श्री पूज्य १०८ आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज का परिचय जीवन चरित्र
रचयिता—संहितासूरि प्रतिष्ठाचार्य ब्र. श्री सूरजमल जैन
दोहा
वर्धमान जिनराज अरु गुरु गौतम शिर नाय।
द्वादशांग वाणी नमों मन वच काय लगाय।।
मूल संघ में श्रेष्ठ श्री कुन्दकुन्द भगवान्।
परम्परा उनकी भये शान्ति सिन्धु गुणखान।
दीक्षा धर इस काल में मुनि का धर्म बताय।
सर्पादि उपसर्ग सह जीते सर्व कषाय।।
वीर—नेमि अरु कुंथु मुनि चन्द्रसिन्धु विद्वान्।
पाय सुधर्मादिक ऋषि थे उन शिष्य महान्।।
लाखों जैनाजैन को दिया धर्म उपदेश।
नर भव पाय करो स्वहित यही वीर संदेश।।
उभय नेत्र में मोतिया बिन्दु हवा मुनि हाय।
गुरुवर दृष्टि कमी हुई तब सोचा मन मांय।।
अपनी स्थिति कमजोर लख तब दृढ़ किया विचार।
बारह वर्ष समाधि को लो गुरु वर ने धार।।
उग्र उग्र जब तप किया क्षीण हुआ वपु सर्व।
रहते आतम लीन नित जिन्हें न था कुछ गर्व।।
संवत् दोय हजार अरु बारह साल मंझार।
पहुँचे कुन्थलगिरि तबै श्री गुरु भवि आधार।।
अंत समय निज जान कर लीनि समाधी धार।
तब शरीर का भी नहीं करवाया उपचार।।
ऐसा तप इंगिनी मरण कहलाता सुखकार।
धारण कर आचार्यश्री बैठे भवि आधार।।
हीन दु:खमा काल में चौथे काल समान।
तप करके दिखला दिया श्री गुरु राज महान।।
दर्शनार्थ आचार्य के आये भव्य अपार।
दर्शन कीने हर्ष से मन वच काय सम्हार।।
दो हजार बारह तभी संवत् शुभ इक जान।
भाद्र शुक्ल की सप्तमी किया विचार महान्।।
प्रथम शिष्य मुनिराज श्री वीर सिंधु को जान।
पद दीना आचार्य का श्री गुरु महिमावान्।।
द्वितीय भाद्र की दूज को ब्राह्य मुर्हूत पिछान।
भौतिक वपु का त्याग कर गये स्वर्ग गुणखान।।
बहुत शीघ्र ही ये ऋषी पावेंगे शिवनार।
ऐसे उन आचार्य पद ‘‘सूर्य’’ नमें शत बार।।
प्रथम शिष्य आचार्यश्री वीर सिंधु मुनिराय।
शुभ चरित्र लिखता सही यातैं पाप नशाय।।
दोहा
इस भारत में एक है राज्य हैदाराबाद।
तहं औरंगाबाद इक जिला न जहाँ विषाद।।
बड़े—बड़े मन्दिर जहाँ करें गगन से बात।
स्वर्णमयी कलशे दिपे ध्वजा खूब फहरात।।
श्रावक जन षट् कर्म को करते हित सुविचार।
श्री जिन मन्दिर में जहाँ उत्सव होत अपार।।
तेज—राधेश्याम
इसी जिले में एक मनोहर ईर गाँव शोभा पाता।
सुन्दर बाग बगीचों से सब जन मन को है हर्षाता।।
चहुँ ओर हरियाली छाई कूप वापिका बने जहाँ।
कुषक वणिक जन और सर्व जन दिखते दुखित न तनिक वहाँ।।
एक जिनालय बना जहाँ पर जिसकी शोभा छाई है।
स्वर्ण कलश उस ऊपर सोहे ध्वजा खूब फहराई है।।
श्रावक जन षट कर्म जहाँ पर नित प्रति करते रहते हैं।
अरु नित—नित उत्सव मन्दिर में, कर निज कल्मष हरते हैं।।
इसी ग्राम में सेठ शिरोमणि रामसुख कहलाते थे।
थे योग्य चिकित्सक इसीलिये वे सर्व जनों को भाते थे।।
गंगवाल है गोत्र जिन्हों का पूर्व जनों ने बतलाया।
पूर्व पुण्य के प्रबल उदय से श्रावक कुल भी है पाया।।
भाग्यवती है पत्नी जिनकी शीलवान गुणवान महा।
मंद कषायी दान धर्म रत नारी जन में श्रेष्ठ अहा।।
दंपति मिलकर बड़े प्रेम से जिन मन्दिर में जाते थे।
दर्शन कर श्री जिनवर के पंचामृत स्नपन कराते थे।।
भक्ति भाव से पूजन करते प्रभु का ध्यान लगाते थे।
पात्र दान का समय देखकर श्री मुनिवर पड़गाते थे।।
नवधा भक्ति यथा पात्र निज धर्म समझकर करते थे।
दान देयकर र्हिषत होकर जीवन सफल समझते थे।।
माता भाग्यवती के प्रथम पुत्र का जन्म
दोहा
भाग्यवती के गर्भ से हुआ पुत्र इक आय।
मात पिता तब हर्ष से फूले अंग न माय।।
रखा नाम उस पुत्र का तभी गुलाबचन्द पूज्य चरित्र नायक गुरुदेव के ज्येष्ठ भ्राता है। आपने भी पूज्य आचार्य श्री से सप्तम प्रतिमा के व्रत इन्दौर में लिए और दशवीं प्रतिमा पूज्य चन्द्रसागरजी महाराज से ली थी। आपका स्वर्गवास समाधिपूर्वक हो गया। आपके शांतिलाल जी, श्यामलालजी दो पुत्र एवं कुन्दनबाई पुत्री हैं। ये तीनों सन्तान मौजूद हैं।।लाड़ प्यार से पालते करते थे आनन्द।।
द्वितीय पुत्र की उत्पत्ति के समय माता की भावना और स्वप्न दर्शन
हरिगीतिका छंद।।
तीन वर्ष के बाद ही जब मात स्वप्ना देखिया।
श्वेत वर्ण है रंग जिसका वृषभ उन्नत पेखिया।।
फिर कुछ समय के बाद यह शुभ भावना मां की हुई।
जिनराज पूजन तीर्थ वंदन करूं नित प्रति मैं सही।।
दोहा
ये सब बातें ही हुई उदर पुत्र के हेत।
भाग्यवती रहती तभी हर्षानन्द समेत।।
बीते जब नव मास ही जनमा सुत इक आन।
शुभ दिन शुभ नक्षत्र का था तब योग महान्।।
चरित्र नायक का जन्म
तर्ज—राधेश्याम उन्नीसो तेतीस साल अरु अषाढ़ सुदि पूनमतीन वर्ष के बाद में वि. सं. १९३३ आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को पूज्य चरित्र नायक वीर गुरु का जन्म हुआ।
प्यारी। शुभ वेला में चरित्र नायक जन्मे थे आनन्दकारी।।
अरु तभी वहां बाजे अपार बहु विधि के खूब बजाये हैं।
सौभाग्यवती मिल मंगल गाये खूब दान बटवाये हैं।।
होनहार हीरावत इस, बालक को जब सबने देखा।
तब हीरालाल नाम बाल का रखा सुनो अरु कछु लेखा।।
दिन—दिन बालक बढ़ने लागा जब सवा माह की उम्र भई।
परिजन इसको मन्दिर में ला था उत्सव कीना खूब सही।।
अरहंत प्रभू के सम्मुख रख तब अष्ट मूलगुण धरवाया।
अपराजित महामंत्र बाल के कर्णों में है सुनवाया।।
शशि समान नित बढ़ता था यह सर्व जनों को हर्षाता।
मात—पिता सब परिजन के मनको था यह अति ही भाता।।
बालक की उपनय विधि
अष्ट वर्ष के हुये आप जब पितु ने तभी विचार किया।
उपनयन विधि अब करना है बच्चे की दिन में धार लिया।।
कर आयोजन बड़े ठाट से जिनवर पूजन कीनी है।
आगम के अनुसार तभी उपनयन विधि कर दीनी है।।
घर पर ही इनको जिन दर्शन अरु पूजन पाठ पढ़ाया है।
श्रेष्ठ मुहूरत देख पाठशाला में तभी पठाया है।।
बाल्यावस्था वर्णन
।।त्रोटक छंद।।
जब बालक शाला पढ़ने गया, सब लड़कों में हुशियार भया।
अध्यापक इनसे प्रेम करे, सब सभ्य जनों में गुण उचरे।।
सब लड़कों में ये नायक थे, जब खेल खेलते लायक थे।
जन चकित होते थे देख तभी, होगा महान् यह बाल कभी।।
सब लक्षण इनमें हैं ऐसे, महा पुरुषों में दिखते जैसे।
नहीं मान कषाय दिखे मुंह पर, अरु चंचल बुद्धि ज्ञान प्रखर।।
।।पद्धरि छंद।।
इन हिन्दी उर्दू लिया जान, सप्तम कक्षा तक पढ़ा आन।
फिर तज शाला व्यापार कीन, पर उदासीनता चित्त लीन।।
दोहा
हीरालाल के चित्त में उदासीनता छांहि।
जिनवर पूजन करत नित काल व्यतीत करािंह।।
।।पिता द्वारा विवाह के लिये प्रेरणा।।
राधेश्याम देख पिता को यौवनयुत शादी की तैयारी की।
कहा पुत्र से सुनो साथ तुम रहो सदा हुशियारी की।।
अब शादी करना है तुमरी क्यों उदासीनता लीनी है।
घर में नाहीं कमी किसी की फिर दिल क्यों बेचैनी है।।
घृत लवण तेल सब खाद्य और आभूषणादि एकत्र किये।
देवेंगे कुंकुम पत्र सर्व को प्रिय सुत बोलो खोल हिये।।
।।हीरालाल का उत्तर।।
अहो पिताजी क्या कहते हो शादी किसकी करना है।
नहीं मुझे स्वीकार सर्व ये संयम में पग धरना है।।
करो नहीं आडंबर इसका मुझ से कुछ भी कहो नहीं।
यह निश्चय है शादी करना जरा मुझे मंजूर नहीं।।
।।पिता।।
धरो मौन तुम बच्चे इसमें छोड़ो इस नादानी को।
स्वीकार करो तुम शादी को अब क्यों करते मनमानी को।।
।।हीरालाल।।
शादी से दु:ख होते हैं यह उक्ति जगत अनमोली है।
संसार बनी में फिरने की यह स्पष्ट दु:खों की डोली है।।
क्यों करते हो खेद पिताजी मैंने दिल में ठान लिया।
आजन्म ब्रह्मचारी रहकर धारूंगा तप यह मान लिया।।
।।पिता।।
बाल ब्रह्मचारी रहना यह बच्चों का सा खेल नहीं।
सुर नर दानव अरु देवराज नारी संग रहते सभी यहीं।।
घर बार बसाकर रहना ही गार्हस्थ धर्म छोड़ो न अभी।
पांडवादि गार्हस्थ्य अवस्था को पहले त्यागा न कभी।।
छोड़ों तुम यह बात पुत्र इसमें कुछ भी है सार नहीं।
घर बार संभालो दान धर्म रत होकर मुझ को प्यार यही।।
।।हीरालाल।।
पुरुष वही है अहो पिताजी प्रण करके बतलाता है।
कायर वह है जो व्रत लेकर अहो फिसलता जाता है।।
वासुपूज्य—मलि—नेमिनाथ प्रभु तोरण पर से आये थे।
श्री पाश्र्वनाथ—सन्मति विवाह के त्यागी क्या न कहाये थे।।
नाम अनंतमती था जिस पर आपत्ती बहु आई थी।
शील धर्म से चिगो न बाला मन में दृढ़ता लाई थी।।
और अनेकों हुये पिताजी ब्रह्मचर्य व्रत धारी हैं।
उसी मार्ग को मैं अपनाऊँ दिल में यही विचारी है।।
छोडूं नहीं प्रतिज्ञा अपनी चाहे जो कुछ हो जावे।
विषयों का त्यागी जन जग में वृथा नहीं गोता खावे।।
।।दोहा।।
कह कह करके थक गये एक न मानी बात।
समझाया परिवार ने समझाया पितु मात।।
।।त्रोटक छन्द।।
तुमने फिर सब रस त्याग करे।
भगवन् की भक्ति हृदय धरे।।
ग्रंथों का भी तुम मनन करो।
इह विधि तुम काल व्यतीत करो।।
।।दोहा।।
कुछ ही दिन के बाद में पिता स्वर्ग पद पाय।
माता भी ठहरी नहीं वह भी स्वर्ग सिधाय।।
सोचा हीरालाल ने अवसर मिलियो एक।
त्याग करूं सब संग को मिटे कर्म की रेख।।
अन्वेषण करने लगे सच्चे गुरु की आप।
निज विचार करते यही छूटे कब गृह ताप।।
आपकी बिना वेतन के नि:स्वार्थ सामाजिक शैक्षणिक सेवा
उन्नीसो तिहत्तर जबै था संवत् शुभवार।
बाल पठन के हेतु तुम शाला खोली सार।।
न दिगम्बर क्षेत्र इक अतिशय जहां विशाल।
नाम तास कचनेर है शोभा वरणूं हाल।।
चिंतामणि पारस प्रभू जहां विराजे आय।
दर्शनार्थ यात्री तहां नित प्रति अगणित जाय।।
ऐसे अतिशय क्षेत्र पर शुभ मति हीरालाल।
चंद दिनों तक ठहर कर वहां पढ़ाये बाल।।
फिर औंरंगाबाद में इक विद्यालय और।
खोल पढ़ाये छात्र तुम जहां न था कुछ शोर।।
नस—नस में तुम भर दिया जैन धर्म का अंश।
भूलेंगे नहीं छात्र वे नित तुम करें प्रशंस।।
सात वर्ष तक तब वहां बिन वेतन के आप।
निस्वार्थ सेवा करी छोड़ सर्व संताप।।
।।पद्धरि छंद।।
जब सुनी आपने एक बात। है नांदगांव अति शहर ख्यात।।
वहां ऐलक पन्नालाल जाय। किया वर्षा योग हृदय लगाय।।
फिर चले आप उन दर्शन को। निज मानो भाव के पूरन को।।
दर्शन करके मन भया हर्ष।व्रत लेना तय कीना सहर्ष।।
उन्नीसो अठंतर साल मांहि। आषाढ़ शुक्ल ग्यारस कहांहि।।
ऐलक श्री पन्नालाल पास। सप्तम प्रतिमा ली हो उदास।।
तब फिर औरंगाबाद जान। आये ब्रह्मचारी तुम महान।।
फिर कारण लख कर नांद ग्रांम। पहुँचे वहां पर हे सुखद नाम।।
उस नगर निवासी श्रेष्ठि वर्य। है इक आप नंदगाँव के प्रसिद्ध श्रेष्ठी थे।
आपका गोत्र पहाडे है। आपने सप्तम प्रतिमा के व्रत ब्र. हीरालालजी (आचार्य वीरसागरजी महाराज) से लिए थे। आप दोनों का प्रेम परस्पर में बहुत ही रहा। फिर आप दोनों ब्रह्मचारी ने पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से वि. सं. १९८० फाल्गुण शुक्ला सप्तमी को एकादश प्रतिमा के व्रत धारण किये। चरित्र नायक का वीरसिन्धु और खुशालचन्द जी का चन्द्रसिन्धु नाम रखा।‘खुशालचन्द अधिक धैर्य।। उन सप्तम प्रतिमा दई आप। अरु निमटाया गृह जाल ताप।। फिर युगल ब्रह्मचारी रहाय। घृत लवण तेल मीठा न खाय।। अनशन उपवासादिक कर प्रवीण। कर करके कर दी देह क्षीण।। ।।आचार्य शांतिसागर जी महाराज का नाम सुनकर युगल ब्रह्मचारी का दर्शनार्थ गमन।।
।।तर्ज—राधेश्याम।।
उन्नीसो उन्यासी साल जब दर्शन करने आप चले।
पहुँचे थे कोन्नूर ग्राम जब शांति सिंधु थे वहां भले।।
छोड़ परिग्रह नग्न दिगंबर बने शुद्ध अविकारी थे।
उग्र—उग्र तप करते थे मुनिवर सच्चे जगतारी थे।।
वीतराग छवि सौम्यर्मूित थे अरु शिव मग बतलाते थे।
सत उपदेश सुनाकर जग के कल्मष दूर भगाते थे।।
ऐसे उन गुरुवर के दर्शन करके मन में हर्ष भया।
युगल ब्रह्मचारी ने सोचा दीक्षा लेना खोल हिया।।
ऐसा दृढ़ निश्चय करके जब कारण वश वे देश गये।
परिवार जनों से क्षमा मांग कर घर से भी वे मुक्त हुये।।
।।दोहा।।
इतने में कहने लगे भाई गुलाबचन्द।
क्या करते हो बात यह क्या है तुम्हारा फद।।
जाते हो कहँ छोड़कर सारा यह घर बार।
शीघ्र बता दो भ्रात तुम कैसा किया विचार।।
।।हीरालाल जी का प्रत्युत्तर।।
गुरुवर मुझको मिल गये जो हैं जग विख्यात।
इतना ही संबंध था रोको मत है भ्रात।।
ले दिक्षा अब शीघ्र ही रहूँ गुरु के पास।
तप करके अब मेटहूँ जन्म मरण का त्रास।।
।।ज्येष्ठ भ्राता गुलाबचन्द जी का विलाप।।
तर्ज—हाय भाई कहां तोहि पाऊं
मेरे भाई हीरालाल, तुमने सोचा क्या इस हाल।
यह पंचम काल दुखारी, पद—पद में दु:ख होता भारी।।
तुमरा बहुत ही कोमल अंग, शीत उष्ण से होवोगे तंग।
तुमने सप्तम प्रतिमा धारी, प्रियवर यह पर्याप्त भारी।।
मुझको छोड़ो न मेरे भ्राता, तुम्हारा कहना न दिल में सुहाता।
तुम बिन चैन पड़े ना भाई, मुझको होवेगा कौन सहाई।।
दु:ख होता हमारे हृदय में, नीर भर भर के आवें नयन में।
घर में रहकर के ही तप खूब करना, भाई न हमको विसरना।।
भाभी रोती है देखो तुम्हारी, आश करो न निराश हमारी।
तुम बिन व्याकुल रहेंगे भाई, देवो दीक्षा के भाव हटाई।।
इतनी भाई दया मन में लाना, घर से अब पग न आगे बढ़ाना।
जाने दूंगा नहीं भ्रात तुमको, दो न अब कष्ट ज्यादा न हमको।।
।।शोकाकुल भ्राता को हीरालाल जी का सम्बोधन।।
।।दोहा।।
सुनो भ्रात मम बात को क्यों हो करो विलाप।
यह संसार असार है इसमें बहु संताप।।
मुझसे भाई बहुत ही हुये भवांतर जान।
भ्रमत अनादि काल से यह जानो मति मान।।
किन किन का अब सोच तुम करते कहो विचार।
अहो मोह यह जीव को दुख का है दातार।।
आर्त ध्यान से श्रेष्ठ जन उपजे पशू मंझार।
भ्रात तजो इस ध्यान को सम्यक् करो विचार।।
सांझ समय एकत्र हो पक्षी तरु पै आय।
दिनकर निकले सब भगे एक न वहां रहाय।।
उसी तरह यह जान लो मात पिता परिवार।
कर्मोदय से साथ है सम्यक् यही विचार।।
शोक तजो अब शीघ्र ही आज्ञा देवो भ्रात।
क्यों विलम्ब करते सही सोचो मेरे तात।।
हे भाभी तुम माता सम बनती क्यों नादान।
सच्चे मन से अब कहो करदो शीघ्र प्रयान।।
इतना सुन कर के इन्हें हुवा तभी संतोष।
उधर उन्होंने भावना भाई जो सुख कोष।।
अनित्य भावना चाल जोगीरासा धनपूज्य ब्र. हीरालालजी (आ. वी.) महाराज इस प्रकार से १२ भावनाओं का एवं वैराग्य जनित पाठों का पाठ किया करते थे।
दौलत अरु कुटुम्ब परिग्रह तन का सुन्दर रूप।
देखे जाते थे तख्ते पर छत्र फिरे सिर भूप।।
चपलावत चन्चल है जग में रहे नहीं रखने से।
चेतन क्यों तू मोह करत है विषय भोग स्वप्ने से।।
अशरण भावना
जो तू सोचे भ्रात कुटुम्बी घर की सुन्दर नार।
नािंह मरन दे जंत्र मंत्र करि और करेंगे प्यार।।
चेतन पागल क्यों है कोई न रखनहार।
वायस सागर उड़कर जाता कोई नहीं रखवार।।
संसार भावना
रोता कोई धन के कारण पुत्र बिना दुख पै है।
लखपति होकर करे कृपणता इस विघ दु:ख लहे है।।
लक्ष्मी नशे अरु मरे कुटुम्बी शोक करे दिन राति।
जग में नाहीं कोई सुखी रे चेतन सोचो बाति।।
एकत्व भावना
आय अकेला जाय अकेला कोई नहीं है साथी।
कर्म शुभाशुभ लखे अकेला करे न कोई पांथी।।
फिर क्यों माने धन दारादिक अपना प्यारा भाई।
फसकर इनमें दु:ख सहत है भूल अनादि छाई।।
अन्यत्व भावना
क्षीर नीर जब मिलकर रहते फिर भी भिन्न बताई।
वैसे चेतन तुम पुद्गल से भिन्न भिन्न प्रगटाई।।
फिर क्यों माने धन दारादिक अपना प्यारा भाई।
फसकर इनमें दु:ख सहत हैं भूल अनादि छाई।।
अशुचि भावना
नाक कान मुख नयनादिक से बहु विध मैल बहे हैं।
मल मूत्रों से देह अपावन नव मल द्वार बहे हैं।।
खर पावन होवे जल से यदि तो तन निर्मल होवे।
प्रेम करे क्यों इसमें चेतन क्यों मानुष भव खोवे।।
आश्रव भावना
मन वच तन की चंचलता से कर्म निरन्तर आवे।
शुभ परिणति से पुण्य अशुभ परिणति से पाप कहावे।।
इस विधि कर्मागमन निरन्तर यह आश्रव कहलावे।
दुखी करे फिर इस चेतन को जिसका अन्त न आवे।।
संवर भावना
कर्म शुभाशुभ कुछ नहीं करता केवल आतम ध्यावे।
आने वाले कर्म रुकेजब यह संवर कहलावे।।
गुप्ति—समिति धर्मानुप्रेक्षा जा से संवर होई।
चेतन तेरी शक्ति अनूपम क्यों भव बन में खोई।।
निर्जरा भावना
पूर्वार्जित निज कर्म नशावे यह निर्जरा कहाई।
राग द्वेष से रहित अवस्था अकल अकंप निरूपी।।
चौदह राजू लोक बना यह अरु है पुरुषाकार।
पुण्य पाप के फल से इसमें घूम रहा बेकार।।
लोक भावना
छहों द्रव्यतैं भिन्न एक तू चिन्मय मूर्ति स्वरूपी।
राग द्वेष से रहित अवस्था अकल अकंप निरूपी।।
चौदह राजू लोक बना यह अरु है पुरुषाकार।
पुण्य पाप के फल से इसमें घूम रहा बेकार।।
बोधि दुर्लभ भावना
एकेन्द्रिय से लेकर चेतन पंचेंद्रिय पद पाया।
उत्तम देह सुकुल अरु नर भव पाकर व्यर्थ गमाया।।
तप के बल से ग्रेवेयक में गया रहा अज्ञानी।
तातें अब तू भेद ज्ञान करि हो जा सम्यग्ज्ञानी।।
धर्म भावना
होय निराकुल सब विषयों से आप आप को जानों।
दश धर्मादिक ध्याकर चेतन रत्नत्रय पहिचानो।।
धर्म यही है निज आतम का यह सब कर्म विनाशे।
‘‘सूरज’’ शिवपुर राह यही है केवल ज्ञान प्रकाशे।।
दीक्षा के लिए गमन और आचार्यश्री से प्रार्थना तर्ज राधेश्याम इतना विचार कर उसी समय दीक्षा लेने को गमन किया। खुशहाल चन्द्र ब्रह्मचारी को भी तभी इन्होंने साथ लिया।। कुंभोज नगर में शान्ति सिन्धु जब वर्षा योग मनाया था। जाकर कहने लगे गुरु से हृदय हर्ष अति छाया था।। निष्कारण बन्धु एक आप हैं धर्म स्वरूप बताने को। भव सागर में पतित जनों को हो तुम शक्त उठाने को।। उद्धार करो है पूज्य ऋषे हम दोनों सविनय विनय करें। दीक्षा दो स्वामिन् शीघ्र आप जिससे अथा संसार तरें।। ।।आचार्यश्री का उत्तर।। ।।
दोहा
सुनी प्रार्थना आपकी सोची खूब विचार।
दीक्षा है यह जैन की तीक्षणखङ्ग की धार।।
लेने पर छूटे लाखों अगर डिगाय।
मुनियों पर उपसर्ग बहु होत जिनागम गाय।।
बहुत नृपगण ने धरा जैन दिगम्बर भेष।
परिषह सही नहीं गई केवल था आवेश।।
भ्रष्टाचारी हो गये फिरते जंगल बीच।
निव्रत लेकर जो तजें पावे वह गति नीच।।
शीत उष्ण अरु नग्नता—सहन, केश का लोच।
करना होगा आपको देखो मन में सोच।।
हिम्मत ही यदि आपकी दीक्षा देउं आज।
हो विचार यदि पूर्ण तो छोड़ों अब सब काज।।
युगल ब्रह्मचारी का उत्तर
खूब खूब सोचा प्रभो आये मिल परिवार।
दीक्षा दो श्री पूज्य अब हमको सब स्वीकार।।
।।दीक्षा के प्रारम्भ में आचार्यश्री का धर्मोपदेश।।
तर्ज—राधेश्याम पहले दीक्षा के तब उनने मुनि धर्म स्वरूप सुनाया था। श्रावक के प्रतिमा रूप धर्म का तब उपदेश बताया था। ग्यारह प्रतिमा स्वरूप जोगीरासा श्री जिनवर ने श्रावक की प्रतिमा ग्यारहपूज्य आचार्य महाराज ने दोनों ही ब्रह्मचारिणी को ११ प्रतिमाओं का स्वरूप अच्छी तरह समझाया था। स्वरूप समझने पर व्रतों को पालना मंजूर किया तब आचार्य महाराज ने दोनों ब्रह्मचारियों को दीक्षा दे दी। बतलाई। अपनी शक्ति विचार सभी इनको पालो हे भाई।। ये सब प्रतिमा क्रम से होती अक्रम निंह पले हैं। शुद्ध भाव से पाले जो भवि तो सब पाप टले हैं।।
दर्शन प्रतिमा
देव शास्त्र अरु गुरु के ऊपर दृढ़ प्रतीति उर लावे।
वैरागी हो विषय भोग में रुचे न तो सुख पावे।।
पंच गुरु की शरण लेय फिर अन्य न मस्तक नावे।
तब वह दर्शन प्रतिमा धारी सम दृष्टी बन जावे।।
व्रत प्रतिमा
हिंसादिक जो पंच पाप तज तीन गुण व्रत पाले।
अरु सामायिक आदि चार शिक्षा व्रत पूर्ण सम्हाले।।
भोजन शुद्ध करे जो नित प्रति ना अतिचार लगावे।
ये बारह व्रत लेकर श्रावक व्रती शुद्ध हो जावे।।
सामायिक प्रतिमा
तीन तीन आवर्त शिरोनति हर दिश मांहि करे जो।
सब विकल्प जंजाल छोड़ सामायिक शुद्ध करे जो।।
नासा दृष्टि ध्यान लगाकर सामायिक त्रय वारी।
करता निज में निज को ध्या वह सामायिक व्रत धारी।।
प्रोषध प्रतिमा
हर महीने की आठें चउदस आरम्भादिक त्यागे।
शक्ति छिपावे नाहीं अपनी प्रोषध कर अनुरागे।।
जिन पूजन तत्वन की चरचा करते समय बितावे।
इस विधि व्रत को पाले जो भवि प्रोषध व्रतिक कहावे।।
सचित्त त्याग प्रतिमा
कंद मूल अरु साधारण फल खावे नािंह कभी जो।
और अनेकों पुष्प तथा बीजादिक त्याग सब वो।।
उष्ण किया प्रासुक जल पीवे जिसे न विषय सतावे।
यह सचित्त त्यागी पंचम प्रतिमा धर शुद्ध कहावे।।
रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा
खाद्य स्वाद्य अरु लेय पेय निशि में जो भवि जन त्यागे।
नािंह कभी अतिचार लगावे सम्यक् व्रत में लागे।।
न वच मन से शुद्ध होय जो प्राणी व्रत को पाले।
रात्रि भुक्ति त्यागी वह श्रावक है सब कल्मष टाले।।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा
देह अपावन अरु दुर्गंधित नवमल द्वार बहे है।
विषय भोग वश यह अज्ञानी भव—भव दु:ख सहे हैं।।
देह स्वरूप विचार तभी जो ह्रै सर्व स्त्री त्यागी।
सप्तम प्रतिमा धारक जग में वह होता बड़ भागी।।
आरम्भ त्याग प्रतिमा
असि मसि आदिक षट्कर्मों से होता बहु आरंभ।
जीव अनेकों की हिंसा से होता पापारंभ।।
मन वच तन से शुद्ध होय आरंभ तजे जो प्राणी।
वे हैं अष्टम प्रतिमा पालक महिमा आत्म पिछानी।।
।।परिग्रह त्याग प्रतिमा।।
क्षेत्र वास्तु हेमादिक दश जो बाह्य परिग्रह छोरे।
सीमा नियत बनाकर भविजन रखे वस्त्र बस कोरे।।
छोरे चिंता सब विषयों की ज्ञान ध्यान मन लावे।
परिग्रह त्यागी होकर मध्यम श्रावक वह कहलावे।।
।।अनुमति त्याग प्रतिमा।।
महल मकान विवाह आदि सब में निज अनुमति छोरे।
होता जिनमें पाप उन्हीं में ध्यान कभी ना जोरे।।
रागादिक सब भाव टाल कर निज अनुभव रस चाखे।
अनुमति त्यागी दशमी प्रतिमा धारी वह जिन भाखे।।
।।उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा।।
तज कर घर को रहत मुनि के संग में हो नि:संगी।
धार लंगोटी खंड वस्त्र अरु छोड़े सब परसंगी।।
कर में पीछी और कमंडलु भिक्षा भोजी होवे।
शांत चित उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा धारी वह सोहे।।
तर्ज राधेश्याम
इतना उपदेश बता करके गुरु ने तब निश्चित वचन कहा।
क्षुल्लक दीक्षा के योग्य आप कह समारोह तब शुरू किया।।
सब बात सोच चलने वाले श्री शांतििंसधु मुनिवर ज्ञानी।
शारीरिक शक्ति देखने को मुनिपद न दिया था सज्ज्ञानी।।
उस दिन उन्नीसो अस्सी का शुभ संवत था शुभ मुर्हूत था।
फागुन सुद सप्तम के दिन में दीक्षा का योग्य मुर्हूत था।।
जब जनता सुनकर उमड पडी दीक्षा उत्सव के दर्शन को।
चहुँ और भव्य जन जय—जय बोले थे निज पाप निकंदन को।।
तब हीरालाल ब्रह्मचारी जो को क्षुल्लक दीक्षा दीनी।
अरु वीरिंसधु यह नाम रखा इनने सब विधि स्वीकृत कीनी।।
खुशहाल चंद्र जो इन संग थे उनने भी क्षुल्लक व्रत लीना।
श्री चन्द्रिंसधु उन नाम रखा उन तप में मन को दृढ़ कीना।
इक चादर और लंगोटी ही रखते हैं बस इस दीक्षा में।
ये क्षुल्लक गण तप घोर करें मन है श्री गुरु की शिक्षा में।।
दोहा
शांति सिंधु ऋषिराज तब तहं ते किया विहार।
देश—देश घूमे बहुत कीना धर्म प्रचार।।
उन्नीसो इक्यासी संवत् में संघ समडोली में जाता है।
यह चतुर्मास होगा संघ का यह सुन जन मन हर्षाता है।।
।।क्षुल्लक वीरसागर जी महाराज का विचार।।
तर्ज– राधेश्याम कोपीपन धार संतोष लिया निंह क्षुल्लक वीरिंसधु ज्ञानी।
भेष दिगम्बर धरूं आज यह इच्छा उनने प्रगटानी।।
फांस तनिक सी तन में साले चाह लंगोटी खटके हैं।
अहो कहावत यह जग जाहिर मुझे वस्त्र यह अटके हैं।।
गगन ओढ़ना भूमि बिछोना आतम ज्योति जगाना है।
शीघ्र समय आवे ऐसा अब भेष दिगंबर पाना है।।
यह सोच चले गुरुवर ढिंग में अरु चरण पकडऋ यह बोले हैं।
मैं त्याग करूं कोपीन वस्त्र मुनि बनने को मन डोले हैं।।
शांति सिंधु ने करी परीक्षा वी सिंधु बड़भागी की।
कहा पूर्ण इच्छा होगी तुम निज स्वरूप अनुरागी की।।
गुरु वचनों को सुनकर ये भी फूले नहीं समाते हैं।
नमस्कार कर गुरु चरणों को पूर्ण शांति तब पाते हैं।।
आश्विन सुद ग्यारस का दिन था केचलोंच कर दीना है।
शेष लंगोटी त्याग शीघ्र फिर भेषवि. सं. १९८१ के आश्विन शुक्ला ११ को अर्थात् क्षुल्लक दीक्षा के ७ माह के बाद ही आपने पूज्य आचार्यश्री से कर्म नाशिनी दिगम्बरी दीक्षा ली। दिगंबर कीना है।।
बाना है यह वीरों का निर्बल तो इससे डरते हैं।
रण में लड़ते वीर पुरुष ही कायर पीछे हटते हैं।।
नग्न दिगंबर तन अति सुन्दर घोर तपस्या करते हैं।
शिव रमणी रमा के वरने को तपकर सब कल्मष हरते हैं।।
पंच महाव्रत समिति पंच धर पंचेन्द्रिय का रोध करें।
षट् आवश्यक पालन करके सप्त गुणों को प्रगट धरें।।
घोर—घोर तप कर श्री गुरु कर्मों की राख बनाते हैं।
दश धर्मादिक सेवन करके निज आतम ध्यान लगाते हैं।।
कंचन काँच मित्र अरि में जो समता भाव दिखाते हैं।
घोर परीषह सहें महामुनि निज स्वरूप प्रगटाते हैं।।
ज्ञान ध्यान में लीन महा श्री गुरु चरणों में रहते हैं।।
व्यवहार और निश्चय दोनों धर्मों को खूब समझते हैं।।
जो बने नित्य स्वाध्यायशील तत्त्वों की चरचा करते हैं।
निशदिन भावना विचार करे निज आतम नािंह विसरते हैं।।
श्री शांतििंसधु योगीश्वर की सेवा वे नित करते रहते।
मुनि जीवन में आये अनेक कष्टों को वे सब विधि सहते।।
।।आचार्य श्री के साथ तीर्थ वंदना।।
जैनबद्रि अरु मूड़बद्रि फिर कारकला को जाते हैं।
वेणूर ग्राम में बाहुबलि के दर्शन कर सुख पाते हैं।।
गढ़ गिरनारी शत्रुंजा है पावागढ़ इक क्षेत्र महा।
तारंगा के अनुपम मन्दिर ध्यान लगाते भव्य जहाँ।।
परम पूज्य श्री सम्मेदाचल चंपापुर शुभ क्षेत्र महान्।
पावापुर में महाधीर महावीर प्रभू का है निर्वाण।।
राजगिरी मंदारगिरी सोनागिर सिद्ध क्षेत्र महान्।
पटना में श्री सेठ सुदर्शन ने पाया था मुक्ति निधान।।
असंख्यात मुनि मोक्ष गये हैं सिद्ध क्षेत्र से हे भवि जान।
उनकी वंदन करी भाव से वीरिंसधु गुरुवर गुणखान।।
हस्तिनागपुर नगर अयोध्या कुंडलपुर है जन्म स्थान।
अतिशय क्षेत्र किये वंदन बहु खंडगिरी फिर गये सुजान।।
पार्स्व प्रभु का जन्म बनारस अरु चंद्रपुरी को तुम पहिचान।
आराजी में बहुत जिनालय बन्दे जो शिवपुर सोपान।।
कुलभूषण दिश भूषण स्वामी कुंथलगिरि से मोक्ष गये।
अन्तिम में श्री जंबूस्वामी, थे जो मथुरा में अमर भये।।
इसके बाद बुन्दलेखंड के क्षेत्र अनेकों महिमावान।
निज गुरु संग श्री वीर सिंधु ने करी वंदना सुखकी खान।।
।।आचार्यश्री के साथ चरित्रनायक का वर्षायोग।।
दीक्षा ले गुरु देव निकट में चतुर मास जो कीने हैं।
उन नगरों के नाम सर्व, हो शुद्ध हृदय हम लीने हैं।।
ड़े—बड़े हैं मंदिर जिनमें मन को अति ही हर्षाते।
स्वर्ग शिवालय जाने की सोपान बहुत शोभा पाते।।
दर्शन पूजनकर श्रावकगण सब कर्मों को खोते हैं।
भव—भव में र्अिजत अपने सब पाप मलों को धोते हैं।।
बड़े—बड़े विद्वान जहाँ गुरु भक्त और आज्ञाकारी।
उपदेश गुरु का सुन करके दृढ़ करते तत्त्व जानकारी।।
बाहुबलीकुंभोजनगर अरु समडोली दक्षिण में जान।
बड़ी नांदनी कटनी मथुरा तथा ललितपुर इक पहिचान।।
जयपुर व्यावर अरु प्रतापगढ़ नगर उदयपुर अद्भुत जान।
तथा पूज्य आचार्य महाराज के साथ में आपने १२ चौमासा किये।
देहली चतुर्मास कर धर्म सुनाया महिमावान।।
आचार्यश्री द्वारा संघ को अलग—अलग करना।।
शान्ति सिन्धु ने सोची तब इक बात।
शिष्यगणों को अब नहीं रक्खूं अपने साथा।।
बुला लिये सब शिष्यगण आज्ञा दी गुरुराय।
करना अलग विहार सब दीना स्पष्ट बताय।।
सुना वचन यह शिष्यगण तब बोले शिरनाय।
हाथ जोड़ विनती यही छोड़ों ना मुनिराय।।
शान्ति सिन्धु आचार्य ने कहा तभी यह सोच।
धर्म प्रचार विचार से कहा तजो संकोच।।
।।शिष्यगणों के नाम।।
हरिगीतिका छंद
वीर नेमीचन्द्र कुंथु सुधर्म पायोदधि कहे।
अरु नमी सागर सुश्रुत सागर आदि सागरजी लहे।।
पुनि अजित सागर विमल सागर पाश्र्व कीरति नाम है।
आदेश श्री गुरु जान सब आये तभी तिस ठाम है।। ।।
अलग—अलग विहार।। ।।दोहा।।
कर नमोस्तु गुरु देव को कीना तभी विहार।
गुरु वियोग का हृदय में था तब एक विचार।।
वीर सिंधु मुनिराज तब आदि सिंधु को लेय।
अजित कीर्ति को साथ रहने की स्वीकृति देय।।
उन्नीसो बानव में पुन: आचार्य श्री की आज्ञा से धर्म प्रभावनार्थ वि. सं. १९९२ के साल में आपने ईडर में चौमासा किया।सही ईडर नगर के मांहि। आकर वर्षायोग तब किया भविक हर्षािंह।। पेथापुरवि. वं. १९९३ में पेथापुर (गुजरात में) चोमासा किया। एक शहर है शोभा अपरम्पार। वर्षा योग बिताय कर जैनाजैन सुधार।। वर्णी इसी चोमासे में आपने पूज्य वीरसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ली। आपका नाम सुमति कीर्तिजी रखा गया। अब आप मुनि अवस्था में महावीर कीर्तिजी नाम से प्रसिद्ध हैं।महेन्द्र सिंह वहाँ से चोमासा करके आप वि. सं. १९९४ में टांकाटूका (गुजरात में) पधारे। यहाँ ही आपका चोमासा हुआ।टांकाटूका आय। क्षुल्लक की दीक्षा लई बहुत बहुत हर्षाय।। नाम धरा गुरु देव ने सुमति र्कीित विद्वान्। न्याय तीर्थ शास्त्री तथा जो थे विद्यावान्।। जहाँ–जहाँ गुरु का हुवा वर्षा योग महान्। नाम सर्व क्रम से कहूँ सुनियो हे मतिमान्।।
।।चरित्र नायक का संघ सहित विहार और वर्षायोग।।
तर्ज—राधेश्याम।। मंदसोर रतलाम पालिया नगर झालार बताया है। चंद्रावति बड़ नगर अनुपम गांव सर्व मन भाया है।। फिर आये आप अनेक गांवों में धर्मोपदेश करते हुए वि. सं. १९९५ में इन्दौर चौमासा किया। इसी चौमासे से आपने अपने ज्येष्ठ भ्राता गुलाबचन्दजी गंगवाल को और विमलचन्दजी जालना वाले को सप्तम प्रतिमा के व्रत दिये। चौमासे के बाद स्थानीय सेठ मिश्रीलालजी सेठी ने बड़वानी, ऊन एवं सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्रों के संघ को दर्शन कराने की प्रार्थना गुरु देव से की, पूज्य महाराज श्री प्रार्थना मंजूर कर अनेक गांवों में धर्मामृत वर्षाते हुए बड़वानी, ऊन व सिद्धवर कूट क्षेत्रों के ससंघ दर्शन किये और सिद्धवरकूट में चारों की दीक्षा दी।इन्दौर नगर में वर्षाकाल बिताया है। भव वन में रुलते जीवों को धर्म मार्ग बतलाया है।। यहाँ र्धािमक सेठ एक जिन मिश्रीलाल नाम नहार। संघ निकाला दर्शनार्थ जब मुनिवर गमन किया स्वीकार।। दर्शन कर जब बनेड़िया के महु बड़वानी जाते हैं। बावन गज आदीश्वर तिनको शीष नवाते हैं।। इन्द्र जीत अरु कुम्भकर्ण यहाँ पर, ही शुक्ल ध्यान ध्याकर। हुये निरंजन निराकार जो, आत्म स्वरूप शुद्ध पाकर।।
।।पद्धरि छंद।।
कर पावागिर के दर्श सार, बड़वाह सनावद कर विहार। डेरि लोहारि सुसारि ग्राम, खरगोन सनावद धार धाम।। अंजड़ गन वान्या जा सुस्थान, पीपलिया चिकलदा सर्व मान। जय सिद्धवर कूट महान जान, जा दर्शन कीने सिद्ध स्थान।। वहाँ मथुरालालआप झाबुआ के रहने वाले हूमड़ जाति के हैं। सु चंदनाई, सूरजबाई मोन्हराबाई। ये चारो आगम में प्रवीन गुरूवर से दीक्षा तभी लीन। वे मथुरालाल सु सिद्ध सिंधु, क्षुल्लक कहलाये भव्य बंधु। वह चांदबाईआप जयपुर में एक संपन्न घराने में खंडेलवाल जाति में उत्पन्न हुये थे। दैवयोग से बाल्यावस्था में ही वैधव्यता को प्राप्त हुये, लेकिन शीघ्र ही आर्यिका की दीक्षा लेकर इतर महिलाओं के लिये आदर्श उपस्थित किया। आप वय में छोटे होते हुये भी दीक्षा की अपेक्षा आर्यिकाओं में ‘‘बड़े माताजी’’ के नाम से प्रसिद्ध थे एवं विद्वान् थे। विदुषी सुजान, भई वीरमती आर्या महान्।। सूरज बाईआप भी जयपुर के रहने वाले थे। खंडलेवाल जाति में उत्पन्न हुये थे। मोहराआप भी जयपुर के रहने वाली थीं। खंडेलवाल जाति में उत्पन्न हुई थीं। आप चारों ने सिद्धवरकूट में गुरु महाराज से दीक्षा ली। बाइ, चन्द्रमति शांतमती कहांहि। पुन: कर विहार इन्दौर आिंह, जहं जयर्कीितआप अजमेर में खंडेलवाल जाति में उत्पन्न हुये थे। आपका जन्म नाम हेमराजजी था। आपने दीक्षा श्री पूज्य चन्द्रसागरजी महाराज से ली थी। आप केवल ५ ही वर्ष दीक्षित जीवन बिताकर सं. १९९६ आषाढ़ शुक्ला १३ को स्वर्गवासी हो गये। आप बड़े तपस्वी थे। मुनिवर स्वर्ग पांहि।। इस कारण छिनमें साल मांहि, वहां वर्षा योगपूज्य जयर्कीितजी महाराज की समाधि साधने के लिए आप बड़नगर से इन्दौर आये और चौमासे का दिन निकट होने की वजह से पूज्य महाराज ने वि. सं. १९९६ का चौमासा भी इन्दौर किया। फिर चौमासा के अन्त में पूज्य क्षु. वीरमती जी को आर्यिका की दीक्षा देकर सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी की तरफ विहार किया। पुन: करांहि। फिर श्री गुरु ने कीना विहार, धर्मामृत बरषा करत सार।। तब सोन गिरी धूल्या सु ग्राम, फिर खानदेश पहुँचे सुठाम। फिर माँगी तुंगी गिरि मझार, जा दर्शन कीने अशुभ टार।। थी बिम्बकन्नड निवासी श्रीमान सेठ गुलाबचन्दजी पहाड़े ने िंबब प्रतिष्ठा महोत्सव कराया था। उस शुभावसर पर पूज्य आचार्य शांतिसागरजी एवं पूज्य वीरसागरजी महाराज के संघ का भी आगमन हुआ था। प्रतिष्ठा वहां एक, श्रावक गण तहं पहुँचे अनेक। श्री शांति िंसधु करते विहार, तहं आये करते वृष प्रचार।। गुरु शिष्य मिले बहु समय बाद, जिन दर्शन कर जाता विषाद। तब शिष्य बहुत गुरु विनय कीन, वृषचर्चा बहु विधि तबै कीन।। जब हुई प्रतिष्ठा पूर्ण सार, चलने का कीना तब विचार। जय तारा बाद सठाना है, जय सोनज शुभ कवलाना है।। बरहाण ढाकिली नांद ग्राम, नाशिक गजपंथा सुखद नाम। मुनिवर आकर यहाँ दर्श कीन, रहते नित आत्म विचार लीन। इक अतिशय क्षेत्र महान जान, कचनेर नाम जिसका बखान। आये गुरुवर तब इसी स्थान, अरु वर्षायोगवि. सं. १९९७ का चौमासा श्री अतिशय क्षेत्र कचनेर में ससंघ किया। इस चौमासे में पूज्य महाराज श्री के तत्वावधान में ५० तो मंडल विधानों की पूजन हुई व अनेक व्रती बने। चौमास समाप्ति के अवसर पर श्रावकगणों ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी, उस मौके पर पानी की कमी थी, मन्दिर का कूप एक दम खारा था, किन्तु गुरुदेव के शुभाशीर्वाद से खारा पानी मीठा हो गया, यात्रियों को किसी भी प्रकार से तकलीफ नहीं हुई और िंबबप्रतिष्ठा महोत्सव सानन्द सम्पन्न हो गया। इस धर्मोत्सव में अनेक विद्वान उपस्थित हुये थे। किया महान।। उपदेश यहां नित देत सार, श्री गुरु करते नित वृष प्रचार। यहां आप नांदगांव की रहने वाली थीं, जाति खंडेलवाल थी। क्षुल्लिका का व्रत आपने आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से लिया था। लखमापुर की नदी में आपका समाधि पूर्वक स्वर्गवास हो गया। आपका गोत्र काला था।कुंथुमति क्षुल्लिका जान, आर्या व्रत धारा था महान्।। अरु ब्रह्मचारिणी एक आय, गेंदीआपका जन्म जयपुर में खंडेलवाल जाति में हुआ था। बाल्यावस्था में ही वैधव्य अवस्था को प्राप्त हुर्इं, और वैराग्य भाव से पूज्य गुरुदेव से दीक्षा ली। आपका नाम पाश्र्वमति रखा गया। बाई तसु नाम थाय।। गुरु देव चरण कर नमस्कार, क्षुल्लिका भई सब अशुभ टार।। श्रावक गण वहां करके विचार, की बिम्ब प्रतिष्ठा देख बार। वहां पानी का बहु पड़ा कष्ट, सब जन गुरु ढग आ कहा स्पष्ट। गुरुवर को शुभ आशीष सार, जल कष्ट मिटा जल हो अपार। कूपों में खारे जल तहांहि, हुये मिष्ठर स्वादु संशय, न लांहि।। तब बिम्ब महोत्सव बाद आप, चाले वहाँ से था तुम प्रताप। जय जय गुरुवर महिमा अपार, तुम पद सेवें भवि होत पार।।
।।दोहा।।
वर्षा योग समाप्त कर श्री गुरु किया विहार।
जगह—जगह उपदेश दे करते धर्म प्रचार।।
करते धर्म प्रचार तब भ्रमते देश विदेश।
तब भी आवश्य क्रिया करते अहो हमेश।।
।।पद्धरि छंद।।
है पाडरी पपल गांव बड़ा, और नगर पीपरी बढ़ा चढ़ा। हतनोर विराजे आप मुदा, फिर कन्नडऔरंगाबाद के आसपास के छोटे–छोटे गांवों में धर्म प्रभावना करते हुए वि. सं. १९९८ में निजाम स्टेट के अन्तर्गत कन्नड गांव में चौमासा हुआ, यहाँ पर १५—२० मंडल विधान एवं वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ था। प्रतिदिन तीनों समय शास्त्र प्रवचन होते थे बहुत से भाई एवं बहिनों ने अनेक तरह के व्रत लिए। वर्षा योग तदा।।१।। यहां सिद्ध चक्र अरु वेदी बनी, कर श्रावक उत्सव भक्ति तनि। फिर गमन किया तब गुरुवर ने, जय चार संघ के नायक ने।।२।। गन होरी बाकला, बाबुल गाँव, बुल्डाना चिकल ठाना है नाम। फुलमरी घाट का नांदर है, कलन्द्रा बाद शोभा कर है।।३।।
।।दोहा।।
मन्दिर जहाँ विशाल है शोभा वरणी न जाय।
मानस्तम्भ अति शोभना नमन करें हर्षाय।।४।।
।।अडिल्ल छंद।।
न्याय डोंगरी पीपल अरु अड़ग्राम है।
नगर बांसडी चालिस गांव सुठाम है।
अंधारी अड़गांव देव पुल घाट पर।
चापानेर बड़ोद बसे उस वाट पर।।
।।हरिगीतिका छन्द।।
है इक उरंगाबाद रहिमा बाद नगर सु शुभ कहा।
अरु लोण डोण सु गांव भी गुरु राज तुमने सब लहा।।
अगले ही देवल गांव से सब लोग आकर तब वहां।
कर विनय कर महाराज को ले गये हुलषित हो तहाँ।।
देवल गांव में महाराज की अस्वस्थता
।।दोहा।।
कर्म कन्नड़ में चौमासा करके पूज्य महाराज श्री अनेक जैनाजैन जनता को धर्ममार्ग पर लगाते हुए, देवलगांव में महाराज पहुँचे। वहां पर जैनियों के काफी घर हैं, बड़े—बड़े तीन मन्दिर हैं। असाता कर्म के तीव्रोदय से पूज्य महाराज श्री को मलेरिया बुखार ने ग्रस लिया। बुखार १०६ डिग्री तक रहता था, यह करीब १माह तक रहा। इतनी ज्वर एवं अशक्तता होने पर भी महाराज अपने दैनिक कार्यों में जरा भी प्रमाद नहीं होने देते, एवं अपने आत्म चिन्तवन शास्त्र श्रवण में ही संलग्न रहते थे।असाता का उदय आया गुरुवर आप। भीषण ज्वर ने ग्रस लिया करते आतम जाप।। ज्वर में यदि गृहस्थ हो रो—रो कर चिल्लाय। डाक्टर वैद्य अनेक को बार—बार बुलवाय।। शांत चित्त से सह लिया महिना डेढ़ बुखार। निर्बल तन अति था मगर व्रत में निंह अतिचार।। कृश शरीर हो क्या हुवा भीतर आतम शुद्ध। कह यह सकता नहि इम थे विचार तुम बुद्ध।। चार गति में कष्ट बहु भीषण सहे अपार। हे आत्मन् यह दु:ख क्या मन में करत विचार।। ज्वर मुक्त होने पर विहार तर्ज—राधेश्याम छोड़ दिया जब भीषण ज्वर ने तब विहार तुम कीना है। अमरावति आकोला अंजन गांव बड़ा ही लीना है।। र्मूितजापुर तब शहर अनुपम फिर कारंजावि. सं. १९९९ में आपका चौमासा कारंजा नगर में हुआ। वैसे तो यह कस्बा काफी बड़ा है किन्तु जैनियों के ३०० घर हैं। विशाल तीन मन्दिर व गांव बाहर विद्याध्यानार्थ एक गुरुकुल है, उसमें विद्यार्थी पठन—पाठन करते हें। उसी में बड़ी विशाल मनोज्ञ जिन बिम्ब विराजमान है व हीरा पन्ना की र्मूितयों के दर्शन भी वहां होते हैं। गांव में सैंकड़ों चैत्यालय हैं। यहाँ पर अध्यात्म वेत्ता बड़े—बड़े विद्वान रहते हैं। पूज्य महाराज श्री से कई तरह के गूढ़ प्रश्न होते थे किन्तु महाराज अपने प्रखर ज्ञान के द्वारा फोरन ही उनके रहस्यमय प्रश्नों को हल करते थे। अध्यात्मता के साथ—साथ यहाँ के सज्जन क्रियाकांडी भी हैं। चौमासा सानन्द सम्पन्न होने के बाद पूज्यश्री वहां से विहार करके सिद्ध क्षेत्र मुक्तागिरि पर आये। यहां पर ३ महिने रहने का सौभाग्य हुआ। पहुँचे थे। श्रावक विनती करी आय उन भाव बहुत ही ऊँचे थे।। आत्मरसिक जन यहाँ पर रहते धर्मज्ञान अनुभव से युक्त। निश्चय अरु व्यवहार समझ जो दोषों से रहते थे मुक्त।। भातकुली इक क्षेत्र महाशुभ शिरपुर को भी जाना है। अधर विराजे पाश्र्व प्रभु तहं यह अतिशय पहचाना है।। एलिचपुर में तब फिर जाकर श्री जिन दर्शन कीने है। जैना जैन सभी मानव को संयम में दृढ़ कीने है।। मुक्तागिरि इक क्षेत्र मनोहर शोभा अधिक निराली हैं। साड़े तीन करोड़ महामुनि मुक्ति जहां से पाली है।
दोहा
बिम्बहींगन घाट वाले श्रीमान् सेठ निहालचन्दजी दोषी ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी।
प्रतिष्ठोत्सव यहां देखा श्री मुनि सार। निर्जन वन में फिर गये करके तभी विहार।।
तर्ज—राधेश्याम
देखा आगे मील तीन सौ तक श्रावक घर कहीं नहीं।
कैसे क्या होगा भविष्य में विकट समस्या हुई वहीं।।
सभी संघ में जन घबराते अरे यहाँ भारी जंगल।
सिह व्याघ्र अरु चोरादिक से होगा यहाँ नहीं मंगल।।
जिन गांवों में संघ गुरु का निर्भय होकर जाता था।
वहाँ उपद्रव कभी न होता सब विधि वह सुख पाता था।।
आस पास के गांवों को बहु चोर डवैती ठगते थे।
अरु निर्दयी होकर मनुजों को वे बहुत मारने लगते थे।।
आपत्ति हुई नहीं संघ के ऊपर तनिक कछु वहाँ भी भाई।
गुरु कृपा से वहां पर कोई आया नहीं आतताई।।
चलते–चलते गांव मिला इक पाठा चोर कहाता है।
हिसक जन से पूर्ण बली देना तहं जिनकी माता है।।
।।दोहा।।
उसी गांव की स्वामिनी जागिरदारिणी एक।
मुसलमान थी जात की रखती बड़ा विवेक।।
विदुषी चतुर सुशिक्षिता नवयौवन के मांहि।
कर्म गती टरती नहीं विधवापन को पांहि।।
राधेश्याम
वह एक समय निज महल चढ़ी देखा केई जन आते हैं।
धन दौलत और वस्त्र सज्जा कुछ नहीं साथ में लाते हैं।।
इनमें जब नग्न मुनि देखे, सोचा उसने मन में ऐसे।
वे वन में चोर डाकुओं से हैं दिखते लुटे हुए जैसे।।
जब महल पास में श्री मुनिवर आगे बढ़ने को होते हैं।तब ही रानीमुक्तागिरि से जब संघ खातेगांव की ओर रवाना हुआ तब श्रावकों के छ: सात चौके थे। उधर का रास्ता बड़ा भयानक था और ३०० मील तक श्रावकों के घर नहीं थे। उसी रास्ते में चौरपाठा नामक एक गांव मिला। उसमें मुसलमान जाति की सुलीमा नामक एक जागीरदारिणी रहती थी, जो योग्य रीति से प्रजा का पालन करती और स्वयं सब राज्य संचालन सम्बन्धी व्यवस्था करती थी। उसकी शिक्षा बी. ए. तक थी, उम्र उसकी मात्र २५ वर्ष की थी। दुर्देववश विवाह के दूसरे वर्ष ही वह वैधब्यता को प्राप्त हुई। लोगों द्वारा आग्रह करने पर भी उसने पुन: विवाह के लिये इन्कार कर दिया था। यहाँ उसने गुरुदेव के बड़ी भक्ति से दर्शन किये, उनका उपदेश सुना और पूज्य श्री के उपदेश से प्रभावित हो उन्हीं के बाद मूल में आजीवन हिसा करने का, मांस खाने का एवं रात्रिभुक्ति का त्याग कर दिया। इतना ही नहीं उसने अपने द्वारा शासित सब ३०० गांवों में हिसा न करने की घोषणा करवा दी थी। के साथी सब आश्चर्य युक्त तहं होते हैं।। हाथ कमंडल कर में पीछी भाल चमकता इनका है। ये तो कोई उच्च साधु हैं छोड़े अम्बर तन का है।। तब ही रानी मन में विचार दर्शन इच्छा प्रगटाती है। उतर महल अष्टांग नमन कर गुरु वर को ठहराती है।। अरु कहा प्रभो मन नयन गात्र हो गये सफल तुम दर्शन से। अहो खुदा के दर्शन कीने पाप कटेंगे चरणन से।। हे ऋषिवर कुटिया पावन कर भोजन भी कुछ कर लेना। हम पतितों को कल्याण मार्ग बलाकर मग अपना लेना।। मुनिराज दोहा रानी सुन संसार में पंच दु:ख मूल। इनके वश हो जीव दु:ख पाता निज को भूल।। रानी राधेश्याम हिसा किसकी कहते स्वामी इसका स्वरूप बतला देना। शेष पाप भी कैसे क्या हैं स्पष्ट मुझे समझा देना।।
मुनिराज
पर प्राणों को हाय दु:खा जो मूक पशु को काटे हैं।
हिसा उसको कहते रानी मांस खुशी से चाटे हैं।।
जीव एक भी जो मारेगा खुदा का बन्दा नहीं माना।
वेद पुरान कुरान सभी ग्रंथों में यही एक गाना।।
हिका विस्तार रानी सुना जब रोम—रोम हिल जाते हैं।
यतिवर हिसा छोड़ें कैसे समझ नहीं हम पाते हैं।।
रिक्त नहीं है दिवस एक जिसमें न मांस घर पर पकता। अजा पुत्र दस बीसों का तो गला नित्य प्रति है कटता।।
मुनिराज
भक्षण करना छोड़ मांस कल्याण अगर तू चाहती है। रक्षक होकर भक्षक बनती क्या शिक्षा यही बताती है।। कुष्टादिक भयंकर रोग सर्व आमिष भक्षण से ही होते। नीच गति में होय दरिद्री फिर कर्मों को हैं रोते।। यह श्री गुरु की हितवाणी सुन चरणों में ढोक लगाती है। निस्वार्थ सुपावन गुरु समझ मन में दृढ़ श्रद्धा लाती है।। गुरुदेव मांस अरु रात्रि भुक्ति दोनों का मैंने त्याग किया। कोई भी जन मम शासन में िंहसा न करे यह हुक्म दिया।। यह हुक्म तीन सौ गांवों में जो उसके तब अधिकार में थे। घोषणा करा दी रानी ने सब जन तब धर्म मार्ग में थे।। सत उपदेश सुनाकर गुरु ने जैन अनेक बनाये हैं। हरदाइसी हरदा नाम के नगर में सं. २००० में पूज्यश्री आचार्य वीरसागर जी महाराज को अपस्मार नाम का भयंकर रोग प्रारम्भ हुआ। जो अभी भी पूज्यश्री को माह दो माह अन्तराल में सताता रहता है। उसमें बेहोशी—बैचैनी बहुत हो जाती है, किन्तु उस अवस्था में श्री महाराज के मुख से तत्त्वार्थ सूत्र, सामायिक पाठ आदि का उच्चारण हुआ करता है। निमवर संदलपुर अजनास गांव फिर आये हैं।। भेसुन में लख वेदी प्रतिष्ठा लुहारदा भी जाते हैं। सतवास फैर इक नगर सनावद कनोद को फिर जाते हैं।। यहाँ पर भी लख वेदि प्रतिष्ठा खातेगांववि. सं. २००० में ससंघ चौमासा खातेगांव में किया, फिर विहार कर सिद्धवरकूट गये। को आये हैं। संघ सहित कर फिर चौमासा सिद्धवर कूट को पाये हैं।। हीरालालआप निजाम स्टेट जिला औरंगाबाद के अन्तर्गत एक अड़गांव के निवासी हैं। आपकी जाति खंडेलवाल एवं गोत्र रांवका है। आपने बाल्यावस्था में भी पूज्य महाराज श्री से ही शिक्षा पाई थी, आपका नाम शिवसागरजी रखा। बतोआपने आचार्य शांतिसागरजी महाराज से सप्तम प्रतिमा के व्रत लिये थे और आर्यिका की दीक्षा पूज्य श्री वीरसागरजी महाराज से धारण की। आप देहली की रहने वाली हैं एवं अग्रवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपका नाम आचार्यश्री ने सिद्धमती जी रखा था। देवी यहाँ दीक्षा की मन ठानी है। दीक्षित हुये यहीं जो दीक्षा शिव की स्पष्ट निशानी है।।
दोहा
उज्जैनसिद्धवरकूट से आप विहार कर हाटपीपल्या आदि गांव में धर्म प्रभावना करते हुए वि.सं. २००१ में उज्जैन में चौमासा किया। नगर में आपने की वर्षायोग। अरु पिडावापिडावा में आपकी अध्यक्षता में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा और भवानी मंडी में वेदी प्रतिष्ठा महोत्सवको ने करवाया था। गांव में बिब महोत्सव योग।। विमल मतिजी क्षुल्लिका आ गुरु नमन करेय। आर्या दीक्षा ली सही मान कषाय हरेय।। आगर फिर सुसनेर ही नलखेडा में जाय। मिश्रोली संबोध कर मंडी गुरुवर आय।।
राधेश्याम
वेदी उत्सव देख वहाँ फिर पाटन शहर में आये हैं। अतिशय उन्नत शांतिनाथ की प्रतिमा दर्शन पाये हैं।। पंचामृत अभिषेक कराते भव्य यहाँ हितकारी हैं। मणभर दूध दही से अभिषेकोत्सव करते भारी हैं।। सौम्य छवि है सुन्दर मूरत मन आर्किषत करती है। संमुख ध्यान लगाने से सब मनुज कालिमा हरती है।। ऊँचा मन्दिर अद्भुत रचना और जगह नहीं पाते हैं। दर्शक गण वहाँ आते नित ही देख चकित हो जाते हैं।।
दोहा
शांति प्रभु के पाद में बीता वर्षाकाल। दे दीक्षा पारसमतीआप जयपुर के रहने वाले हैं। खंडेलवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम गेंदीबाई है। आपने सप्तम प्रतिमा स्वर्गीय श्री आचार्य शांतिसागर महाराज से ली थी और क्षुल्लिका के व्रत श्री अतिशय क्षेत्र कचनेर में पूज्य वीरसागर जी महाराज से लिये थे तथा सं. २००२ में झालरापाटन में आर्यिका की दीक्षा भी पूज्य श्री वीरसागरजी महाराज से ग्रहण की। तब चाले तत्काल।।
हरगीतिका छंद
चांदखेडीयह एक अतिशय क्षेत्र है। चन्द्रप्रभु भगवान की पद्मासन बड़ी विशाल मनोज्ञ र्मूित है। मैं तो यह अनुमान करता हूँ कि श्री बाहुबली भगवान की र्मूित से दूसरा नम्बर मनोज्ञता में इस र्मूित का है। यहाँ पर महाराज श्री करीब दो माह तक रहे थे। इक सु अतिशय क्षेत्र पहुँचे आप जब, चंद्र प्रभु प्रतिमा विलोकि सुनष्ट होता पाप सब।। दो माह यह करके व्यतीत विहार तब कीना सही, सारोल कोटा भानपुर आदिक नगर मुनिवर तहीं।।
दोहा
चंबल तरी तट सही पाटनकोटा के पास चम्बल नदी के तट पर एक सुन्दर मन्दिर बना है, इसके तलघर में आदिनाथ भगवान की अतिशय जनित सुन्दर र्मूित है। यह गांव अतिशय क्षेत्र केशवराय की पाटन के नाम से प्रसिद्ध है। नगर सुजान। दर्शन श्री आदीश का महा मनोज्ञ महान।। दर्श किये गुरु राजने र्हिषत मन सुखदाय। रामगंजवि. सं. २००३ में आपने रामगंजमंडी में चौमासा किया था वहाँ से बिहार कर राणापुर पहुँचे। वहाँ पर बिना वेदी के जिन िंबब अस्तव्यस्त विराजमान थे, यह अविनय देखकर श्रावकों को सदुपदेश दिया और उन्होंने सुन्दर वेदी का निर्माण कराकर शुभ मुहूर्तं में प्रतिष्ठा कराकर र्मूित विराजमान की थी। में जायकर वर्षा काल विताय।। कर विहार गुरु वर तबै राणापुर को जाय। वेदी में जिनराज को विराजमान कराय।। तभी खजूरी कापरन बूंदी नगर विख्यात। बाग वापिका बने तहाँ मंदिर शोभा पात।। श्रावक गण अति भक्ति युत षटकर्मों में लीन। अतिशय प्रमुदित होयकर गुरु सेवा नित कीन।।
गीता
आलोद डबलाना बडा बासी दुगारी आपने, विहार कर जहं जन सुधारे हित किया गुरु राजने। नैनवानैनवां में २००४ में चातुर्मास किया था। में तभी वर्षा काल बीता है सही, दीर्घ उणियारा बनेठाइस बनेठा नगर में वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव स्थानीय श्रावकों ने करवाया था। इसी शुभावसर पर पूज्य आचार्यश्री को भी संघ सहित सविनय ले गये थे। गुरुदेव मन्दिर में विराजमान थे, उसी समय एक कृष्ण सर्प आया और मन्दिर में चारों तरफ घूमता हुआ बीच दरवाजे में फण फैलाकर बैठ गया। जब आचार्यश्री उस रास्ते से निकले तो सर्प फौरन ही नयन छिपा के चला गया। यह दृश्य ३ दिन तक रहा। दर्शकर सुख पावहीं।।
तर्ज–राधेश्याम
उत्सव था यहाँ वेदिप्रतिष्ठा नाग भयंकर आया था। दर्शन कर जिन देव गुरु के सीधा बिल में धाया था।।
।।दोहा।।
सवाई माधोपुरयहाँ पर २००५ के साल में संघ सहित चौमासा किया था। यहाँ पर १०, १२ बड़े–बड़े जिन मन्दिर है। गये वर्षा काल में आप। मंदिर जहाँ अनेक हैं भविजन हैं निष्पाप।।
हरगीतिका छंद
गुरुवर ने देखा श्रावकों की अवनति क्यों हो रही, समझे जिनालय जाय जब वे थे खड़े इक ठोर ही। वेदियाँ उल्टी दिशा में शास्त्र के माफिक नहीं, बतला दिया तब श्रावकों को स्पष्ट कारण है यही।। आदेश माना श्रावकों ने शीघ्र मन में सोचकर, वेदियाँ की शुभ दिशा में सर्व इकमत होय कर। कर के रथोत्सव वेदियों में बिब भी पधरा दिये, श्रावक गणों के तभी से दुर्भाग्य सब बदला गये।। छह मील होगा दूर रणथंभाइसको रणथम्भौर भी कहते हैं। किला यहें से सही, उस किले बिच इक जैन मंदिर दृष्टि पड़ता है सही। प्रतिमा मनोहर मूल नायक पाश्र्व प्रभु की है सही, दर्शकर मुनिराज तब वहाँ ध्यान धर बैठे सही।। चलता पता इससे वहाँ का जैन राजा था सही, अब जैन घर न रहा वहाँ अरु शून्य बस्ती भी हुई। है वन्य हिसक सिह चीता व्याघ्र करते वास ही, अतिशय मनोरम दृश्य तहँ मानव अधिकतर जावहीं।। देश देशों के मनुज तहँ दर्श को आते सदा, हमीर राजा था वहाँ का राज्य करता एकदा। उस किले के पास ही में शेर पुर इक और है, प्रतिमा मनोहर जैन की बहु संख्य में उस ठोर है।।
।।दोहा।।
अतिशय युक्त आदीश के दर्श किये मुनिराज। धर्म देशना ही सही जैनाजैन समाज।।
।।तर्ज–राधेश्याम।।
ईसरदा फिर नगर पिराणा चौथमात बरवाडा है। जैन दिगम्बर मन्दिर दर्शन करके पास पिछाडा है।। टोंकयहाँ भूगर्भ से विशाल मनोज्ञ २६ र्मूितयाँ जमीन खोदते समय निकली हैं, जो बड़ी दर्शनीय हैं। पीपलू लावा नरणा यहाँ से देश देशान्तर में बड़ी दूर तक नमक जाता है। यहाँ की नमक की झील संसार में प्रसिद्ध है। आजकल सरकार इसका और भी विस्तार कर रही है।सांभर चोरू जाते हैं। नगर यहाँ अतिशय क्षेत्र है। जैन मन्दिर के तलघर में बहुत संख्या में बड़े—बड़े जिनबिम्ब विराजमान हैं। यह क्षेत्र बहुत पुराना है।मोजमाबाद सु अतिशय श्री जिन शीष नवाते हैं।। नांवा में भी श्रेष्ठ जिनालय गुड्ढा मंदिर सुन्दर है। फैर कुचामन शहर बड़ा जिसमें अनुपम जिन मंदर है।। मारवाड़ है मरु प्रदेशी विहार तहँ संघ कीना है। पानी का दुष्काल यहाँ पर कष्ट न उसमें चीना है।। जिन गाँवों में जाते मुनिवर वर्षा खूब बरसती थी। देख अतिशय गुरुवरजी का जनता जय—जय कहती थी।। नागौरनागौर में कुशलपूर्वक पहुँच गये और श्रावकों के आग्रह से वहाँ वि. सं. २००६ में चातुर्मास स्थापित किया। चौमासा सानन्द बीत रहा था। बीच में ही परम पूज्य आचार्य महाराज की पीठ में एक छोटी सी फुन्सी हो गई थी, वह छोटी थी, किन्तु अत्यन्त जलन करती थी। बढ़ते— बढ़ते नारियल के समान मोटी हो गई। कम से कम उसमें १०० छिद्र हो गये थे। महाराज के शरीर में अत्यन्त वेदना थी, बड़ी मुश्किल से ५ मिनट खड़े होकर गेहूं का दलिया पीते थे। डॉ. वैघों ने जबाब दे दिया था, कि इस अदीठ के रोग से महाराज बच नहीं सकते, किन्तु महाराज की प्रबल आयु और जैन समाज के परम सौभाग्य से आज जैन धर्म की प्रभावना करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। महाराज श्री की यह हालत दो महीने तक रही। महाराज का शरीर अत्यन्त कृश हो गया था। वेदना भी अत्यधिक थी, किन्तु महाराज उस अवस्था में भी आत्मचिन्तवन, पठन—पाठन एवं कर्तव्य कार्यों में संलग्न थे। इस शरीर—निस्पृहता एवं आत्मिंचतन की कहां तक प्रशंसा की जावें। नगर जब प्रवेश कीना पानी का दुष्काल मचा। चहूँ ओर से त्राहि—त्राहि का जनता में तब शोर मचा।। एक दिवस जब संघ नामक गुरु शौच निवारण जाते हैं। लौट वहाँ से पाँच मिनट फिर ताल बीच ठहराते हैं।। शुष्क ताल को देख गुरु ने मन में कुछ ही सोच लिया। बीच ताल को देख गुरु को जनता ने यह धार लिया।। बस पानी आवे आज नगर में इसमें कुछ सन्देह नहीं। कृपा दृष्टि है हुई मुनि की मंत्र जपा है यही सही।। बस उस दिन दिन के पाँच बजे ही कृष्ण घटायें आई थीं। बड़े जोर से बादल गर्जे शंपा चंचल पाई थी।। पानी गिरने लगा नगर में ताल कूप सब भरते हैं। नर—नारी खुश होय मुनिवर सादर शब्द उचरते हैं।। धन्य—धन्य सब मुख से कहते नग्न दिगम्बर मुनिवर को। बार—बार है नमन हमारा शिव रमणी के पतिवर को।। सुद आषाढ़ की चतुर्दशी को वर्षा ऋतु जब शुरू हुई। श्री फल आदि अनेक फलों को ले जनता एकत्र हुई।। क्षेत्र समय सब अनुकूल है हम लोगों की भक्ति है। वर्षा काल बितावो गुरुवर तन मन धन की शक्ति है।।यहाँ पर बहुत से भव्यजनों ने प्रतिमादिक के व्रत धारण किये। श्रावकों ने संगमरमर के शिखर मानस्तंभादिक निर्माण करा कर बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठा महोत्सव कराये व उसी शुभावसर पर मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका की दीक्षा पूज्य महाराजश्री के कर कमलों से धारण की जिनकी नामावली दी गई है। जब समाज का विनय सुना तब स्वीकृत इसको करते हैं। चतुर्मास को स्थाप तभी गुरु प्रतिक्रमण सब करते हैं।। हुई, देशना गुरु की वहं जो जैनाजैन प्रभावक थी। मिथ्या र्इंधन प्रजालने को सचमुच वह पावक थी।।
।।दोहा।।
धर्म ध्यान से इस तरह समय बीतता सर्व। भविजन गुरु उपदेश सुन छोड़ दिया सब भर्म।। अशुभ कर्म के उदय तब गुरुवर पीठ मंझार। फुन्सी इक छोटी हुई पर भी बहु भयकार।।
।।तर्ज—राधेश्याम।।
वह छोटी थी पर सारे बदन में तीव्र वेदना करती थी। बढ़कर के नारियल समान विकराल रूप वह धरती थी।। सर्व नगर में हलचल थी अरु डाक्टर वैद्य सभी कहते। रोग भयंकर है अदीठ यह धन्य गुरु जो सब सहते।। शक्ति नहीं थी हा आहार की था शरीर अति कृशित महा। पर व्रत में निंह गुरु दोष लगाया संकट को था सभी सहा।। श्री गुरु पुण्य उदय वह व्याधि दो महिने में शांत हुई। यह देख श्री गुरु तप प्रभाव जनता सब विस्मयवंत हुई।। ध्यानाध्ययन में मग्न रहे थे कभी नहीं घबराये थे। िंचदानंद चैतन्य मात्र निज आत्म रूप को ध्याये थे।। शनै:—शनै: वह घाव भरा पर चिन्ह अभी तक दिखता है। गुरुवर निरोगता का सुवृत लेखक र्हिषत हो लिखता है।।
।।दोहा।।
अब इस वर्षाजब सवाई माधोपुर चौमासा करके आपने मारवाड़ में विहार किया उस समय पानी की बहुत तंगी थी, किन्तु गुरुदेव जिस गांव में गये उसी गांव में पानी बरस जाता था। रास्ते में संघ को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं हुई। काल में कुछ भविजन गुण खान। दीक्षा धारण की सही मुनियों तुम मतिमान।। क्षुल्लक शिव आपने बाल्यकाल में श्री पूज्य गुरु महाराज से ही शिक्षा पाई थी। आपने मुक्तागिरि में सप्तम प्रतिमा और सिद्धवरकूट में क्षुल्लक के व्रत पूज्य महाराज से ही लिये थे और नागौर में इन्हीं के पाद मूल में दिगम्बर दीक्षा धारण की।सागर जबै मुनि हुये गुण वृद। गुरुवर चरण प्रणाम कर तोड़ा सब जग फन्द।। सिद्धमतिआप देहली की रहने वाली हैं। अग्रवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपने सप्तम प्रतिमा और क्षुल्लिका के व्रत पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज से लिये, आपका जन्म नाम बत्तो देवी था। यह क्षुल्लिका, हुई आर्यिका सार। गुरु ने उनका नाम वही रखा सिद्धमति सार।। इंदुमतिआपने क्षुल्लिका के व्रत श्री स्व. पूज्य चन्द्रसागर जी महाराज से और आर्यिका के व्रत श्री स्व. पूज्यश्री वीरसागर जी महाराज से लिये थे। आपका जन्म डेह नगर में खंडेलवाल जाति में हुआ था। आपका जन्म नाम मोहनीबाई था। इक क्षुल्लिका गुरु चरणन शिर नाय। भेष आर्यिका का धरा आतम लीन रहाय।। तभी कुंथुमतिपहले आपका नाम कुंथुमतिजी था। पूज्यश्री से आर्यिका की दीक्षा लेने पर आपका नाम शांतिमति जी रखा गया, आपका जन्म नाम कुंदनबाई था। क्षुल्लिका आकर के तत्काल। शांतिमति आर्या भई तजकर सब जंजाल।। इक श्रावक जिस नाम था चन्दूलालआप पीपरी के रहने वाले थे। खंडेलवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपका जन्म नाम चन्दूलालजी था। बाल्यकाल में शिक्षा आपने पूज्य श्री से प्राप्त की थी और क्षुल्लक की दीक्षा भी आपने नागौर में इन्हीं से ग्रहण की, फुलेरा में मुनि दीक्षा ग्रहण कर शिखरजी की वंदना की, वहीं आपका समाधि पूर्वक स्वर्गवास हो गया। महान्। क्षुल्लक व्रत धर कर बने सुमति िंसधु गुणखान।। ब्रह्मचारिणी इक तभी सोनूबाईआपने सप्तम प्रतिमा आचार्य महाराज से ली। आप अडूल की रहने वाली खंडेलवाल जाति में से हैं। जब आपने क्षुल्लिका के व्रत पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज से लिये, तब आपका नाम अनन्तमति रखा गया। नाम। बनी क्षुल्लिका तज सभी अनन्तमति गुणधाम।। ये षट् जन दीक्षित बने गुरु चरणन शिर नाय। उग्र—उग्र तप करत निज आतम लीन रहाय।। मानस्तम्भ महान इक मानी मद हरतार। गुरुवर चरण सरोज में हुई प्रतिष्ठा सार।। और अनेकों विविध विध उत्सव अति सुविशाल। कीने भविजन ने तबै नम गुरु चरण रसाल।। करी सुधर्म प्रभावना वीरिंसधु गुणखान। संघ सहित एकत्र हो कर दीना प्रस्थान।। नगर भदाना आय के कीना वहां मुकाम। शिखर वेदिका का तभी उत्सव था तिस ठाम।। शुभ तिथि लग्न विचारि के वेदी में जिनराज। पधराकर आये तभी डेह नगर ऋषिराज।।
।।हरिगीतिा छंद।।
पहले सुना था लाडनूं इक नगर अनुपम सार ही। चौबीस बार महान बिबोत्सव भये सुखकार ही।। मंदिर अनुपम बने यह जहं श्रावक समूह भी है अति, जब दर्शकर जिनराज के दुख विनशता है चहुँगति।।
।।दोहा।।
दर्श किये गुरु देव ने जिन मंदिर में जाय। श्रावक जग को तब यहाँ धर्म स्वरूप बताय।। तब फिर नगरनागौर से विहार करते हुए संघ सहित भदाना, डेह, लाडनूं आदि गांवों में होते हुए पूज्य गुरुदेव ने वि. सं. २००७ से सुजानगढ़ में वर्षा योग धारण किया। महाराज जी के प्रवचन तीनों टाइम होते थे, जिससे जनता काफी प्रभावित होती थी, व वैराग्य भाव सहित प्रसन्नता से दीक्षा एवं व्रतादिक ग्रहण किये। सुजानगढ़ आये श्री ऋषिराज। अहं जन धन संपन्न अति हैं गुरुभक्त समाज।।
तर्ज–राधेश्याम
एक जिनालय बना जहाँ पर जिसकी शोभा अपरम्पार। समोसरण की रचना जिसमें बनी रम्य अति भवि मनहार।। नगर बाह्य नशियाँ अति सुन्दर मानस्तम्भ महा सुखदाय। गांव बीच में त्रय चैत्यालय दर्शन करते अघ नश जाय।। श्रावक के घर यहां तीन सौ धर्म निरत अरु जो गुणवान्। षट कर्मो को पाले नित प्रति देव शास्त्र गुरु श्रद्धावान्।। संघ सहित गुरु वीरिंसधु ने वर्षायोग किया वहं सार। ज्ञानमतिआप देहली की रहने वाली हैं। दिगम्बर जैन अग्रवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपने सप्तम प्रतिमा एवं क्षुल्लिका के व्रत पूज्यश्री से लिये थे। आपका जन्म नाम ज्ञानमति था, जो दीक्षित होने के बाद गुणमति के रूप में बदल गया। को क्षुल्लक दीक्षा दी जो है भव भंजन हार।। नाम जिन्हों का रखा गुणमति वर्षायोग पूर्ण कीना। लादडिया पांचवाँ और कांकश कूकनवाली फिर लीना।। जगह जगह धर्मामृत बरषा कर भविजन संतृप्त किये। करत विहार देत भविजन सुख तभी फुलेरावि. सं. २००८ में आपने संघ सहित चौमासा किया था। नगर गये।। सेठ मूलचन्द गोत्र पाटनी नगर लाडनूं वासी है। बिम्ब प्रतिष्ठा करी यहां जो जैन धर्म विश्वासी है।। यहां पचास हजार मुसाफिर आये गुरु दर्शन कीने। यहीं सुमति सागर क्षुल्लक ने मुनि के व्रत तब लीने।। यहीं सुनंदाआप दुर्ग की रहने वाली हैं। खंडेलवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपने क्षुल्लिका के व्रत स्वर्गीय मुनिराज श्री जयर्कीित जी महाराज से लिये थे। आर्यिका के व्रत पूज्य श्री से लिये, तब आपका नाम कुंथुमति रखा गया। आपका जन्म नाम मांगीबाई था।—मति क्षुल्लिका ने आर्या व्रत को धारा। गुरुवर ने तब उसे नाम से कुंथुमति था उच्चारा।। ब्रह्मचारिणी केशरबाईआप खातेगांव की रहने वाली हैं। आपका जन्म खण्डेलवाल जाति में हुआ था। आपने सप्तम प्रतिमा क्षुल्लिका एवं आर्यिका के व्रत पूज्य श्री से ही लिये थे। आपका जन्म नाम केशरबाई था और दीक्षित होने पर अजितमति रखा गया। है वह शुभ मति की धारी। अजितमति आर्या बन साधन करने लगी धर्म भारी।। यहीं पूज्यश्री ने चौमासा किया ध्यान में मन दीना। श्रावकगण वहाँ भक्ति भाव से सिद्धचक्र उत्सव कीना। इसी समय इक धर्मआपक जन्म दुगारी में खंडेलवाल जाति में हुआ था, जन्म—नाम कजोड़ीमल था। आपने क्षुल्लक दीक्षा के व्रत स्व. पूज्य श्री चन्द्रसागरजी महाराज से लिये थे। ऐलक दीक्षा एवं मुनि दीक्षा अपने पूज्य श्री से ली थी। िंसधु ऐलक जो थे अति गुण धारी। हुये दिगम्बर वही नाम रख परिग्रह पोट तजी सारी।। धूलचन्द ब्रह्मचारी इक यह दृश्य देश हर्षाये हैं। नमस्कार कर गुरु चरणों को क्षुल्लक दीक्षा पाये हैं।। आप टोंक के रहने वाले हैं। खंडेलवाल जाति में आपका जन्म हुआ था। आपने सप्तम प्रतिमा, क्षुल्लक, ऐलक एवं मुनि दीक्षा भी पूज्य श्री से ग्रहण की। आपका जन्म नाम धूलचन्द था, दीक्षा लेने के बाद पद्मसागर नाम रखा गया।पद्मिंसधु इन नाम रखा इनकी व्रत में था दृढ़ कीना। तब ही समाप्त कर चतुर्मास जाने का तब विचार कीना।।
।।दोहा।।
इसी समय धर्मात्मा कुछ श्रावक जन आय। भक्ति सहित कहने लगे गुरु चरणनन िंढग जाय।। रामचन्द्रआप खंडेलवाल जात्युत्पन्न जयपुर निवासी परम धर्मात्मा श्रीमान् है। समय—समय पर र्धािमक कार्यों में दानादि दिया करते हैं। आपने दो प्रतिमा के व्रत पूज्य आ. शान्तिसागर जी महाराज से लिये थे। अरु चांदमलआप खंडेलवाल जात्युपन्न नागौर निवासी परम धर्मात्मा श्रीमान हैं। आपने सप्तम प्रतिमा पूज्यश्री से ग्रहण की है। आप ब्रह्मचारी चांदमलजी चूड़ीवाल के नाम से प्रसिद्ध हैं।, लाडमल्लआप धन जन सम्पन्न जयपुर के एक परम धर्मात्मा श्रीमान् हैं। आपने सप्तम प्रतिमा पूज्यश्री चन्द्रसागरजी महाराज से ग्रहण की है। इस समय भी ब्रह्मचारी लाडमलजी (भौसा) गुरुसेवा में संलग्न हैं। जयपुर में दो वर्ष पूज्य गुरुदेव का संघ सहित चौमासा कराने का श्रेय आपको ही है। आपकी धर्मज्ञता प्रशंसनीय है। उक्त तीनों सज्जनों ने गुरु महाराज से सम्मेदशिखरजी की वन्दना करने का आग्रह किया। तदनुसार ससंघ सम्मेदशिखरजी की वंदना कराकर पुन: इसी प्रान्त में ले आये। वास्तव में आपकी गुरुभक्ति प्रशंसनीय एवं अनुकरणी है। जिन नाम। सुनो हमारी प्रार्थना है मुनिवर निष्काम।।
तर्ज—राधेश्याम
संघ सहित गुरु आप पधारें शिखर समेद सु वंदन को। पूज्य तुम्हारी साथ चलें हम सिद्ध क्षेत्र अभिनन्दन को।। वृद्ध अवस्था निर्बल तन है फिर भी गुरु स्वीकृति दीनी। संघ सहित हो ऋषिराज जाने की तैयारी कीनी।। पंच दिगम्बरपूज्य आचार्य—१. वीरसागरजी, २० श्री आदिसागरजी, ३. शिवसागरजी, ४. धर्मसागरजी, ५. सुमतिसागर जी महाराज। साधु संघ में आर्या आर्यिका वीरमतिजी, सुमतिमतिजी, पाश्र्वमतिजी, सिद्धमतिजी, शांतिमतिजी, कुंथुमतिजी, इन्दुमतिजी। सप्त बताई हैं। क्षुल्लकक्षुल्लक पद्मसागर जी। इक क्षुल्लिकाक्षुल्लिका अजितमतिजी, अनन्तमतिजी, गुणमतिजी। तीन थी महिमा कही न जाई है।। सप्तम प्रतिमाब्रह्मचारी कालूरामजी, कजोड़मलजी, सूरजमलजी, राजमलजी, चांदमलजी, माणकचन्दजी, गणेशलालजी, सुन्दरलाल जी, मोहनलालजी, रतनलालजी, लाडमलजी आदि। ब्रह्मचारिणी बाईयाँ—हीराबाई, पतासीबाई, भंवरीबाई, मुकनाबाई, सोमाबाई, मलवूबाई, गोपीबाई, मत्तुबाई आदि। वालों की संख्या सब साठ गिनाई है। शान्तिसिन्धु आचार्यवर्य की आज्ञा भी मंगवाई है।। शुभाशीष जब मिली गुरु की तब ही शुभ मुर्हूत देखा। तभी किया प्रस्थान गुरु ने नशने सभी कर्म रेखा।। विहार करते जयपुर नगरी आया संघ बड़ा भारी। स्वागत कर बहु भक्ति भाव से जनता जय—जय उच्चारी।। सभी जिनालय वन्दन कीने सांगानेर तभी आये। अतिशय सहित पद्मप्रभु जिनके दर्शन करके सुखपाये।। निमोडिया और कोटखावदा तथा लालसोट भारी। गंगापुर बामण का वासा मंड़ावरी फिर जग न्यारी।। महावीर जी में श्री मुनिवर वीर प्रभु के दर्श किये। हिडोन बयाना बड़ा भरतपुर में जनता को दर्श दिये।। मथुरा में श्री जम्बूस्वामी कर्म काट निर्वाण गये। दर्शन पूजन करने श्रावक आते हैं नित नये—नये।। दर्शनार्थ वहाँ पहुँचे गुरुवर केश लोंच भी कीना है। उमड़ पड़ी थी जनता तहँ मुनिवर ने दर्शन दीना है। सिकन्दराबाद रु अर्गलपुर एतमादपुर शहर बड़ा। नगर फिरोजाबाद अनोखा राजताल रमणीय पड़ा।। अबराई जाकर के फिर वे नगर घिरोरा जाते हैं। मैनपुरी भोगाँव बड़ा कन्नोज नगर फिर पाते हैं।। बड़ा सुगन्धित इतर जहाँ से देश—देश में जाता है। संग अठाई पर्व मांहि तब नगर कानपुर आता है।। फिर बिहार कर नगर बनारस इलाहबाद में तभी गये। आरा पटना में जिन मंदिर देखे थे सब नये—नये।। गुलजारी उपवन में वहं श्री सेठ सुदर्शन मुक्त भये। शील धर्म का पाठ पढ़ाकर जगतीतल को सिद्ध हुये।। कुंडलुपर में जन्म लिया था वीर प्रभू ने त्रिशला घर। राजगिरी की पंच पहाड़ी वंदन की मन निश्चल कर।। पावापुर फिर क्षेत्र गुणावा नगर नवादा आते हैं। चंपापुर में वासुपूज्य जिनवर के दर्शन पाते हैं।। इसी जगह कर केशलोंच मंदार गिरी को तब पहुँचे। गिरड़ी मन्दिर दर्शन कीने जो थे रम्य बहुत ऊँचे।। कर प्रस्थान संघ तबही जब पाल गंज को आया है। जहं इक नृप ने जैनधर्म का मन्दिर एक बनवाया है।।
।।दोहा।।
पूर्व क्षेत्र सब वन्द कर चंपापुर तक सर्व। शिखर समेद तभी गये, श्री मुनिराज निगर्व।।
तर्ज—राधेश्याम
आषाढ़ वदि षष्टम के दिन ही संघ सहित गुरु मधुवन जाय। श्रावक जन अति भक्ति भाव से श्री गुरुवर की पूज रचाय।। तभी दूसरे दिन आषाढ़ कृष्णा सप्तम का दिन आया। यह शुभ दिन श्री शान्ति िंसधु का जन्म दिवस था कहलाया।। वीर िंसधु ने शान्ति िंसधु महिमा भवि जन को बतलाई। कीना धर्म प्रचार बहुत सो महिमा कही नहीं जाई।। उस समय तीव्र गर्मी पड़ती सम्मेद शिखर गिरि तपता है। नाथ वंदना होगी कैसे आताप ग्रीष्म बहु खलता है।।
।।पूज्यश्री।।
विश्वास करो तुम क्यों घबराते वन्दना शीघ्र होगी भाई। मन में संघ सहित सब त्यागीगणों ने पूज्यश्री के साथ आषाढ़ कृष्णा सप्तमी को श्री गिरिराज सम्मेदशिखर की सानन्द वंदना की। इस दिन श्रीपूज्य आचार्य शान्तिसागर जी महाराज के जन्म दिवस को लक्षकर मंडल मांडकर समारोह पूर्वक पूजन की गई। पूज्यश्री ने आचार्य महाराज के जीवन पर तथा उनके द्वारा की गई जैनधर्म एवं जिनवाणी की सेवा पर विशेष प्रकाश डाला।संकल्प करो ऐसा तुम छाये अवश्य शीतलताई।। था विलम्ब यह कहने का तब ही बादल घिर आते हैं। घंटा भर वर्षा बरसा कर शीतलता कर जाते हैं।। आषाढ़ वदि सातैं के दिन गुरु संघ सहित गिरि चढ़ते हैं। पुलकित हृदय वन्दना कर जल मन्दिर में निशि रहते हैं।। छह महिने का राह परिश्रम उतर गया सब दर्शन से। भव—भव के दुष्कर्म नष्ट होंगे जरूर गिरि वन्दन से।। संघस्थ व्रती वन्दना नित्य ही करते नहीं अघाते हैं। जितने दिन गुरु मधुवन ठहरे गिरि दर्शन को जाते हैं।।
दोहा
चतुरमास के दिन निकट आये जब सुखदाय। थापा वर्षा योग तब नगर ईसरीवि. सं. २००९ में संघ सहित ईसरी में चौमासा किया था। जाय।। नित्य वहाँ मुनिराज का प्रवचन होत महान्। धवल समयसारादि को लेय ग्रंथ शुभ जान।। बड़े—बड़े विद्वान यहाँ आते दर्शन काज। करें तत्त्व चर्चा सही प्रमुदित होय समाज।। भविक नित्य निश्चित समय आ सुनते उपदेश। ज्यों चातक वर्षा तकी देखे बाट हमेश।। अध्यात्मम वाणी अहो थी स्वानूभव काज। हित मित थी अति मिष्ट थी सुनती नित्य समाज।। ।।मुनिराज सुमतिसागर जी का स्वर्गवास।। हरिगीतिका छंद सुमतिसागरआपको ईसरी में तीव्र मलेरिया ज्वर हो गया था। इससे छुटकारा पाना असाध्य समझकर, शरीर की अत्यन्त अशक्त अवस्था जानकर पूज्यश्री की आज्ञापूर्वक समाधि ग्रहण कर ली। पूज्यश्री ने भी अन्तिम समय जान अपने अमृतमयी उपदेशों के द्वारा इनको समाधि में पूर्ण दृढ़ किया। फलस्वरूप शुभ परिणामों के साथ पूज्य मुनिराज का भाद्रपद शुक्ला पंचमी को देहावसान हो गया। आप केवल एक ही वर्ष मुनि अवस्था में रह सके थे। आप गृहस्थ अवस्था में जन—धन सम्पन्न थे। पूज्यश्री ने ईसरी का वर्षा काल समाप्त किया और एक बार फिर गिरिराज की वन्दना हेतु नेमियाघाट से चढ़े और सानन्द वन्दना कर मधुवन उतर आये। गुण उजागर थे दिगम्बर रूप में, वह ज्वर ग्रसिते वे हुये पर थे ही आतम रूप में। उपदेश दे गुरु ने समाधि में उन्हें निश्चल किया, भादव सुदी पंचमि दिना में अमर पद उनने लिया।। सोचा तभी सब संघ ने गिरि राज वन्दन फिर चलें, संघ युत हो दर्श कीने पूज्यश्री ने फिर भले। उतर कर गिरि राज पर से तबै मधुवन आय ही, जहाँ जैन
मन्दिर दर्श कर सब पाप जाय पलायही।।
।।संघस्थ मुनिराज श्री आदिसागरजी महाराज का भी मधुवन में स्वर्गवास।।
बहुत वर्ष से रहते थे श्री गुरुवर के संग। आदििंसधु जिन नाम है जो अध्यात्म रंग।। यह शरीर में हा हुये जवर कासादिक रोग। तीन दिवस में ही बना मृत्यु महोत्सव योग।। पौष कृष्ण की पंचमी हस्त योग शुभ जान। ब्राह्म मुर्हूत में ली सही समाधि गुण खान।। निज स्वरूप में लीन रह तज ममत्व मुनिराज।सम्मेदशिखर की दो वन्दना के बाद पूज्यश्री मुनिराज आदिसागरजी महाराज को तीव्रज्वर हुआ। दिन—दिन हालत कमजोर होती गई, लेकिन आपके परिणामों में कोई अशान्ति नहीं थी, निरन्तर आप आत्मस्वरूप में लीन रहते थे। आत्म—िंचतवन की अवस्था में ही बड़े शुभ परिणामों के साथ पौष कृष्णा पंचमी को ब्राह्म—मुहूर्त में आपने भौतिक शरीर को त्यागकर सुर पद प्राप्त किया। आप बड़े ही अध्यात्म प्रेमी शान्ति प्रिय मुनिराज थे। करीब २२ वर्ष से पूज्यश्री के पास रह रहे थे। आपकी जन्म—भूमि दांतारामगढ़ थी। आप खण्डेलवाल जाति के भूषण थे। आपका जन्म नाम चांदमलजी अजमेरा था। कर समाधि सुर पद लिया अंतिम शिवपुर जाय।। ।।मधुवन से विहार।। दोहा कर विहार वहं से सही संघ सहित मुनिराज। धर्म देशना देत नित, जातें पाप नशाय।।
तर्ज—राधेश्याम
चौपारन डेरी ओन सोन फिर बनारसी में आये हैं। िंसहपुरी और चन्द्रपुरी में प्रतिमा दर्शन पाये हैं।। सब तीर्थंकर जन्म अयोध्या पावन हुई चरण रज से। टिवैâत नगरी में श्रावक थे भक्त गुरु पद पंकज से।। वेदी उत्सव देख यहाँ का तभी चले लखनऊ शहर। फैर कालपी सिमरी आये तब फिर झांसी एक नगर।। दे उपदेश सर्व भविजन को फिर प्रस्थान तभी कीना। सिद्ध क्षेत्र सोनागिर वर को पा तहं आत्म ध्यान कीना।। अतिशय रम्य क्षेत्र यह सुन्दर सौ जिन मन्दिर सुन्दर है। निज परिकर संग आय नित्य प्रति पूजत जहं पुरंदर है।। सिद्ध क्षेत्र अरु गुरु के दर्शन करने तभी पधाते हैं। महावीरकीरतिआप वही महावीरर्कीितजी हैं जिन्होंने टांकाटूका नगर में पूज्यश्री से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की थी। आपने दक्षिण में विहार किया और वहीं दिगम्बर बने। आप भी अपने संघ सहित सम्मेदशिखर की वन्दनार्थ निकले थे। जब आपने सुना कि पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज सोनागिरि पर पधारे हैं तो आप भी दर्शनार्थ यहाँ पहुँचे। यह गुरु शिष्य का मिलाप बहुत समय बाद हुआ था। पन्द्रह दिन तक आप पूज्यश्री के साथ वहीं सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पर विराजे। आप शास्त्री न्यायतीर्थ विद्वान हैं, ज्योतिषशास्त्र में भी आपकी पूर्ण गति है। पद्मावती परवाल जाति ऐसे नरपुंगव को उत्पन्न कर धन्य हो गई। मुनिवर भविजन सम्बोधन हारे हैं।। गुरु शिष्य वहँ बड़े प्रेम से पन्द्रह दिन तक रहते हैं। सब जन मुख से यों उचरे वात्सल्य इसी को कहते हैं।। दर्शन करने जनता आई दश हजार से भी ज्यादा। बिन श्रीगुरु के दर्शन करके मनुज मिटाता भव बाधा।। हुवा वहां अभिषेक बाहुबलि जो नाशक भव की ज्वाला। वहीं मुनी उपदेश श्रवण कर भविजन नशा पाप काला।।
दोहा
वीर सिन्धु मुनिराज ने तब फिर किया विहार। डबरा मण्डी ग्वालियर आये भवि मन हार।।
तर्ज–राधेश्याम
बड़े—बड़े हैं मन्दिर यहं अरु किला बहुत ही सुन्दर है। खड्गासन पद्मासन प्रतिमा शोभित जिसके अन्दर है।। कोई बीस कर कोई तीस कर कोई चालीस बताई है। और अनेकों प्रतिमा जिसके चौतर्फा दर्शाई है।। अतिशय वंत अनेकों प्रतिमा सबके मन को भाती हैं। गुफा अनेकों में खड्गासन पद्मासन दिख जाती हैं।। अहो एक पत्थर से र्नििमत एक वापिका बनी यहां। जल से पूर्ण भरी, जन नित प्रति करते रहते स्नान जहाँ।। उसी पंक्ति में प्रतिमा सुन्दर मारग से दिखतीं सारी। बिना नह्नन के दिखतीं सुन्दर यह आश्चर्य बहुत भारी।। भक्तिवान था नृपति यहां का जैन धर्म श्रद्धानी था। जैन धर्म की नित प्रभावना करता था बहु ज्ञानी था।। तब फिर दर्शन ग्वालियर बामोर मुरेना जा कीने। धर्मोत्साही भविजन को तँहैं श्री गुरु ने दर्शन दीने।। यहां एक गोपाल जैन सिद्धान्त सुविद्यालय भारी। चौदह मील दूर यहाँ से इक क्षेत्र अतिशय यह एक अतिशय क्षेत्र है जो कि ग्वालियर से १४ मील है।पनिहारी।। नगर धौलपुर गांव हनीसा रायव्वा अछनेरा है। अमरयह भी अतिशय क्षेत्र है। रत्नपुर रम्य क्षेत्र में देखे िंबब घनेरा है।। और अनेकों नगर मार्ग में बड़े—बड़े ही आये हैं। धर्म तत्त्व सु विचार जिन्हों में कुछ के नाम गिनाये हैं।। ।।कुछ विशिष्ट घटनाओं का वर्णन।। ।।दोहा।। बहुत गांव ऐसे मिले, बली प्रथा दु:खकार। जिनमें प्रचलित थी सही, दुर्गति की दातार।।
तर्ज—राधेश्याम
इक जगह खूब िंहसा होती जन मछली खूब पकड़ते थे। गुरु के उपदेश बिना पापी नाना दु:खों में सड़ते थे।। काली अरु कंकाली देवी फिर चण्डी मुण्डी माता को। सबको बलि देने से ही माने सुख की दाता वो।। बाहर वासी मांगे बकरा गोना बाबा घर का है। देवन खेड़ी माता सच्ची मस्तक लेवे नर का है।। छोटे—मोटे जीव जन्तु अरु अजापुत्र को लाकर के। देवी सन्मुख हाय मारते थे तलवार चला करके।।
।।मुनिराज का सार्वजनिक उपदेश में सम्बोधन।।
बलि प्रथा का नारकी कृत्य देख मुनिराज। निज—प्रवचन में यों कहा सुनियो सर्व समाज।। देव धर्म के नाम पर जो बलि देवे जीव। घोर पाप पैदा करे पावे दु:ख अतीव।। देवी बलि के नाम पर पशुवध कर दु:ख दाय। मांस स्वयं खाते तुम्हीं देवादिक ना खाय।।
तर्ज—राधेश्याम
मांस अहारी क्यों बनते हो क्यों पशुओं को खाते हो। असहाय हाय तृण जीवी पशु पर कयों तलवार चलाते हो।। क्यों करते अन्याय अरे तुम नर्क कूप में जावोगे। मूक पशु की िंहसा करके दु:ख अनेकों पावोगे।। निज समान तुम समझो सबको प्राण सभी को हैं प्यारे। इसलिये भैय्या कभी किसी के प्राण करो न कभी न्यारे।। ऐसे िंहसक जन समूह को जगह—जगह उपदेश दिया। पापी अन्यायी मनुजों को गुरु ने अहो सचेत किया।। अष्ट मूलगुण बतलाकर के पंच पाप समझाये थे। होनहार है श्रेष्ठ जिन्हों का उनको त्याग कराये थे।। ।।दुर्घटना निवारण।। दोहा चलते—चलते एक दिन चम्पापुर के पास। जो दुर्घटना हा हुई तब सब हुये निराश।।
तर्ज—राधेश्याम
राह भयंकर बढ़ा कठिन था, डाकू चोर भी आते थे। पथिक जनों के माल खजाना, मार कूट ले जाते थे।। संघ की मोटर एक दिना जब, चम्पापुर को जाती थी। अहो अंधेरी रात भयंकर दृष्टि नहीं कुछ आती थी।। संघ लूटने का विचार, डाकूगण मन में कीना है। बड़े—बड़े बहु झाड़ काटकर, सड़कों पर रख दीना है।। वहीं चोर डाकूसब बैठे, मोटर जभी इधर आवे। लूट मार कर राही जन को, धन सम्पत्ति अथाह पावें।। पर भक्षक से रक्षक हैं ज्यादा, गुरु आशीष अहो सागे। पुरजा बिगड़ा गांव पास इक, मोटर रुकी न बढ़ आगे।। यदि एक मील भी आगे बढ़ते, संघ तभी सब लुट जाता। बड़ी खुशी से धन दे उनको अपने सा, हा रह जाता।।
दोहा
इसी तरह आपत्ति इक, आई और महान्। जिससे लुटता संघ सब सुनियों हे मतिमान्।।
तर्ज राधेश्याम
चंपापुर से बाल भगत की, कोठी पर जब आये हैं। निर्जन अड्डा वहां चोर का, था हम भेद न पाये हैं।। तभी रात में सब नर—नारी, मस्त नींद में शयन किया। मौका देखा तस्करदल ने, हमला करना सोच लिया।। यह आपत्ति आई अचानक, जान सर्व जन घबराये। क्या करना संकट से कैसे, बचना नहीं जान पाये।। ज्यों विषाद में दु:खी जन, है याद इष्ट अपना करता। त्यों वह सर्व संघ जन, गुरुवर, नाम भक्ति से उच्चरता।। इतने में मानों हुवा एकदम, दैवी चमत्कार भारी। हथियारबन्द कुछ पुलिस वहां पर, आये थे वे भयकारी।। उनके डर से तस्करगण, तत्काल शीघ्र भग जाते हैं। निशा बीतगई सूर्य उदय सब, जन मन तब सुख पाते हैं।। ललकारे थे तस्कर जिनने, वहीं सुबह ही आकर के। नमस्कार कीना गुरुवर को, चरणों में शीश झुकाकर के।। गुरु ने उनको उपदेश दिया, अरु मद्यमांस छुड़वाया था। हर तरह बात बतलाकर उनकी, धर्म ज्ञान करवाया था।। चकित हुये थे सब मानव यहाँ, पुलिस कहाँ से आये हैं। पोलिस बनकर सुरगण मानों, रक्षा करने धाये है।। मनुष्य एक दिन ताड़ी पीकर, घोर नशे में हो आया। किया आक्रमण मोटर में, पर चली न उसकी कुछ माया।। घोर भयानक जंगल में, मोटर खराब जब हो जाती। तभी पूज्य गुरु देव नाम से, हमें सफलता मिल जाती।। इसी तरह जब बीसों स्थल पर, आपत्ती घिर आती थी। लिखें कहाँ तक एक—एक, सब गुरु प्रभाव नश जाती थी।।
।।दोहा।।
सहसों ही आपद मिली, हुवा नहीं नुकसान। गुरु भक्ति से सब मिटी, समझो श्रद्धावान।। शिखरजी वगैरह से लौटकर फिर महावीरजी ।।दोहा।। आये फिर महावीरजी, महिना तीन रहाय। फिर विहार कर श्रीगुरु, नगर निवाईवि. सं. २०१० में ससंघ चौमासा निवाई में किया। जाय।। दो हजार दस में यहीं, कीना वर्षा योग। उसी समय कुछ गांव के, आये सज्जन लोग।। हाथ जोड़ विनती करी, हे गुरुवर गुणवान्। आसपास के गांव में, ही विहार सुखदान।। सुनकर श्री गुरु तब चले, घूमे बहुते ग्राम। तिन में कुछ का मैं यहीं, सुना सुनाऊँ नाम।। टोंक सोंयला कुरबड़ा, मंदिर एक बताय। हमीर पुर नानेर है, नगर झराणा गाय।।
।।चाल जोगीरासा।।
नासिरदा सांवरिया बगड़ी, देव गांव है छोटा। उणियारा दतोप पवाल्या, मालपुरा है मोटा। वनस्थली अरु जून्या दूणी, सतवाडा इक मानो। ग्राम सरोली राजमहल इक, नगर सु सुंदर जानो।। नदी बड़ी है नाम बनासी, नशियां तट लहराती। दोनों तट में पर्वत सोहे, दृश्यावलि अतिभाती।। सुना विनय जब श्रावक जन, का आंवा नगर पधारे। उत्सव में तहं नर—नारी सब, गांवों के आये सारे।। बहुत दिनों से श्रावक गण में, झगड़ा खूब मचा था। गुरु—कृपा से दूर हुआ वह, उत्सव श्रेष्ठ रचा था।।
।।उणियारा शासक का आगमन।।
क्षत्रिय वंशी नृपआप वेदी प्रतिष्ठोत्सव एवं गुरु दर्शनार्थ उणियारा से आये थे। ग्रीष्म ऋतु की तेल धूप में आप भी भक्ति वश महाराज के साथ बहुत दूर तक नंगे पांवों से चले। एवं हजारों जन समूह के बीच खड़े होकर दिगम्बर साधु की प्रशंसा करते हुये पूज्यश्री के चरणों में नत—मस्तक हुये थे। उणियारा, मुनि वंदन को आया। मन वच तन से शुद्ध होयकर, गुरुवर शीष नमाया।। सहसों जनता संमुख नृपने, मुनि प्रशंसा कीनी। श्री गुरुवर की विनय सहित हो, उनने भक्ती कीनी।।
।।दोहा।।
तब विहार कर श्रीमुनी, नग्र बघेरा,यह एक पुराना ग्राम है इसको बाराजी भी कहते हैं। यहाँ शांतिनाथ भगवान की अतिशय मनोज्ञ खड्गासन प्रतिमा हैं जब कभी जमीन खोदी जाती है तो प्राय: जिन प्रतिमायें निकल जाती हैं। इससे एक मील दूर एक छोटी सी सुन्दर पहाड़ी है। जिसकी गुफा में भी प्रतिमायें उकेरी हुई हैं और वेदी के अन्दर भी विराजमान हैं। अधिकतर प्रतिमायें खंडित हैं। इन सब बातों को देखते हुये मालूम होता है कि पहले कभी यहाँ पर जैनियों की काफी बस्ती रही होगी। पर समय की बलिहारी आज यहाँ पर शून्यता छाई है। जगह—जगह पर पुरातत्त्व सामग्री शिलालेखादि मिलते हैं। एक चमार के कुएं में दीवार के ऊपर एक गोल काले पत्थर में चौबीसी की र्मूितयाँ जीर्ण—शीर्ण हालत में उत्कीर्ण दृष्टिगत होती हैं। मझार। शांतिनाथ प्रभू के वहाँ, दर्श किये सुखकार।। पुरातत्व के चिह्न युत, अरु लेखादि अनेक। जिन प्रतिमा दिखती बहुत, धन्य हुये हम देख।।
।।चाल जोगीरासा।।
इसी गांव के तट में रम्या, पहाड़ी एक बताई। जिसकी कंदर में जिन प्रतिमा, रम्य बहुत दर्शार्इं।। चल के वहं से टोडा२०११ संवत् में आचार्यश्री का चौमासा टोडारायिंसह में हुआ था। पहुँचे, संघ सहित ऋषिराज। यहँ चौमासा श्री गुरु कीना, दे उपदेश समाज।।
।।दोहा।।
यहां सु मोहनलालआप खंडलेवाल जात्युत्पन्न टोडारायिंसह के निवासी हैं। आपने सप्तम प्रतिमा पूज्य महाराज से ही ली थी और क्षुल्लक के व्रत भी वि. सं. २०११ की साल में यहीं पर लिये थे। एक, ब्रह्मचारि बतलाय। कलकत्ता के सेठ इकआप बीकानेर निवासी ओसवाल जात्युत्पन्न श्रावकोत्तम थे। कलकत्ते में व्यवसाय करते थे। आपकी मातुश्री दिगम्बर जैनधर्म पर गाढ़ श्रद्धान रखने वाली थीं। आप सकुटुम्ब टोडा में पूज्यश्री के दर्शनार्थ पधारे थे। पूज्यश्री के दर्शनों का आप पर इतना प्रभाव पड़ा कि सर्व कुटुंब वर्ग को छोड़ते हुये, आत्मकल्याणार्थ पूज्यश्री के पादमूल में क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। आपका नाम इस समय चिदानन्दसागर हैं।, गोिंवद लाल भी आय।। नमन किया महाराज को, अरु कीनी अर्दास। दीक्षा ले संघ में रहें, यही हमारी आश।। धन—दौलत परिवार सब, जाना अथिर महान्। दीक्षा दे तारो यही, विनती दया निधान।। भाव शुद्ध इन जानकर, कीना वच स्वीकार। दोनों को दी दीक्षा वहीं, दीनी सुख दातार।। वर्णी मोहनलाल का, संमति सागर नाम। रखा श्री मुनिराज ने, पावे ज्यों सुख धाम।। शुभमति गोिंवदलाल जी, क्षुल्लक दीक्षा लेय। चिदानंद सिधू बने, आतम लीन रहेय।। कर विहार श्री गुरु तबै, नगर निवाईयहाँ पर रतनलाल जी गिन्दोड़ी ने ४० हाथ ऊँचा सुन्दर मानस्तम्भ निर्माण करा कर गुरुदेव की साक्षी से ब्र. सूरजमल द्वारा प्रतिष्ठा कराई। जाय। नित प्रति दे उपदेश तहं, भविजन मन हर्षाय।। मानस्तम्भ विशाल अति, कर चालीस बताय। हुई प्रतिष्ठा तब वहाँ, गुरु संमुख सुखदाय।। कर विहार श्री मुनि तबै, नगर चाकसू आय। जिन मंदिर तहं पंच अति, रम्य उतंग सुभाय।।
चाकसू में पूज्यश्री की अस्वस्थता
चाल जोगीरासा कर्म असाता है बलकारी, उसको नाच नवावे। निर्धन धनपति हो बड़ भागी, साधुन को भी सतावे।। परम पूज्य श्री वीरिंसधु को, ज्वर ने आकर घेरा। चार पांच छ: डिगरी ज्वर का, था हा भीषण डेरा।। तो भी श्री मुनिराज रहे निश, दिन आतम चिंतन में। देह अपावन अथिर घिनावन, का विचार था मन में।। आये वैद्य अनेक वहां पर, देखे हाथ लगाई। तब बोले औषध सेवन से, रोग निसंशय जाई।। सुनकर बातें वैद्यगणों की, श्री गुरुवर तब बोले। औषध काम करे ना जगमें, कर्म असाता को ले।। ली न दवाईचाकसू में पूज्य श्री तीन माह तक अस्वस्थ रहे। और औषण लेना व्यर्थ समझ आत्म िंचतन में लीन रहने लगे, लेकिन भव्यों के पुण्य प्रताप से पूज्य श्री ने पुन: स्वस्थता प्राप्त कर ली। भीषण ज्वर में, गुरु महिमा अधिकाई। ज्वर कांसादिक दूर हुए सब, महिना डेढ़ लगाई।। आशा छोड़ी थी श्रावक गण, जाते है गुरु राज। भाग्य महा नर नारी के थे, आयु थी ऋषिराज।।
पद्मपुरी में फिर उपद्रव
चलकर के जब पद्मपुरी में, आये हैं गुरु राई। रोग भयंकर कंपन वायु, फिर श्री गुरु को सताई।। हाथ पैर अरु मस्तक लेकर सारा तन अति काँपैं। लेत अहार अधिक बेचैनी श्रीगुरुवर बहु हांपै।। अतिशय पुण्य अधिक श्रीगुरु का तप प्रभाव अधिकाई। चन्द दिनों में नष्ट हुआ वह राज रोग दुखदाई।। दर्शन करके पद्म प्रभु के वहां से गमन कराई। शक्ति हीन थे गुरुवर देखों फिर भी पैदल जाई।। चलत चलत फिर जयपुर पहुँचे राजस्थान रजधानी। तहां शहर से दूर एक खान्यापद्मपुरी से गोनेर, सरोली आदि गांवों के मन्दिरों के दर्शन करके जयपुर खान्या पहुँचे। नशिया है सुखदानी।। जिसमें जिन प्रतिमा शुभ सोहे पूजत बहु जन आई। नैर्सिगक जलवायु यहां का रोगादिक नश जाई।। बाग बगीचा सुन्दर उपवन गिरि सौंदर्य निराला। गिरि पर सिंहादिक दिखते दिखता मृग यूथ विशाला।। गृह त्यागी मुनिराज यहां पर ध्यान धरे बड़ भागी। भेद सु ज्ञानी तत्त्व विचारक शिव रमणी अनुरागी। दो हजार बारह संवत में वीर सिंधु मुनिराई। संघ सहित खान्या नशियां में वर्षायोग कराई।। (चातुर्मास में आचार्य पद एंव पूज्य श्री १०८ आचार्य शांतिसागर जो महाराज का वियोग) दोहा इसी समय घटना घटी सो सुनियो मतिमान्। शांति सिंधु आचार्यश्री कुंथल गिरि में आन।। थापा वर्षा योग तहं सुख से काल गमाय। ज्ञान ध्यान तप लीन नित सो कछु कहा न जाय।। चतुर मास के बीच में आया दुख अपार। शांति सिंधु आचार्य ने ली समाधि को धार।। आचारज पद दे किसे मन में हुआ विचार। योग्य मुनी जो है सही वही सम्हाले भार।। प्रथम भादवा सुद सातैं दिन तथा श्रेष्ठ बुधवारा। तभी सहस्रों नर नारी बिच गुरुवर यों उच्चारा।। प्रथम शिष्य निग्र्रंथ ऋषीश्वर वीर िंसधुअत: वर्तमान में विनयशील, चारित्रवान् , शांत परिणामी, उद्भट विद्वान् , हमारे प्रथम शिष्य; निग्र्रंथ साधु श्री वीरसागर जी मुनिराज मौजूद हैं, इसलिये यह आचार्य पद उन्हीं को दिया जाना चाहिये—ऐसा विचार कर सं. २०१२ प्रथम भाद्रपद शुक्ला ७ बुधवार को हजारों जन— समूह के बीच आचार्य पद प्रदान पत्र लिखकर जनता को उसी समय सुनाया। तथा उसी समय आज्ञापत्र जयपुर जैन समाज को भी लिखवाया था जिसमें मुनिराज वीरसागर जी महाराज को अपने द्वारा भेजे गये पीछी कमण्डलु एवं आचार्य पद पत्र देते हुये समारोहपूर्वक आचार्य पद प्रदान कर दिया जावे—ऐसी समाज को आज्ञा दी थी। उसमें यह भी लिखा था कि आज से र्धािमक समाज को श्री वीरसागर जी महाराज को आचार्य मानकर इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये। आचार्यश्री ने समाधि स्थल पर यह भी कहा था कि मुनिराज श्री वीरसागर जी बहुत दूर रह गये नहीं तो आचार्य पद प्रदान की क्रिया मैं स्वयं करता। आचार्यश्री के आचार्य पद प्रदान पत्र एवं आज्ञा पत्र को सुनकर हजारों नार—नारियों ने जयघोष करते हुये परम प्रसन्नता के साथ पूज्य श्री मुनिराज वीरसागर जी महाराज को आचार्य पद प्रदान की अनुमोदना की। ये दोनों पत्र जयपुर समाज को भेज दिये गये। तुम जानो। हर्ष सहित हम देते अपना सूरी पद शुभ मानो।। सूरी पदवी पत्र लिखाया शांति सिन्धु मुनि ज्ञानी। एक पत्र जयपुर जनता को भी लिखना शुभ मानी।। आज्ञा पत्र में लिखा दिया है शान्तिसिन्धु दु:ख हर्ता। दूर हैं श्री मुनिराज नहीं तो सर्व क्रिया मैं करता।। अब तुम चारों संघ सामने समारोह कर सारे। आचारज पद देना अब वे हैं आचार्य तुम्हारे।। उनकी आज्ञा में रहकर ही करना धर्म प्रचारा। अब है तुमरा वीर िंसधु आचार्य महान् सहारा।।
दोहा
श्रावकगण योगीन्द्र की वाणी सुन हरषाय। जय—जय कह अनुमोदना करी सुमन वचकाय।। आज्ञासंध्या का समय था, जयपुर (खान्या) जैन मन्दिर के विशाल प्रांगण में जयपुर जैन समाज के करीब करीब सभी प्रतिष्ठित र्धािमक श्रीमान् धीमान् बैठे हुये थे। इनके चेहरों को देखकर स्पष्ट ही अनुमान किया जा सकता है कि इनके हृदय में िंचता एवं हर्ष मिश्रित विचार धारा चल रही है। िंचता इस बात की थी कि अब चारित्र चक्रवर्ती पूज्य श्री १०८ आचार्य शांतिसागर जी महाराज के सल्लेखना ग्रहण करने के कारण शीघ्र ही आचार्यश्री का वरद हस्त समाज के ऊपर से उठ जाने वाला है और हर्ष भी था इसलिये कि आचार्यश्री के बाद समाज का संरक्षण एवं संवर्धन नूतन होने वाले आचार्यश्री पूज्य मुनिराज वीरसागर जी महाराज के नेतृत्व में होता रहेगा। आचार्यश्री के द्वारा भिजवाया गया आचार्य पद प्रदान पत्र एवं जयपुर समाज को प्रेषित आज्ञा पत्र ही इनकी विचार धारा का विषय था। इतने में ही श्रीमान् पं. इन्द्रलालशास्त्री अपने स्थान से उठते हैं। श्री चारित्र चक्रवर्ती पूज्य १०८ श्री आचार्य शांतिसागर जी महाराज द्वारा जयपुर के पंचों को लिखवाया गया पत्र। कुंथलगिरि ता. २४—८—५५ स्वस्ति श्री सकल दिगम्बर जैन पंचान जयपुर धर्मस्नेह पूर्वक जुहार। अपरंच आज प्रभात में चारित्र चक्रवर्ती १०८ परमपूज्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने सहस्रों नर—नारी के बीच श्री १०८ मुनिराज वीरसागर जी महाराज को आचार्य पद प्रदान करने की घोषणा कर दी है। अत: उस आचार्य पद प्रदान करने वाले पत्र की नकल साथ में भेज रहे हैं। उसे चतुविध संघ को एकत्रित कर सुना देना। विशेष आचार्य महाराज ने यह भी आज्ञा दी है कि आज से र्धािमक समाज को इन्हें श्री वीरसागर जी महाराज को आचार्य मानकर इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये। लि. गेंदमल बम्बई लि. चांदूलाल ज्योतिचन्द बारामती इस तरह उपर्युक्त आचार्यश्री के आज्ञा पत्र को सुनकर जयपुर जैन समाज ने पूज्य श्री मुनिराज वीरसागर जी महाराज को आचार्य पद प्रदान करने के समारोह का शीघ्र ही निश्चय किया और खान्या की नशिया में जहाँ पर श्री मुनिराज ससंघ विराजे हुये थे, इसके उपलक्ष में एक विशाल समोशरण मंडल मंडवाकर बड़े समारोह के साथ जिनेन्द्र की पूजन की गई। और अनेक नगरों में आचार्य पद प्रदान समारोह सम्बन्धी पत्रिका भेजी गई। आचार्य पद प्रदान समारोह का शुभ दिन भाद्रपद कृष्णा सप्तमी गुरुवार निश्चय किया गया था। इस पुण्योत्पादक समाचार को सुनकर जयपुर नगर में सहस्रों नर नारी (करीब १५ हजार) एकत्र हुये। भाद्रपद कृष्णा सप्तमी की प्रात:कालीन पावन बेला में उस खानिया नशियां का विशाल प्रांगण सहस्रों नर नारियों से खचाखच भरा हुआ था। श्री पूज्य मुनिराज वीरसागर जी महाराज बीच में एक तख्ते पर उच्चासन पर विराजमान थे। उनके पास ही कुछ नीचे दोनों ओर श्री मुनिराज शिवसागर जी, धर्मसागर जी, पद्मसागर जी, ऐलक अजितसागर जी, गुप्तसागर जी एवं क्षुल्लक चिदानन्द जी महाराज आदि निग्र्रंथ साधु एवं उच्च त्यागीगण विराजे हुये थे। इनके पास ही कुछ दूर एक पृथक््â तख्ते पर बीच में आर्यिकाओं में सर्वप्रथम दीक्षित बड़े माताजी के नाम से विख्यात श्री पूज्य आर्यिका वीरमती जी दृष्टिगत हो रहे थे। उनकी दोनों ओर भी सिंहनिष्क्रीड़ित, मेरु पंक्ति, आचाम्ल आदि अनेक व्रतों के करने वाली श्री आर्यिका धर्ममति जी, एवं सुमतिमति जी, पाश्र्वमति जी, सिद्धमति जी, शान्तिमति जी, वासुमति जी, ज्ञानमति जी बैठे हुये थे। इनके समीप ही सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी वर्ग एवं व्रतीगण भी यथास्थान बैठे हुये थे। ज्यों ही घड़ी ने चार बजाकर ठीक समय समय हो जाने का संकेत किया त्यों ही सर्वप्रथम श्रीमान् पं. इन्द्रपाल जी शास्त्री उठे और पूज्य श्री को नमोस्तु किया एवं चरण स्पर्श करते हुये उनके समीप ही खड़े होकर श्री पूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज के द्वारा भिजवाया गया आचार्य पद प्रदान पत्र इस तरह से पढ़ना शुरू किया— वुंâथलगिरि ता. २४—८—१९५५ स्वस्ति श्री चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की आज्ञानुसार यह आचार्यपद प्रदान पत्र लिखा जाता है। ‘‘हमने प्रथम भाद्रपद कृष्णा ११ रविवार ता. २४—८—१९५५ से सल्लेखना व्रत लिया है। अत: दिगम्बर जैनधर्म और श्री कुन्दकुन्ददाचार्य परम्परागत दिगम्बर जैन आम्नाय के निर्दोष एवं अखण्डरीत्या संरक्षण तथा संवर्धन के लिये हम आचार्य पद प्रथम निग्र्रंथ शिष्य श्री वीरसागरजी मुनिराज को आशीर्वादपूर्वक आज प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् दो हजार बारह, बुधवार के प्रभात के समय त्रियोग शुद्धिपूर्वक सन्तोष से प्रदान करते हैं।’’ आचार्य महाराज ने श्री पूज्य वीरसागर जी महाराज के लिये इस प्रकार आदेश दिया है। इस पद को ग्रहण करके तुमको दिगम्बर जैन धर्म तथा चर्तुिवध संघ का आगमानुसार संरक्षण तथा संवर्धन करना चाहिये। ऐसी आचार्य महाराज की आज्ञा है। आचार्य महाराज ने आपको शुभाशीर्वाद कहा है। इति वर्धताम् जिन शासनम् लिखी—गेंदमूल बम्बई—त्रिवार नमोस्तु लिखी—चन्दूलाल ज्योतिचंद बारामती—त्रिवार नमोस्तु उपर्युक्त आचार्य पद प्रदान पत्र को सुनते हुये विशाल जन—समूह में एकदम शान्ति छाई हुई थी। इस समय श्री १०८ शिवसागर जी महाराज अपने स्थान से उठते हैं और ज्योंहि आचार्यश्री पू. शान्तिसागर जी महाराज के द्वारा भेजे गये पीछी एवं कमण्डलु को श्री पूज्य मुनिराज वीरसागर जी महाराज के कर—कमलों में सर्मिपत करते हैं, त्योंहि विशाल जन—समूह से आचार्य वीरसागर जी महाराज की जय के महान् उद्घोत से आकाश मण्डल व्याप्त हो जाता है, श्रावकगण भक्तिपूर्वक जय—जयकार बोलते हुए नहीं अघाते हैं। वह पावन बेला महान् थी, जिसमें जैन समाज ने नूतन आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के महान् नेतृत्व को प्राप्त किया। पूज्य श्री वीरसागर जी महााज ने आज तक भी किसी को अपने नाम के आगे अपने गुरु की मौजूदगी में आचार्य पद नहीं लगाने दिया मद्यपि यह विशाल संघ के अधिपति थे। वास्तव में यह आपकी अतिशय गुरुभक्ति एवं महानता का द्योतक है। और अब भी आपने इस महान् उत्तरदायित्व पूर्ण पद को मात्र गुरु की आज्ञा समझकर स्वीकार किया है। ऐसे पुनीत आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के चरण कमलों में हमारा बारम्बार नमोस्तु। पा सब श्रावक गण इक मंडल रम्य मंडाया। भेज पत्रिका सब नगरों में जनता को बुलवाया।। द्वितीय भादवा वदि सातैं गुरुवर तभी शुभ आया। संघ सहित मुनिराज विराजे श्रावकगण बहु आया।। पीछी और कमंडलु गुरु को देकर पूज्य निशानी। सूरी पदवी पत्र सुनाया गुरुवर ने सब जानी।। वीर िंसधु मुनिराज तभी तहं गुरु आज्ञा शिर नाई। लेकर पीछी और कमंडलु सूरी पदवी पाई।। वीर िंसधु आचार्य गुरु की सब जन जय—जय बोले। तब श्री मुनि आचार्य हुये सूरीश्वर आज्ञा को ले।। छोड़ गपे श्री शांतििंसधु मुनि हा यह नश्वर काया। द्वितीय भाद्रपद द्वितीया के दिन श्री मुनि सुरपद पाया।।
।।दोहा।।
सुन सन्नाटा छा गया, गुरु वियोगआचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज ने ३६ दिन की महान् सल्लेखना के बाद १८ सितम्बर १९५५ को शाम के ६—५० पर सुर पद प्राप्त किया। आपके इस दु:खद वियोग से संतप्त भारत के करीब सभी बड़े—बड़े नगरों में जैनाजैन जनता ने महान् शोक सभायें कीं, एवं दिवंगत आत्मा को शांत्यर्थ एवं शीघ्र ही अमर पद प्राप्त्यर्थ प्रार्थना कीं। कलकत्ता में तो अपूर्व हड़ताल रही थी। करीब—करीब सभी बड़े—बड़े बाजार बन्द थे। की बात। पर अपना क्यों हो सके, चले न वपु जब साथ।। नगर—नगर बाजार सब, हुये बंद तत्काल। कलकत्ता में तो अहो, हुई आम हड़ताल।। जगह—जगह करके सभा, हुई प्रार्थना जान। शांति होय मृत आत्मा, अन्तिम हो निरवान।।
चरण स्थापना
गीता छंद
श्री वीर सागर आपके स्मरणार्थ नूतन आचार्यश्री पूज्य वीरसागर जी महाराज के उपदेश से राणाजी एवं संघीजी की नशियाँ में मंगसर कृष्णा १ सं. २०१२ में श्री पूज्य शांतिसागर जी महाराज की चरण पादुका आपके ही कर—कमलों द्वारा स्थापित की गई। चरण पादुका का स्थापन समारोह के दिन कुछ और भी दीक्षायें हुर्इं—गुरु विरह से होत मन में अति दु:खी। छत्र छाया थी उन्हों की जासु थे हम सब सुखी।। स्मरणार्थ उनका बने स्मारक अहो उन जतला दिया। गुरु देव के शुभ चरण स्थापन तभी शुभ दिन में किया।।
दोहा
चरण स्थापना के समय, संघस्थ ऐलक श्री पद्मसागर जी, २. जयपुर निवासी श्री गुलाबचन्द जी लोंग्या, ३. श्री मदनलाल जी ब्रह्मचारी, ४. ब्रह्मचारिणी लाडोबाई जी। आप चारों खंडेलवाल जात्युत्पन्न हैं। आपने चरण स्थापना के शुभ मुहूर्तं में ही दीक्षायें ग्रहण की थीं। इसी शुभावसर के कुछ दिन पहले जयपुर निवासी क्षुल्लक धर्मसागर जी ने पूज्य आचार्यश्री से ऐलक दीक्षा ली थी, उनका नाम श्री अजितसागर रखा गया था।कुछ दिक्षायें और। हुई, भविक जन सो सुनो, करके मन इक ठौर।।
।।तर्ज राधेश्याम।।
इक ऐलक तभी पद्म सागर मुनि दीक्षा की मन में ठानी। करके प्रणाम आचार्य श्रेष्ठ को मुनि बने निज निधि पानी।। जयपुर वासी श्री गुलाबचन्द तभी सामने आ करके। क्षुल्लक बन र्हिषत हुये बहुत जय सागर नाम पाय करके।। श्री मदनलाल वर्णी भी तब वैराग्य धार मन में भारी। क्षुल्लक श्री सुमती सागर बन तप करने लगे उग्र भारी।। अरु ब्रह्मचारिणी तभी एक लाडां बाई जल्दी आई। तज सर्व संग श्री वासुमति आर्या बन गुरु महिमा गाई।। वह चरण पादुका समारोह दीक्षा उत्सव में युत होकर। श्रोता मन में समकित कारण बन गया आत्म ज्योति जोकर।।
दोहा
कर विहार यहं से तभी, रेणवाल को जाय। जिन मन्दिर के दर्श कर, गुरुवर बहु हर्षाय।। ढाई द्वीप विधान अरु, वेदी उत्सव सार। चनण पादुका सूरिकी, स्थापन की सुखकार।। फैर लदाना गांव को, जा उपदेश सुनाय। फिर चल माधव राजपुर, आये श्री गुरु राय।। समोसरण मंडल मंडा, ध्वजा कलश चढ़वाय। मंदिर की शोभा अधिक, हुई कही ना जाय।। जिस समय पूज्य आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज इन दोनों बाइयों को दीक्षा देकर ससंघ हजारों जनता के बीच सिंहासन पर विराजमान होकर उपदेश दे रहे थे, उसी समय स्थूल शरीर का धारक भागता हुआ एक सांड भरी सभा में आ गया। लोग उसे देखकर किसी त्यागी व्रती या मनुष्यों को हानि के भय से व्याकुल हो उठे। लोगों ने उसे बहुत रोकने की कोशिश की लेकिन बलवान सांड मनुष्यों की भीड़ को चीरते हुये आचार्यश्री की तरफ वेग से बढ़ने वाला सांड दुष्ट नहीं शिष्ट है। सांड आगे बढ़ता है और आचार्यश्री जिस तख्ते पर विराजमान थे उस पर जाकर अपना सिर टेककर पांच मिनट तक इसी हालत में खड़ा रहता है। आचार्यश्री के चरण वन्दना की महान् भावना को भव्य वृषभ के मन में थी। आचार्यश्री ने उसे भव्य जानकर आशीर्वाद दिया। और जनता ने उसे भक्ति का प्रसाद सुस्वादु मिष्ठान दिया। यह अपूर्व दृश्य देख जैनाजैन जनता बहुत प्रभावित हुई। यह आचार्यश्री की महान् वीररागता का स्पष्ट प्रभाव हैं जिनके चरणों में तिर्यंच भी आकर सहर्ष नतमस्तक होकर अपने को धन्य समझते हैं।‘वीरमती यह क्षुल्लिका, गुरु चरणन शिर नाय। ज्ञानमती आर्या बनी, विदुषी तत् क्षण आय।। अरु प्रभावतीआप दक्षिण प्रान्त में म्हसवड़ गांव वासी तथा बीसा हूमड़ जात्युत्पन्न हैं। श्राविका, भी आकर तत्काल। बनी क्षुल्लिका जिनमति, नम गुरु चरण रसाल।। माधव राजपुरा में भयोत्पादक किन्तु आश्चर्यजनक घटना दोहा मुनिवरआप दिगम्बर जैन अग्रवाल जात्युत्पन्न टिवैâतनगरवासी एक विदुषी महिला हैं। विवाह का परित्याग कर १८ वर्ष की कौमार्य अवस्था में ही विदुषी आर्याओं के पद चिह्नों के अनुसरण कर पूज्य आचार्यश्री से आर्यिका की दीक्षा ग्रहण की। जिन उच्च विचारों के साथ आप दीक्षित हुये हैं हमें आशा है आप पूर्णरीत्या व्रतों का निर्वाह करते हुये जैन धर्म की प्रभावना करेंगे। आपने क्षुल्लिका की दीक्षा देशभूषण जी महाराज से ली थी। का उपदेश जब, होय रहा सुख दाय। सभा बीच में भागकर, सांड एक तब आय।। देख सांड को सर्व जन, व्याकुल हुये महान्। रोका बहुत न रुक सका, था वह बहु बलवान्।। देख दृश्य जनता बहुत, र्हिषत हुई महान्। जय जय की गुरुदेव की, भव्य वृषभ को जान।। गुरु ने तब उस बैल को, दीना आशीर्वाद। जनता ने दीने उसे, बहु लड्डू सुस्वाद।। पूज्य श्री के द्वारा जगह—जगह धर्म प्रभावना एवं श्रावकों के द्वारा व्रत धारण
तर्ज—राधेश्याम
जिन जिन नगरों में गुरु पहुँचे, जन स्वागत खूब ही करते हैं। जैनाजैन प्रभावित होकर, गुरु नम कल्मष हरते हैं।। भव्य अनेकों—महाव्रती—आर्या क्षुल्लक पद पाते हैं। गुरु उपदेश श्रवण कर भविजन, व्रती तभी बन जाते हैं।। धारण करते पंचाणु व्रत, कोई मद्यमांस त्यागी। अष्ट मूल गुण धर केई गुरु, महिमा गाते बड़ भागी।। कोई जन यज्ञोपवीत को, धारण कर खुश होते हैं। केई निशि में अन्न जलादिक, त्याग पाप को खोते हैं।। बहु जन नित प्रति आ चरणों में, सुनते तत्वज्ञान चरचा। शुद्ध भाव युत समकित धरते, करते नित जिनेन्द्र अरचा।। संवत् २०१३ में पुन: खानिया-नशिया (जयपुर) में वर्षायोग दोहा तब विहार गुरुवर किया नगर–नगर बहु जाय। संवत् दोय हजार अरु तेरह में तब आय।। जयपुर खान्या में सही वर्षा काल बिताय। त्यागी व्रती अनेक तहं आ निज धर्म दिपाय।। कितने मुनि त्यागी यहां, हैं सो कहुँ समझाय। जिनका पावन नाम ही, देता दुरित नशाय।। आचार्यश्रीएक ऐलक अजितसागर जी। आदि ले, मुनिवर पांच बताय। क्षुल्लकक्षु. तीन—१. श्री सन्मतिसागर जी, २. श्री चिदानन्दसागर जी, ३. श्री सुमतिसागर जी। तीन रु आर्यिका आर्यिका गयारह—१. श्री पूज्य आर्यिका वीरमती जी, २. श्री पूज्य आर्यिका धर्ममती जी, ३. श्री सुमतिमति जी, ४. श्री पाश्र्वमति जी, ५. श्री सिद्धमति जी, ६. श्री पाश्र्वमतिजी, ७. श्री इन्दुमति जी, ८. श्री विमलमति जी, ९. श्री ज्ञानमतिजी, १०. श्री शान्तिमतिजी, ११. श्री वसुमति जी। ग्यारह हैं सुखदाय।। तीन क्षुल्लिकातीन क्षुल्लिका—१. श्री पूज्य ज्ञानमति जी, २. श्री जिनमती जी, ३. श्री चन्द्रमति जी। हैं सही ब्रह्मचारि अठब्रह्मचारी आठ—१. श्री लाडमल जी, २. श्री कजोड़मल जी, ३. ब्र. श्री राजमल जी, ४. श्री चांदमल जी, ५. श्री दीपचन्द जी, ६. श्री कालूराम जी, ७. श्री माणकचन्द जी, ८. ब्रह्मचारी सूरजमल जी, (इस चरित्र के रचयिता)। जान। ब्रह्मचारिणी धर्म रत, चौदहब्रह्मचारिणी १४—१. श्री कस्तूरीबाई जी, २. श्री गट्टूबाई जी, ३. श्री मलकूबाई जी, ४. श्री भंवरीबाई जी, ५. श्री सोहनबाई जी, ६. श्री मुकुनबाई जी, ७. श्री धूलीबाईजी, ८. श्री दाखाबाई जी, ९. श्री हीराबाई जी, १०. श्रीपतासीबाई जी, ११. श्री उद्दीबाई जी, १२. श्री गुलाबाई जी, १३. श्री मदीबाई जी, १४. श्री मलकूबाई जी। संख्या मान।। ये सब रहते संघ में, साधे धर्म महान। और अनेकों ही व्रती, श्री गुरु चरण में आन।। जैन धर्म जयवंत हो, जयवंतो जिनराज। वीर सिन्धु आचार्यश्री, जयवंतो सुखसाज।। वीर सिन्धु आचार्य का यह चरित्र मनलाय। पढ़े सुने जो भवि सुने, निश्चय शिव फल पाय।। लघुता प्रकाशन अल्प बुद्धि से प्रमाद से, शब्द अर्थ में दोष। हुवा अगर तो शुद्ध कर, पढ़ो करो ना रोष।। इति शुभम् भूयात् ग्रंथकार परिचय दोहा मालव प्रांत प्रसिद्ध है, नगर जमोन्या जान। विविध धान्य फुले फले, जंबूवृक्ष महान्।। वन उपवन बहु रम्य अति,कूप नदी लहरात। वैश्य पती जिन भक्त तहं, मथुरा लाल रहात्।। पद्मावती पुरवाल हैं, जैन दिगम्बर धर्म। पालन करते शांति से, नशें जगत ज्यों भर्म।। धर्मरता महताब बा—ई तिन पत्नी नाम। दान धर्म पूजा निरत, रहे नित्य सुख धाम।। तीन पुत्र तिन के हुये, पुत्री छह गुणवान। सुता पंच सुत दो रहे, और दिवंगत जान।। ज्येष्ठ भ्रात निज देश में, करते हैं व्यापार। गोपीलाल सुनाम है, सहित कुटुम्ब परिवार।। कस्तूरीबाल विधवा लघु बहिन। अष्ट वर्ष की अवस्था में—वैधव्य अवस्था को प्राप्त बहिन कस्तूरी बाई और मैं दोनों इस संघ में संवत् १९९५ में आये थे। विक्रम संवत् २००० में श्री सिद्ध क्षेत्र सिद्धवर वूâट में कस्तूरी बाई ने और विक्रम संवत् २००१ मिती र्काितक शुक्ला अष्टमी की मैंने उज्जैन नगरी में पूज्य आचार्यश्री के कर कमलों से सप्तम प्रतिमा के व्रत लिए थे। बाई बहिन लघु सूत सूरज मल्ल। ये दोनों घर से चले, ज्यों नाशे जग शल्ल।। दर्श किये जयर्कीित मुनि, रहे उन्हीं के पास। एक वर्ष में ही ऋषी किया स्वर्ग में वास।। तारण तरण गुरु, मिले, वीर िंसधु गुण खान। सप्तम प्रतिमा दी सही, दोनों को भवि जान।। तब से गुरुवर िंढग रहे, सेवें धर्म अरु ध्यान।। यही भावना नित रहे, हो समाधि सुख खान।। वीर िंसधु आचार्य का, यह चरित्र सुख दाय। लिखा भक्ति वश, भव्य जो, पढ़े सुने शिव पाय।।
आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की जयटिप्पणी ९६. संवत् २०१२ में श्री पूज्य १०८ चारित्र चक्रवर्ती श्री आचार्य शान्तिसागरजी महाराज में कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र में वर्षायोग धारण किया। यों तो आपकी आँखों में बहुत दिनों से मोतियाबिन्दु बन रहा था, किन्तु इस चातुर्मास में उसके कारण अत्यधिक दृष्टि मंद हो चली थी। दृष्टि मंद हो जाने पर निरतिचार संयम नहीं पलता है, अत: अपने संयम की रक्षा के लिये श्री परमपूज्य देशभूषण कुलभूषण भगवान् के पादमूल में यम सल्लेखना धारण कर ली। इस सल्लेखना का समय १४ अगस्त १९५५ से १८ सितम्बर १९५५ तक ३ दिन का था। इन ३६ दिनों में ४ सितम्बर तक आचार्यश्री ने केवल १० बार जल ग्रहण किया था। इसके बाद अन्न जल का सर्वथा त्याग कर दिया था। सचमुच आचार्यश्री के द्वारा स्वीकृत की गई ३६ दिन की महान् सल्लेखना एक ऐतिहासिक घटना थी जो संसार में आश्चर्य का विषय बन गई। जैन पत्रों के सिवाय हिन्दुस्तान नवभारत टाइम्स आदि कई भारतीय पत्रों में भी आपकी अपूर्व सल्लेखना सम्बन्धी समाचार नित्य प्रकाशित होते थे। आचार्यश्री इसके द्वारा सिद्ध कर दिया कि संहननहीन होते हुए भी इस पंचमकाल में दिगम्बर जैन साधु तपस्या में चतुर्थ कालीन मुनियों से कम नहीं होते। वर्तमान में भी दिगम्बर जैन साधु चतुर्थकालीन मुनियों के समान पूष्ज्य हैं। कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर अन्तिम दर्शनार्थ हजारों जैनाजैन जनता उमड़ पड़ी। आपने अन्तिम समय में जैन समाज को सम्बोधन करते हुये ४० मिनट तक उपदेश भी दिया था जो रेकार्ड किया गया है। इस तरह सल्लेखना के समय आपने अपने शरीर की अन्तिम अवस्था जानकर यह विचार किया कि यह आचार्य पद किसे दिया जाये। इसको सम्भालने वाला कोई दूरदर्शी, चारित्रवान् एवं विद्वान् होना चाहिये ताकि पूज्य श्री १०८ श्री कुन्दकुन्दाचार्य की शिष्य परम्परा बनी रहे। और उसी सर्वश्रेष्ठ आचार्य की आज्ञा में चलते हुए भव्यजीव अपने आत्मस्वरूप को पहचानते हुए आत्म—कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते रहें। १०३. आचार्य पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज, २. मुनिवर श्री पूज्य शिवसागर जी महाराज, ३. श्री धर्मसागर जी महाराज, ४. श्री पद्मसागर जी महाराज, ५. श्री जयसागर जी महाराज।
आचार्य श्री वीरसागर स्मृति ग्रंथ पेज नं. २२८ से २८१