मार्ग में धर्म प्रभावना- इसके बाद यहाँ संघ दो-तीन दिन ठहरा पुनः गुजरात की ओर मंगलविहार हो गया। संघ में आर्यिका सुमतिमती माताजी वृद्ध थीं तथा आर्यिका पार्श्वमती जी (जयपुर वाली) कुछ अस्वस्थ रहती थीं अतः आचार्यश्री की आज्ञा से एक डोली का प्रबंध किया गया था जिसमें कुछ-कुछ दूर ये दोनों माताजी क्रम-क्रम से बैठ जाती थीं।
गुजरात में संघ का स्वागत जगह-जगह अच्छा होता था। कहीं-कहीं दिगंबर जैन के घर नहीं थे किन्तु श्वेतांबर जैन थे, वे लोग आगे आकर संघ का स्वागत करते और अच्छी व्यवस्था बनाते थे। संघपति हीरालालजी निरभिमानी थे। जब मार्ग में खुले स्थानों में तंबू-कनातें लगाई जातीं और वहाँ चौका लगते तब जंगल में एक छोटा सा गाँव जैसा दिखने लगता था।
जब मुनि, आर्यिकायें आदि आहार को निकलते और उन कपड़ों के तंबू में पड़गाहे जाते उनका आहार शुरू होता तब संघस्थ ब्र. सूरजमलजी तथा कभी-कभी सेठ हीरालालजी स्वयं हाथ में छड़ी लेकर बाहर आसपास घूमते रहते कि इधर-उधर से गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि जानवर या कुत्ते आदि न आ जावें, चारों तरफ की निगरानी रखते।
जब साधुओं का आहार संपन्न हो जाता तब वे प्रसन्न होते। वे कहते- ‘‘दोनों समय पैदल चलकर साधुवर्ग चौबीस घंटे में एक बार करपात्र में आहार ग्रहण करते हैं। यदि जरा सी असावधानी से अंतराय हो गई तो उन्हें कष्ट तो होगा ही, आगे विहार में भी असुविधा होगी अतः आहार देने की अपेक्षा व्यवस्था संभालना भी बहुत जरूरी है।’’ यदि ये सेठजी आदि दूसरों से कुत्ते, बंदर देखने का काम कहते तो शायद लोगों को बुरा भी लगता अतः वे स्वयं सहर्ष यह काम करने में अपनी मानहानि या बेइज्जती नहीं महसूस करते।
उनकी धर्मपत्नी रतनीबाई, सभी ब्रह्मचारिणियाँ भी चौके का हर एक काम अपने हाथ से कर लेतीं। आटा पीसना, पानी भरना आदि। पुनः आहार दान के बाद भोजन से निवृत्त होकर बर्तन मांजने बैठ जातीं। उधर बड़े-बड़े शहरों में जब चर्चा होती कि- ‘‘बहुत बड़ा मुनि-आर्यिकाओं का संघ लेकर गिरनार यात्रा कराने के लिए एक सेठजी निकले हैं।
साथ में बहुत से ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणियाँ भी हैं। ऐसा सुन-सुन कर संघ जहाँ ठहरता वहाँ आकर लोग दर्शन करते, पुनः पूछते- ‘‘इस संघ के व्यवस्थापक संघपति कौन हैं?’’ लोग लकड़ी लेकर इधर-उधर घूमते हुए साधारणवेष में हीरालाल जी की ओर अंगुली उठाकर बताते, तो पूछने वाले आश्चर्यचकित हो जाते- ‘‘अरे! ये सेठजी हैं!
ये स्वयं ऐसा काम क्यों करते हैं?’’ जब वे स्वयं उन सेठजी से मिलकर उनसे वार्तालाप करते तो उनकी सरलता और गुरुभक्ति से बहुत प्रभावित होते। कोई-कोई पूछ लेते- ‘‘इनकी सेठानी कौन हैं?’’ उन्हें भी जब आटा पीसते या बर्तन साफ करते देखते तो आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रहते। तब उन्हें बताया जाता कि- ‘‘दिगम्बर जैन साधु-साध्वियों को अपने हाथ से काम करके आहार देने में आनंद तो है ही, पुण्य भी महान् है।’’
इन साधु साध्वियों को आहार देने की शुद्धि व चर्याविधि सुनकर लोग समय-समय पर मुनियों का आहार देखने के लिए एकत्रित हो जाते और खड़े होकर पाणिपुट में आहार लेते हुए मुनियों को देखकर चतुर्थकाल का स्मरण कर तथा ग्रंथों की पंक्तियाँ स्मरण कर बहुत ही प्रभावित होते। अन्य ग्रंथों में भी लिखा है-
एकाकी निस्पृहः शांतः, पाणिपात्रो दिगंबरः।
कदा शंभो! भविष्यामि, कर्मनिर्मूलनक्षमः१।।
हे शंभु! हे भगवन् ! मैं एकाकी विचरण करने वाला, इच्छारहित, शांत, पाणिपुट में आहार लेने वाला, दिगंबर साधु, ऐसा कर्मों को निर्मूलन करने में समर्थ कब होऊँगा? दिगंबर संप्रदाय में कहा ही है-
ते मे धर्मं प्रदद्युर्मुनिगणवृषभाः मोक्ष निःश्रेणिभूताः।।
गिरकंदरदुर्गेषु ये वसंति दिगंबराः।
पाणिपात्रपुटाहारास्ते यांति परमां गतिम्२ ।।
जो पर्वत की कंदरा और दुर्ग प्रदेशों में निवास करते हैं और करपात्र में आहार ग्रहण करते हैं ऐसे दिगम्बर मुनि परमसिद्धगति को प्राप्त करते हैं। जैन और जेैनेत्तर भक्तगण संघ के दर्शन करके, गुरु के मुख से धर्मामृतरूप वाणी सुनकर, अपने जीवन को सफल मानते हुए धन्य-धन्य हो जाते थे।
सोनगढ़
यद्यपि यह कोई तीर्थक्षेत्र नहीं है किन्तु कहानजी के आध्यात्मिक वातावरण ने उसे तीर्थ जैसा बना दिया है। ये जन्म से स्थानकवासी थे। २३ वर्ष की उम्र में स्थानकवासी साधु बने। एक दिन समयसार ग्रंथ मिल गया उन्होंने उसका अध्ययन किया और निश्चय एकांतवादी बन गये।
वे सोनगढ़ आये, एकांत स्थान में चैत्र सुदी १३ वि. सं. १९९१ में स्थानकवासी साधु वेष की मुखपट्टिका उतार दी और दिगम्बर संप्रदाय के प्रति अपनी आस्था घोषित कर दी। इससे स्थानकवासी संप्रदाय में एक तूफान सा खड़ा हो गया। कुछ समय बाद श्री रामजीभाई राजकोट से यहाँ आये। धीरे-धीरे विरोध शांत होने पर दिगम्बर सम्प्रदाय के लोग इनके भक्त बनने लगे। इन्होंने अंत तक अपना श्वेताम्बरी लुंगी और चादर नहीं छोड़ा। ये न दिगम्बर बन पाये न श्वेताम्बर ही रहे।
इन्होंने दिगम्बर मुनियों का विरोध करते हुए एक नया ही ‘कानजी’ पंथ चलाया है। इनका स्वर्गवास जशलोक अस्पताल बम्बई में हुआ। आज तो इनके सम्प्रदाय को मानने वालों में ही फूट होकर दो पंथ हो गये हैं। एक ने तो इनको भावी सूर्यकीर्ति तीर्थंकर कहकर उनकी मूर्ति भी बनाकर उनके मंदिरों में स्थापित कर दी है। इनके संप्रदायवादियों के साथ जगह-जगह दिगम्बर मूल आम्नाय वालों से विसंवाद चल रहा है। बहुत जगह कोर्ट तक केस पहुँच चुके हैं।
यहाँ सोनगढ़ में सीमंधर भगवान् का जैन मंदिर, मानस्तम्भ, समवसरण मंदिर, श्रीकुन्दकुन्दकहान दिगम्बर जैन सरस्वती भवन आदि अनेक स्थल हैं। यहाँ मानस्तम्भ के मध्य भगवान् की प्रतिमाओं के ऊपर कानजीभाई की मूर्ति उकेरी हुई है जो विवाद का विषय बनी हुई है। आचार्यश्री शिवसागर जी का संघ जब वहाँ पहुँचने को हुआ तब एक दिन पूर्व ही कानजी भाई, चंपाबेन, शांताबेन आदि प्रमुख लोग वहाँ से राजकोट चले गये पुनः जब हम लोग राजकोट पहुँचे तब पता चला कि रात्रि में ही ये कानजीभाई आदि प्रमुख लोग सोनगढ़ चले गये हैं।
वास्तव में निश्चयाभासी, अपने को तीर्थंकर मानने वाले कानजीभाई, भला दिगम्बर गुरुओं के दर्शन कैसे कर सकते थे? अस्तु, हम लोग पंचमकाल के व हुंडावसर्पिणी के इस दोष का विचार कर शांतचित्त से अपनी यात्रा हेतु आगे बढ़ गये। उन दिनों वह घटना पुनः याद आ गई कि जब सन् १९५६ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के पट्टाधीश आचार्यवर्य श्री वीरसागरजी महाराज अपने विशाल चतुर्विध संघ सहित यहाँ जयपुर में खजांची की नशिया में विराजे हुये थे।
उस समय दिगम्बर सम्प्रदाय के मुनियों का यह सबसे बड़ा संघ था, मैं वहीं संघ में ही थी। उन्हीं दिनों कानजीभाई अपने बहुत बड़े समुदाय के साथ जयपुर आये हुए थे। उसी समय मुनिभक्तों में प्रमुख पं. खूबचन्द जी शास्त्री आदि कई विद्वान् इंदौर आदि से वहाँ आये थे पं. इन्द्रलाल जी शास्त्री आदि स्थानीय कई विद्वान् भी वहाँ थे।
सभी मिलकर आचार्यश्री के पास आये और बोले कि- हम लोग प्रयास कर रहे थे कि किसी भी तरह यहाँ कानजी भाई को लाया जावे। इन लोगों ने प्रयास भी किया, उनसे अनेक चर्चायें भी कीं किन्तु कानजी भाई अनेक मंदिरों के दर्शन करके भी उस नशिया के मंदिर का दर्शन करने वहाँ नहीं आये। इस घटना से उस समय जयपुर में मुनिभक्त समाज में बहुत बड़ा क्षोभ हुआ था।
पगडंडी में चलने का परिणाम
एक दिन मार्ग में चलते हुये डामर रोड से चल रहे थे, आजू-बाजू घने जंगल दिखते थे, कभी जंगल में उतरने की पगडंडियाँ मिलती थीं जो आगे सड़क से भी मिल जाती थीं। आर्यिका वीरमती माताजी ने एक बार एक पगडंडी से निकल कर जल्दी से ही आगे सड़क पर पहुँचना चाहा, मुझसे से भी कहा। यद्यपि मेरी नीति थी कि ‘‘राजमार्ग से ही चलना चाहिए भले ही कुछ देर लग जावे किन्तु अपवादमार्ग से नहीं चलना चाहिए यदि बीच में कहीं फस गये, न निकल सके तो ?’’
उस समय मैंने यह सूक्ति कही-
रस्ता चलना सीधा चाहे फैर हो।
भोजन करना माँ से चाहे जहर हो।।
और पगडंडी से आगे जंगल से चलने में आनाकानी की किन्तु माताजी की विशेष इच्छा देखकर बिना अपनी इच्छा के भी मैं उनके साथ चल पड़ी। दैवयोग से उस पगडंडी से जल्दी ही सड़क आ गई और माताजी बहुत खुश हुर्इं। कुछ साधु-साध्वियाँ, जिन्हें पगडंडी के प्रवेश के समय छोड़ा था वे पीछे रह गये और हम दोनों आगे पहुँच गर्इं। माताजी की सूझ-बूझ व पगडंडी से रास्ता तय करने की कुछ लोगों ने प्रशंसा की, कुछ तटस्थ रहे, हंसी मजाक में वह बात समाप्त हो गई।
मेरी सूक्ति की भी हंसी बनाई गई। पुनः अन्य किसी दिन आर्यिका वीरमती जी ने ऐसे ही पगडंडी से उतरना चाहा। उस दिन चारों तरफ घोर जंगल दिख रहा था मैंने बहुत कुछ मना किया किन्तु उनके साथ उतरना ही पड़ा। साथ में शायद आर्यिका सिद्धमती माताजी भी थीं और ब्र. कजोड़मलजी भी थे। बहुत कुछ दूर जाने पर हम चारों लोग एक बीहड़वनी में उतर गये वहाँ इतना ऊबड़-खाबड़ रास्ता था, इतने पत्थर थे कि जिनसे आगे बढ़ना कठिन हो रहा था और आस-पास कहीं सड़क का रास्ता नहीं दिख रहा था और न सड़क पर चलने वाली बसों या ट्रकों की आवाज ही सुनने में आती थी।
अब हम सबके होश-हवाश गुम हो गये। मन-मन में महामंत्र का स्मरण करते हुए इधर-उधर देखने लगे कि कहीं कोई रास्ता दिख जाये या किधर से कोई आदमी आता हुआ दिख जाये। सभी को थकान भी खूब हो गई थी अतः वहीं ऊँचे-ऊँचे पत्थरों पर बैठ गये और णमोकार मंत्र की जाप करने लगे। कुछ क्षण बाद एक बालक हाथ में लकड़ी लिए हुए उधर से निकला, वह अपनी बकरियों को चरा रहा था। तभी ब्र. कचोड़मलजी ने उससे बाहर निकलने का रास्ता पूछा तो उसने कहा-
‘‘सड़क यहाँ से बहुत दूर है।’’ तब बाबाजी ने अपनी अंटी में हाथ डाला और देखा कुछ रुपये हैं, तब बोले- ‘‘भइया! लो यह रुपया और तुम मेरे साथ चलकर आगे सड़क तक पहँुचा दो।’’
उसने अपनी बकरियों को यथास्थान छोड़ा और हम लोगों के आगे-आगे चल पड़ा। ऊँचे-नीचे स्थानों को पार कराते हुए पहले पगडंडी पर लाया पुनः धीरे-धीरे बाहर निकलने के मार्ग में लगाया। हम सभी थक कर चूर हो गये थे, पैर जवाब दे रहे थे फिर भी महामंत्र की जाप करते-करते जैसे-तैसे सड़क पर आ गये। उस बालक को बहुत-बहुत आशीर्वाद देकर विदा किया पुनः सड़क के चारों ओर देखा तो कोई भी गाँव नजर नहीं आ रहा था और न कोई आदमी ही दिख रहा था।
सूर्यदेव भी अस्ताचल की ओर चल रहे थे। हम लोग आगे सड़क पर चलने लगे। आगे एक साइकिल वाला मिला, उसे रोक कर उस गाँव का नाम पूछा जहाँ सायंकाल संघ को पहुँचना था उसने बताया- ‘‘वह गाँव तो एक तरफ है आपको आगे बढ़कर अमुक सड़क से जाना होगा तब वहाँ पहुँचेंगे। वह गाँव यहाँ से ६-७ मील है।’’
तब मैंने पूछा- ‘‘आगे आस-पास में कौन सा गाँव है?’’ उसने एक छोटे से कस्बे का नाम बता दिया। सड़क से चल कर सूर्य डूबने तक वहाँ पर पहुँच गये पुनः शीत काल का समय होने से एक बरामदा सा मिला उसी में जाकर बैठ गये। प्रतिक्रमण, सामायिक किया। बाबाजी ने कमंडलु के जल की व्यवस्था की और कहीं से थोड़ी सूखी घास ले आये जिसमें कुछ कांटे से भी थे। उसी घास पर बैठे-बैठे रात्रि वहाँ व्यतीत की। रात्रि में विश्राम से थकान उतर गई।
प्रातः प्रतिक्रमण और सामायिक करके आचार्य श्री वीरसागरजी का नाम लेकर वहाँ से चले। पूछताछ कर ९-१० बजे करीब संघ में आकर मिले। उस समय संघ के सभी साधु चिंतामग्न हो रहे थे, देखते ही प्रसन्नता का वातावरण छा गया। आचार्यश्री ने रत्नत्रय कुशल पूछी तथा सब समाचार सुनकर बहुत ही खेद व्यक्त किया।
पुनः- ‘‘पगडंडी के छोटे रास्ते के लोभ की बात से सबने उस वातावरण को हँसी के माहौल में बदल दिया।’’ और बोले- इसलिए हम लोग कहते हैं कि-‘‘मोक्षमार्ग में जो आचार्यों ने राजमार्ग बतलाया है उसी से चलो। इधर-उधर मार्ग से गंतव्य स्थान जल्दी मिलने के बजाए कभी-कभी भटकना भी पड़ जाता है।’’ हम सभी ने उस समय हँसी के वातावरण से अपनी-अपनी थकान समाप्त की और भगवान् का अभिषेक देखकर, शुद्धि करके सबके साथ आहार को उठ गये। कुछ क्षण बाद यह विषय समाप्त हुआ और आगे के विहार की रूपरेखा बनी।
दिगम्बर मुनियों के प्रति जनता के भाव
मार्ग के कई एक संस्मरण विशेष रहे हैं। एक बार एक गांव में लोगों ने दिगम्बर मुनियों को अन्दर आने के लिए रोक दिया और कहा-‘‘साध्वियाँ यहाँ अन्दर गाँव में आकर ठहरें।’’ ऐसा सुनकर सेठ हीरालालजी और ब्रह्मचारी सूरजमल जी ने संघ को बाहर ही ठहरा दिया। रात्रि में दो-चार सज्जन वहाँ दर्शनार्थ आये और जब उन्हें यह पता चला कि-
‘‘ये साधु महान् हैं, पहुंँचे हुये महात्मा हैं।’’ तब वे पश्चात्ताप से घबराने लगे और साधुओं के दर्शन की भावना व्यक्त की। उन्हें दर्शन करा दिया गया अब वे लोग बाहर आकर ब्रह्मचारी जी के पास रोने लगे और बोले- ‘‘हम लोगों का अपराध क्षमा करो, अब हम लोग इन महात्माओं को गाँव में ले जाकर ही रहेंगे। इनकी चरण रज से हमारा गाँव पवित्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकता।
हम लोग इन्हें जबरदस्ती ले जायेंगे।’’ इस प्रकार आग्रह करने के बावजूद भी आचार्यश्री ने गाँव में प्रवेश की स्वीकृति नहीं दी, बाहर से ही विहार का निर्णय रहा, तब बेचारे ग्रामनिवासी भक्तगण प्रातः अंधेरे में ही आ गये तथा बहुत कुछ अनुनय विनय करने पर भी जब संघ का विहार होने लगा तब सब ने सजल नेत्रों से नमस्कार किया और कुछ दूर तक साथ-साथ चलते रहे। आचार्यश्री ने कुछ मधुर शब्दों में उन्हें उपदेश दिया जिसे सुनकर वे लोग अपने को धन्य मानते हुए और अपनी गलती पर पश्चात्ताप करते हुए अपने-अपने घर चले गये। संघ आगे बढ़ते हुए प्रथम ही आबू पहुँचा।
वहाँ पहाड़ पर जाकर जिनमंदिर का दर्शन किया। वहाँ श्वेताम्बरी मंदिर कई हैं। मंदिरों के पत्थर में कलाकारी को देखकर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, इतना बारीक काम है। तब करोड़ों रुपयों की लागत लग गई, आज तो इतनी बारीकी का काम सोचना भी कठिन है।