मालवा प्रदेश के जैन शास्त्र भंडारों में प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की खोज के उद्देश्य से मैंने मार्च १९९२ में एक शोधयात्रा सम्पन्न की। यह यात्रा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राकृत एवं जैनागम विभाग में प्रोफैसर गोगुलचन्द्र जैन के निर्देशन में चल रहीं विभिन्न अनुसंधान योजनाओं के क्रम में आयोजित थी। इसके पूर्व डॉ. ऋषभचन्द्र जैन, डॉ. महेन्द्रकुमार जैन तथा डॉ. कमलेश कुमार जैन, राजस्थान, गुजरात तथा दिल्ली की यात्रायें सम्पन्न कर चुके हैं। इन शोध यात्राओं के परिणामस्वरूप अनेक प्राचीन पाण्डुलिपियाँ देखने को मिलीं, जिनमें से तीन हजार पृष्ठों की जीराक्स कापियाँ प्राप्त कर ली गई हैं। प्राचीन पाण्डुलिपियों के संग्रह की दृष्टि से सामान्यतया प्रत्येक जैन मंदिर का शास्त्र—भंडार महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रत्येक मंदिर में देव, शास्त्र और गुरु की पूजा, प्रतिष्ठा का जैनाचार में विधान है। इसलिये शास्त्र भंडार जैन मंदिर का अभिन्न अंग होता है। यही कारण है कि सुदूर अतीत काल से जैन मन्दिरों में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के प्राचीन आगमों की सहस्रों हस्तलिखित प्रतियाँ ताम्रपत्रों एवं कागज पर तैयार कराकर अत्यन्त श्रद्धा और आदर के साथ सुरक्षित की गई। कालान्तर में अनेक मंदिर पाण्डुलिपियों के पुनर्लेखन के केन्द्र बने। एक ग्रंथ की अनेक प्रतिलिपियाँ कराकर दूसरे शास्त्र भंडारों, मुनिराजों तथा विद्वानों को भेंट की गई। शास्त्रदान की इस प्रशस्त परम्परा के पुण्यफल के रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्राचीन ग्रंथों का विशाल संग्रह हुआ और उसे श्रावक बड़े यत्नपूर्वक हजारों साल से सुरक्षित रखते आए। प्राचीन पाण्डुलिपियों के सुरक्षाक्रम में ही उनकी देशभाषाओं में वचनिका लिखने का क्रम आरम्भ हुआ, जिसमें विशेष रूप से राजस्थान में ढुढ़ारी भाषा में लिखी गई अनेक वचनिकाएँ जिनवाणी के प्रचार—प्रसार के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई हैं। जैन श्रमण संस्कृति तथा ऐतिहासिक दृष्टि से मालवा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। मगध से गुजरात होकर जैन—धर्म मालवा, मध्यदेश होता हुआ दक्षिण भारत पहुँचा। यही कारण है कि अतीत काल से उज्जैन जैन संस्कृति का एक विशिष्ट गढ़ माना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी में श्रद्धेय ऐलक पन्नालाल जी महाराज ने जिनवाणी के संरक्षण के लिये विशेष प्रयत्न किये। अनेक प्राचीन शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ कराकर उन्हें उज्जैन, ब्यावर, झालरापाटन तथा बंबई में सरस्वती भंडार स्थापित करके सुरक्षित किया गया। मेरी इस यात्रा में ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, उज्जैन को मुख्य केन्द्र बनाकर उसके आसपास के शास्त्र भंडारों का सर्वेक्षण कार्यक्रम आयोजित था। वाराणसी से प्रस्थान करने के बाद प्रथम जबलपुर में किया गया। यहाँ कई शास्त्र भंडारों में प्राचीन पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं, किन्तु जब से कतिपय शास्त्र मुद्रित होकर उपलब्ध हो गये हैं, तब से प्राचीन शास्त्रों का रख रखाव और उनके वाचन की परम्परा भी प्रभावित हुई है। जबलपुर में सोलह विशेष दिगम्बर जैन मंदिर हैं तथा निकटवर्ती स्थानों में कोनी जी, बहोरीबन्द, कुण्डलपुर तथा पनागर के जैन मंदिर महत्वपूर्ण हैं। इन सबका सर्वेक्षण थोड़े समय में कर पाना संभव नहीं था। हमने श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर, हनुमानताल तथा श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, लार्डगंज का विशेष रूप से सर्वेक्षण किया। इस कार्य में श्री भीकमचन्द्र जैन, सं. िंस नेमिचन्द्र जैन, श्री रतनचन्द्र जैन, श्री अशोक कुमार जैन, श्री पूरनचन्द्र जैन तथा श्री महेन्द्र कुमार जैन आदि महानुभावों का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ। सर्वेक्षण में जो पाण्डुलिपियाँ देखने को मिलीं, वे मेरी अनुसंधान योजना की दृष्टि से विशेष महत्व की नहीं लगी, अत: उनकी जीराक्स कापी नहीं कराई गई। जबलपुर के बाद सर्वेक्षण का मुख्य केन्द्र उज्जैन था। यहाँ ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में ताड़पत्रों पर कन्नड़ लिपि में लिखित तथा हाथ के बने कागज पर देवनागरी में लिखित हजारों ग्रंथ सुरक्षित हैं। वहाँ के पूर्व व्यवस्थापक पं. दयाचन्द्र जैन ने पाण्डुलिपियों को व्यवस्थित और सुरक्षित रखा है। वर्तमान में प्रभारी व्यवस्थापक श्री राजेन्द्र कुमार जैन अत्यन्त उत्साह और विद्वानों के प्रति सम्मान की भावना से सरस्वती भंडार की पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित रखने, उन्हें देखने के लिये उपलब्ध कराने तथा अपेक्षित होने पर जीराक्स प्रतियाँ उपलब्ध कराने में पूरा सहयोग देते हैं। श्रीमान पं. सत्यधंर कुमार सेठी की सेवायें तथा विद्वानों के प्रति आदरपूर्ण सहयोग दीर्घकाल से समाज को विदित है। वे वृद्धावस्था में भी पूरे उत्साह और प्रयत्न के साथ सरस्वती भवन की सुरक्षा और उपयोग के प्रति सचेष्ट हैं। उक्त दोनों महानुभावों के सहयोग से यहाँ के अनेक प्राचीन शास्त्रों को देखने का अवसर मिला। इनमें से अनुसंधान कार्य के लिये महत्वपूर्ण चार पाण्डुलिपियों की जीराक्स प्रति कराई गई— १. प्रवचनसार २. पंचास्तिकाय, ३. भावनापहुड ४. यतिभावनाष्टक ५. भावनापाहुड वास्तव में आचार्य कुन्दकुन्द का अष्टपाहुड है। उक्त सरस्वती भवन में कन्नड़ लिपि में ताड़पत्रों पर लिखित जो पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं, उनके मूल्यांकन में पर्याप्त समय और श्रम की अपेक्षा है। उज्जैन नगर के अन्य शास्त्र भंडारों में भी प्राचीन पाण्डुलिपियाँ हैं किन्तु इस यात्रा में सबको देखना संभव नहीं हुआ। प्राचीन पाण्डुलिपियों की दृष्टि से माधव कालेज की सिधिया लाइब्रेरी का संग्रह महत्वपूर्ण है, किन्तु यहाँ प्राकृत की पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध नहीं हैं। बिड़ला शोध संस्थान भी प्राच्य विद्या की दृष्टि से महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। प्राकृत के प्राचीन ग्रंथों की दृष्टि से यहाँ कालान्तर में अच्छा संग्रह बनेगा, ऐसी आशा की जा सकती है। उज्जेन के बाद मालबा के दूसरे विशिष्ट नगर इन्दौर को हमने सर्वेक्षण का केन्द्र बनाया। यहाँ नव स्थापित शोध संस्थान कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के संस्थापक अध्यक्ष श्रीमान् देवकुमार जी कासलीवाल, पुरातत्वविद् श्री टी. व्ही. जी. शास्त्री तथा उत्साही युवक श्री अरविन्द कुमार जैन से विभिन्न विषयों पर चर्चा हुई तथा इन्दौर नगर के मन्दिरों के सर्वेक्षण का कार्यक्रम बनाया गया। इन्दौर में कुल ८५ दिगम्बर जैन मंदिर हैं। इन मंदिरों में प्राचीन पाण्डुलिपियों की दृष्टि से कतिपय मंदिरों के शास्त्र भंडार महत्वपूर्ण है। शक्कर बाजार, मल्हारगंज, तिलक नगर, काँच की मंदिर, तुकोगंज का उदासीन आश्रम का मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं। मंदिरों में छपे ग्रंथों से प्रवचन की परम्परा आरम्भ हो जाने के कारण प्राचीन शास्त्रों की व्यवस्था और उनकी सुरक्षा की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं है। जो प्राचीन पाण्डुलिपियाँ देखने को मिली उनमें अधिक संख्या वचनिकाओं की हैं। वहाँ से प्रवचनसार, षट्प्राभृत तथा नियमसार की पाण्डुलिपियों की जीराक्स प्रतियाँ प्राप्त हुई। उक्त सर्वेक्षण यात्रा सम्पन्न करके ३१ मार्च को हम वापिस वाराणसी पहुँचे तथा। १ अप्रैल ९२ से विभाग में कार्य आरम्भ किया। इस यात्रा से जो तथ्य सामने आये हैं उनकी ओर समाज ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक है। कहने को तो मंदिरों में देव, शास्त्र गुरु की पूजा प्रतिदिन होती है किन्तु सभी मंदिरों में प्राचीन शास्त्रों की उपेक्षा चिता का विषय है। इसी उपेक्षा के परिणामस्वरूप अनेक प्राचीन शास्त्र पहले ही नष्ट हो चुके हैं तथा जो शेष हैं उनकी सुरक्षा व्यवस्था की ओर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो जिनवाणी का क्रमश: ह्रास ही होता जावेगा। प्रत्येक मंदिर के अधिकारियों तथा कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं का विशेष दायित्व है कि शास्त्र भंडारों को समय रहते व्यवस्थित और सुरक्षित किया जाये। हमने कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के संस्थापक अध्यक्ष श्री देवकुमार सिंह कासलीवाल जी से विशेष अनुरोध किया है कि वे अपनी संस्था के माध्यम से कम से कम इन्दौर नगर के मंदिरों में उपलब्ध प्राचीन शास्त्रों की सूचियाँ तैयार कराकर प्रकाशित करें, जिससे विद्वत् जगत् में उनका उपयोग हो सके। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के अकेले एक प्राकृत एवं जैनागम विभाग ने प्राचीन भंडारों के सर्वेक्षण का कार्य सक्रिय रूप से आरम्भ किया जिसके परिणामस्वरूप राजस्थान, गुजरात, दिल्ली मालबा, बुन्देलखण्ड महाराष्ट्र तथा दक्षिण की महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों की जानकारी मिली है। इस कार्य में समाज को भी सक्रिय रूप से सहयोग करना चाहिए। सम्पूर्ण भारतवर्ष तथा विदेशों में उपलब्ध लाखों प्राचीन शास्त्रों का सर्वेक्षण बहुत बड़ा कार्य है। इसलिए विभाग ने अभी विशेष रूप से आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों की पाण्डुलिपियों की जीराक्स प्रतियों का संग्रह विश्वविद्यालय में करने का कार्य आरम्भ किया है। शास्त्र भंडारों के अधिकारियों को इस योजना में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करना चाहिये।
सुनीता जैन
प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सम्पूर्णानंद संस्कृत वि. वि., वाराणसी (उ. प्र.)