आर्यिका रत्नमती माताजी का स्वास्थ्य अब दिल्ली के हल्ले-गुल्ले को झेलने लायक नहीं था, अतः वे दिल्ली जाना नहीं चाहती थीं किन्तु ऐसी कमजोर अवस्था में उन्हें यहाँ कैसे छोड़ना और कैसे दिल्ली ले जाना? फिर भी उन्हें साथ ही ले गई। इतनी भयंकर सर्दी में १९ दिसम्बर को मैं दिल्ली पहुँच गई। वहाँ प्रतिष्ठा की तारीख का निर्णय लिया।
सुदर्शन मेरु प्रतिष्ठा की घोषणा
रविवार २९ अप्रैल से ३ मई बृहस्पतिवार १९७९ तक ‘श्री सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव हस्तिनापुर (मेरठ) उ.प्र. में होगा, इस हेतु से प्रतिष्ठा समिति का गठन किया गया।
ब्र. सूरजमल को प्रतिष्ठाचार्य रखना, ऐसा निर्णय रहा। यह प्रतिष्ठा अपने आप में एक विशेष ही थी। प्रतिष्ठा की तैयारियां जोर-शोर से हो रही थीं। इसी मध्य पं. बाबूलाल जमादार संस्थान के प्रचारमंत्री एवं मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार ये लोग आसाम, गोहाटी, कलकत्ता आदि गये। प्रतिष्ठा के प्रचार-प्रसार एवं व्यवस्था के लिए और भाक्तिक श्रावकों से तन-मन-धन का सहयोग लेने के लिए।
इधर बहुत ही अच्छे इंजीनियर आदि की सलाह से यहाँ सुदर्शन मेरु के ऊपर बनी पांडुक शिला पर जन्माभिषेक के समय १००८ कलशों द्वारा श्रावक-श्राविकाएं ऊपर चढ़कर अभिषेक कर सके, इसके लिए आफिस से लेकर इतनी दूर तक सुदर्शन मेरु की पाँडुक शिला तक पाइप की सीढ़ियाँ बनाई गर्इं। इस प्रतिष्ठा में यह सीढ़ियाँ, इनसे चढ़कर जन्माभिषेक का आनन्द, यह एक अपूर्व आयोजन था। इसी के साथ समापन के समय ‘गजरथ महोत्सव’ इस उत्तर प्रांत में वह भी प्रथम बार था।
इस प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव के प्रचार का रेडियो से भी प्रसारण हुआ। इधर सुदर्शन मेरु पर्वत में संगमरमर पत्थर बढ़िया पीले रंग का लगाया जा रहा था और इसमें सोलह वेदियाँ बन रहीं थीं। काम बहुत ही द्रुतगति से चल रहा था। मैं दरियागंज दिल्ली से चैत्र शुक्ला को विहार कर यहाँ यथासमय आ गई।
मेरा जम्बूद्वीप पर आगमन
यहाँ पर बड़े मंदिर में मेरी ठहरने की इच्छा नहीं थी, चूंकि उतनी दूर से बार-बार प्रतिष्ठा के समय मेरा व रत्नमती माताजी का आना-जाना संभव नहीं था अतः जिनेन्द्रप्रसाद ठेकेदार आदि ने निर्णय करके यहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर भगवान् महावीर मंदिर के पास फूस के छप्पर की दो झोपड़ियाँ बनवा दी थीं। मैं दिल्ली से आकर बड़े मंदिर का दर्शन करते हुए सीधे इधर आ गई और इन झोपड़ियों में ठहर गई।
उस समय क्षेत्र कमेटी के लोगों ने वहाँ ठहरने का आग्रह भी किया, किन्तु समस्या समझाकर मैं इधर ही आ गई। बाद में प्रतिष्ठा पर श्री उम्मेदमल पांड्या ने मुझे अपने द्वारा निर्माण कराये गये फ्लेट में ठहराया जो कि यहीं जम्बूद्वीप पर आफिस के पास बने हुए थे।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
यहाँ वैशाख बदी सप्तमी, दिनाँक १९ अप्रैल को झंडारोहण हुआ। यह मंगल कार्य मुजफ्फरनगर के श्री भागचंद पाटनी ने सम्पन्न किया। वैशाख कृ. १३ को अंकुरारोपण, वैशाख कृ. १४, दिनाँक २५ अप्रैल को रथयात्रा महोत्सवपूर्वक श्री जी की प्रतिमा को पांडाल की वेदी में विराजमान किया गया। वहाँ पांडाल में ही नवदेवता मंडल विधान एवं जाप्यानुष्ठान प्रारंभ हो गया।
आचार्य कल्प श्रेयांससागर जी महाराज जम्बूद्वीप पर
वैशाख शु. १, दिनाँक २७ अप्रैल को अहिच्छत्र की यात्रा करके आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर जी महाराज ससंघ इस जम्बूद्वीप स्थल पर पधारे। एक मील पूर्व ही मैं उनके सम्मुख पहुँच गई।
उनके मंगल-पदार्पण से हम सबको एक अद्भुत ही आनन्द आया। वैशाख शु. २ को जलयात्रा होकर सुदर्शन मेरु के सोलह चैत्यालयों की वेदी शुद्धि हुई। यहाँ प्रतिष्ठा में सुदर्शन मेरु की सोलह जिन प्रतिमाएं सिद्धों की थीं क्योंकि वहाँ अकृत्रिम जिनालयों में बिना चिन्ह की ही शाश्वत सिद्ध प्रतिमाएँ रहती हैं अतः विधिनायक भगवान् शांतिनाथ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो रही थी।
वैशाख शुक्ला ३, अक्षय तृतीया रविवार दिनाँक २९ अप्रैल को मध्यान्ह में उत्तर प्रदेश शासन के विद्युत मंत्री श्री रेवती रमण जी ने इस मेले का उद्घाटन किया। रात्रि में पांडाल में इंद्रों की बोलियों का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस प्रतिष्ठा में सौधर्म इन्द्र बनने का सौभाग्य श्री हरकचंद जी पांड्या कलकत्ता वालों को प्राप्त हुआ। इस प्रकार १२ इन्द्र और कुबेर की बोलियाँ सम्पन्न हुर्इं।
भगवान शांतिनाथ के पिता विश्वसेन और माता ऐरादेवी बनने का सौभाग्य श्री पूषराज जी अग्रवाल जैन कलकत्ता वालों ने प्राप्त किया। गर्भ कल्याणक क्रिया की पूर्व विधि का मंच पर प्रदर्शन किया गया। अनन्तर ३० अप्रैल को प्रातः भगवान् के जन्माभिषेक का विशाल जुलूस निकला। उसके बाद यहाँ जो तारापुर एंड कम्पनी मद्रास के सौजन्य से, उनके इंजीनियर के मार्गदर्शन में, नरेशकुमार बंसल दिल्ली के सद्प्रयत्न से पाइप का बहुत सुन्दर पैड बनाया गया था, उसी से चढ़कर हजारों इंद्र-इंद्राणियों ने १००८ कलशों से श्री शांतिनाथ भगवान् का जन्माभिषेक किया।
इस अवसर पर बड़े मंदिर वालों ने माइक से विरोध करना शुरू कर दिया कि जो स्त्रियाँ वहाँ श्रीजी का अभिषेक करेंगी, वो दुर्गति को (नरक को) प्राप्त करेंगी। यहाँ हम लोगों के ऊपर उन लोगों के विरोध का कोई असर नहीं होता था चूँकि हम लोग अपनी आचार्यश्री शांतिसागर जी की परम्परा में दृढ़ थे और ये सभी कार्य जैन आगमानुकूल हैं, इस बात को दृढ़ता से दिखाकर जनता को समाधान भी प्रस्तुत कर देते थे।
दूसरी बात सन् १९७५ में श्री सुकुमार चंद मेरठ आदि महानुभावों की उपस्थिति में यह प्रस्ताव इस संस्थान में पास हो चुका था कि ‘‘यहाँ जम्बूद्वीप में तेरह पंथ और बीसपंथ दोनों आम्नायों के अनुसार पूजा पद्धति चलेगी’’ अतः यहाँ अपना कार्यक्रम आगमानुकूल चलता ही रहा।
स्त्रियों द्वारा जिनाभिषेक के प्रमाण
कुछ लोगों ने शास्त्र के प्रमाण जानना चाहे, तो उसी समय कुछ प्रमाण भी दिखा दिये गये। यथा-
ततः सुरपतिस्त्रियो जिनमुपेत्य शच्यादयः।
सुगंधितनुपूर्ववैर्मृदुकराः समुद्वर्तनम् ।।
प्रचव्रुराभिषेचनं शुभपयोभिरुच्चैर्घटैः।
पयोधरभरैर्निजैरिव समं समावर्जितैः।। ५४।।
शचि आदि इंद्राणियों ने जिनेन्द्रदेव के कोमल शरीर का उद्वर्तन-उबटन करके शुभ जल से परिपूर्ण कलशों द्वारा उनका जन्माभिषेक किया। दूसरा प्रमाण-
अथैकदा सुता सा च सुधीः मदनसुन्दरी।
कृत्वा पंचामृतैः स्नानं जिनानां सुखकोटिदम् ।।
एक बार मैनासुन्दरी ने जिनेन्द्रदेव का करोड़ सुख को देने वाला ऐसा पंचामृत अभिषेक किया। और भी अनेक प्रमाण आगम में स्त्रियों द्वारा अभिषेक करने के मिलते हैं किन्तु निषेध कहीं भी नहीं मिलता है।
आज भी दक्षिण में-महाराष्ट्र में सर्वत्र स्त्रियों द्वारा अभिषेक करने की परम्परा है एवं चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी की आज्ञा से उनकी परम्परा के संघों में भी यह परम्परा चल रही है। उस समय श्री शिखरचंद जैन, रानी मिल, मेरठ वाले भी यहीं जम्बूद्वीप स्थल के बाहर सड़क पर अपना फोल्डिंग हवामहल बनाकर, प्रतिष्ठा की गतिविधियों को संभाल रहे थे।
मंदिर वालों द्वारा माइक पर इस प्रकार की सूचना प्रसारण से सारे भारत से आए हुए जैन लोगों ने तथा इस प्रांत के भी जैन बंधुओं ने इसे अच्छा नहीं माना, प्रत्युत् यही कहा कि-‘‘क्या ये लोग सन् १९८१ के श्रवणबेलगोल के महामस्तकाभिषेक में ऐसी घोषणा करने का अतिसाहस करेंगे? वास्तव में मंदिर वाले बहुत ही संकीर्ण विचारधारा के हैं।’’
सबसे अधिक आश्चर्य तो इस बात का होता था कि ये लोग मंदिर के परिसर में ही माइक पर खड़े होकर सूचना प्रसारण करते रहते कि- ‘‘विधवा विवाह कीजिये, जिनके पति ने छोड़ दिया है या तलाक दे दिया है, ऐसी महिलाएँ भी पुनर्विवाह करें एवं अंतर्जातीय विवाह करें।’’
जब ये लोग जिन प्रतिमा के अभिषेक करने वाली महिलाओं के लिए कहते कि- ‘‘जो महिलाएँ अभिषेक करेंगी, वे नरक में जायेंगी। तब ऐसा विचार आता था कि- ‘‘शायद, इनकी मान्यता से जो महिलाएँ विधवा होकर या परित्यक्ता होकर पुनर्विवाह करेंगी, वे अवश्य ही स्वर्ग जावेंगी।’’ वास्तव में कलिकाल की ही यह विडम्बना है। एक महानुभाव ने यहाँ तक कह दिया कि-
‘‘जो बालिकाएँ या महिलाएँ खड्गासन नग्न दिगम्बर जिन प्रतिमा का अभिषेक करती हैं, उनके शीलव्रत में दोष लगता है।’’ यह सुनकर यह विचार अवश्य आता है कि- ‘‘जो महिलाएँ तीर्थंकरों को, दिगम्बर मुनियों को आहारदान देती हैं, या नग्न मूर्तियों के अथवा नग्न मुनियों के दर्शन करती हैं ऐसी चंदनबाला, चेलना आदि महिलाएँ भी निर्दोष कैसे रही थीं?
उन्हें भी शीलव्रत में दोष लग जाना चाहिए था।’’ वास्तव में विचार करके देखा जाये तो जो महिलाएं तीर्थंकर प्रभु की मूर्तियों का अभिषेक करती हैं या नग्न मुनियों का दर्शन करती हैं अथवा दान देती हैं, उनके परिणाम ब्रह्मचर्य से च्युत हो जायें, उनके मन में विकार आ जाये, यह सर्वथा असंभव है। देखिए, पद्मपुराण में लिखा है कि सती सीता ने महामुनियों के चरण प्रक्षालन किये-
अथोद्वर्त्य चिरं पादौ तयोर्निर्झरवारिणा।
गन्धेन सीतया लिप्तौ चारुणा पुरुभावया।।४४।।
आसन्नानां च वल्लीनां कुसुमैर्वनसौरभैः।
लक्ष्मीधरार्पितैः शुक्लैः पूरितान्तरमर्चितौ।।४५।।
ततस्ते करयुग्माब्जमुकुलभ्राजतालिकाः।
चक्रुर्यौगीश्वरीं भक्तया वंदनां विधिकोविदाः।।४६।।
वीणां च सनिधायाज्र् वधूमिव मनोहराम्।
पद्मोऽवादयदत्युद्धं गायन् सुमधुराक्षरम् ।।४७।।
अथानन्तर भक्ति से भरी सीता ने निर्झर के जल से देर तक उन मुनियों के पैर धोकर मनोहर गंध से लिप्त किए तथा जो वन को सुगंधित कर रहे थे एवं लक्ष्मण ने जो तोड़कर दिये थे, ऐसे निकटवर्ती लताओं के फूलों से उनकी खूब पूजा की। तदनन्तर अंजलिरूपी कमल की बेड़ियों से जिनके ललाट शोभायमान थे तथा जो विधि विधान के जानने में निपुण थे, ऐसे उन सबने भक्तिपूर्वक मुनिराज की वंदना की।
अत्यन्त उत्तम तथा मधुर अक्षरों में गाते हुए राम ने मनोहर स्त्री के समान वीणा को गोद में रखकर बजाया। (पद्मपुराण पर्व नं. ३९) इन पंक्तियों से यह समझना है कि यदि सीता को मुनियों के चरण स्पर्श से दोष लगा होता तो वह अग्नि को जल नहीं बना सकती थी और यदि सीता के द्वारा चरण स्पर्श से मुनियों के शील में दोष लगा होता, तो वे उसी क्षण केवलज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते थे, इत्यादि।
दूसरी बात तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य महिलाओं को ही मिला है। जिन शिशु को प्रथम स्पर्श करने का, गोद में लेने का सौभाग्य भी शची इन्द्राणी को ही मिला है एवं जिनप्रतिमा के अभिषेक का सौभाग्य भी पतिव्रता अथवा ब्रह्मचारिणी महिलाओं को ही मिलता है। आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज कहा करते थे-
त्रिपक्षं शुद्ध्यते सूती रजसा पंचवासरं।
अन्यासक्ता च या नारी यावज्जीवं न शुद्धयति।।
बच्चे को जन्म देने वाली सूतिका महिला तीन पक्ष-पैंतालिस दिन बाद शुद्ध होती है। रजस्वला स्त्री पांच दिन से शुद्ध होती है और अन्य में आसक्त हुई जो महिला है-जो व्यभिचारिणी महिला है वह जीवन भर शुद्ध नहीं होती है अर्थात् ऐसी महिलाओं को दीक्षा लेने का, अभिषेक-पूजन करने का अथवा आहारदान देने का अधिकार नहीं है।
इस जन्मकल्याणक महोत्सव के बाद श्रीजी का पालना, भगवान् की बालक्रीड़ा, राज्याभिषेक, वैराग्य आदि कार्यक्रम दिखाये गये। भगवान् की दीक्षाविधि के बाद सूरिमंत्र आदि मुख्य क्रियाएँ सम्पन्न हुई। पूज्य मुनिराज श्री श्रेयांससागर जी द्वारा प्रतिमाओं में सूरिमंत्र प्रदान किया गया। वैशाख शु. ६ को केवलज्ञान कल्याणक उत्सव सम्पन्न हुआ।
उसी दिन रात्रि में त्रिलोक शोध संस्थान का प्रथम अधिवेशन हुआ। वैशाख शु. ७ को प्रातः मोक्षकल्याणक विधि के अनन्तर भगवान् को विराजमान करने का कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी लोगों को डर लग रहा था कि इतनी बड़ी विशाल प्रतिमाएँ कैसे इन सुमेरु के चैत्यालयों में विराजमान की जावेंगी?
परन्तु ये सभी सोलह जिनप्रतिमाएँ इतनी आसानी से यहाँ चैत्यालयोंं में विराजमान की गर्इं कि लोग आश्चर्यचकित ही रह गये। उस समय एक-दो प्रतिमा विराजमान कराकर मैं यहाँ सामने फ्लैट के बाहर महामंत्र का जाप करते हुए, तब तक बैठी रही कि जब तक सभी प्रतिमाएँ विराजमान नहीं हो गई।
अनन्तर मध्यान्ह में गजरथ महोत्सव हुआ, जो कि इस प्रांत का विशेष आकर्षण था। हजारों लोगों ने गजरथ महोत्सव को देखकर अपना जीवन धन्य किया। इस प्रतिष्ठा की वीडियो फिल्म भी बनाई गई है जो कि समय-समय पर दिखायी जाती है।
जम्बूद्वीप स्थल पर झाँकियाँ
इस प्रतिष्ठा के अवसर पर जैन-जैनेतर सभी के आकर्षण के लिए १० झाँकियाँ बहुत ही सुन्दर बनवायी गई थीं जो कि आज भी उपलब्ध हैं, लगता है मानों बोल ही रही हैं। इसी कार्यक्रम में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन युवा परिषद का द्वितीय वार्षिकोत्सव अच्छे ढंग से मनाया गया। इस प्रतिष्ठा में अखिल भारतीय दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद की भी बैठक सम्पन्न हुई जिसमें ४० विद्वान् पधारे थे। इसी मंगलमय अवसर पर ‘‘आचार्यश्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ’’ की स्थापना की गई।
ब्र. कपिल कोठड़िया ने सूर्यकांत (सुरेश) कोठड़िया नाम के एक बाल ब्रह्मचारी विद्यार्थी को इस विद्यापीठ के प्रथम छात्र के रूप में दिया। सन् १९७८ के प्रशिक्षण शिविर में आये विद्वान् श्री गणेशीलाल जी साहित्याचार्य आगरा वालों को इस विद्यापीठ का प्राचार्य मनोनीत किया गया। आगे श्रावण कृ. १, वीरशासन जयन्ती से विधिवत् यह विद्यापीठ चालू किया गया ।
सिद्धप्रतिमा एवं जिनप्रतिमा
इस सुदर्शन मेरु प्रतिष्ठा में इसी मेरु में विराजमान सोलह सिद्धप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई है। ऊपर में पांडुक आदि चार शिलाओं के लिए भगवान् शांतिनाथ, भगवान् सीमन्धर, भगवान् सुबाहु और भगवान् वीरसेन स्वामी, ऐसी चार प्रतिमाएँ धातु की प्रतिष्ठित हुई हैं। भगवान् बाहुबली की ६ फुट ऊंची प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई है।
भगवान् शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ की ऐसी तीन प्रतिमाएं खड्गासन लगभग सवा तीन फुट और ३-३ फुट की हैं इनकी प्रतिष्ठा हुई है एवं विधिनायक भगवान् शांतिनाथ की जिनप्रतिमा ९ इंच की है जो कि धातु की है, ये प्रतिमाएँ तो यहाँ जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान हैं अन्य और भी प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई थी जो कि अन्यत्र से आई थीं, जिन्हें लोग प्रतिष्ठित कराकर अपने-अपने मंदिरों के लिए ले गये हैं।
इस प्रकार इस प्रतिष्ठा को निर्विघ्न सम्पन्न हुई देखकर प्रसन्नता से हृदय विभोर हो गया। पश्चात् मोरीगेट, दिल्ली के समाज के, खासकर शांतिबाई आदि महिला समाज के, आग्रह से मैंने आर्यिका रत्नमती जी की किंचित् भी इच्छा न होते हुए भी उन्हें साथ लेकर इस भयंकर ज्येष्ठ की गर्मी में ही दिल्ली के लिए विहार कर दिया।