मुनिश्री वृषभसागर जी- ब्र. काश्मीरीमल अजमेर आये हुए थे, आचार्यश्री से क्षुल्लक दीक्षा मांग रहे थे। उस समय उनकी वह घटना सबको याद आ गई जबकि ये ब्र. जी रैनवाल आये थे, आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से दीक्षा माँग रहे थे किन्तु उनकी पत्नी ने पहले समझाया बुझाया फिर जब वे नहीं माने और घर जाने को राजी नहीं हुए तब उसने ऐसा फटकारा कि आचार्यश्री भी देखते रह गये। वह बोली- ‘‘सीधे सादे चलते हो कि नहीं, अन्यथा मैं जबरदस्ती पकड़कर ले जाऊँगी ।’’
उसी बात को याद कर पहले तो आचार्यश्री हँसे, फिर सब साधुओं ने कहा- ‘‘भैया! तुम्हारी पत्नी आकर जबरदस्ती उठाकर ले जायेगी अतः तुम तो पहले पत्नी की आज्ञा लेवो, फिर कुछ सोचो।’’ ब्रह्मचारी बोले- ‘‘महाराजजी! मुझे तो दीक्षा लेनी है, पत्नी की स्वीकृति की प्रतीक्षा कहाँ तक करूँगा?’’
पुनः वे ब्रह्मचारी जी मेरे पास आये और बोले- ‘‘माताजी! आपने इतनी छोटी उम्र में दीक्षा लेकर बहुत बड़ा पुरुषार्थ किया है, आप मुझे भी उपाय बताओ और आचार्यश्री को दीक्षा देने की प्रेरणा देवो, मेरा उद्धार करो।’’ मैंने सहजभाव से कहा- ‘‘ब्रह्मचारीजी! आप तो बिना घर सूचना दिये ही दीक्षा ले लो, जैसे कि मैंने ली थी।
इसी में सफल हो सकोगे, अन्यथा तुम्हारी पत्नी के तेज स्वभाव से सब डरते हैं। सभी कहते हैं कि इनकी धर्मपत्नी तो इन्हें उठाकर ले जायेगी, दिल्ली की महिलायें तो बहुत ही मर्दानी दिखती हैं।’’ ब्रह्मचारी जी हँसने लगे और बार-बार प्रार्थना करने लगे- ‘‘माताजी! जैसे भी हो मेरी दीक्षा करा दो, मैं आपका उपकार जीवनभर नहीं भूलूँगा।’’
मैंने जाकर मुनिश्री श्रुतसागरजी से निवेदन किया पुनः आचार्यश्री से भी कहा- ‘‘महाराजजी! ये भव्यजीव हैं, इनका वैराग्य अच्छा है, आप इन्हें, इनके घर बिना सूचना दिलाये ही, दीक्षा दे दीजिये।’’ ऐसा ही निर्णय हो गया। आचार्यश्री ने दीक्षा का मुहूर्त निकलाकर स्वीकृति दे दी। बिना प्रचार के दीक्षा हो गई।
हाँ! इनके घर शायद ऐसे टाइम पर सूचना भेजी गई थी कि जिससे उनकी पत्नी दीक्षा के समय पर ही आ सकीं। बेचारी मोह के वश हो कुछ थोड़ा बहुत बोलीं फिर रो-धोकर शांत हो गर्इं, उनका क्षुल्लक दीक्षा का नाम वृषभसागर रखा गया। बाद में तो इनकी पत्नी ने इन क्षुल्लक जी की व इनके मुनि बनने के बाद सल्लेखना होने तक भी खूब भक्ति की है और आहारदान दिया है।
संभवमतीजी
एक दिन आचार्यश्री ने यहाँ अजमेर में मुझे बुलाकर कहा-‘‘ज्ञानमती जी! यह हुलासीबाई ब्रह्मचारिणी बनना चाहती है और संघ में रहना चाहती है, तुम इसे अपने पास रखो, पढ़ाओ, शिक्षा दो और संरक्षण दो।’’ मैंने आचार्यश्री की आज्ञा स्वीकार कर उन्हें अपने साथ रखा। तत्त्वार्थसूत्र आदि का अध्ययन कराया और प्रतिदिन वैराग्य का उपदेश देकर दीक्षा की भी प्रेरणा देने लगी। आचार्यश्री का ऐसा मुझ पर वात्सल्य था
कि कोई महिला हो या बालिका, वे मुझे ही बुलाकर मेरे सुपुर्द कर देते थे और कहते थे कि- ‘‘ज्ञानमती में इतनी क्षमता है कि बालिका हो या युवती, वृद्धा हो या बालक, सबका उचित संरक्षण करती हैं, उचित अध्ययन कराती हैं और अपने जैसा वैराग्य सिखाकर दीक्षा की प्रेरणा देती हैं, उन्हें प्रपंचों में नहीं उलझाती हैं.।’’
आचार्यश्री के इस व्यवहार से प्रायः कई एक आर्यिकाएँ मुझसे ईष्र्या किया करती थीं। खैर! एक दिन हुलासीबाई ने कहा- ‘‘माताजी! मैं क्षुल्लिका दीक्षा लेना चाहती हूँ आप मुझे दीक्षा दिलाकर मेरा उद्धार कीजिये।’’ मैंने उन्हें साथ ले जाकर आचार्यश्री से निवेदन किया, आचार्यश्री बहुत ही खुश हुए
पुनः कुछ देर बाद बोले- ‘‘ज्ञानमती जी! तुम्हारे पास कोई ब्रह्मचारिणी नहीं है और तुम्हारा स्वास्थ्य इन दिनों काफी खराब चल रहा है, आहार, औषधि और वैयावृत्ति के लिए कोई एक ब्रह्मचारिणी चाहिए ही चाहिए पुनः तुम इनकी दीक्षा की इतनी जल्दी क्यों करती हो? दीक्षा दो-चार वर्ष बाद हो जायेगी।’’ मैंने कहा- ‘‘महाराज जी! मैंने जैसे-तैसे प्रेरणा देकर तो इन्हें दीक्षा के लिए तैयार किया है। अब आप दीक्षा दे दीजिये।’’
महाराज जी ने ब्रह्मचारी सूरजमल को बुलाकर मुहूर्त निकलवाया और समय पर इनकी दीक्षा करायी। इनका दीक्षित नाम संभवमती रखा गया, ये मेरे साथ ही आई, सायंकाल हो चुकी थी, ये मंदिर में दर्शन करने गर्इं, वहाँ से आर्इं, मेरी नजर बचाकर चुपचाप अपनी चटाई-पुस्तक लेकर मंदिर में चली गर्इं, मुझे किसी ने बताया-
‘‘संभवमती जी मंदिर में आर्यिका सुमतिमती माताजी के पास चली गई हैं।’’ मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ फिर भी मैं कुछ नहीं बोली, जब वे प्रातःकाल दर्शन करने आई, मैंने कुछ भी नहीं पूछा बाद में उन्होंने बताया कि-‘‘आर्यिका वीरमती माताजी की प्रेरणा से मैं आर्यिका सुमतिमती जी के पास चली गई हूूँ उन्हीं के पास रहना चाहती हूँ।’’
मैंने कहा-‘‘ठीक है, कहीं भी रहो, ज्ञान और वैराग्य को बढ़ाते हुये चारित्र पालन करते हुए अपनी आत्मा का कल्याण करो, जिस उद्देश्य से दीक्षा ली है वह उद्देश्य सफल करो, व्यर्थ के प्रपंच में न पड़ो, बस इतना ही मेरा कहना है।’’ इसके बाद कई एक आर्यिकाओं ने कहा कि- ‘‘आप आचार्यश्री से इनकी यह शिकायत कर दीजिये।’’
मैंने कुछ लक्ष्य नहीं दिया। प्रत्युत् आचार्यश्री ने ही एक बार कहा-‘‘ज्ञानमती जी। मैंने आपके पास इन्हें ज्ञानाराधना के लिए ही रखा था किन्तु इन्हें पढ़ने में रुचि नहीं है…….इत्यादि।’’ अंत में इनकी समाधि सन् १९८७ में सीकर में आचार्य धर्मसागर जी के संघ में हो चुकी है।
अस्वस्थता
जयपुर से अजमेर आते समय मार्ग में मैं कई बार शौच के लिए जाती और खूब थक जाती, तब धीरे-धीरे चलकर मार्ग तय कर पाती थी। वृद्ध ब्रह्मचारी श्रीलालजी काव्यतीर्थ ये मेरे साथ ही पीछे चलते थे। बार-बार शौच के लिए जाते देखकर ये बहुत ही चिंता व्यक्त करते थे। अजमेर चातुर्मास में तो और भी अधिक अतीसार के बढ़ जाने से ब्र. श्रीलाल जी ने आचार्यश्री को व मुनि श्रुतसागर जी को मार्ग की मेरी बीमारी का निवेदन किया कि-‘‘इनकी इतनी छोटी उम्र है,
अभी से ऐसी बीमारी लग गई है, इसकी चिकित्सा होनी चाहिए।’’ दीक्षा लेने के बाद सन् १९५३ से सन् १९५९ तक शायद मैंने कोई औषधि नहीं ली थी अतः मैंने कह दिया कि- ‘‘मैं कोई औषधि नहीं लेऊँगी यह शरीर तो नश्वर ही है इत्यादि।’’ तब श्रुतसागरजी ने कुतूहलवश सहज उपाय किया मैं सेठ जी की नशिया में अध्यापिका विद्यावती जी को सर्वार्थसिद्धि पढ़ा रही थी, मुनिश्री आकर सामने खड़े हो गये, हम लोगों ने उठकर उनका स्वागत किया तभी मुनिश्री ने कहा-
‘‘मैं कुछ याचना करने आया हूँ।’’ मैंने आश्चर्यचकित हो पूछा- ‘‘आपको देने के लिए हम लोगों के पास भला क्या है?’’ बोले-‘‘मैं ऐसी ही याचना करूँगा, जो तुम्हारे पास है ।’’ पुनः बोले- ‘‘देखो, माताजी! आपने जो औषधि का त्याग कर रखा है वह मुझे दे दो अर्थात् इस त्याग को समाप्त कर कल से औषधि ग्रहण करो।
तुम्हारी उम्र अभी बहुत छोटी है तुम्हारे द्वारा समाज का बहुत कुछ उपकार होने वाला है अतः इस नश्वर शरीर की भी रक्षा करना उचित है।’’ इतना सुनते ही विद्यावती जी समझाने लगीं। उस समय मुनिश्री के आग्रह से व वात्सल्य से मुझे झुकना पड़ा और मैंने औषधि लेने की स्वीकृति दे दी पुनः आचार्यश्री की आज्ञानुसार सर सेठ भागचंदजी सोनी ने वैद्य और डाक्टरों को लाकर उनसे परामर्श करके औषधि-उपचार चालू कर दिया।
उस समय न मैं औषधि का नाम पूछती थी, न सुनती थी, न पथ्य की चर्चा करती थी, न सुनती थी। आर्यिका सुमतिमती माताजी के ऊपर व्यवस्था की जिम्मेवारी थी, वे मुझे जैसा कह देती थीं वैसा ही कर लेती थी। उन्होंने कहा- ‘‘ज्ञानमती! आहार में एक चूरण भेजा जायेगा ले लेना, मट्ठा भेजा जायेगा ले लेना।’’ ‘‘ठीक हैैै।’’
कहकर मैं ले लेती थी। जब साधारण चूरण से लाभ नहीं हुआ तब वैद्य-डाक्टर, दोनों के परामर्श से सेठ साहब ने ‘पर्पटी’ का प्रयोग शुरू कराया। उस समय मात्र तक्र (मट्ठा) और केले की रोटी लेनी होती थी, तब मैंने एक माह के लिए अन्न ही त्याग कर दिया था। एक दिन वैद्य, डाक्टर और सेठजी बैठे हुए मेरे पास चर्चा करते हुए यह समझना चाहते थे कि-‘‘यह बीमारी शुरू कैसे हुई? उसका मूल कारण क्या है?’’ मैंने तो झट कह दिया- ‘‘असाताकर्म का उदय।’’
किंतु ये लोग बाह्य कारण की खोज में लगे हुए थे, जब उन्हें पता चला कि- ‘‘सन् १९५८ में गिरनार यात्रा करके वापस आते समय गर्मी का मौसम था, मेरी अंतराय खूब होती थीं, मुश्किल से महीने में १५ दिन भर पेट भोजन हो पाता था।’’ डाक्टर का यही कहना रहा कि गर्मी के दिनों में मात्रा के अनुसार पेट में पानी नहीं पहुँचा और ऊपर से पैदल चलने का श्रम अधिक हो गया, प्रायः प्रतिदिन १५-१६ मील चलना होता था यही कारण हुआ कि अब इनकी आंतें कमजोर हो गर्इं हैं,
उनमें छाले पड़ गये हैं अतः अन्न का पचना बहुत ही कठिन हो गया है, यही कारण है कि इन्हें संग्रहणी की बीमारी हो गई, अब विश्राम से और यथोचित औषधि से ही शरीर की गाड़ी चलाई जा सकेगी। इन सब बातों को सुनकर भी मुझे कोई चिंता नहीं थी, वैराग्य भाव के निमित्त से बाह्य उपचार को मैं बहुत महत्व नहीं देती थी।
जब तक दवा कुछ फायदा करने लगी, तभी संघ का विहार हो गया, मैं भी पुनः पैदल चल पड़ी। उस समय डाक्टर का यह कहना था कि- ‘‘माताजी! आप दो माह यहीं ठहर कर शरीर का उपचार कर लो पुनः विहार करना अन्यथा जीवन भर यही बीमारी आपको कष्ट देगी।’’ हुआ भी यही, उस समय की औषधि की उपेक्षा से आज तक वह बीमारी मेरे पीछे पड़ी हुई है और समय-समय पर सल्लेखना लेने जैसी स्थिति भी आ चुकी है।
चातुर्मास समाप्ति के बाद सेठ साहब ने बड़ी नशिया में तीन लोक का विधान किया था, इसमें मंडल के ऊपर नारियल चढ़े थे अनंतर विधान समापन पर रथयात्रा निकाली थी जिसमें अपनी नशिया के चाँदी के सभी उपकरण निकाले थे। इस रथयात्रा का राजसी वैभव अन्यत्र देखने को नहीं मिला। रथ में जुते हुए कृत्रिम घोड़े भी बड़े सुन्दर थे। यहाँ की नशिया के उपकरणों का वैभव राजस्थान में प्रसिद्ध है।