इस भारत वसुन्धरा पर समय-समय पर अनेकों रत्नों ने जन्म लेकर इस धरा को अलंकृत किया है। उनमें से एक श्रेष्ठरत्न आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज हो चुके हैं, जिनसे मैंने आर्यिका दीक्षा को प्राप्त कर महाव्रत से अपने जीवन को पवित्र बनाया है। हैदराबाद राज्य के अन्तर्गत एक औरंगाबाद शहर है, जहाँ पर जैनधर्म के प्रेमी श्रावकगण हमेशा धर्म कार्यों में सक्रिय भाग लिया करते हैं। उसी जिले के अन्तर्गत एक ‘ईर’ नाम का ग्राम है जो छोटा सा ग्राम होते हुए भी ‘‘वीरसागर आचार्य’’ जैसी महान आत्मा को जन्म देने के निमित्त से स्वयं भी महान बन गया है। इस पवित्र सुन्दर ग्राम में श्रावक शिरोमणि सेठ ‘रामसुख’ जी निवास करते थे जो कि ‘खंडेलवाल’ जाति के भूषण गंगवाल गोत्रीय थे। उनकी धर्मपत्नी ‘भागू बाई’ भी पति के अनुरूप धर्मात्मा और सती पतिव्रता थीं। उभय दम्पत्ति सदैव धर्माराधन में अपना काल व्यतीत करते थे। महिलारत्न भागूबाई ने सबसे प्रथम एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, वह गुलाब के सुन्दर पुष्प सदृश अपनी यशसुरभि को फैलाने वाला था इसलिए माता-पिता ने उसका नाम ‘गुलाबचंद’ रख दिया। कुछ दिन बाद माता भागूबाई ने सौभाग्य से स्वप्न में एक उत्तम बैल देखा उस समय उनके उदर में होनहार पुण्यशाली सूरिवर्य वीरसागर का जीव आ गया था। गर्भवती माता ने जिनेन्द्रदेव की पूजन, तीर्थों की वंदना आदि करते हुए अपनी भावनाएं सफल की थीं। विक्रम संवत् १९३३ सन् १८७६ में आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन माता ने चन्द्रमा की चांदनी के समान अपने गुणों की उज्ज्वलतारूपी चन्द्रिका सर्वत्र छिटकाने वाले ऐसे क्रम से द्वितीय किन्तु अद्वितीय पुत्ररत्न को जन्म दिया। गंगवाल वंश को अलंकृत करने वाले हीरारत्न के सदृश ऐसे इस बालक का नामकरण ‘‘हीरालाल’’ किया गया।