दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुण पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू।।
पं. का. गा. १०, प्र. सा. २/३—४
अर्थात् जो सत्ता है लक्षण जिसका ऐसा है, उस वस्तु को सर्वज्ञ वीतराग देव द्रव्य कहते हैंं अथवा उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यसंयुक्त द्रव्य का लक्षण कहते हैं। अथवा गुण पर्याय का जो आधार है उसको द्रव्य का लक्षण कहते हैं। यहां गुण का स्वरूप करते हुए आचार्य लिखते हैं कि—‘‘द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:।’’७. त. सू. ५/४१अर्थात् जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और जो अन्य गुणों में नहीं पाये जाते हैं वे गुण कहलाते हैं। जैसे—जीव के ज्ञानादि गुण, पुद्गल के स्पर्शादि गुण। ये स्पर्शादि गुण सिर्प पुद्गल द्रव्य के आश्रय से ही रहते हैं इनमें ज्ञानादि गुण नहीं पाये जा सकते। इसमें यह विशेषता है कि द्रव्य की अनेक पर्याय पलटते रहने पर भी जो द्रव्य से कभी पृथक् न हों, निरन्तर द्रव्य के साथ रहें उसे गुण कहते हैं।न्या. टीका सूत्र ७८ गुण दो प्रकार के होते हैं—सामान्य गुण और विशेष गुण। सामान्य गुण—जो गुण सभी द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं उन्हें सामान्य गुण कहते हैं। जैसे—अस्तित्व, वस्तुत्व आदि। विशेष गुण—जो गुण एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक् करते हैं वे विशेष गुण कहलाते हैं। जैसे—ज्ञान, दर्शन, स्पर्श, गति आदि। पर्याय का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि तद्भाव: परिणामत. सू. ५/४२ १६. अर्थात् उसका होना अथवा प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है और परिणाम को ही पर्याय कहा जाता है। यहां आचार्य यह कहना चाहते हैं कि गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते रहते हैं अत: ये पर्याय कहलाते हैं।स. सि. ५/३८/२३१ जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है। आचार्य देवसेन स्वामी के अनुसार गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं। आ. प. सूत्र १५ अर्थात् जब गुणों में किसी प्रकार की विकृति आती है तो उसको ही पर्याय कहते हैं। इन सब आचार्यों के द्वारा बताये गये स्वरूप में एक बात सामान्य यह है कि परिणमन शब्द का प्रयोग प्रत्येक आचार्य ने किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि परिणमन का नाम ही पर्याय है। अत: जो द्रव्य में स्वभाव और विभाव रूप से सदैव परिणमन करती रहती है अथवा जो द्रव्य में क्रम से एक के बाद एक आती रहती है उसे पर्याय कहते हैं। द्रव्य के सामान्य—विशेष गुण एवं पर्यायों को विशेष रूप से जानने के इच्छुकजन आलापपद्धति नामक ग्रंथ जो कि आचार्य देवसेन स्वामी द्वारा रचित है, का अध्ययन करें।अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियेगेज्झं।
जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विआणादि।।
नियमसार गा. २६
अर्थात् जिसका आदि, मध्य और अन्त एक है और जिसे इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकतीं ऐसा जो विभाग रहित द्रव्य है उसे परमाणु जानना चाहिये। सरल भाषा में जिसका कोई दूसरा भाग नहीं हो सकता वह अणु हैं स्कन्ध—जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है वे स्कन्ध कहलाते हैं। अथवा दो या दो से अधिक परमाणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं।