अधिकार जमा रखा था। संभवतया वर्तमान दतिया के पास स्वर्णगिर में अपनी दूसरी उपराजधानी बना रखी थी। कौशाम्बी से विदिशा जाते समय सम्राट अशोक ने इस स्थान पर डेला डाला जहाँ अशोक का शिलालेख दतिया और उन्नाव के बीच गुर्जरा नामक ग्राम में मिला है। यह भी स्मरण योग्य है कि सुवर्णगिर (सोनागिरि) पर श्रमणों (जैन साधूओं) का अधिक प्रभाव था। दूसरे इस प्रदेश में उस समय आटव्य और वनवासी रहते थे जिनकी स्वातन्त्रय भावना। समाप्त न की जा सकी थी। अतएव बौद्ध धर्म के प्रभाव को बढ़ाने एवं आटव्यों पर नियंत्रण रखने के लिये सुवर्णगिर का उपराजधानी रखना आवश्यक था।
निष्कर्ष यह है कि अशोक के समय में सुवर्णगिरि उप— राजधानी थी जो उत्तरी भारत में वर्तमान दतिया जिले में हैं। इस विवरण से सोनागिर की प्राचीनता स्वयं सिद्ध है सन्दर्भ ग्रंथ
१.पं. बाबूलाल जमादार अभिनन्दन ग्रंथ अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद् बड़ौत (मेरठ), १९८१, धर्म एवं दर्शन खण्ड, इतिहास एवं पुरातत्व खण्ड, तथा बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ का खण्ड।
२.जैन बलभद्र, जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग, १९७४ में केशरीमल श्रीचन्द्र चावलावाला, दिल्ली, प्रथम परिच्छे ‘‘जैनधर्म’’
३.जैन बालचन्द्र (अनुवादक) कवि श्री देवदत्तविरचित श्री स्वर्णाचल महात्म्य ‘‘महाकाव्य’’ प्रकाशक श्री सिद्धक्षेत्र सोनागिरि संरक्षणी कमेटी, द्वितीय संस्करण १९६३।
४. श्रवणगिरि श्रमणयोग स्मारिका, १९८९, आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज चातुर्मास प्रबन्ध समिति, सोनागिरि (दतिया), प. मुनि श्री १०९ देवसागरजी—‘‘सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र का महत्त्व’’