श्री वीरसागर जी महाराज के शिष्य एवं द्वितीय पट्टाधीश
आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज का परिचय
लेखिका—आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी
(संघस्थ- आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी महाराज)
जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होकर भी सबको प्यारा लगता है तथा हवा उसकी सुगन्ध को सब दिशाओं में फैला देती है, उसी प्रकार आचार्यश्री शिवसागर महाराज ने भी छोटे से गाँव में जन्म लेकर सम्यक् चारित्र की निष्ठता से, आचार्य के सम्पूर्ण गुणों से सुशोभित होते हुए उन गुणों तथा अपनी चर्या के द्वारा गाँव—गाँव को प्रभावित किया था। आप घोर तपस्वी व वाग्मी भी थे। वर्तमान शताब्दी की दिगम्बर जैनाचार्य परम्परा के द्वितीय पट्टाधीश परमपूज्य प्रात: स्मरणीय परम तपस्वी, बाल ब्रह्मचारी आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज थे। आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के समय में भारतवर्ष में साधु संघ का आदर्श प्रस्तुत हुआ था। आपने आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज द्वारा आर्षमार्गानुसार प्रस्थापित परम्परा को अक्षुण्ण तो बनाये ही रखा, साथ ही संघ में अभिवृद्धि कर संघानुशासन का आदर्श भी उपस्थित किया। भारतवर्ष का सम्पूर्ण जैनजगत आपके आदर्श संघ के प्रति नतमस्तक था। साधु समुदाय में ज्ञान—जिज्ञासा एवं उसकी प्राप्ति की सतत लगन के साथ चारित्र का उच्चादर्श देखकर विद्वद्वर्ग भी संघ के प्रति आकृष्ट था और प्रबुद्ध साधुवर्ग से अपनी शंकाओं के समाधान प्राप्त कर आनन्द प्राप्त करता था।
दिगम्बर मुनिधर्म की अविच्छिन्न धारा से
दिगम्बर मुनिधर्म की अविच्छिन्न धारा से सुशोभित, दक्षिण भारत के अन्तर्गत, वर्तमान महाराष्ट्र प्रान्तस्थ औरंगाबाद जिले के अड़गांव ग्राम में रांवका गोत्रीय खण्डेलवाल श्रेष्ठि श्री नेमीचन्द्र जी के गुहांगण में माता दगड़ाबाई की कुक्षि से वि. सं. १९५८ में आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम हीरालाल रखा गया था। आप दो भाई थे, दो बहिनें भी थीं। प्रतिभावान् व कुशाग्रबुद्धि होते हुए भी साधारण आर्थिक स्थिति के कारण आप विशेष शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाए। औरंगाबाद जिले के ही ईरगाँव वासी ब्र. हीरालाल जी गंगवाल (स्व. आचार्यश्री वीरसागर जी) आपके शिक्षागुरु रहे। निकटस्थ अतिशयक्षेत्र कचनेर के पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन विद्यालय में आपका प्राथमिक विद्याध्ययन हुआ। धार्मिक शिक्षा के साथ—साथ हिन्दी का तीसरी कक्षा तक ही आपका अध्ययन हो पाया था कि अचानक महाराष्ट्र प्रांत में फैली प्लेग की भयंकर बीमारी की चपेट में आपके माता—पिता का एक ही दिन स्वर्गवास हो गया। माता—पिता की वात्सल्यपूर्ण छत्रछाया में बालक अपना पूर्ण विकास कर पाता है, किन्तु आपके जीवन के तो प्राथमिक चरण में ही उसका अभाव हो गया। इसका प्रभाव आपके विद्याध्ययन पर पड़ा। आपके बड़े भाई का विवाह हो चुका था, किन्तु विवाह के कुछ समय बाद ही उनका भी देहान्त हो जाने के कारण १३ वर्षीय अल्पवय में ही आप पर गृहस्थ संचालन का भार आ पड़ा। कुशलतापूर्वक आपने इस उत्तरदायित्व को भी निभाया। माता—पिता एवं बड़े भाई के आकस्मिक वियोग के कारण संसार की क्षणस्थायी परिस्थितियों ने आपके मन को उद्वलित कर दिया। फलस्वरूप, गृहस्थी बसाने के विचारों को मन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया। विवाह के प्रस्ताव प्राप्त होने पर भी आपने सदैव अपनी असहमति ही प्रकट की। आप आजीवन ब्रह्मचारी ही रहे। २८ वर्ष की युवावस्था में असीम पुण्योदय से आपको आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के दर्शन करने का मंगल अवसर मिला तथा उसी समय आपने यज्ञोपवीत धारण कर द्वितीय व्रत—प्रतिमा ग्रहण की। महामनस्वी चा. च. आचार्यश्री के द्वारा बोया यह व्रतरूप बीज आ. श्री वीरसागर जी महाराज के चरण सानिध्य में पल्लवित पुष्पित हुआ। वि. सं. १९९९ की बात है, अब तक आपके आद्य विद्यागुरु ब्र. हीरालाल जी गंगवाल आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज से मुनि दीक्षा ग्रहण कर चुके थे और मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र पर विराजमान थे। आपने उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए तथा ब्रह्मचारी अवस्था में संघ में प्रवेश किया। बाल्यावस्था से ही आपकी स्वाध्याय की रुचि थी। वह अब और तीव्रतर होने लगी अत: आप विभिन्न ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। ‘‘ज्ञानं भार: क्रियां बिना’’ की उक्ति आपके मन को आन्दोलित करने लगी। आपके मन में चारित्र ग्रहण करने की उत्कट भावना ने जन्म लिया। आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज का जब सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र पर ससंघ पहुँचना हुआ तब आपने वि. सं. २००० में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आपको क्षु. शिवसागर नाम प्रदान किया गया। अद्भुत संयोग रहा हीरालाल जी का। गुरु और शिष्य दोनों ही हीरालाल थे। यह गुरु—शिष्य संयोग वीरसागर जी महाराज की सल्लेखना तक निर्बाधरूप से बना रहा। निरन्तर ज्ञान—वैराग्य की अभिव्यक्ति ने आपको निग्र्रन्थ—दिगम्बर दीक्षा धारण करने के लिए प्रेरित किया। फलस्वरूप वि. सं. २००६ में नागौर नगर में आषाढ़ शुक्ला ११ को आपने आचार्यश्री वीरसागर जी के पादमूल में मुनि दीखा ग्रहण की। वर्तमान पर्याय का यह आपका चरम विकास था। अब आप मुनि शिवसागर जी थे। मुनिदीक्षा के पश्चात् ८ वर्ष पर्यंत गुरु सन्निधि में आपकी योग्यता बढ़ती चली गई। आपने गुरुदेव के साथ श्री सम्मेदशिखरजी सिद्धक्षेत्र की यात्रा वि. सं. २००९ में की। जब वि. सं. २०१४ में आपके गुरु का जयपुर खानियाँ में समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास हो गया तब आपको आचार्यपद प्रदान किया गया। इस अवधि में आपक ज्ञान भी परिष्कृत हो चुका था। आपने चारों अनुयोग सम्बन्धी ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था। तथा अनेक स्तोत्र पाठ, समयसार कलश, स्वयम्भूस्तोत्र समाधितन्त्र, इष्टोपदेश आदि संस्कृत रचनाएँ कण्ठस्थ भी कर ली थीं। मातृभाषा मराठी होते हुए भी आप हिन्दी अच्छी बोल लेते थे।
वि. सं. २०१४ में ही आचार्यपद ग्रहण के पश्चात्
वि. सं. २०१४ में ही आचार्यपद ग्रहण के पश्चात् आपने ससंघ गिरिनार क्षेत्र की यात्रा की। उसके बाद क्रमश: व्यावर, अजमेर, सुजानगढ़, सीकर, लाडनूं खानिया (जयपुर) पपौरा, महावीरजी, कोटा, उदयपुर और प्रतापगढ़ में चातुर्मास किए। इन वर्षो में आपके द्वारा संघ की अभिवृद्धि के साथ—साथ धर्म की प्रभावना भी हुई। ११ वर्षीय इसी आचार्यत्व काल में आपने अनेक भव्य जीवों को मुनि, र्आियका, ऐलक, क्षुल्लक—क्षुल्लिका पद की दीक्षाएँ प्रदान कीं तथा सैकड़ों श्रावकों को अनेकविध व्रत, प्रतिमा आदि ग्रहण कराकर मोक्षमार्ग मे अग्रसर किया। आपके सर्वप्रथम दीक्षित शिष्य मुनि ज्ञानसागर जी महाराज थे। उसके अनन्तर आपने ऋषभसागर जी, भव्यसागर जी, अजितसागर जी, सुपाश्र्वसागर जी, श्रेयांससागर जी, सुबुद्धिसागर जी को मुनिदीक्षा प्रदान की। आपने सर्वप्रथम आर्यिकादीक्षा चन्द्रमती जी को प्रदान की। उनके बाद क्रमश: पद्मावती जी, नेमामती जी, विद्यामती जी, बुद्धिमती जी, जिनमती जी, कनकमती जी, भद्रमती जी, कल्याणमती जी, सुशीलमती जी, सन्मतीजी, धन्यमती जी, विनयमती जी एवं श्रेष्ठमती जी आदि को र्आियका दीक्षा दी। आपके द्वारा दीक्षित सर्वप्रथम क्षुल्लक शिष्य सम्भवसागर जी थे, साथ ही आपने शीतलसागर जी, यतीन्द्रसागर जी, धर्मेद्रसागर जी, भूपेन्द्रसागर जी व योगीन्द्रसागर जी को भी क्षुल्लक के व्रत दिए। क्षुल्लक धर्मेन्दसागर जी को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपने मुनि दीक्षा दी थी। ऐलक अभिनन्दनसागर जी आपके द्वारा अन्तिम दीक्षित भव्यप्राणी हैं। सुव्रतमती क्षुल्लिका भी आपसे ही दीक्षित थीं। इसके अतिरिक्त तीन भव्य प्राणियों को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपसे मुनिदीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य मिला था। वे थे आनन्दसागर जी, ज्ञानानंदसागर जी तथा समाधिसागर जी। इन तीनों ही साधुओं की सल्लेखना आपकी सन्निधि में ही हुई थी।
जयपुर में सर्वप्रथम दर्शन
मैंने सर्वप्रथम आपका दर्शन जयपुर (खानियाँ) में किया था। मैं अपनी माँ के साथ चौका लेकर वहाँ गयी थी। उस समय करीब एक माह तक मैं वहाँ ठहरी थी। महाराज श्री के उपदेशामृत का पान भी किया वह आहारदान भी दिया था। लेकिन उस समय मुझे यह पता नहीं था कि मैं आगे जाकर इनकी शिष्या बनूंगी। इतना जरूर था कि उस समय आ. १०५ ज्ञानमती माताजी, जिनमती माताजी आदि को शास्त्र—स्वाध्याय, धर्म—चर्चा करते हुए देखती थी तो मन में यह भाव पैदा होते थे कि मुझे भी बचपन से ही साधु समागम मिलता तो मैं भी गृहस्थी के कीचड़ में न फसते हुए, साध्वी बनकर धर्म—ध्यान में अपना अमूल्य समय का सदुपयोग करती। ‘‘जहाँ इच्छा होती है वहां मार्ग अवश्य मिलता है।’’ इस कहावत के अनुसार उसी समय परम पू. आ. १०८ श्री वीरसागर जी के अन्तिम स्मरणार्थ व अपना आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो इसलिए इन्जेक्शन लगवाने का मैंने जीवन पर्यंत त्याग कर दिया। वहां से आने पर यह प्रतिज्ञा कर ली कि जब घर में बहू आ जायेगी तब मैं जरूर घर त्याग कर, आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ध्यानाध्ययन में अपना समय बिताऊँगी। जैसी भावना होती है, वैसा अवसर भी प्राप्त होता है। अपने दृढ़ संकल्प के अनुसार गृह में बहू आते ही हम दोनों दम्पत्ती ने ‘‘श्री सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी’’ पहाड़ पर ‘‘श्री १००८ चन्द्रप्रभु’’ प्रतिमा के सामने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का नियम ले लिया। पैठण के पंचकल्याणक में सन् १९६३ माघ महीने के दिन सप्तम प्रतिमा के व्रत पू. १०८ श्री सुपार्श्वसागर जी महाराज जी से ग्रहण किए। पुण्य योग से उन्हीं महाराज जी को सम्मेदशिखर जी की यात्रा कराने का निश्चय किया। पूर्व निश्चय के अनुसार हम दोनों ही ने पू. महाराज श्री, क्षुल्लिका १०५ कुन्दमती माताजी को लेकर सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए फाल्गुन शुक्ल अष्टान्हिका में घर से प्रस्थान किया। ब्र. फूलचन्द जी (मेरे गृहस्थावस्था के पति) नांदगांव से पैदल यात्रा करते हुए चालीसगांव में महाराज श्री को मिले। हमने सोचा कि ये सब पैदल यात्रा करते हैं, और हमें तो चौका करना है इसीलिए हम पैदल नहीं चल सकते हैं। लेकिन यह सोचा कि संघ में मोटर गाड़ी हुई तो उसमें बैंठेंगे, बैलगाड़ी में नहीं बैठेंगे। यह नियम चालीस गांव की स्टेशन पर उतरते ही किया था। पश्चात् स्टेशन से पैदल चलकर मन्दिर में महाराजश्री के पास जाकर बैलगाड़ी में यात्रा के लिए बैठने का त्याग कर दिया। हमारे भाग्योदय से श्री सम्मेदशिखर जी पहुँचने तक संघ का बैलगाड़ी से ही प्रवास हुआ, अत: मुझे पैदल चलने का सौभाग्य मिल गया। हम सब आषाढ़ शुक्ल ग्यारस के दिन सम्मेदशिखर पहुँच गये। वहां महराज श्री की दो वन्दना होने पर हमने भी वन्दना की और चौदस को चातुर्मास की स्थापना होने के बाद हम भी वापिस घर आ गये
संघ में पुनः प्रवेश
कुछ दिन के पश्चात् हम दोनों ने वापिस मुक्तागिरि की यात्रा करके पावापुर में निर्वाण लाडू चढ़ाकर वापिस सम्मेदशिखर जी गये। महाराज श्री को वहां से विहार कराने और दक्षिण की तरफ लाने के लिए पहुँचे। कार्तिक की अष्टान्हिका पर्व में फिर एक वन्दना करके कार्तिक—पूर्णिमा का कलकत्ता का रथोत्सव देखा। वापिस आकर महाराज श्री का विहार वहां से खजुराहों की तरफ हुआ। खजुराहों पहुँचने के बाद मालूम हुआ कि प. पू. आ. शिवसागर जी का संघ निकट के बण्डा गांव में है। तब परम पूज्य मुनिश्री १०८ सुपाश्र्वसागर जी ने हमको आचार्यश्री के संघ के दर्शन करना है यह अपना भाव व्यक्त किया। क्योंकि उस समय उनको बारह वर्ष की यम सल्लेखना लिए हुए समय में से १० वर्ष पूर्ण हो गये थे शेष अब दो ही वर्ष बाकी थे। उन्होंने कहा— मुझे अब आचार्यश्री के चरण कमलों का दर्शन करना ही है उसके बिना आगे कहीं भी विहार नहीं करना है। उनकी इस प्रकार दर्शनार्थ तीव्र भावना देख हम बण्डा ग्राम आचार्यश्री के दर्शनार्थ पहुँचे। उस समय उनके संघ में परम पूज्य १०८ मुनिश्री अजितसागर जी, श्रुतसागर जी, जयसागर जी महाराज आदि अनेक मुनि र्आियका थे। संघ विहार करते हुये बण्डा से सागर आ गया। आचार्य श्री से एक दिन ब्रह्मचारी फूलचन्द जी बोले, मैं दीक्षा अवश्य ग्रहण करूंगा लेकिन सीधी मुनि दीक्षा ही ग्रहण करूंगा। उस समय हमने आचार्यश्री से कहा—आप जब उन्हें दीक्षा देंगे तब हम भी पीछे रहने वाले नहीं हैं। हमको भी आर्यिका दीक्षा लेना ही है। आचार्यश्री ने मंजूर किया। और कहा—महावीर जी के पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में तुमको दीक्षा देंगे। हम सागर से घर आ गए। आने के बाद घर का सारा कार्य निपटा कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा शुरू होने के ८ दिन पहले महावीर जी पहुँच गये। भगवान् का दीक्षा कल्याणक का शुभ मुहूर्त था, वह दिन वैशाख शुक्ल ग्यारस मंगलवार थी। पहले सन् १९३८ को वैशाख शुक्ल ग्यारस ता. ११-५-३८ मंगल के दिन ही विवाह शृंखला में बन्धे थे और २७ वर्ष बाद ता. ११-५-६५ को बैशाख शुक्ल ग्यारस मंगल के दिन उसी शृंखला को (११-५-६५) को तोड़कर मुक्तिमार्ग में लग गये। आचार्यश्री ने ब्रह्मचारी जी का मुनि दीक्षा में श्रेयांससागर एवं मेरा र्आियका पद में श्रेयांसमती नाम रखा। हमारे साथ ही क्षुल्लिका कुन्दनमती माताजी की र्आियका दीक्षा हुई और उनका नाम परम पूज्य १०५ र्आियका अरहमती घोषित किया गया। और भी दो ब्रह्मचारिणी की दीक्षा हुई। उनमें से प्रथम का नाम आचार्य कनकमती और दूसरी क्षुल्लिका कल्याणमती बनी थीं। आपके आचार्यत्वकाल में संघ विशालता को प्राप्त हो चुका था। उसकी व्यवस्था संबंधी सारा संचालन आप अत्यन्त कुशलतापूर्वक करते थे। कृशकाय आचार्यश्री का आत्मबल बहुत दृढ़ था। तपश्चर्या की अग्नि में तपकर आपके जीवन का निखार वृधिगत होता जाता था। आपके कुशल नेतृत्व से सभी साधुजन संतुष्ट थे। न तो आपको छोड़कर कोई जाना ही चाहता था और न आपने आत्मकल्याणार्थी किसी साधु या श्रावक को कभी संघ से जाने के लिए कहा। आपका अनुशासन अतीव कठोर था। संघ में कोई भी त्यागी आपकी दृष्टि में लाये बिना श्रावकों से अल्प से अल्प वस्तु की भी याचना नहीं कर सकता था। संघ व्यवस्था सुचारू रीत्या चले, इसके लिए प्राय: र्आियका वर्ग में एक या दो प्रधान र्आियकाओं की नियुक्ति आप कर दिया करते थे। साधुओं के लिए आपके सहयोगी थे संघस्थ मुनिश्री श्रुतसागर जी महाराज। अनुशासन की कठोरता के बावजूद आपका वात्सल्य इतना अधिक था कि कोई शिष्य आपके जीवनकाल में आपसे पृथक् नहीं हुआ। संघ का विभाजन आपकी सल्लेखना के पश्चात् ही हुआ। आपने एक विशाल संघ का संचालन करते हुए भी कभी आकुलता का अनुभव नहीं किया।
आपके आचार्यत्व काल में सबसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न
आपके आचार्यत्व काल में सबसे महत्वपूर्ण एवं सफल कार्य हुआ ‘‘खानियाँ तत्त्व चर्चा’’। पिछले दो दशकों से चले आ रहे सैद्धान्तिक द्वन्द से आपके मन में सदैव खटक रहती थी। उसे दूर करने का प्रयत्न किया आपने सोनगढ़ पक्षीय व आगमपक्षीय विद्वानों के मध्य तत्त्वचर्चा का आयोजन करवाकर। आपकी मध्यस्थता में होने वाली इस तत्त्वचर्चा का फल तो विशेष सामने नहीं आया, किन्तु आपकी निष्पक्षता के कारण उभयपक्षीय विद्वान आमने—सामने एक मंच पर एकत्र हुए और उन्होंने अपने—अपने विचारों का आदान—प्रदान अत्यन्त सौम्य वातावरण में किया। इस तत्त्वचर्चा यज्ञ में सम्मिलित आगन्तुकों में प्राय: सभी उच्चकोटि के विद्वान थे। पंडित वैलाशचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य वाराणसी, पं. फूलचंद्रजी सिद्धान्तशास्त्री, पं. मक्खनलालजी शास्त्री, पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य, पं. रतनचंदजी मुख्तार आदि विद्वानों ने परस्पर बैठकर संघ—सानिध्य में चर्चा की थी। इस चर्चा को खानियां तत्त्वचर्चा नाम से २ भागों में सोनगढ़ पक्ष की ओर से टोडरमल स्मारक वालों ने प्रकाशित किया है। चर्चा के सम्बन्ध में पं. वैâलाशचन्द्रजी ने अपना अभिमत जैन संदेश (अंक ७ नव. १९६७) के सम्पादकीय में लेख में लिखा था कि ‘‘इस (खानियाँ तत्वचर्चा’) के मुख्य आयोजक तथा वहाँ उपस्थित मुनिसंघ को हम एकदम तटस्थ कह सकते हैं, उनकी ओर से हमने ऐसा कोई संकेत नहीं पाया कि जिससे हम कह सके कि उन्हें अमुक पक्ष का पक्ष है। इस तटस्थ वृत्ति का चर्चा के वातावरण पर अनुकूल प्रभाव रहा है।’’
आचार्य स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं
आचार्य स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं और शिष्यों से भी उसका पालन करवाते हैं। शिष्यों पर अनुग्रह और निग्रह आचार्य परमेष्ठी की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता है। अत: आचार्यपद के नाते आप अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए इस बात का सदैव ध्यान रखते थे कि संघस्थ साधु समुदाय आगमोक्त चर्या में रत है या नहीं। आपकी पारखी दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म थी, आत्मकल्याण इच्छुक कोई नवीन व्यक्ति संघ में आता और दीक्षा की याचना करता तो यदि वह आपकी पारखी दृष्टि में दीक्षा का पात्र सिद्ध हो जाता तो ही वह दीक्षा प्राप्त कर सकता था, अन्यथा नहीं। जिस व्यक्ति को जनसाधारण शीघ्र दीक्षा का पात्र नहीं समझता वह व्यक्ति आचार्यश्री की दृष्टि से बच नहीं पाता था। उसकी क्षमता परीक्षण के पश्चात् ही उसे योग्यतानुसार क्षुल्लक, मुनि आदि दीक्षा आपने प्रदान की। विद्वानों का आकर्षण भी आपके एवं संघस्थ गहनतम स्वाध्यायी साधुओं के प्रति था इसीलिए प्रात: प्रत्येक चातुर्मास में संघ में कई–कई दिनों तक विद्वत्वर्ग आकर रहता था और सभी अनुयोगों की सूक्ष्म चर्चाओं का आनन्द लेता था। बातचीत के बीच सूत्ररूप वाक्यों के प्रयोग द्वारा बड़ी गहन बात कह जाना आचार्यश्री की प्रकृति का अभिन्न अंग था। कुल मिलाकर आचार्यश्री अपूर्व गुणों के भण्डार थे। वि. सं. २०२५ का अन्तिम वर्षायोग आपने प्रतापगढ़ में किया था। वहाँ से फाल्गुन माह में होने वाली शांतिवीर नगर महावीरजी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए आप ससंघ श्री महावीरजी आये थे। यहां आने के कुछ ही दिन बाद आपको ज्वर आया और ६—७ दिन के अल्पकालीन ज्वर में ही आपका समस्त संघ की उपस्थिति में फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को दिन में लगभग ३ बजे समाधिमरण हो गया। आपके इस आकस्मिक वियोग से साधु संघ ने वङ्कापात का सा अनुभव किया। ऐसा लगने लगा कि जिस कल्पतरु की छत्रछाया में विश्राम करते हुए भवताप से शान्ति का अनुभव होता था, उनके इस प्रकार अचानक स्वर्गवास हो जाने से अब ऐसी आत्मानुशासनात्मक शान्ति कहां मिलेगी ?
‘‘मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरते न बचावे कोई’’
मानो इस लिखे हुए वाक्य को सत्य करने के लिए उस फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को प्रात:काल नित्य क्रिया के बाद सभी संघ के आहार हो गये। उस दिन भी अन्त में आचार्यश्री आहार के लिए निकले, उनको भी पता नहीं था कि मुझे आज ही इस देह को और संघ को छोड़ना पड़ेगा। फाल्गुन कृष्णा ११ को ही मुनि श्री धर्मसागरजी अपने संघ सहित प्रतिष्ठा के लिए आये थे। वे भी वहां उपस्थित थे। उस दिन आचार्यश्री से पानी भी लेते नहीं बना। दोपहर में सामायिक के बाद सभी त्यागीवर्ग चिन्तित होकर कोई उनके कमरे में, कोई पास के कमरे में शास्त्रजी स्वाध्याय के लिए सामने रखकर विचार कर रहे थे कि आचार्यश्री के स्वास्थ्य प्रकृति के लिए अब क्या करना चाहिए। कैसे इनको रत्नत्रय स्वास्थ्य लाभ होगा ? दोपहर के करीब डेढ़ बजे लघु शंका के लिए दो जने हाथ पकड़कर बाहर लाये। लघुशंका करके अपने हाथ से कमण्डलु के पानी से शुद्धि की, हाथ—पैर धोकर कायोत्सर्ग किया और वापिस कमरे में ही पहुँच गये और वहां जाते ही पद्मासन से बैठकर ऊँ णमो सिद्धाणं’का जाप शुरू कर दिया। पास में बैठे हुए सभी लोगों ने भी जोर से जाप बोलना शुरू किया। इस प्रकार जोर से आपकी आवाज सुनते ही हम, श्री श्रेयांससागर जी महाराज जी एवं अन्य सब साधु आचार्यश्री के पास पहुँच गये। ३ बजकर १५ मिनट पर आचार्यश्री की आत्मा इस नश्वर शरीर को छोड़ स्वर्गलोक चली गई। यह बात बिजली जैसी सब ओर फैल गई। जिसने भी यह बात सुनी वह आश्चर्य करता था कि अचानक यह क्या हुआ ? वस्तुत: आचार्यश्री ने अपने गुरु के परम्परागत इस संघ की चारित्र व ज्ञान की दृष्टि से परिष्कृत, परिर्विधत और संचालित किया था। उन जैसे महान् व्यक्तित्व का अभाव आज भी खटकता है। परमपूज्य गुरुदेव श्री आचार्य शिवसागर जी महाराज के चरणयुगलों में परोक्षरूप से कृतिकर्म पूर्वक नमोऽस्तु। क्रोध और शोक से शरीर ही सूखकर दुर्बल होता हो, ऐसी बात नहीं है, किन्तु आत्मा भी भवरोग से ग्रसित हो जाती है किन्तु तपश्चरण से शरीर को सुखाने से आत्मा भवरोग से मुक्त होकर पूर्ण स्वस्थ हो जाती है। अत: जो अच्छा लगे सो ही करना चाहिए।