माँ भारत भारती ने अपनी पावन कुक्षि ने अनेकश: संत ऋषि, मर्हिष को पैदा करके आर्ष परम्परा की प्रखरता दर्शायी है। उनमें से ही त्यागी, महातपस्वी, महाव्रती श्री श्री श्री आचार्य प्रवर, प्रात: स्मरणीय, परम वंदनीय वीरसागर जी महाराज अनुपमेय जिनवाणी के साधक,, दिगम्बरत्व महिमा से परिपूर्ण होकर सदैव—सदैव पूज्यता को प्राप्त हुए हैं।
सांसारिक विडम्बनाओं, मोह माया से रहित, क्रोधादि कषायों से विरक्ति और जैन वाङ्मय से आसक्ति वाले उन ऋषिराज ने चिर सत्य की खोज में, मानव के कल्याण में अपने में अपने आप को सर्मिपत कर दिया। ऐसे महापुरुष दिव्य आत्मा को मेरा शत्—शत् नमन है। अपने परमाराध्य—स्वरूप गुरु, चारित्र चक्रवर्ती, उपसर्ग विजेता श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर जी महाराज से जैन साधु की शुद्ध सात्त्विक परिभाषा को जानकर उन्होंने कहा—
‘‘णिग्गंथ मोह मुक्का बावीस परिसहा जिय कसाया।
पावारंभ विमुक्का ते गहिया मोक्खमग्गम्मि।।’’
सभी परिग्रहों से रहित, स्वशरीर, स्वजन, परिजन से मोह रहित, २२ परीषहों के जयी, क्रोधादि कषायों के विजेता, सभी पापमयी क्रियाओं और आरम्भ से रहित साधु—मोक्षाधिकारी हैं।’’
ज्ञान दर्शन, तप, चारित्र और संयम गुणों से परिपूर्ण होने से मोक्षमार्ग निकट होता है। शरीर आदि अन्य द्रव्यों से िंकचित्भास भी जिसे लगाव है, और ज्ञानी ध्यानी, जिनवाणी का ज्ञाता भी अगर वह है, तो वह साधु श्रेणी में कभी नहीं आयेगा। आचार्यश्री कुन्दकुन्द स्वामी का भी कथन मननीय है—
‘‘णिच्चेल पाणिपत्तं उवदूट्ठं परम जिणविंर देिंह।
एक्को वि मोक्खमग्गो सेसाय अमग्गया सव्वे।।
वस्त्र रहित, दिगम्बर मुद्रा और पाणि पात्र में आहार की क्रिया करने वाला मोक्षमार्गी है। अत: आचार्य वीरसागर जी महाराज ने साधु की विशुद्ध परम्परा का अनुकरण करते हुए अपने को, अपने संघस्थ साधु साध्वियों, श्रावक श्राविकाओं को जैन वाङ्मय का सच्चा ज्ञान दर्शाते हुए मोक्षमार्ग में लगाया। उनके कथन और क्रिया में कोई अन्तर नहीं था।
जो कहना सो करना—शास्त्रानुकूल आचरण करना उनका परम आदर्श था। आज हम उन महामना ऋषिवर के परम ऋणी हैं, जिन्होंने संसार में भटकते हुए सच्चे धर्म, सच्चे गुरु और जिन प्रणीत सद्वाणी का अभूतपूर्व पथ दर्शकर हमें उस पर चलने की सीख दी और वर्तमान, भविष्य में उस आर्ष परम्परा को कायम रखने के लिये अमर सन्देश, सम्यक््â पथ बताया। आज दृढ़ निश्चयी बनकर मन को एकाग्र करके, उन सन्त पुरुष के निम्न वचनों को सदा स्मरण में लाना चाहिये।
क ईप्सितार्थ स्थिर निश्चयं मन:
पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत्।।’’
चंचल मन की निश्चयी—दृढ़ता, मन और नीचे की ओर बहते हुए पानी को कौन रोक सकता है ? अत: सत्यवादिता,, विनयशीलता, निरहंकारिता, आत्मधैर्यता, इन्द्रिय निग्रहणा मानव के विशिष्ट गुण होते हैं, पर हम उसे आज विस्मरण कर रहे हैं।
आचार्यश्री का सिद्धान्त था—अगर जीवन को जन्म—जरा—मरण जैसे रोगों से मुक्त करना है, तो उपरोक्त आर्षवाणी पर अमल करना प्रत्येक प्राणीमय मनुष्यों का कत्र्तव्य हैं अपने जन्म, वंश, धर्म संस्कृति, सदाचारिता को कभी भी भूलना नहीं है, पग—पग पर श्वसन, प्रश्वसन क्रियाओं में भी नैतिक आध्यात्मिक दायित्वों को मानकर चलना है। गुरु श्री के र्मािमक कल्याणप्रद एक—एक शब्द हृदय तंत्री को स्पर्श करने वाले होते थे।
उन्होंने कहा—‘भइया, संसारी प्राणियों ! वाणी का जो संयमी होता है, वह निश्चित अमरत्वपद पाता है। समितियों में भाषा समिति, गुप्ति में मनोगुप्ति और महाव्रतों में ब्रह्मचर्य का अतिशय महत्व है। उनके अनुभवजन्य ज्ञान, चारित्र की चमत्कारिक अलौकिकता, मनोबल की पराकाष्ठा, त्याग तपस्या की श्रद्धा के आगे नर तिर्यंच सभी नत थे। सैकड़ों उपसर्गों को उन्होंने अपने आत्मबल, रत्नत्रय के तेज से जीता पर उसे प्रकाश में लाने की इच्छा कभी नहीं की।
लोवैषणा की चाह जिसे होगी वह नाना प्रकार के उपक्रम स्वयं के माध्यम से या श्रावक श्राविका, धनाढ््य व्यक्तियों के आधार पर या जंत्र—तंत्र—मंत्र जैसी क्रियाओं से करने में अग्रसर होगा। पर आचार्यवर वीरसागर जी गुरुदेव निजत्व गुण में सदा वैसे ही ध्यानस्थ हो जाते जैसे कोई व्यापारी अपने व्यापार की मशगूलता में भीषण उष्णता में भूख—प्यास को भी भूलकर ग्राहकों में अपने को पंâसाये रखता है।
निजध्यानी, स्वदोष—दर्शनी, स्वालोचना करने वाला और गुरु के सामीप्य में रहकर अपने को धन्य मानने वाला इस पद का अधिकारी है। ज्ञानपिपासा को प्राप्त करने वाला कभी गुरु छाया को न छोड़े। उन महानात्मा के पास ही ज्ञान का भण्डार है, स्नेह की गागर है, वाणी की मिष्टता है और है उज्जवलता की विशुद्ध पुनीत सदाचारिता।
कोयले की खान से हीरा निकालना, पत्थर दिल को देवत्वमय बनाना, मिथ्यात्वी कुमार्गगामी को सम्यक्त्वी बनाकर सन्मार्गी बनाना हमारे आराध्य गुरुदेव में चमत्कारिक लक्षण थे। जो गृहस्थावस्था से ही गुरु पद से लोक व्यवहार में सम्मानित थे, वे आगे चलकर गुरुदेव दिगम्बर महामुनीश्वर के रूप में सर्व वंदनीय हो गये।
आचार्यश्री ने कभी भी अपने को महानता की श्रेणी में नहीं आंका। जिसे अपने पर अहंकार होगा, पद का मान होगा, तपस्या में अहं होगा, वह कभी भी स्व—पर कल्याण नहीं कर सकेगा। उसे तो हमेशा नीचा बनकर ही रहना चाहिये, जैसे—
‘‘नानक नन्हें हो रहो जैसी नन्ही दूब,
झाड़ फूस सब उड़ गयो, दूब खूब की खूब।।’’
शिष्य बनकर रहो गुरु बनकर नहीं। जो गुरु बनकर रहेगा, उसे स्वदोष दर्शन कभी नहीं होगा; अपनी आलोचना करने में कतरायेगा। ऐसा पढ़ने—सुनने में आया है, कि कोई आचार्यश्री गुरु वीरसागर जी महाराज को आचार्यश्री के नाम से सम्बोधित करता तो उनके अन्त:करण को चोट लगती थी, उनकी आँखे सजल हो जातीं, ऐसा क्यों ?
कारण पता चलता तो वे सहजभाव से कारुणिक शब्दों में कहते—‘‘भइया ! पूज्यवर पिताश्री तुल्य गुरुदेव पावन मार्ग दर्शक के रूप में जब विद्यमान हैं, आचार्य शिरोमणि पद से वंदनीय हैं, उनके समक्ष मुझे ऐसे गुरुवर पद से सम्बोधना अनुचित है, विवेक से काम लो, मैं कहाँ एक सड़क का पत्थर ! वो कहाँ एक बेजान में जान फूकने वाले जैनधर्म जैनवाङ्गमय के सच्चे शिल्पी! मेरी बराबरी उनसे क्यों करते हो, मैं कुछ भी तो नहीं हॅूँ, और जिस पथ पर चलने हेतु मैंने कदम बढ़ाये हैं, उस पुनीत छाया का सम्बल लेकर ही तो।’’
ऐसे महामना, आदर्श विचारों, अप्रतिम श्रमण रत्न का एक—एक शब्द चिन्तनीय हैं। जैन दिगम्बर मुनि स्व—प्रशंसा की कभी कामना नहीं करते, वह अपनी बात कभी नहीं कहते। जो कहते हैं, और करते हैं, वह जिन प्रणीत आज्ञा से जिनवाणी के सारभूत तत्वों के माध्यम से हो, जो ऐसा नहीं करते वे साधु की श्रेणी में नहीं आते।
वे स्वेच्छाचारी, एकल विहारी नहीं होते। उनके दिव्य शरीर से नि:सृत एक—एक अणु में सम्यक्त्व की प्रखर रश्मि निहित है, वे चलते—फिरते सच्चे अपरिग्रही उपदेशक हैं। वे दुनिया के पीछे नहीं भागते, मनुष्यों की भीड़ नहीं लगाते, दुनिया उनके पदचिन्हों की ओर भागती है, मानव मात्र उनके सामीप्य को पाने के लिए चुम्बक की भाँति दौड़े जाते हैं।
यही कारण है कि एक बार हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने अपने जीवन में जो अपरिग्रहवाद का सम्यक््â रूप अपनाया है, उसका अक्षरश: पालन भी किया है, वह जैन दिगम्बर मुनि की क्रियाओं, उनके आदर्शो, सिद्धान्तों का अध्ययन—मनन—चिन्तन करके। उन्होंने के तत्कालीन प्रधानमंत्री र्चिचल को पत्र लिखकर कहा था,
‘‘मैं जैन मुनि की सम्यक््â क्रियाओं, विशुद्ध सदाचारिता, और दिव्यमयी अपरिग्रहवादिता से इतना प्रभावित हुआ हूँ कि मैं चाहता हूँ कि मैं भी जैन मुनि बन जाऊँ और वही मार्ग मानव जीवन का श्रेयस्कर मार्ग है, जिसमें अिंहसा, सत्य, करुणा, ब्रह्मचर्य और मंदकषायी, अपरिग्रही बनने की बात सर्वोपरि रूप में निहित है।’’
ऐसे राष्ट्रसंत के अनमोल विचारों का समावेश हमारे जैन महामुनीश्वरों के पावन सन्देश, पावन क्रियाओं का प्रत्यक्ष नमूना है। मैं, आचार्य शिरोमणि श्रमण परम्परा के उन्नायक, दिव्य स्वरूप में सुशोभित अपने आराध्य गुरुदेव श्री वीरसागर जी आचार्य परमेष्ठी को सदा—सदा वन्दना करती हॅूँ।