तीर्थंकर का जन्माभिषेक मुनियों द्वारा भी दर्शनीय है
पंचकल्याणकों से समन्वित तीर्थंकर भगवान् इस पंचम काल में साक्षात् विद्यमान नहीं हैं फिर भी उनके प्रतिबिम्बों में पंचकल्याणक के संस्कार करके उन्हें भगवान् तीर्थंकर के समान ही मानकर पूजा जाता है। उन अचेतन प्रतिमाओं के दर्शन-वन्दन से भव्य प्राणी सम्यग्दर्शन को प्रगट कर मोक्ष तक का टिकट प्राप्त कर लेते हैं तथा इनके अपमान आदि से नरक-तिर्यंच आदि गतियों का बन्ध करते देखे जाते हैं।
सती अंजना ने अपने पूर्व जन्मों में रानी कनकोदरी की पर्याय में जिनेन्द्र प्रतिमा का ही अपमान करके ऐसे निकाचित कर्म का बन्ध कर लिया था जो अंजना की अवस्था धारण कर बाईस वर्ष तक पतिवियोग के रूप में उसे भोगना पड़ा। ऐसे कई उदाहरण पुराण ग्रन्थों में भरे पड़े हैं जो जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं को साक्षात् जिनेन्द्र मानने की पुष्टि करते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि पाषाण या धातु की मूर्तियों को भगवान बनाने हेतु जिन पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं का आयोजन श्रावकगण करते हैं उनमें दिगम्बर मुनि-आर्यिका आदि चतुर्विध संघ की क्या भूमिका होती है ?
भारत में आयोजित होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में तो किसी न किसी साधु का सानिध्य अधिकतर रहता है किन्तु वर्तमान में कुछ साधु यह कहकर जन्मकल्याणक महोत्सव के जुलूस एवं पाण्डुकशिला पर होने वाले जन्माभिषेक को देखने नहीं जाते हैं कि ‘‘साधुओं को मात्र दीक्षाकल्याणक आदि में जाना चाहिए, जन्मकल्याणक में वे भाग नहीं ले सकते हैं।’’
इस विषय में आगम प्रमाण यह मिलता है कि चारण ऋद्धिधारी मुनि भी जिनेन्द्र भगवान का जन्माभिषेक बड़े भक्तिभाव से देखते हैं। जैसा कि महापुराण नामक आर्षग्रन्थ में वर्णन आया है—
सानन्दं त्रिदशेश्वरैस्सचकितं देवीभिरुत्पुष्करैः,
सत्रासं सुखारणैः प्रणिहितैरात्तादरं चारणैः।
साशंकं गगनेचरैः किमिदमित्यालोकितो याः स्फुर-
र्द्र्र्धिनसनोऽवताज्जिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भः प्लवः।।२१६।। पर्व १३।।
अर्थ—मेरुपर्वत के मस्तक पर स्फुरायमान होता हुआ जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का वह जलप्रवाह हम सबकी रक्षा करे जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनन्द से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूंड ऊँची करके बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘‘यह क्या है’’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।
इससे सिद्ध होता है कि वर्तमान के दिगम्बर मुनि, आचार्य या उपाध्याय आदि को जन्मकल्याणक जुलूस में सम्मिलित होने में रंचमात्र भी दोष नहीं है। बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा में आचार्य श्री शिवसागर महाराज, आचार्य श्री धर्मसागर महाराज आदि चर्तुिवध संघ सहित जन्माभिषेक देखते थे।
तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक दिव्य, अलौकिक होता है अतः सामान्य मुनि एवं आचार्यों को उनका जन्माभिषेक देखने में कोई विकल्प ही नहीं होना चाहिए। देखो! भगवान् महावीर को पालने में झूलते हुए देखने मात्र से ही संजय और विजय नामक चारणऋद्धिधारी मुनियों की शंका का समाधान हो गया था अतः तीर्थंकर की महिमा का वर्णन तो अनिर्वचनीय है।
मुनिभक्त दिगम्बर जैन समाज के द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले पंचकल्याणकों में प्रायः किसी न किसी आचार्य अथवा मुनिसंघों का सानिध्य अवश्य रहता है। उनमें से कुछ साधु तो रुचिपूर्वक जन्मकल्याणक के जुलूस में जाकर पांडुकशिला पर जन्माभिषेक देखते हैं तथा कुछ तो इसका पूर्ण विरोध करते हुए अपने संघ के किसी भी साधु-साध्वी को जन्माभिषेक देखने नहीं भेजते हैं।
इस विषय में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कहा करती हैं कि अपनी गुरु परम्परानुसार साधुओं को भगवान् के जन्मकल्याणक में भाग लेना चाहिए। परम पूज्य आचार्य श्री विमलसागर महाराज, आचार्य श्री कुन्थुसागर महाराज, आचार्य श्री अभिनन्दनसागर महाराज आदि लगभग समस्त बड़े-बड़े संघ उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए जन्मकल्याणक जुलूस में भी भाग लेते रहे हैं और जन्माभिषेक भी देखते हैं। उस पवित्र जन्माभिषेक का वर्णन करते हुए भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में लिखा है—
निर्वापिता मही कृत्स्ना, कुलशैलाः पवित्रिताः।
कृता निरीतयो देशाः, प्रजाः क्षेमेण योजिताः।।१६९।।
कृत्स्नामिति जगन्नाड़ीं, पवित्रीकुर्वतामुना।
किं नाम स्नानपूरेण, श्रेयश्शेषितमंगिनाम्।।१७०।।
अर्थ—उस जलप्रवाह ने समस्त पृथ्वी सन्तुष्ट कर दी थी, सब कुलाचल पवित्र कर दिये थे, सब देश अतिवृष्टि आदि ईतियों से रहित कर दिये थे और समस्त प्रजा कल्याण से युक्त कर दी थी। इस प्रकार समस्त लोकनाड़ी को पवित्र करते हुए उस अभिषेक जल के प्रवाह ने प्राणियों का ऐसा कौन-सा कल्याण बाकी रख छोड़ा था जिसे उसने न किया हो ? अर्थात् कुछ भी नहीं।
समस्ताः पूरयन्त्याशा, जगदानन्ददायिनी।
वसुधारेव धारासौ, क्षीरधारा मुदेऽस्तु नः।।१९२।।
अर्थ—वह दूध के समान श्वेत जल की धारा हम सबके आनन्द के लिए हो जो कि रत्नों की धारा के समान समस्त दिशाओं और इच्छाओं को पूर्ण करने वाली तथा समस्त जगत् को आनन्द देने वाली थी।
माननीया मुनीन्द्राणां, जगतामेक पावनी।
साव्याद्गन्धाम्बुधारास्मान्, या स्म व्योमापगायते।।१९५।।
अर्थ—जो बड़े-बड़े मुनियों को मान्य है, जो जगत् को एकमात्र पवित्र करने वाली है और जो आकाशगंगा के समान सुशोभित है ऐसी वह सुगन्धित जल की धारा हम सबकी रक्षा करे। अभिषेक के पश्चात् शान्तिधारा करने की पुष्टि भी इस आर्षग्रन्थ में आई है—
कृत्वा गन्धोदवैरित्थम्, अभिषेकं सुरोत्तमाः।
जगतां शान्तये शान्तिं, घोषयामा सुरुच्चवै।।।
अर्थ—इस प्रकार इन्द्र सुगन्धित जल से भगवान् का अभिषेक कर जगत की शान्ति के लिए उच्च स्वर से शान्ति मंत्र पढ़ने लगे। तदनन्तर देवों ने उस गन्धोदक को पहले अपने मस्तकों पर लगाया फिर सारे शरीर में लगाया और बाकी बचे हुए को स्वर्ग ले जाने के लिए रख लिया।
ऐसा पवित्र गन्धोदक हम सबके तन-मन को पावन करे और भगवान का जन्माभिषेक देखकर हम भी उसी प्रकार का जन्म धारण करने का पुरुषार्थ करें यही प्रार्थना है