सुजानगढ़ चातुर्मास- सुजानगढ़ चातुर्मास में सन् १९६० में अच्छी धर्मप्रभावना हो रही थी। यहाँ चौके पूरे शहर में लगते थे। यहाँ मैं सामायिक के लिए प्रातः नशिया चली जाती थी। सामायिक का समय- एक दिन एक आर्यिका ने यह प्रश्न किया कि- ‘‘सामायिक तो पिछली रात्रि में चार बजे करना चाहिए, आप सूर्योदय के समय कैसे करती हैं?’’ मैंने कहा-‘‘अनगार धर्मामृत में प्रातः सूर्याेदय के समय सामायिक करने का विधान है।’’ यथा-
स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिका-शेषे प्रतिक्रम्य च योगमुत्सृजेत् ।।७।।
अर्धरात्रि में चार घड़ी निद्रा के द्वारा श्रम को दूरकर अर्धरात्रि के दो घड़ी बाद अपररात्रिक स्वाध्याय प्रारंभ करें पुनः दो घड़ी रात्रि शेष रहने पर स्वाध्याय पूर्ण कर रात्रिक प्रतिक्रमण करके रात्रि योगनिष्ठापना करें अनंतर प्राभातिक देव-वंदना(सामायिक) करें। यह समय सूर्योदय का ही होता है। परम्परा के अनुसार तब भी असंतोष रहा, जब पं. खूबचंदजी शास्त्री आये हुए थे उनके सामने यह विषय रखा गया।
उन्होंने मुझसे पूछा, तब मैंने कहा- ‘‘पंडित जी! आपने तो अनगार धर्मामृत का हिन्दी अनुवाद किया है, देखिये! उसमें सामायिक का समय क्या है?’’ पंडित जी ने पुनः वह प्रकरण देखा और बोले- ‘‘ठीक है, अनुवाद करना-लिखना बात अलग है और प्रयोग में लाना बात अलग है। वास्तव में आप आगम के अनुकूल क्रियाओं का पूरा लक्ष्य रखती हैं यह बहुत खुशी की बात है।’’ मैंने मूलाचार भी दिखाया जिसमें लिखा है-
‘‘सूर्योदय होने पर देववंदना (सामायिक) करके दो घड़ी-४८ मिनट के बीत जाने पर श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति पूर्वक स्वाध्याय ग्रहण करके सिद्धांत आदि ग्रंथों की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और परिवर्तन आदि करके मध्यान्ह काल से दो घड़ी पहले श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय समाप्त कर देवें पुनः वसतिका से दूर जाकर मल-मूत्र आदि विसर्जित करके अपने शरीर के पूर्वापर भाग का पिच्छिका से परिमार्जन करके हस्त पाद आदि का प्रक्षालन करके मध्यान्ह काल की देववंदना-सामायिक करें पुनः जब बालक भोजन करके निकलते हैं,
काक आदि को बलि-भोजन डाला जाता है और भिक्षा के लिए अन्य संप्रदाय वाले साधु भी विचरण कर रहे हों तथा गृहस्थों के घर में धुंआ, मूसल आदि शब्द शांत हो गया हो अर्थात् भोजन बनाने का कार्य पूर्ण हो चुका हो उस समय मुनि आहार की बेला जानकर आहार के लिए निकलें।’’
इसमें सर्वप्रथम यह आया है कि सूर्योदय के होने पर प्राभातिक सामायिक करें। यह प्रमाण दिखाने के बाद पंडितजी ने आचार्यश्री से कहा- ‘‘वास्तव में सामायिक का समय यही है, परम्परा के अनुसार जो है सो है अतः इन्हें-ज्ञानमती माताजी के लिए गलत नहीं कहना चाहिए।’’ पुनः चर्चा होने पर यह निर्णय रहा कि- सूर्योदय के तीन घड़ी पूर्व व तीन घड़ी पश्चात् तक भी उत्कृष्ट सामायिक का काल होने से यदि सूर्योदय से पूर्व भी सामायिक करते हैं तो भी दोषास्पद नहीं है।
ऐसे ही आचारसार, अनगारधर्मामृत आदि में जिनमंदिर में या तीर्थस्थान आदि पर जाकर सामायिक करने का विधान है। अपने वसतिका आदि स्थान पर भी सामायिक कर सकते हैं।
दीक्षाएँ संपन्न हुई
आर्यिका इंदुमती जी के पास एक महिला शांतिबाई रहती थीं। इनकी आर्यिका दीक्षा का मुहूर्त निकाला गया। उस अवसर पर क्षुल्लक वृषभसागर जी भी मुनिदीक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे, मैंने भी इन्हें मुनिदीक्षा के लिए कई बार प्रेरणा दी थी अतः ये इस समय उत्सुक हो गये, इनकी प्रार्थना स्वीकृत हुई और मुनिदीक्षा का आयोजन हो गया।
इसी मध्य क्षुल्लक शीतलसागर जी, जो कि महावीरकीर्ति जी महाराज के शिष्य थे, वे भी मुनिदीक्षा के लिए तैयार हो गये। ये क्षुल्लक जी तेरहपंथ के आग्रह से अपने दीक्षित गुरु आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी महाराज को छोड़ कर कुछ दिन से अलग गये थे। पश्चात् अध्ययन आदि के लिए यहाँ संघ में आये थे।
यहाँ पर ये पंथ का आग्रह न कर मध्यस्थ रहते हुए धर्माराधना करने के लिए आये थे। यद्यपि अनेक साधुगण इन्हें संघ में रखने के पक्ष में नहीं थे, फिर भी इनकी छोटी उम्र और विद्याध्ययन की उत्कट भावना को देखकर मैंने भी केवल परोपकार की भावना से मुनिश्री श्रुतसागरजी को बहुत कुछ समझाया और प्रयास किया कि- ‘‘इन क्षुल्लकजी को संघ में आश्रय देकर वात्सल्य देना चाहिए।’’ ‘‘मेरा यह प्रयास विशेष था अतः मुनिश्री की प्रेरणा से आचार्यश्री ने क्षुल्लकजी को आश्रय दिया था।
उस समय तीन दीक्षाओं का निर्णय हुआ। दीक्षा के मंगल अवसर पर दीक्षा के लिए बनाये गये मंगलचौक पर दीक्षार्थी खड़े हुए। आचार्यश्री ने प्रतिज्ञा कराना शुरू किया- ‘‘आप मुनिदीक्षा लेकर आचार्यश्री शांतिसागर जी की परम्परा के अनुकूल ही प्रवृत्ति करेंगे।’’ इतना सुनते ही क्षुल्लक श्रीशीतलसागर जी मंगलचौक से नीचे उतर पड़े और बोले- ‘‘मैं इस प्रतिज्ञा को निभाने में असमर्थ हूँ।’’ अब तीन मंगलचौक में से एक खाली हो गया। बीच में ही मैंने क्षुल्लक भव्यसागर जी को मुनिदीक्षा के लिए तैयार कर दिया। वे स्वयं पहले से भी दीक्षा चाहते थे किन्तु आचार्य महाराज ने मना कर दिया था।
फिर भी उस समय मुनिश्री श्रुतसागर जी आदि की प्रेरणा से आचार्यश्री ने तत्क्षण उनको स्वीकृति देकर उन्हें उस खाली हुये मंगलचौक पर बिठा दिया और तीनों दीक्षार्थियों ने उपर्युक्त प्रतिज्ञा को स्वीकार कर लिया और तीनों दीक्षायें संपन्न हो गर्इं। क्षुल्लक शीतलसागर जी की दीक्षा न होने से मुनि विरोधी लोगों को मौका मिल गया और उन्होंने आचार्यश्री के विरोध में लेख निकाल दिया तब क्षुल्लक जी ने स्वयं ही समाधान लेख निकाला और स्पष्टतया लोगों को समझाया कि- ‘‘वास्तव में मेरे तेरहपंथ के संस्कार होने से मैंने आचार्यश्री की प्रतिज्ञा को पालने में अपनी असमर्थता व्यक्त करके स्वयं दीक्षा नहीं ली है। इसमें आचार्यश्री का कोई दोष नहीं है इत्यादि।
सुजानगढ़ का चातुर्मास सानंद संपन्न होने के बाद संघ का विहार यहाँ से सीकर की ओर हो गया।’’
सीकर में संघ का आगमन
सीकर में अच्छी धर्मप्रभावना हुई। यहाँ से आचार्यश्री का विहार फतेहपुर की तरफ करने का बना, तब वहाँ के श्रावकों ने पहले तो विहार के लिए कहलाया भी था किन्तु बाद में कुछ पत्र आये कि- ‘‘आचार्यसंघ का विहार यहाँ मत कराओ, यहाँ शुद्धजल का नियम कर आहार देने वाले श्रावक नहीं मिलेंगे।’’
महाराजजी को ऐसी जानकारी मिलते ही आपस में यह चर्चा बनी कि- ‘‘अब तो वहाँ विहार अवश्य करना चाहिए तथा लोगों का भय निकालना चाहिए।’’ उस समय यह निर्णय लिया गया कि मात्र मुनिवर्ग को साथ लेकर आचार्यश्री फतेहपुर की तरफ विहार करें और आर्यिकायें सभी मिलकर अन्यत्र आस-पास विहार कर जावें। अनेक आर्यिकाओं की इच्छा न होते हुए भी आचार्यमहाराज की आज्ञा से आर्यिकाओं ने सीकर से दूजोद विहार कर दिया।
दूजोद जाकर मेरा वापस आना
दूसरे दिन ही सायंकाल में एक श्रावक सीकर से आया और मेरे हाथ में एक कागज दिया, उसमें लिखा था- ‘‘ज्ञानमतीजी! तुम अपने साथ की आर्यिकाओं के साथ यहाँ वापस आ जावो और मैंने बुलवाया है यह अभी किसी को पता नहीं चलना चाहिए।’’
मैंने यह कागज अपने पास की आर्यिका चंद्रमतीजी को दिखाया तो वे हर्ष से गद्गद होकर बोलीं- ‘‘माताजी! मेरी मनोभावना सफल हो गई।’’ मैंने प्रातः आर्यिका वीरमतीजी से निवेदन किया कि- ‘‘हम लोग वापस सीकर जा रहे हैं’’ और संघ में सबको वंदामि-प्रतिवंदामि आदि करके वहाँ से विहार कर सीकर आ गई।
वहाँ आते ही मुनि श्रुतसागरजी से मिलकर आतंरिक बातें समझीं पुनः आचार्य महाराज ने कहा- ‘‘ज्ञानमती जी! पहले से ही फतेहपुर के लोग घबरा रहे हैं अतः वहाँ चलकर समुचित व्यवस्था संभालनी है।’’ संघ का विहार फतेहपुर की तरफ होने वाला था तभी वहाँ के कुछ श्रावक भी व्यवस्था हेतु आ गये।
विहार हो गया, दो दिन में संघ लक्ष्मणगढ़ गांव में पहुँच गया। यह गाँव सीकर से फतेहपुर के बीच में था।
जटिल समस्या
वहाँ संघ के एक मुनिश्री ने आहार के समय कहा कि- ‘‘जब ज्ञानमती माताजी आर्यिकासंघ सहित वापस जायेंगी, तभी हम आहार के लिए उठेंगे अन्यथा हम अलग विहार कर जायेंगे।’’ हमारे सामने एक जटिल समस्या आ गई, मैं आचार्य महाराज के पास पहुँची तो देखा वे चिंतित हो रहे हैं, कुछ बोले ही नहीं, मैं कुछ देर बैठी रही फिर वापस चली आई।
उन सत्याग्रह करने वाले मुनि के सिवाय सभी मुनियों ने-जयसागरजी आदि ने यही कहा-‘‘माताजी! कुछ भी हो, आपको वापस नहीं जाना है, हम लोग समस्या को सुलझायेंगे।’’ आचार्य महाराज के पास आर्यिका चन्द्रमतीजी पहुँचीं तब वे बोले- ‘‘चंद्रमतीजी! मैं क्या करूँ? इधर कुआ उधर खाई क्या?’’ चंद्रमतीजी ने कहा-‘‘महाराज जी! आप की आज्ञा हो तो हम लोग वापस चले जायें?’’ महाराजजी ने कहा-‘‘मैं भला कैसे कह दूँ?’’
उधर उन मुनिश्री का उस दिन तो उपवास हो ही गया, मुझे इस बात की बहुत चिंता हुई किन्तु कुछ मस्तिष्क काम नहीं कर रहा था। इसी बीच उन मुनिश्री ने एक मुनि जयसागर जी से कहा-‘‘अब आगे संघ में आर्यिकाएँ नहीं रहेंगी और और न ब्रह्मचारिणी ही रहेंगी, मेरा यही कहना है।’’ मुनि जयसागर जी ने मुझे बुलाकर यह बात बता दी। तब मैंने आकर आपस में विचार किया।
मेरे मुंह से यह निकला कि ‘‘यदि आचार्य महाराज ऐसा कह दें कि अब आगे से संघ में आर्यिकायें नहीं रहेंगी, बस हम सभी वापस चली जायेंगी।’’ तभी एक महानुभाव ने आकर कहा-‘‘माताजी! अनर्थ हो गया! मैंने ही तो इन मुनिश्री को भड़काया था और उपवास करके सत्याग्रह करके आपका विहार कराना चाहा था।
मेरे मन में यह कषाय आ गई थी कि आर्यिका वीरमती जी आदि अलग विहार करें और आप लोग संघ में रहें, यह मुझे सहन नहीं हुआ था किन्तु इन्होंने तो उल्टा ही कर दिया। ये तो आगे किसी भी आर्यिका को संघ में रहने देना ही नहीं चाहते हैं अतः इनकी बात नहीं चलने देना है, भले ही ये विहार कर जावें। ब्र. सूरजमल जी ने भी कहा- ‘‘माताजी! आचार्य श्रीवीरसागर जी ने आर्यिकाओं को दीक्षा देकर संघ में संरक्षण दिया है अतः यह परंपरा कथमपि समाप्त नहीं करनी है।’’ अनंतर जैसे-तैसे सभी ने उन मुनिश्री को समझा-बुझाकर आहार के लिए उठाया।
आहार के बाद वे मुनिराज मुझे बुलाकर बोले- ‘‘माताजी! मैंने जो आपको कष्ट दिया, उसके लिए क्षमा चाहता हूँ, मेरा आपके प्रति कोई दुर्भाव नहीं है। मेरी इच्छा तो यह थी कि आगे संघ में आर्यिकाएँ रहें ही नहीं। इसी बीच अमुक महानुभाव ने मेरे से कहा कि ‘‘तुम ज्ञानमतीजी को संघ से हटाने का पुरुषार्थ करो।
अस्तु, अब मुझे इन प्रपंचों में नहीं पड़ना है। आचार्य महाराज जैसा कहें, ठीक है।’’ बात समाप्त हो गई। संघ अगले दिन विहार कर फतेहपुर पहुँच गया।