(मेरे पितामह श्रीजतीरामजी को निम्नलिखित सच्ची घटना स्वयं उन सज्जन ने सुनायी थी, जो गोरक्षा करने के कारण फाँसी से बचे थे। जहाँ तक हो सका— मैंने उनके भावों की पूरी रक्षा करते हुए अपनी भाषा में इसे लिख दिया है।— लेखक) सन् १८५७ की गदर की ज्वाला समस्त भारत में फैल गयी थी। दिल्ली उसका केन्द्र था । प्रत्येक गली मरघट बनी हुई थी। स्थान—स्थान पर खून के चिन्ह बने थे। बलवा करने वालों ने अच्छे बुरे की तमीज मिटा दी थी। मैं बलवाईयों का सरदार था। दिनभर लूट—मार करने से शरीर थक गया था। हड्डियां चूर हो गयी थीं। भूख के मारे मेरा बुरा हाल था। हमारे थैले लूटी हुई वस्तुओं तथा रुपयों से भरे पड़े थे। परन्तु अन्न के लिए आंतें एक दूसरे से उलझ रही थीं। हम सब—के—सब मुसलमान थे और अन्न के लिए तड़प रहे थे। हम सब थक गये थे, एक चौक में इकट्ठे हो गये। हम कुल पाँच थे मैं उनका अगुवा था। अधिक ताकत लगाने से बहुत थक गया था। मैं चौक के एक कौने में चबूतरे के नुकक्ड़ पर सुस्ताने लगा और अपने साथियों से कहा कि ‘आप लोग कहीं न कहीं से खाने का बंदोबस्त करें, नहीं तो मेरी जान निकलना ही चाहती है। सचमुच भूख से पेट में दर्द हो गया था, आँखो के आगे अंधेरा छाता जा रहा था।
मेरी हालत देखकर मेरे साथी तुरंत खाना लाने के लिए निकल पड़े। थोड़ी ही देर में मैंने देखा कि मेरे वे चारो साथी एक मोटी—ताजी गाय को घसीटते हुए लिए आ रहे थे पता नहीं, वह बेचारी उन भूखे भेड़ियों के हाथों में कैसे पड़ गयी थी। इसकी गर्दन में एक ने अपनी पगड़ी बाँध दी थी और उन्होंने चिल्लाती हुई गाय के चारो पैर बाँधकर उसे जमीन पर गिरा दिया। गाय थक गयी थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे और मैं भूख से छटपटा रहा था। मेरा शरीर शिथिल हो गया था। उस बेगुनाह गाय को उन भेड़ियों से घिरी देखकर, जो कुछ ही देर में अपने पेट में डालने के लिए तैयार थे, और अपनी संगीनें तेज कर रहे थे, मेरी आत्मा काँप उठी। गाय गाभिन थी। उसे देखकर मुझे अपने देश में पड़ी हुई अपनी गर्भवती पत्नी की याद आयी। मैं काँप गया। मैंने झट एक चाल चली।
हिम्मत करके अपनी जगह से उठा और साथियों के पास जाकर उनसे कहा— ‘तुम देख नहीं रहे हो, भूख के मारे मेरी जाने जाना चाहती है, मगर तुम लोग अभी तक अपने सरदार की उदर पूर्ति करने में असमर्थ ही दिख रहे हो। तुम लोग जाकर लकड़ियाँ और नमक ले आओ, तब तक बाकी काम मैं करता हूँ, गाय बंधी है, इसके लिए मैं अकेला ही बहुत हूँ। मैं भूख से बहुत घबरा गया हूँ, तुम लोग जल्दी जाओं।’ दुनिया को बनाने वाले मालिक की कृपा थी वे पहले ही लकडियाँ और नमक लाना भूल गये थे, अगर वे ये दोनों चीजें साथ में ही लाये होते तो मेरी यह तरकीब सफल न हो पाती। मेरे साथी चले गये। अपने साथियों के जाते ही मैंने उस संगीन से, जो गाय को भोंकने के लिए म्यान से निकाली गयी थी, उसके गले में बंधी हुई पगड़ी काट डाली और उसकी पीठ पर थपकी दी। पहले तो वह जोर लगाने पर भी उठ नहीं सकी। पर मेरे दुबारा पुचकारने पर वह उठकर खड़ी हो गयी और अंगड़ाई लेकर दुम को बदन पर फिराया। फिर मेरी तरह देखने लगी जैसे कोई कह रहा हो कि ‘ तुम्हारे अहसान का बइला जरूरी मिलेगा।’ वह क्षणभर में नजरों से औझल हो गयी। मेरे साथी आये और मैं दम साधे धरती पर पड़ा था। उन्होंने मुझे हिलाया—डुलाया और गाय के संबंध में पूछा।
मैंने जवाब दिया— ‘ भूख के कारण मुझे मूर्छा आ गयी थी। गाय का मुझे कोई पता नहीं। ‘मैं भूखा और उनकी टोली का सरदार था, इस कारण मेरी बात का उन्हें विश्वास हो गया। झख—मारकर उन लोगों ने आटे की रोटी बनायी और वही खाकर पानी पिया गया। अब दूसरी बार गाय की तलाश करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। गदर खत्म होने के बाद बलवा करने वाले पकड़ लिये गये। उनमें मैं भी था। फौजी अदालत में मुकदमा चला। मेरे लिए सिफारिशें की गयीं, पर उनका कोई असर नहीं हुआ। मुझे फाँसी की सजा सुनाई गयी। जेल के बाहर सैंकड़ों आदमी खड़े थे। मुझे फाँसी के तख्ते पर खड़ा करके लाल टोपा पहना दिया गया । मेरी नजरों के आगे ‘दुनिया में चारों तरफ अंधेरा—ही—अंधेरा था। गले में फांसी का फंदा डाल दिया गया। मुझे ऐसा लगा कि मेरे नीचे का तख्ता हट गया और मैं खंदक में गिर पड़ा । डर के मारे मेरा खून सूख गया और गला खुश्क हो गया। मैं बेहोश था, पर थोड़ी ही देर में मुझे होश आया और ऐसा मालूम हुआ कि मैं मरा नहीं, अभी तक जीवित हूँ । मेरे दोनों पैरों के नीचे दो सींग चुभ रहे थे, जिन पर मैं टिका था।
खंदक के नीचे नहीं पड़ा। गले का फंदा ढीला ही रहा। कुछ देर बाद मुझे मुर्दा समझकर बाहर निकाला गया, पर मुझे देखते ही डाक्टर एक चीख के साथ पीछे हट गया। जब उसने मुझे बिल्कुल सही सलामत देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। कोर्ट—मार्शल के हुक्म के मुताबिक मुझे तीन बार फाँसी दी गयी, मगर हर बार मेरे दोनों पैर के नीचे दो सींग लग जाते थे और मैं ऊँचा उठ जाता था। गले का फंदा गला दबाकर मेरी जान नहीं निकाल पाता था। मैं बच जाया करता था। आखिर तंग आकर मुझे छोड़ दिया गया। अपने सम्बन्धियों के साथ मैं जेल के बाहर निकला उस समय मैंने देखा कि ‘एक गाय अपनी भोली आँखों से मेरी ओर देखती हुई मेरे आगे से जा रही है और उसके पीछे उसका एक अल्हड़ बछड़ा खुशी से उछलता हुआ जा रहा है।’ मुझे उसी वक्त दिल्ली के गदर की उस गाय की याद आ गयी , जिसे जबह करने के लिए मेरे साथियों में बाँध रखा था । छूटने पर वह भी इसी तरह प्रेमभरी दृष्टि से मेरी और देखती हुई गयी थी । तब से मैं आज तक तन, मन, धन, से गोसेवा करना अपना धर्म समझता हूँ और जीवन के अन्तिम क्षण तक समझता रहूँगा। मैं हर रोज गाय के चरणों की धूल माथे पर लगाया करता हूँ और नमाज बाद में पढ़ने जाता हूँ।