मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चर्तुिवध संघ में ‘आर्यिका’ का दूसरा स्थान है। श्वेताम्बर जैन परंपरा के प्राचीन आगमों में भी यद्यपि इन्हें अज्जा, आर्या, आर्यिका कहा है, किन्तु इस परंपरा में प्राय: इन्हें ‘साध्वी’ शब्द का ज्यादा प्रयोग हुआ है। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर तथा इनकी उत्तरवर्ती परंपरा में आर्यिका संघ की एक व्यवस्थित आचार पद्धति एवं उनका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। श्रमण संस्कृति के उन्नयन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका की सभी सराहना करते हैं। यद्यपि भगवान् महावीर के जीवन के आरंभिक काल में स्त्रियों को समाज में पूर्ण सम्मान का दर्जा प्राप्त नहीं था किन्तु उन्होंने जब समाज में स्त्रियों की निम्न स्थिति तथा घोर उपेक्षापूर्ण जीवन देखा तो भगवान् महावीर ने स्त्रियों को समाज और साधना के क्षेत्र में सम्मानपूर्ण स्थान देने में सबसे पहले पहल की और आगे आकर इन्होंने अपने संघ में स्त्रियों को ‘आर्यिका’ (समणी या साध्वी) के रूप में दीक्षित करके इनके आत्म—सम्मान एवं कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। इसका सीधा प्रभाव तत्कालीन बौद्ध संघ पर भी पड़ा और महात्मा बुद्ध को भी अन्तत: अपने संघ में स्त्रियों को भिक्षुणी के रूप में प्रवेश देना प्रारंभ करना पड़ा। आचार विषयक दिगम्बर परंपरा के प्राय: सभी ग्रंथों में जिस विस्तार के साथ मुनियों के आचार—विचार आदि का विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन मिलता है, आर्यिकाओं के आचार—विचार का उतना स्वतंत्र विवेचन नहीं मिलता। साधना के क्षेत्र में मुनि और आर्यिका में किंचित् अन्तर स्पष्ट करके आर्यिका के लिए मुनियों के समान ही आचार—विचार का प्रतिपादन इस साहित्य में मिलता है। मूलाचारकार आ. बट्टेकर एवं इसके वृत्तिकार आ. वसुनन्दि ने कहा है कि जैसा समाचार (सम्यक्—आचार एवं व्यवहार आदि) श्रमणों के लिए कहा गया है उसमें वृक्षमूल, अभ्रावकाश एवं आतापन आदि योगों को छोड़कर अहोरात्र संबंधी सम्पूर्ण समाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य रूप में समझना चाहिए। मूलाचार सवृत्ति ४/१८७ इसीलिए स्वतंत्र एवं विस्तृत रूप में आर्यिकाओं के आचारादि का प्रतिपादन आवश्यक नहीं समझा गया।
वस्तुत:
वृक्षमूलयोग (वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यान करना), आतापनयोग (प्रचण्ड धूप में भी पर्वत की चोटी पर खड़े होकर ध्यान करना), अभ्रावकाश (शीत ऋतु में खुले आकाश में तथा ग्रीष्म ऋतु में दिन में सूर्य की ओर मुख करके खड्गासन मुद्रा में ध्यान करना) एवं अचेलकत्व (नग्नता) आदि कुछ ऐसे पक्ष हैं, जो स्त्रियों की शारीरिक प्रकृति के अनुकूल न होने के कारण आर्यिकाओं को मुनियों जैसे आचार का पालन संभव नहीं है। इसलिए उन्हें उपचार से मूलगुणों का धारक माना है। इसलिए दिगम्बर परंपरा में स्त्रियों को तद्भव मोक्षगामी नहीं माना। क्योंकि मोक्ष के कारणभूत जो ज्ञानादि गुण तथा तप हैं, उनका प्रकर्ष स्त्रियों में संभव नहीं है। इसी तरह वे सबसे उत्कृष्ट पाप के कारणभूत अंतिम (सप्तम) नरक भी नहीं जा सकतीं, जबकि पुरुष जा सकता है। इसी तरह वस्त्र ग्रहण की अनिवार्यता के कारण बाह्य परिग्रह तथा स्व शरीर का अनुरागादि रूप आभ्यन्तर परिग्रह भी स्त्रियों में पाया जाता है और फिर शास्त्रों में वस्त्ररहित संयम स्त्रियों को नहीं बतलाया है। अत: विरक्तावस्था में भी स्त्रियों को वस्त्र धारण का विधान है। अत: निर्दोष होने पर भी उन्हें अपना शरीर सदा वस्त्रों से ढके रहना पड़ता है।ण विणा वट्टदि णारी एक्क वा तेसु जीवलोयम्हि। ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तािंस च संवरणं।। प्रचनसार, २२५/५ इसीलिए दिगम्बर परंपरा में स्त्रियों को तद्भव मोक्षगामी होने का विधान नहीं है।स्त्रीणामपि मुक्तिर्न भवति महाव्रताभावात्—मोक्खपाहुड टीका, १२ आर्यिकाओं में उपचार से महाव्रत भाी श्रमण संघ की व्यवस्था मात्र के लिए कहे गये हैं किन्तु उपचार में साक्षात् होने की सामथ्र्य नहीं होती। यदि स्त्री तद्भव से मोक्ष जाती होती तो सौ वर्ष की दीक्षिता आर्यिका के द्वारा आज का नवदीक्षित मुनि भी वंदनीय कैसे होता ? वह आर्यिका ही उस श्रमण द्वारा वंदनीय क्यों न होती ?वरिससयदिक्खियाए अज्जाए अज्ज दिक्खिओ साहू। अभिगमन वंदण नमंसणेण विणएण सो पुज्जो।। मोक्खपाहुड टीका १२/१ विरक्त स्त्रियों को भी वस्त्र धारण के विधान में उनकी शरीर प्रवृत्ति ही मुख्य कारण है, क्योंकि प्रतिमास चित्तशुद्धि का विनाशक रक्त—स्रवण होता है, कोख, योनि और स्तन आदि अवयवों में कई तरह के सम्मूच्र्छन सूक्ष्मजीव उत्पन्न और मरण को प्राप्त होते रहने से उनसे पूर्ण संयम का पालन संभव नहीं हो सकता।प्रवचनसार, २२५/७ इसीलिए इन्हीं सब कारणों के साथ हीसुत्तपाहुड गाथा ७ स्वभाव से पूर्ण निर्भयता, निराकुलता एवं निर्मलता का अभाव, परिणामों में शिथिलता का सद्भाव तथा नि:शंक रूप में एकाग्रचिन्ता निरोध रूप ध्यान का अभाव होने के कारण ऐसा कहा गया है।सुत्तपाहुड २६ इस प्रकार पूर्वोक्त कारणों के साथ ही उत्तम संहनन के अभाव के कारण शुद्धोपयोग रूप परिणाम एवं सामायिकचारित्र की ही प्राप्ति होना संभव नहीं है, अत: इनमें उपचार से ही महाव्रत कहे गये हैं। श्वेताम्बर परंपरा के बृहत्कल्प में भी कहा है कि साध्वियाँ भिक्षु प्रतिमायें धारण नहीं कर सकतीं। लकुटासन—उत्कटुकासन, वीरासन आदि आसन नहीं कर सकतीं। गाँव के बाहर सूर्य के सामने हाथ ऊँचा करके आतापना नहीं ले सकतीं तथा अचेल एवं अपात्र (जिनकल्प) अवस्था धारण नहीं कर सकतीं।बृहत्कल्प ५/११—३४ तक (चारित्र प्रकाश, पृ. १३९) इस सबके बावजूद श्वेताम्बर परंपरा में स्त्रियों को मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी माना गया है। बौद्ध परंपरा में भी स्त्री सम्यक्—सम्बुद्ध नहीं हो सकती।अंगुत्तरनिकाय १/९
आर्यिका के लिए प्रयुक्त
वर्तमान समय में सामान्यत: दिगम्बर परंपरा में महाव्रत आदि धारण करने वाली दीक्षित स्त्री को ‘आर्यिका’ तथा श्वेताम्बर परंपरा में इन्हें ‘साध्वी’ कहा जाता है। दिगम्बर प्राचीन शास्त्रों में इनके लिए आर्यिका,भगवती आराधना २९६ तथा वि. टीका ४२१ आर्या,वही ४/१८०, १०/६१ विरती,मूलाचार वृत्ति ४/१७७ संयता,त्वक्ताशेष गृहस्थवेषरचना मंदोदरी संयता। पद्मपुराण श्रमणीश्रीमती श्रमणी पाश्र्वे बभूबु: परर्माियका। वही आदि शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। प्रधान आर्यिका को ‘गणिनी’गणिनी…..मूलाचार ४/१७८, १९२, गणिनीं महत्तरिकां—वही वृत्ति ४/१७८, १९२ तथा संयम, साधना एवं दीक्षा में ज्येष्ठ वृद्ध आर्यिका को स्थविरा (थेरी)थेरीिंह सहंतरिदा भिक्खाय समोदरति सदा। मूलाचार ४/१९४ कहा गया है।
आर्यिकाओं का वेष
आर्यिकायें, र्नििवकार, श्वेत, निर्मल वस्त्र एवं वेष धारण करने वालीं तथा पूरी तरह से शरीर संस्कार (साज शृंगार आदि) से रहित होती हैं। उनका आचरण सदा अपने धर्म, कुल, र्कीित एवं दीक्षा के अनुरूप निर्दोष होता है।मूलाचार ४/१९० आचार्य वसुनन्दी के अनुसार—आर्यिकाओं के वस्त्र, वेष और शरीर आदि विकृति से रहित, स्वाभाविक—सात्त्विक होते हैं अर्थात् वे रंग—बिरंगे वस्त्र, विलासयुक्त गमन और भूविकार—कटाक्ष आदि से रहित वेष को धारण करने वाली होती हैं। जो किसी भी प्रकार का शरीर संस्कार नहीं करतीं, ऐसीं ये आर्यिकायें, क्षमा, मार्दव आदि धर्म, माता—पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं।मूलाचार वृत्ति ४/१९० सुत्तपाहुड तथा इसकी श्रुतसागरीय टीका में तीन प्रकार के वेष (िंलग) का कथन है—१. मुनि, २. ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक—ऐलक एवं क्षुल्लक तथा ३. आर्यिकासुत्तपाहुड १०, २१, २२ कहा है। तीसरा िंलग (वेश) स्त्री (आर्यिका) का है। इसे धारण करने वाली स्त्री दिन में एक बार आहार ग्रहण करती है। वह आर्यिका भी हो तो एक ही वस्त्र धारण करे तथा वस्त्रावरण युक्त अवस्था में ही आहार ग्रहण करे।िंलगं इत्थीणं हवदि भुंजइ पिडं सुएयकालम्मि। अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ।। सुत्तपाहुड २२
वस्तुत:
स्त्रियों में उत्कृष्ट वेश को धारण करने वाली आर्यिका और क्षुल्लिका, ये दो होती हैं। दोनों ही दिन में एक बार आहार लेती हैं। आर्यिका मात्र एक वस्त्र तथा क्षुल्लिका एक साड़ी के सिवाय ओढ़ने के लिए एक चादर भी रखती हैं। भोजन करते समय एक सफेद साड़ी रखकर ही दोनों आहार करती हैं। अर्थात् आर्यिका के पास तो एक साड़ी है पर क्षुल्लिका एक साड़ी सहित किन्तु चादर रहित होकर आहार करती हैं। भगवती आराधना में क्षुल्लिका का उल्लेख मिलता है।सुत्तपाहुड श्रुतसागरीय टीका २२ भगवती आराधना में संपूर्ण परिग्रह के त्यागरूप औत्र्सिगक िंलग में चार बातें आवश्यक मानी गई हैं—अचेलता, केशलोंच, शरीर संस्कार त्याग और प्रतिलेखन (पिच्छी)।खुड्डा य खुड्डियाओ…… भ. आ. २९६ किन्तु स्त्रियों के अचेलता (नग्नता) का विधान न होते हुए भी अर्थात् तपस्विनी स्त्रियाँ एक साड़ी मात्र परिग्रह रखते हुए भी उनमें औत्र्सिगक लिग माना गया है अर्थात् उनमें भी ममत्व त्याग के कारण उपचार से निग्र्रन्थता का व्यवहार होता है। परिग्रह अल्प कर देने से स्त्री के उत्सर्ग लिग होता है।भ. आ. ७९ इसलिये सागार धर्मामृत में भी कहा है कि एक कौपीन (लंगोटी) मात्र में ममत्व भाव रखने से उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक) भी महाव्रती नहीं कहलाता जबकि आर्यिका साड़ी में भी ममत्व भाव न रखने से उपचरित महाव्रत के योग्य होती है।भ. आ. ८० विजयोदया टीका सहित वस्तुत: स्त्रियों की शरीर प्रकृति ही ऐसी है कि उन्हें अपने शरीर को वस्त्र से सदा ढके रखना आवश्यक है। इसीलिए आगम में कारण की अपेक्षा से आर्यिकाओं को वस्त्र की अनुज्ञा है।सागारधर्मामृत ८/३७ श्वेताम्बर परंपरा के बृहत्कल्पसूत्र (५/१९) में भी कहा है—‘नो कप्पई निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए’ अर्थात् निग्र्रंन्थियों (आर्यिकाओं) को अचेलक (निर्वस्त्र) रहना नहीं कल्पता। आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की प्रक्षेपक गाथा में कहा होने पर भी आर्यिकाओं को अपना शरी वस्त्रों से ढके रहना पड़ता है। अत: विरक्तावस्था में भी उन्हें वस्त्र धारण का विधान है।आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया—भ. आ. विजयोदया ४२३, पृष्ठ ३२४ दौलत ‘क्रिया कोश’ में कहा है कि आर्यिकायें एक सादी सफेद धोती (साड़ी), पिच्छी, कमण्डलु एवं शास्त्र रखती हैं। बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं तथा अपने हाथों से केशलुञ्चन करती हैं।प्रवचनसार गाथा २२५ के बाद प्रक्षेपक गाथा ५ इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुण (उपचार से) और समाचार विधि का आर्यिकायें पालन करती हैं। साड़ी मात्र परिग्रह धारण करती हैं अर्थात् एक बार में एक साड़ी पहनती हैं, ऐसे दो साड़ी का परिग्रह रहता है।क्रियाकोष : महाकवि दौलतरामकृत श्वेताम्बर परंपरा में साध्वी को चार वस्त्र रखने का विधान है। एक वस्त्र दो हाथ का, दो वस्त्र तीन हाथ के और एक वस्त्र चार हाथ का।प्रायश्चित्त संग्रह ११९ किन्तु ये वस्त्र श्वेत रंग के ही होने चाहिए। श्वेत वस्त्र छोड़कर विविध रंगों आदि से विभूषित जो वस्त्र धारण करती हैं वह आर्या नहीं अपितु उसे शासन की अवहेलना करने वाली वेष—विडम्बनी कहा है।आचारांग सूत्र २/५/१४१
आर्यिकाओं की वसतिका
श्रमणों की तरह आर्यिकाओं को भी सदा अनियत विहार करते हुए संयम धर्मसाधना करते—कराते रहने का विधान है, किन्तु उन्हें विश्राम हेतु रात्रि में या कुछ दिन या चातुर्मास आदि में जहाँ, जब रुकना पड़ता है, तब उनके ठहरने की वसतिका कैसी होनी चाहिए ? इस सबका यहाँ शास्त्रोक्त रीति से प्रतिपादन किया है। गृहस्थों के मिश्रण से रहित वसतिका, जहाँ परस्त्री—लंपट, चोर, दुष्टजन, तिर्यञ्चों एवं असंयत जनों का संपर्क न हो, साथ ही जहाँ यतियों का निवास या उनकी सन्निकटता न हो, असंज्ञियों (अज्ञानियों) का आना—जाना न हो ऐसी संक्लेश रहित, बाल, वृद्ध आदि सभी के गमनागमन योग्य, विशुद्ध संचार युक्त प्रदेश में दो, तीन अथवा इससे भी अधिक संख्या में एक साथ मिलकर आर्यिकाओं को रहना चाहिए।अगिहत्थमिस्सणिलये असण्णिवाए विशुद्धसंचारो। दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्थंति।। मूलाचार ४/१९१ वृत्तिसहित श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार जहाँ मनुष्य अधिक एकत्रित होते हों—ऐसे राजपथ—मुख्यमार्ग, धर्मशाला और तीन—चार रास्तों के संगम स्थल पर आर्यिकाओं को नहीं ठहरना चाहिए। खुले स्थान पर तथा बिना फाटक वाले स्थान पर भी नहीं रहना चाहिए।बृहत्कल्प भाष्य उ. १/२, २/११, १ जिस उपाश्रय के समीप गृहस्थ रहते हों वहाँ साधुओं को नहीं रहना चाहिए किन्तु साध्वियाँ रह सकती हैं।बृहत्कल्प सूत्र प्रथम उद्देश प्रतिबद्धशयासूत्र (जै. सा. का. वृ. इति. भाग २, पृष्ठ २४१) वसतिकाओं में आर्यिकायें मात्सर्यभाव छोड़कर एक दूसरे के अनुकूल तथा एक दूसरे के रक्षण के अभिप्राय में पूर्ण तत्पर रहती हैं। रोष, बैर और मायाचार जैसे विकारों से रहित, लज्जा, मर्यादा और उभयकुल—पितृकुल, पतिकुल अथवा गुरुकुल के अनुकूल आचरण (क्रियाओं) द्वारा अपने चारित्र की रक्षा करती हुई रहती हैं।अण्णोणणणुकूलाओ अण्णोणाहिरक्खणाभिजुत्ताओ। गयरोसवेरमायासलज्जमज्जादकिरियाओ।। मूलाचार ४/१८८ आर्यिकाओं में भय, रोष आदि दोषों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। तभी तो ज्ञानार्णव में कहा है शम, शील और संयम से युक्त अपने वंश में तिलक के समान, श्रुत तथा सत्य से समन्वित ये नारियाँ (आर्यिकायें) धन्य हैं।ज्ञानार्वण १२/५७
समाचार : विहित एवं निषिद्ध
चरणानुयोग विषय जैन साहित्य में श्रमण और आर्यिकाओं दोनों के समाचार आदि प्राय: समान रूप से प्रतिपादित हैं।हिस्ट्री आफ जैन मोनासिज्म, पृष्ठ ४७३मूलाचारकार ने इनके समाचार के विषय में कहा है कि आर्यिकायें अध्ययन, पुनरावृत्ति (पाठ करने), श्रवण, मनन, कथन, अनुप्रेक्षाओं का िंचतन, तप, विनय तथा संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुई ज्ञानाभ्यास रूप उपयोग में सतत तत्पर रहती हैं तथा मन, वचन और कायरूप योग के शुभ अनुष्ठान से सदा युक्त रहती हुई अपनी दैनिकचर्या पूर्ण करती हैं।मूलाचार ४/१८९ किसी प्रयोजन के बिना परगृह चाहे वह श्रमणों की ही वसतिका क्यों न हो या गृहस्थों का घर हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है। यदि भिक्षा, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती हैं, अकेले नहीं।ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे। गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज। मूलाचार ४/१९२ स्व—पर स्थानों में दु:खात्र्त को देखकर रोना, अश्रुमोचन स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य) कराना, भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना तथा छह प्रकार का आरंभ अर्थात् जीवघात की कारणभूत क्रिया में आर्यिकायें पूर्णत: निषिद्ध हैं। संयतों के पैरों में मालिश करना, उनका प्रक्षालन करना, गीत गाना आदि कार्य उन्हें पूर्णत: निषिद्ध हैं।रोदणण्हावणभेयजपयणं सुत्तं च छव्विहारंभे। विरदाण पादमक्खणं धोवणगेयं च ण य कुज्जा।। मूलाचार ४/१९३ असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और कला—ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार की आरंभ क्रियायें हैं।असिमसिकृषि वाणज्यशिल्पलेखक्रियाप्रारम्भास्तान् जीवघातहेतून्। —मूलाचार वृत्ति ४/१९३पानी लाना, पानी छानना (छेण), घर को साफ करके कूड़ा—कचरा उठाना, फैकना, गोबर से लीपना, झाडू लगाना और दीवालों को साफ करना—ये जीवघात करने वाली छह प्रकार की आरंभ क्रियायें भी आर्यिकायें नहीं करतीं।कुन्द, मूलाचार ४/७४ मूलाचार के पिण्डशुद्धि अधिकार में आहार संबंधी उत्पादन के सोलह दोषों के अन्तर्गत धायकर्म, दूतकर्म आदि कार्य भी इन्हें निषिद्ध हैं। श्वेताम्बर परंपरा के गच्छाचारपइन्ना नामक प्रकीर्णक ग्रंथ में कहा है—जो आर्यिका गृहस्थी संबंधी कार्य जैसे—सीना, बुनना, कढ़ाई आदि कार्यों को और अपनी या दूसरे की तेल मालिश आदि कार्य करती हैं वह आर्यिका नहीं हो सकतीं।गच्छाचार पइन्ना ११३ जिस गच्छ में आर्यिका गृहस्थ संबंधी जकार, मकार आदि रूप शासन की अवहेलना सूचक शब्द बोलती हैं वह वेश विडम्बनी तथा अपनी आत्मा को चतुर्गति में घुमाने वाली हैं।वही ११०
आहारार्थ गमन विधि
आहारार्थ अर्थात् भिक्षा कार्य के लिए वे आर्यिकायें तीन, पाँच अथवा सात की संख्या में स्थविरा (वृद्धा) आर्यिका के साथ मिलकर उनका अनुगमन करती हुई परस्पर एक दूसरे के रक्षण (संभाल) का भाव रखती हुई ईर्या समितिपूर्वक आहारार्थ निकलती हैं।तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जओ अण्णमण्णरक्खाओ। थेरीिंह सहंतरिदा भिक्खाय समोदरन्ति सदा।। मूलाचार ४/१९४ देव—वंदना आदि कार्यों के लिए भी उपर्युक्त विधि से गमन करना चाहिए।वही वृत्ति आर्यिकायें दिन में एक बार सविधि बैठकर करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं।सुत्तपाहुड श्रुतसागरीय टीका २२ तथा दौलत क्रियाकोश गच्छाचार पइन्ना में कहा है—कार्यवश लघु आर्या मुख्य आर्या के पीछे रहकर अर्थात् स्थविरा के पीछे बैठकर श्रमण प्रमुख के साथ सहज, सरल और र्नििवकार वाक्यों द्वारा मृदु वचन बोले तो वही वास्तविक गच्छ कहलाता है।गच्छाचार पइन्ना, १२९—१३०
स्वाध्याय संबंधी विधान
मुनि और आर्यिका आदि सभी के लिए स्वाध्याय आवश्यक होता है। बट्टेकर स्वामी ने स्वाध्याय के विषय में आर्यिकाओं के लिए लिखा है कि गणधर, प्रत्येकबद्ध, श्रुतकेवली तथा अभिन्नदशपूर्वधर, इनके द्वारा कथित सूत्रग्रंथ, अंगग्रंथ तथा पूर्वग्रंथ, इन सबका अस्वाध्यायकाल में अध्ययन मन्दबुद्धि के श्रमणों और आर्यिका समूह ेके लिए निषिद्ध हैं। अन्य मुनीश्वरों को भी द्रव्य—क्षेत्र—काल आदि की शुद्धि के बिना उपर्युक्त सूत्रग्रंथ पढ़ना निषिद्ध हैं। किन्तु इन सूत्रग्रंथों के अतिरिक्त आराधनानिर्युक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान, आवश्यक तथा धर्मकथा संबंधी ग्रंथों को एवं ऐसे ही अन्यान्य ग्रंथों को आर्यिका आदि सभी अस्वाध्याय काल में भी पढ़ सकती हैं।मूलाचार ५/८०—८२, वृत्तिसहित
वंदना—विनय संबंधी व्यवहार
यह पहले ही कहा गया है कि शास्त्रों के अनुसार सौ वर्ष की दीक्षित आर्यिका से भी नव दीक्षित श्रमण पूज्य और ज्येष्ठ माना गया है। अत: स्वाभाविक है कि आर्यिकायें श्रमण के प्रति अपना विनय प्रकट करती हैं। आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों की वंदना विधि के विषय में कहा है कि आर्यिकाओं को आचार्य की वंदना पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय की वंदना छह हाथ दूर से एवं साधु की वंदना सात हाथ दूर से गवासन पूर्वक बैठकर ही करनी चाहिए। यहाँ सूरि (आचार्य), अध्यापक (उपाध्याय) एवं साधु शब्द से यह भी सूचित होता है कि आचार्य से पाँच हाथ दूर से ही आलोचना एवं वंदना करना चाहिए। उपाध्याय से छह हाथ दूर बैठकर अध्ययन करना चाहिए एवं सात हाथ दूर से साधु की वंदना, स्तुति आदि कार्य करना चाहिए, अन्य प्रकार से नहीं।पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधु य। परिहरिऊण ज्जाओ गवासणेणेव वंदति।। —मूलाचार ४/१९५ वृत्ति सहित मोक्षपाहुड (गाथा १२) की टीका के अनुसार श्रमण और आर्यिका के बीच परस्पर वंदना उपयुक्त तो नहीं है, किन्तु यदि आर्यिकायें वंदना करें तो श्रमण को उनके लिए ‘‘समाधिरस्तु’’ या ‘‘कर्मक्षयोऽस्तु’’ कहना चाहिए। श्रावक जब इनकी वंदना करता है तो उन्हें सादर ‘‘वन्दामि’’ शब्द बोलता है।
आर्यिका और श्रमण संघ : परस्पर संबंधों की मर्यादा
आचार विषयक जैन आगम साहित्य में श्रमण संघ को निर्दोष एवं सदा अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अनेक दृष्टियों से स्त्रियों के संसर्ग से, चाहे वह आर्यिका भले ही हो, दूर रहने का विधान किया हैं यही कारण है कि श्रमण संघ आरंभ से अर्थात् प्राचीन काल से आज तक बिना किसी बाधा या अपवाद के अपनी अक्षुण्णता बनाये हुए हैं। श्रमणों और आर्यिकाओं का संबंध (परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। यदि आवश्यक हुआ तो कुछ आर्यिकायें एक साथ मिलकर श्रमण से धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन, शंका—समाधान आदि कार्य कर सकती हैं, अकेले नहीं। अकेले श्रमण और आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा—वार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम की विराधना, इन पाप के हेतुभूत पाँच दोषों से दूषित होगा।मूलाचार ४/१७९ वृत्ति सहित अध्ययन या शंका—समाधान आदि र्धािमक कार्य के लिए आर्यिकायें या स्त्रियाँ यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और बिना प्रयोजन वार्तालाप नहीं करना चाहिए किन्तु कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है।वही ४/१७७ वृत्ति सहित एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे। यदि कोई आर्यिका अपनी पुस्तक अर्थात् आर्यिका गणिनी के साथ उसे आगे करके कोई प्रश्न पूछे तब अकेले श्रमण उसका उत्तर दे सकता है अर्थात् मार्गप्रभावना की इच्छा रखते हुए प्रश्नोत्तरों आदि का प्रतिपादन करना चाहिए, अन्यथा नहीं।तािंस पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु। गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्वं।। वही ४/१७८ वृत्ति सहित आर्यिकाओं की वसतिका में श्रमणों को नहीं जाना, ठहरना चाहिए, वहाँ क्षणमात्र या कुछ समय तक की (अल्पकालिक) क्रियायें भी नहीं करनी चाहिए। अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा—ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियायें पूर्णत: निषिद्ध हैं।. मूलाचार ४/१८०, १०/६१ वृत्ति सहित। वृद्ध तपस्वी, बहुश्रुत और जनमान्य (प्रामाणिक) श्रमण भी यदि आर्याजन (आर्यिका आदि) से संसर्ग रखता है तो वह लोकापवाद का भागी (लोगों की निदा का स्थान) बन जाता है।वही, ३३१ तब जो श्रमण अवस्था में तरुण हैं, बहुश्रुत भी नहीं है और न जो उत्कृष्ट तपस्वी और चारित्रवान् हैं वे आर्याजन के संसर्ग से लोकापवाद के भागी क्यों नहीं होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे। अत: यथासंभव इनके संसर्ग से दूर रहकर अपनी संयम साधना करना चाहिए। आर्यिकाओं के उपाश्रय में ठहरने वाला श्रमण लोकापवाद रूप व्यवहार निदा तथा व्रतभंग रूप परमार्थ िंनदा इन दोनों का प्राप्त होता है।मूलाचार १०/६२ इस प्रकार साधु को केवल आर्याजनों के संसर्ग से ही दूर नहीं रहना चाहिए अपितु अन्य भी जो—जो वस्तु साधु को परतंत्र करती हैं उस—उस वस्तु का त्याग करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। उसके त्याग से उसका संयम दृढ़ होगा। क्योंकि बाह्य वस्तु के निमित्त से होने वाला असंयम उस वस्तु के त्याग से ही संभव होता है।भगवती आराधना गाथा ३३४, ३३८
आर्यिकाओं के गणधर
आर्यिकाओं की दीक्षा, शंका—समाधान, शास्त्राध्ययन आदि कार्यो के लिए श्रमणों के संपर्क में आना आवश्यक होता है। श्रमण संघ की इस व्यवस्था के अनुसार साधारण श्रमणों की अकेले आर्यिकाओं से बातचीत आदि का निषेध है। आर्यिकाओं को प्रतिक्रमण स्वाध्याय आदि विधि संपन्न कराने के लिए गणधर मुनि की व्यवस्था का विधान है। आर्यिकाओं के गणधर (आचार्य आदि विशेष) को निम्नलिखित गुणों संपन्न माना गया है। प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्नी (धर्म और धर्मफल में अतिशय उत्साह वाला), अवद्य (पाप) भीरू, परिशुद्ध (शुद्ध आचरण वाले), संग्रह (दीक्षा, उपदेश आदि द्वारा शिष्यों के ग्रहण संग्रह) और अनुग्रह में कुशल, सतत सारक्षण (पापक्रियाओं से सर्वथा निवृत्ति) से युक्त, गंभीर, दुद्र्धष (स्थिर चित्त एवं निर्भय अन्त:करण युक्त), मितभाषी, अल्पकौतुकयुक्त, चिरप्रर्विजत और गृहीतार्थ (तत्त्वों के ज्ञाता) आदि गुणों से युक्त आर्यिकाओं के मर्यादा उपदेशक गणधर (आचार्य) होते हैं।मूलाचार ४/१८३, १८४ बृहत्कल्प भाष्य २०५० इन गुणों से युक्त श्रमण तो अपने आप में पूर्णत्व को प्राप्त करने वाला होता है और यह तो श्रमणत्व की कसौटी भी है। ऐसे गणधर आर्यिकाओं को आदर्श रूप में प्रतिक्रमणादि विधि संपन्न करा सकते हैं। उपर्युक्त गुणों से रहित श्रमण यदि गणधरत्व धारण करके आर्यिकाओं को प्रतिक्रमण कराते एवं प्रायश्चित्तादि देता है। तब उसके गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ, इन चार कालों की विराधना होती है। अथवा छेद, मूल, परिहार और पारंचिक ये चार प्रायश्चित्त लेने पड़ते हैं। साथ ही ऋषिकुल रूप गच्छ या संघ, कुल, श्रावक एवं मिथ्यादृष्टि आदि इन सबकी विराधना हो जाती है। अर्थात् गुणशून्य आचार्य यदि आर्यिकाओं का पोषण करते हैं तो व्यवस्था बिगड़ जाने से संघ के साधु उनकी आज्ञा पालन नहीं करेंगे। इससे संघ और उसका अनुशासन बिगड़ता है। इस प्रकार श्रमणसंघ के अन्तर्गत आर्यिकाओं की विशिष्ट आचार पद्धति और उसकी महत्ता का यहाँ प्रतिपादन किया गया, शेष नियमोपनियम श्रमणों जैसे ही हैं।
प्रो. फूलचन्द जैन ‘प्रेमी’
बी—२३/४५, अनेकान्त भवन, शारदा नगर कालोनी, खोजवाँ, वाराणसी (उ. प्र.)