(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
स्वाध्याय प्रारम्भ- आचार्यश्री से आज्ञा लेकर यहाँ ब्यावर में श्रुतपंचमी की क्रिया करके मैंने प्रातः राजवार्तिक द्वितीय अध्याय का स्वाध्याय प्रारंभ किया। पहले चातुर्मास में आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के पास राजवार्तिक एक अध्याय का पठन हो चुका था अतः द्वितीय से ही अध्ययन कराना निश्चित हुआ। इस स्वाध्याय में ब्र. राजमलजी और क्षुल्लिका जिनमती जी ये दो प्रमुख शिष्य अध्ययन करने वाले थे और सब स्वाध्याय सुनने की इच्छा से बैठते थे।
आर्यिका सुमतिमती जी, आर्यिका चंद्रमती जी, आर्यिका सिद्धमतीजी और आर्यिका पद्मावती जी तो नियमित बैठती थीं। मुनि श्री सन्मतिसागर जी और श्रुतसागर जी भी कभी-कभी बैठ जाते थे तथा आर्यिका वीरमतीजी भी कभी – कभी बैठ जाती थीं। ब्रह्मचारी श्रीलाल जी और पं. पन्नालालजी सोनी भी कभी-कभी बैठते थे। ये विद्वान् मेरी अध्यापन शैली देखकर बहुत ही प्रसन्न होते थे। यह स्वाध्याय सरस्वती भवन की छत पर चलता था।
प्रातः आठ से नौ बजे तक तत्त्वार्थराजवार्तिक का अध्ययन चलता था पुनः आधा घंटे में ब्र. राजमलजी व जिनमती क्षुल्लिका को गोम्मटसार कर्मकांड पढ़ाती थी, इसकी ३-४ गाथायें प्रतिदिन रात्रि में सोते समय मैं भी याद करके सोती थी। यहाँ ब्यावर के लोग तो संघ का चातुर्मास ब्यावर में ही कराना चाहते थे।
साथ ही अजमेर के सर सेठ भागचंद सोनी आदि भी आकर श्रीफल चढ़ाकर चातुर्मास के लिए प्रार्थना कर रहे थे। फिर भी यहाँ सेठ चंपालालजी रानीवाला ने अपनी भक्ति में कोई कमी नहीं रखी अतः चातुर्मास का निर्णय यहीं (ब्यावर) का हो गया।
आर्यिका चन्द्रमतीr माताजी मेरे ज्ञान से बहुत ही प्रसन्न रहती थीं, मेरी चर्या और सरलता आदि से भी बहुत ही प्रसन्न रहती थीं, वे मुझसे कभी-कभी कहा करतीं कि- ‘‘जब आपके माता-पिता मौजूद हैं तो भला वे लोग आपके दर्शन करने क्यों नहीं आते?’’ यह सुनकर मैं कुछ उत्तर नहीं देती थी।
उनके अतीव आग्रह पर मैंने एक बार कहा कि- ‘‘उन्हें पता ही नहीं होगा कि मैं कहाँ हूँ?’’ चन्द्रमती जी को बहुत ही आश्चर्य हुआ, तब उन्होंने एक बार मुझसे घर का पता पूछ लिया और चुपचाप एक पत्र लिख दिया। पत्र टिकैतनगर पहुँच गया, पिताजी पत्र लेकर घर आये और सजल नेत्रों से पढ़कर सुनाने लगे-
सद्धर्मवृद्धिरस्तु! यहाँ ब्यावर में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज का विशाल चतुर्विधसंघ के साथ चातुर्मास हो रहा है। इसी संघ में आपकी पुत्री, जो कि आर्यिका ज्ञानमती माताजी हैं, विद्यमान् हैं। मेरा नाम आर्यिका चन्द्रमती है, मैं संघ में उन्हीं के साथ अनेक दुर्लभ ग्रंथों का स्वाध्याय करती रहती हूँ। मैं यह पत्र धर्म प्रेम से आपको लिख रही हॅूं।
आप यहाँ आकर अपनी पुत्री का दर्शन करें उनके ज्ञान और चारित्र के विकास को देखकर आप अपने मन में बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव करेंगे अतः आपको अवश्य आना चाहिए। मेरा आप सभी के लिए बहुत-बहुत आशीर्वाद है। आपने ऐसी कन्यारत्न को जन्म देकर अपना जीवन सफल कर लिया है इत्यादि।
माँ को और सारे परिवार को वह पत्र पढ़कर विदित हुआ कि हमारी पुत्री मैना आर्यिका ज्ञानमती हैं, वे इस समय आचार्य श्री शिवसागर जी के विशाल संघ में हैं। यह वह समय था कि जब साधु संघों के समाचार ज्यादा अखबारों में नहीं छपते थे और कदाचित् जैनमित्र आदि में छप भी गये तो उन्हें सभी लोग पढ़ते नहीं थे। यही कारण है कि उन्हें इतने वर्षों तक मेरे समाचार नहीं मालूम थे। पुत्री के बढ़ते हुए चारित्र को और बढ़ते हुए ज्ञान को सुनकर माँ का हृदय पुलकित हो उठा।
स्मृतिपटल पर सारी पुरानी बातें ताजी हो आर्इं। साथ ही मोहिनी जी के मोह का उद्रेक भी नहीं रुक सका, उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे। उनका ऐसा भाव हुआ कि- ‘‘मैं अभी शीघ्र ही जाकर दर्शन कर लेऊँ।’’ पिताजी को ब्यावर चलने के लिए बहुत आग्रह किया गया किन्तु वे कथमपि तैयार नहीं हुए।
उनके मन में कुछ और विकल्प उठ खड़ा हुआ। इसलिए वे बोले- ‘‘पहले कैलाश को भेज रहा हूँ, वह जाकर दर्शन करके सारी स्थिति देखकर आवे पुनः हम तुम्हें लेकर चलेंगे।’’ यद्यपि उनके मन में भी मोह का उदय हो आया था, वे भी दर्शन करना चाहते थे किन्तु ।
मैंने दर्शनकथा पढ़कर बड़े प्यार से एक बहन का नाम ‘‘मनोवती’’ रखा था यह मनोवती वर्षों से कहती थी कि- ‘‘मुझे मैना जीजी के दर्शन करा दो, मैं उन्हीं के पास रहूँगी।’ इस धुन में वह इतनी पागल हो रही थी कि गाँव में चाहे कोई मुनि आवे या ब्रह्मचारी आवे अथवा पंडित ही आ जावे, वह उनके पास जाकर समय देखकर पूछने लगती- ‘‘क्या तुम्हें हाथ देखना मालूम है?
बताओ, मैं अपनी जीजी के पास कब पहुँच सकूगी? मेरे भाग्य में दीक्षा है या नहीं?’’ इत्यादि। जब माँ को इस बात का पता चलता तो वे उसे फटकारतीं। उन्हें किसी को हाथ दिखाना कतई पसंद नहीं था। इस तरह यह मनोवती जब तब रोने लगती थी और आग्रह करती थी कि मुझे माताजी के पास भेज दो। पत्र द्वारा मेरा समाचार सुनते ही मनोवती दौड़ी-दौड़ी माँ के पास आई और पत्र छीनने लगी।
उसने सोचा ‘‘शायद अब मेरे पुण्य का उदय आ गया है, अब मुझे माँ के साथ ब्यावर जाने को अवश्य मिल जावेगा’’ किन्तु अभी उसके अन्तराय कर्म का उदय बलवान् था। शायद पिता ने इसी वजह से ब्यावर जाने का प्रोग्राम नहीं बनाया कि- ‘‘मैं जाऊँगा तो मोहिनी जी मानेंगी नहीं, वे अवश्य जायेंगी पुनः यह मनोवती पुत्री जबरदस्ती ही चलना चाहेगी और यह वहाँ उनके पास जाकर मुश्किल से ही वापस आयेगी अथवा यह वहीं रह जायेगी, दीक्षा ले लेगी तो मैं इसके वियोग का दुःख कैसे सहन करूँगा?’’
माता मोहिनी का हृदय तड़फड़ाता रहा और मनोवती भी माँ के न जाने का सुनकर बहुत रोई, किन्तु क्या कर सकती थी? दोनों माँ बेटी अपने-अपने मन में अपनी स्त्री पर्याय की निंदा करती रहीं। कभी-कभी माता मोहिनी मनोवती को सान्त्वना देती रहती थीं और कहती रहती थीं- ‘‘बेटी मनोवती! तुम इतना मत रोओ, धैर्य रखो, मैं तुम्हें किसी न किसी दिन माताजी के दर्शन अवश्य करा दूँगी।’’ पिता की आज्ञानुसार कैलाशचन्द अपने छोटे भाई सुभाषचन्द को साथ लेकर ब्यावर के लिए रवाना हो गये।
सरस्वती भवन की छत पर मैं तत्त्वार्थराजवार्तिक का स्वाध्याय करा रही थी। पास में आर्यिका सुमतिमती माताजी, आर्यिका सिद्धमती जी, आर्यिका चन्द्रमती जी, आर्यिका पद्मावती जी और क्षुल्लिका जिनमती जी बैठी हुई तन्मयता से अर्थ समझ रही थीं। एक तरफ ब्र. राजमल जी भी राजवार्तिक की पंक्तियों का अर्थ देख रहे थे।
उसी समय वहाँ पर दो यात्री पहुँचे, नमस्कार किया और वहीं बैठ गये। उनकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। पहले शायद किसी ने ध्यान नहीं दिया किन्तु जब कुछ सिसकने जैसी आवाज आयी, तब किसी ने सहसा पूछ लिया- ‘‘तुम लोग क्यों रो रहे हो? कौन हो?’’ तभी मैंने सहसा ऊपर माथा उठाया और पूछा- ‘‘आप कहाँ से आये हैं?’’
बड़े भाई ने कुछ आँसू रोककर जैसे-तैसे जवाब दिया-‘‘टिकैतनगर से।’’ पुनः मैंने पूछा-‘‘किनके पुत्र हो? तुम्हारा क्या नाम है?’’ उन्होंने कहा- ‘‘लाला छोटेलाल जी के। मेरा नाम कैलाशचन्द है।’’ इतना कहकर दोनोें भाई और भी फफक-फफक कर रोने लगे। तभी अन्दर से आकर पं. पन्नालाल जी ने सहसा उनका हाथ पकड़ लिया और उनके आँसू पोंछते हुए बोले- ‘‘अरे! आप रो क्यों रहे हो?’’ पंडित जी को समझते हुए देर न लगी कि ये दोनों ज्ञानमती माताजी के गृहस्थाश्रम के भाई हैं।
पुनः उस समय आर्यिका चन्द्रमतीजी ने भी उन दोनों को सान्त्वना दी और बोलीं- ‘‘तुम्हारी बहन इतनी श्रेष्ठ आर्यिका हैं, तुम्हें इन्हें देखकर खुशी होनी चाहिए। बेटे! रोते क्यों हो?’’ सभी के समझाने पर दोनों शान्त हुए और मेरे चेहरे को एकटक देखते रहे। वे दोनों इस बात से और भी अधिक दुखी हुए कि- ‘‘जिस मेरी बहन ने मुझे गोद में लेकर खिलाया था, प्यार-दुलार किया था, आज वे हमें पहचान भी नहीं रही हैं।’’
पंडित पन्नालाल जी कहने लगे- ‘‘अहो! वैराग्य की महिमा तो देखो! आज माताजी अपने भाइयोें को पहचान भी नहीं पाई। ये स्वयं में ही इतनी लीन हैं, ज्ञानाभ्यास में ही सतत लगी रहती हैं।’’ पंडित जी दोनों भाइयों को अपने साथ अपने घर ले गये। रास्ते में इन दोनों ने उनसे यही अफसोस व्यक्त किया कि- ‘‘दुख की बात यह है कि माताजी हम लोगों को सर्वथा भूल गई।’’
पंडित जी ने कहा- ‘‘भाई! दुःख मत मानो। इनकी ज्ञानाराधना ऐसी ही है। मैं देखकर स्वयं परेशान हूँ। ये दिन भर तो अध्ययन कराती रहती हैं पुनः रात्रि में ११-१२ बजे तक सरस्वती भवन के हस्तलिखित शास्त्रों को निकाल-निकाल कर देखती रहती हैं। मैं प्रातः काल आकर देखता हूँ तो प्रायः ५०-६० ग्रंथों को खुला हुआ पाता हूँ, मैं स्वयं अपने हाथ से उन्हें बांधकर रखता हूँ।
अगले दिन शाम को माताजी पुनःमुझसे दो तीन अलमारियाँ खुलवा लेती हैं पुनः रात्रि में ग्रंथों का अवलोकन करती रहती हैं।’’ कैलाश ने पूछा- ‘‘पंडित जी! ऐसा क्यों? माताजी ग्रन्थ खुले क्यों रख देती हैं?’’ पंडित जी ने कहा- ‘‘भाई! एक दिन माताजी ने ग्रन्थ बांध दिये ।
वे सभी ग्रन्थ अधिक कसकर नहीं बंधे थे किन्तु थे व्यवस्थित बंधे हुए।’’ मैंने कहा-‘‘माताजी! ग्रंथों को शत्रुवत् बांधना चाहिए। आप मेरे जितना कसकर नहीं बांध सकेगी और आपको समय भी लगेगा अतः इतनी सेवा तो मुझे ही कर लेने दीजिये। उस दिन से प्रतिदिन मैं स्वयं आकर ग्रंथों को बांध-बांधकर जहाँ की तहाँ अलमारी में रख देता हूँ।’’
पंडित जी बोले- ‘‘माताजी का तो मेरे ऊपर विशेष अनुग्रह है। मेरी पुत्री प्रभा, पद्मा आदि इन्हीं के पास पढ़ती हैं।’’
पंडित पन्नालाल जी ने दोनों को स्नान कराकर भोजन कराया। अनन्तर दोनों भाई नशियाजी में आ गये। एक-एक करके सभी मुनियों के दर्शन किये, सभी आर्यिकाओं के दर्शन किये। अनन्तर मध्यान्ह में एक बजे मेरे पास आकर बैठ गये। वे पंडित पन्नालाल जी से हुई चर्चा सुनाने लगे। मैंने घर के और गाँव के धर्मकार्यों के बारे में जो भी पूछा उन्होंने बता दिया
किन्तु मैंने जब घर के किसी भाई-बहन की शादी के बारे में कुछ भी नहीं पूछा और न कुछ अन्य ही घर की बातें पूछीं, तब समय पाकर कैलाश ने कहा- ‘‘माताजी! बहन मनोवती आपके दर्शनों के लिए तरस रही है, वह शादी नहीं करना चाहती, वह आपके पास ही रहना चाहती है।’’ इतना सुनते ही मैं एकदम चौंक पड़ी।
अब मेरा भाव कुछ ठीक से कैलाशजी से वार्तालाप करने का हुआ। मैंने जिज्ञासा भरे शब्दों में पूछा- ‘‘ऐसा क्यों? ‘‘कैलाश ने कहा-‘‘पता नहीं, आज लगभग दो वर्ष हो गये हैं, वह आपके लिए बहुत ही रोती रहती है। रो-रोकर वह अपनी आँखें लाल कर लेती है, कहती है मुझे माताजी के पास भेज दो, मैं भी दीक्षा लेऊँगी।’’ मैंने कहा-‘‘तब भला तुम उसे क्योें नहीं लाए?’’ कैलाश जी ने कहा- ‘‘माताजी! आपको मालूम है, पिताजी का कितना बड़ा नियंत्रण है।’’