(ज्ञानमती माताजी की आत्मकथा)
जिन पावन महोत्सव की तैयारियाँ कई वर्षों से चल रही थीं, उस उत्सव की मंगलबेला आ गई। दिल्ली में चारों जैन सम्प्रदाय के साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकाओं ने मिलकर महोत्सव सफल बनाया। १३ नवम्बर १९७४ से २० नवम्बर तक कार्यक्रम आयोजित किये गये। इसमें आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी के सानिध्य में १०-११-७४ को पहाड़ीधीरज (दिल्ली)से वीरज्योति प्रज्वलित करके ज्योतिपात्र को रथ में विराजमान करके एक विशाल जुलूस निकाला गया जो कि दिगम्बर जैन लाल मंदिर चांदनी चौक पर आकर समाप्त हुआ।
यह ज्योति १४ नवम्बर १९७४ तक अखंडरूप से जलती रही। १३ नवम्बर १९७४, कार्तिक कृ. अमावस्या की उषाबेला में देशभर में सर्व जैन मंदिरों में महान् हर्ष उल्लास के वातावरण में निर्वाणलाडू चढ़ाया गया। दिल्ली के सर्वमंदिरों में भी निर्वाणलाडू चढ़ाया गया। दिगम्बर मुनियों ने इस निर्वाणबेला से पूर्व वर्षायोग निष्ठापन क्रिया करके वर्षायोग समापन कर निर्वाण क्रिया सम्पन्न की। लालकिला मैदान में बने विशाल पांडाल में १३ नवम्बर को ‘‘निर्ग्रंथ परिषद वंदना’’ नाम से कार्यक्रम मनाया गया। १४ नवम्बर को पांडाल में ‘गौतम गणधर स्मृतिदिवस’ नाम से कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
१५ नवम्बर को सभा में ‘श्रमण-संस्कृति परिषद’ नाम से सभा हुई। १५ नवम्बर को एक विशाल जुलूस अजमलखां पार्क (करोलबाग) से प्रारंभ होकर मॉडल बस्ती, बाड़ा हिन्दुराव, पहाड़ीधीरज, फतेहपुरी, चांदनी चौक होता हुआ लालकिला मैदान में समाप्त हुआ।
इस जुलूस में श्रीजी का रथ भी निकाला गया जिसके साथ आचार्य शिरोमणि धर्मसागर जी महाराज अपने चतुर्विध संघ सहित, आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज अपने संघ सहित, मुनिश्री विद्यानंद जी महाराज, अन्य अनेक तेरापंथी, स्थानकवासी और श्वेतांबरी साधु-साध्वियाँ सम्मिलित थे। आचार्य धर्मसागर जी ने पहले ही कह दिया था कि- ‘‘भगवान् की रथयात्रा के बिना मैं जुलूस में नहीं जाऊँगा।’’ अतः जुलूस के साथ भगवान् की रथयात्रा का निर्णय लिया गया था।
इस मीलों लम्बे विशाल जुलूस में मोतीचंद ने रेक्सीन पर बने हुए लगभग छह फुट चौकोर जम्बूद्वीप के रंगीन आकर्षक चित्र को एक टैम्पो पर रखकर निकाला था। निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में बनने वाली इस जम्बूद्वीप रचना के विषय में लोगों को जानकारी भी मिली और इस चित्र से लोग बहुत ही प्रभावित हुए। यह जुलूस वापस आते हुए रात्रि हो गई थी। दिगम्बर जैन साधु चूँकि रात्रि में चलते नहीं अतः दिन रहे ही बीच से वापस आ गये थे।
१७ नवम्बर १९७४ को मध्यान्ह दो बजे से दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल सभा का आयोजन हुआ। यहाँ बड़े-बड़े तीन मंच बनाये गये थे। एक मंच पर दिगम्बर के आचार्यद्वय अपने मुनि समुदाय सहित तथा श्वेताम्बर के तीनों सम्प्रदाय के साधु अपने-अपने साधु संघ सहित विराजे थे। द्वितीय मंच पर भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए आसन था एवं अन्य राजनैतिक व धार्मिक प्रमुख-प्रमुख लोग थे। तीसरे मंच पर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर सम्प्रदाय की साध्वियाँ विराजी थीं।
प्रमुख साधुओं के नाम दिगम्बर जैन आचार्य धर्मसागर जी, आचार्य देशभूषण जी, श्वेताम्बर आचार्य तुलसी जी, दिगम्बर मुनिश्री विद्यानंद जी, श्वेताम्बर मुनि श्री सुशील कुमार जी, मुनि नथमलजी, मुनि जनकविजयजी, मुनि हेमचंद जी और मुनि राकेश कुमार जी थे। प्रमुख साध्वियों में मैं (आर्यिका ज्ञानमती जी) साध्वी विचक्षणाजी, श्री मृगावती जी, श्रीकनकप्रभाजी, श्री प्रीतिसुधाजी आदि थीं। इस समारोह में सीमित वक्ताओं ने ही भाषण दिये।
इंदिरा जी ने आकर भगवान् महावीर स्वामी के आदर्शों को देश की शान्ति के लिए उपयोगी बतलाया। अन्य साधु वर्ग बोले, दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में मुनिश्री विद्यानंद जी ने अपना वक्तव्य दिया। अनंतर आचार्यश्री धर्मसागर जी ने अंत में आशीर्वादस्वरूप प्रवचन दिया। इस महोत्सव के समापन के समय जो धर्मचक्र का प्रवर्तन होना था, वह इंदिरा जी के करकमलों से कराया गया पुनः सभा का समापन हुआ। इस विशाल सभा में लाखों जैन-अजैन जनता थी।
इस समारोह के पूर्व विद्यानंदजी ने दिगम्बर सम्प्रदाय के साधुओं में पांच मिनट बोलने में मेरा नाम रखा और मुझे बुलाकर कहा- ‘‘माताजी! आपको पाँच मिनट बोलना है।’’ मैंने कहा-‘‘महाराज जी! आप आचार्य श्री धर्मसागर जी का नाम रखिये ।’’
मेरे विशेष निवेदन पर मुनिश्री ने आचार्यश्री का नाम रखाया था। इस विशाल सभा के अनंतर १८ नवम्बर को ‘निर्वाणवादी विचारधारा का योगदान’ इस विषय पर गोष्ठी हुई। १९ नवम्बर को ‘अनेकान्त विचार’ पर सभा हुई पुनः २० नवम्बर को ‘विकास योजनाएं’ निर्धारित विषय पर सभा हुई।’ इसके अतिरिक्त महिला परिषद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, कवि सम्मेलन आदि आयोजन भी सम्पन्न हुए। इस प्रकार यह २५०० वाँ निर्वाण-महोत्सव अच्छे उत्साह के साथ सारे भारत में मनाया गया।
एक दिन विश्व धर्म सम्मेलन में मुनिश्री सुशीलकुमार जी ने मेरा प्रवचन रखा था। मैं अपने संघ सहित पहुँची थी। वहाँ साध्वियों के मंच पर दिगम्बर और श्वेताम्बर साध्वियाँ उपस्थित थीं। जब मेरा समय आया, उधर से (मंच से) माइक द्वारा सूचना हुई कि दिगम्बर सम्प्रदाय की प्रमुख आर्यिका ज्ञानमती जी जैनधर्म के महत्व पर प्रकाश डालेंगी। मैंने सरलता और उदारतावश मेरे पास बैठी हुई एक क्षुल्लिका, जो कि दक्षिण की थीं, उनसे कहा- ‘आप दो मिनट मंगलाचरण बोल दो पुनः मैं बोलूंगी।’’
बस क्या था, उन्हें माइक मिलना था कि वे मंगलाचरण के श्लोक बोलती ही गई और बाद में कुछ भी थोड़ा सा बोलीं। कुल मिलाकर उन्होंने मेरा समय समाप्त कर दिया। माइक पुनः अन्य वक्ताओं की ओर चला गया। जब कार्यक्रम समाप्त हो चुका तब मंच से उतरकर मुनिश्री सुशील जी मुझसे बोले- ‘‘माताजी! आपने यह क्या किया? आपने किसके सामने माइक रख दिया? अरे!… मैं तो इतनी विशाल जनता को आपके दो शब्द सुनाना चाहता था और आपने न जाने कौन सी अपरिचित साध्वी को मौका दे दिया? उन्होंने तो श्लोक ही बोलते-बोलते सारा समय पास कर दिया। मुझे आपकी यह उदारता अच्छी नहीं लगी।’’
पुनः विचक्षणाश्री साध्वी ने भी उलाहना देते हुए कहा- ‘‘माताजी! आपका जैनधर्म के महत्व में जो सारगर्भित प्रवचन होता, वह विशेष ही होता, आपको इतनी परोपकार भावना क्यों? अरे! आपने उस १९ नवम्बर की विशाल सभा में भी अपना नाम हटवा दिया था और आज भी अकारण ही उस क्षुल्लिका को मौका देकर मजा किरकिरा कर दिया।’’
वास्तव में कई वर्षों से दिल्ली में रहते हुए ये क्षुल्लिका मेरे आमने-सामने आती थीं, निकट में बैठती थीं किन्तु इन्होंने न कभी मुझे नमस्कार किया, न मुझसे एक शब्द बोलीं और न मुझसे दृष्टि ही मिलायी। इनकी यह कषाय क्यों? कब से? और कहाँ से थी? पता नहीं? खैर! मैंने सहजभाव से सोचा कि-
‘‘यह एक श्लोक मंगलाचरण का बोल देंगी और मैं प्रवचन दे दूँगी।’’ खैर! उनकी यह धृष्टता ही थी कि सारा समय समाप्त कर मुझे बोलने भी नहीं दिया। इसके बाद भी दिल्ली में रहने तक भी वे मुझसे नहीं बोली थीं। अकारण ही यह ईर्ष्या मैंने जैसी उनमें देखी थी, आज तक किसी भी साधु-साध्वी में नहीं देखी है।
मगसिर कृष्णा १०, तदनुसार दिनांक ८-१२-१९७४ के दिन कतिपय दीक्षार्थियों का दीक्षा समारोह सम्पन्न हुआ। यहाँ दरियागंज में विशाल पंडाल बनाया गया था। सर्वप्रथम कु. सुशीला कलकत्ता (आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी की सुपुत्री) और कु. शीला श्रवणबेलगोल, इन दोनों ब्रह्मचारिणियों ने आर्यिका दीक्षा के लिए आचार्यश्री धर्मसागर जी के समक्ष नारियल चढ़ाकर प्रार्थना की थी। इनके साथ अन्य कई लोगों की मुनि, आर्यिका दीक्षा होने वाली थीं।
साहू शांतिप्रसाद जी इसके २-४ दिन पूर्व आचार्यश्री के पास आये और बोले- ‘‘महाराज जी! आज के जमाने में आपको इतनी छोटी उम्र में दीक्षा नहीं देनी चाहिए। इन्हें खूब अध्ययन कर लेने के बाद दीक्षा देनी चाहिए।’’ आचार्य श्री बोले-‘‘थेई ले लो अर्थात् आप ही दीक्षा ले लीजिये चूंकि आप तो विद्वान् हैं।’’ वे बेचारे चुप हो गये।
आचार्यश्री का कहना था कि- ‘‘प्रायः जो विद्वान् हैं वे दीक्षा लेते नहीं, आप जैसे जो प्रबुद्ध श्रीमान् हैं वे भी लेते नहीं हैं तो पुनः जो लेते हैं उन्हें देना ही होता है।’’ मैंने कहा-‘‘बात यह है कि दीक्षा का संबंध उम्र से या विद्वत्ता से नहीं है, प्रत्युत् वैराग्य से है। जिसे वैराग्य है वही दीक्षा का पात्र है।’’ इधर दरियागंज में दीक्षार्थी बालिकाओं की बिनोरी (शोभायात्रा) निकाली जाती थी। लोग धर्म-प्रेम से, उत्साह से हर एक कार्य में भाग ले रहे थे।
दरियागंज के कई एक महानुभावों ने एक दिन कहा- ‘‘पांडाल में इन दीक्षार्थी बालिकाओं से जिनप्रतिमा का अभिषेक नहीं कराना चाहिए।’’ किन्तु आचार्यश्री ने दृढ़ता से कहा कि- ‘‘संघस्थ जिनप्रतिमा का ये बलिकाएं, महिलाएँ अभिषेक करेंगी, कोई नहीं रोक सकता, यदि आप लोग विरोध करेंगे तो हम आगे विहार करके जंगल में दीक्षा दे देंगे।
हमें प्रभावना की और शहर की आवश्यकता नहीं है।’’ तब वे लोग शांत हो गये और प्रभावनापूर्ण वातावरण में विधिवत् सर्व कार्य सम्पन्न हुए। यहाँ दरियागंज में बालाश्रम के मंदिर में भी संघ की प्रतिमाजी विराजमान थीं। प्रतिदिन संघ के ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी अभिषेक करती थीं। सभी श्रावक वर्ग आकर बहुत ही प्रेम से देखते थे, किसी ने कुछ भी विरोध नहीं किया था।
इस दीक्षा के अवसर पर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज संघ सहित विराजमान थे, आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज संघ सहित विराजमान थे और मुनिश्री विद्यानंद जी महाराज भी विराजमान थे। ऐलक कीर्तिसागर को मुनिदीक्षा दी गई, नाम कीर्तिसागर ही रखा गया। क्षुल्लक गुणसागर को मुनि दीक्षा दी गई, नाम गुणसागर ही रहा। क्षुल्लक भद्रसागर को मुनि दीक्षा में भी वही नाम रहा। क्षुल्लिका मनोवती को आर्यिका दीक्षा देकर संयममती नाम रखा।
ब्रह्मचारिणी भागाबाई को आर्यिका दीक्षा देकर विपुलमती नाम रखा। ब्र. कु. सुशीला और कु. शीला को आर्यिका दीक्षा देकर उनका नाम क्रम से श्रुतमती और शिवमती रखा गया। ब्र. ब्रजभान को क्षुल्लक दीक्षा देकर उनका नाम निर्वाणसागर रखा गया। ये सब दीक्षाएँ आचार्यश्री धर्मसागर जी ने दी थीं। इनमें से दोनों कुमारिकाओं की दीक्षा मैं करा रही थी चूँकि ये दोनों ब्रह्मचारिणियां मेरे पास रहती थीं।
उस मंच पर इन कुमारिकाओं के बड़े-बड़े केशों का लोच मैं कर रही थी, साथ ही अन्य आर्यिकाएं भी कर रही थीं। दीक्षा के समय का यह दृश्य बहुत ही वैराग्यवर्धक एवं रोमांचकारी था।मंच का संचालन शांतिलाल जी कागजी कर रहे थे एवं दीक्षाविधि की व्यवस्था में सहयोग मोतीचंद कर रहे थे। उस समय प्रमुख वक्ता डा. लालबहादुर जी शास़्त्री, पं. हीरालाल जी शास्त्री आदि थे।
इसी मंगल अवसर पर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने प्रभावी मुनि श्री विद्यानंद जी को विधिवत् उपाध्याय पद प्रदान करते हुए नूतन पिच्छिका दी थी। मुझे भी ‘आर्यिकारत्न’ तथा ‘न्यायप्रभाकर’ पद से गौरवान्वित कर वात्सल्य प्रदान करते हुए नूतन पिच्छी एवं शास्त्र दिया था।
इस अवसर पर अर्थात् १३ नवम्बर से लेकर ८ दिसम्बर को निर्वाण दिवस से ठीक २५वें दिवस इस मंच पर इस २५सौवें निर्वाणमहोत्सव के प्रसंग में २५ दिगम्बर मुनि एक साथ विराजमान थे। पहले २२ मुनि थे। इस समय तीन ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ने मुनि दीक्षा ले ली थी अतः इस समय २५ मुनि हो गये थे। उनके नाम निम्न प्रकार हैं-
१. आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज | २. आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज |
३. उपाध्याय मुनिश्री विद्यानंद जी | ४. मुनिश्री वृषभसागर जी |
५. मुनिश्री सुपार्श्वसागर जी | ६. मुनिश्रीनेमीसागर जी |
७. मुनिश्री बोधिसागर जी | ८. मुनिश्री संयमसागर जी |
९. मुनिश्री दयासागर जी | १०. मुनिश्री महेन्द्रसागर जी |
११. मुनिश्री अभिनंदन सागर जी | १२. मुनिश्री संभवसागर जी |
१३. मुनिश्री वर्धमानसागर जी | १४. मुनिश्री भूपेन्द्र सागर जी |
१५. मुनिश्री बुद्धिसागर जी | १६. मुनिश्री पद्मसागर जी |
१७. मुनिश्री चारित्रसागर जी | १८. मुनिश्री विनयसागर जी |
१९.मुनिश्री विजयसागर जी | २०. मुनिश्री ज्ञानभूषण जी |
२१. मुनिश्री सन्मतिभूषण जी | २२. मुनिश्री वर्धमानसागर जी |
२३. मुनिश्री कीर्तिसागर जी | २४. मुनिश्री गुणसागर जी |
२५. मुनिश्री भद्रसागर जी |
इस दीक्षा समारोह के बाद इसी मंच से आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने दक्षिण की ओर मंगल-विहार कर दिया था। उस समय दिल्ली की जनता ने अश्रुपूरित नेत्रों से आचार्यश्री का विहार कराया था।
कु. माधुरी को सन् १९७३ में इनके भाई लोग घर ले गये थे, तब से भेज नहीं रहे थे। इस दीक्षा के प्रसंग पर ब्र. सुगनचंद को भेजकर इनको बुलाया था।
दिगम्बर जैन लालमंदिर में पूज्य १०० वर्षीया आर्यिका चन्द्रमती माताजी का शताब्दी समारोह मनाया गया। ये आर्यिका चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के द्वारा दीक्षा प्राप्त प्रथम शिष्या थीं। आप वृद्धा होते हुए भी अपनी चर्या में सावधान थीं। आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज आदि के सानिध्य में यह समारोह मनाया गया।
इस अवसर पर मेरे द्वारा लिखित, मुद्रित हुआ ‘त्रिलोक भास्कर’ एवं ‘बालविकास’ पुस्तकों का आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने विमोचन किया। यह त्रिलोक भास्कर संक्षेप में त्रिलोकसार आदि के आधार से लिखित हैं। तीनों लोकों का संक्षेप में वर्णन करने वाला है। बाल विकास बालकों के लिए अत्युपयोगी पाठ्य-पुस्तक है। आज इसकी सर्वत्र पढ़ाई हो रही है।