घायल सिंह कराहते हुये उछला और धरती माँ की गोद में गिर पड़ा। धरती ने पूंछा— क्या हुआ बेटे ? रोते —रोते शावक बोला— माँ ! वह जो तेरा दो पावों पर चलने वाला प्राणी है न! उसने मुझे मारा, मम्मी को भी मारा। इससे अधिक वह कुछ नहीं कह पाया और पास ही पड़ी मृत सिंहनी की तरह उसने भी गर्दन नीचे डाल दी।
धरती अधीर है। वह देख रही है कि मनुष्य का उन्माद बढ़ता जा रहा है। शिकार तो उसका बहुत मामूली खेल है,गोली से कितने जानवर मरेंगे ? लेकिन उपकरणों की खोज की है जिस तकनीक का सहारा लिया है, रत्न गर्भा के रत्न खोद लाया है और अपनी सुख सुविधा के लिए जिस यंत्रीकरण में लगा है उससे पूरी सृष्टी का संतुलन बिगड़ गया है।
कीटनाशक दवाइयों के कारण पृथ्वी का कलेवर विषाक्त है। कारखानों के उगलते धुएं ने वायुमंडल को प्रदूषित किया है। दूर—दूर तक झीलों में और समुद्रों में विषैला गंदा पानी फैल गया है और जलचर समाप्त हैं।घने जंगल कट गये, पशुओं को सिर छिपाने की जगह नहीं है। पक्षियों के लिये आकाश कठिन होता जा रहा है। जो अग्नि विश्व की पोषक ऊर्जा थी वह संहार में लग गई है। सृष्टि के पंच भूत—पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश डांवाडोल है।
विनाश के कगार पर खड़े हैं। धरती बहुत चिन्तित है।उसे गर्व था मनुष्य पर। उसके संपूर्ण प्राणी जगत में सबसे अधिक शांत, धैर्यवान, क्षमावीर, सत्य का उपासक और ज्ञानवान कोई है तो मनुष्य है। वह आत्मदर्शी है और आत्मजयी है। उसने पशुबल के निचले स्तर से ऊपर उठकर आत्मबल को पहचाना है।
और इसलिये उसने अहिंसा की राह पकड़ी है। हिंसा ताड़ती है और बनाती है। मनुष्य के पास संवेदना है, इसलिये वह पूरी सृष्टि के साथ एकता अनुभव करता है। जुड़ सकता है, टूटकर अलग हो जाना उसका धर्म नहीं है। उसे मालूम है कि वह कुछ जी सकता है तो अहिंसा ही जी सकता है। कब तक करेगा ? लौटकर उसे करूणा ही ओढ़नी है।
घृणा उसकी प्राण वायु नहीं है। वह प्रेम ही कर सकता है। इस आत्मबोध को पाने में उससे कोई चूक नहीं हुई। सौ—सौ सदियों से वह बार—बार अहिंसा, करूणा, दया, प्रेम की दुहाई देता रहा है। उसके सारे देवता , सारे भगवान, करूणा सागर हैं आत्मजयी है, मंगल मूर्ति हैं, पालनहार हैं। फिर क्या हुआ कि इस विशाल सृष्टि के अनंत प्राणियों के बीच सबसे अधिक घृणा, द्वेष, विनाश, संहार और हत्या मनुष्य के पल्ले बंध गई ?
विगत वर्षों में विश्व के २०० वैज्ञानिकों ने संपूर्ण मानव जाति से जो मार्मिक अपील की है। उसका निचोड़ यही है कि मनुष्य ने यदि अपने जीवन की राह नहीं बदली तो सृष्टि के महानाश का कलंक उसके सिर लगने वाला है। कृषि वैज्ञानिक कहते हैं कि अपनी स्वाधीनता में हमने धरती का पोषण करने वाले वेश कीमती कीट— पतंगों का नाश कर दिया है। वन्य जातियों की बहुत सी उपयोगी नस्लें समाप्त हो चुकी हैं। वनस्पति पर इतने फरसे गिरे कि शस्य श्यामला धीरे—धीरे नग्न हो चली है।
परिणाम सामने हैं रेगिस्तान हर वर्ष बढ़ रहे हैं। पीने का पानी कम होता जा रहा है। धरती की उपजाऊ परते बह—बहकर समुद्र में मिल रहीं हैं । हम अन्न की कमी महसूस कर रहे हैं। करोड़ों भू्रण—हत्या करने के बावजूद हमारी आबादी कई गुना बढ़ गई है। इस बोझ को धरती सहने के लिये तैयार नहीं है। परिस्थिति विज्ञान (इकालॉजी) का विद्यार्थी आपको एक सांस में कई—कई बाते गिना देता। हमने कितने खनिज पदार्थ खोद लिये हैं। कितना रोज नष्ट कर रहे हैं।
हमारी एक— एक आवश्यकता की पूर्ति में इतनी शक्ति खर्च हो रही है कि हमारे सारे प्रकृति—भंडार चीं बोल गये हैं। जिस सभ्यता के पंखों पर हम सवार हैं वह अब लड़खड़ाई दिखाई देती है। हालत यह हुई है कि करूणा के उपासक के पास अपने ही पेट की ज्वाला बुझाने का अन्न नहीं है।
शांति के पुजारी की दुनिया कोलाहल से भर गई है। वह जीव दया की स्थिति में ही नहीं है अपितु स्वयं दया का पात्र है खुदगर्जी। उसे अपने अस्तित्व की चिंता है— एक अच्छे स्तर की जिंदगी, जो स्तर आपको प्राप्त है, उससे ऊँचा मुझे चाहिये। छीनूंगा आपसे या आप जहाँ से छीनकर लाये हैं मैं भी वहाँ सी छीन—झपट कर लाऊंगा मेरा सारा ध्यान अपने बढ़िया अस्तित्व के लिये चीजें बटोरने में लग गया है। अधिकार प्राप्त करने में लग गया है।
कोई अंत ही नहीं है। होड़ ही होड़ है। ऐसा ही करता हूँ तो मेरा अस्तित्व खतरे में पड़ता है। इस खुदगर्जी और उच्च जीवन स्तर की चाह ने मनुष्य को एक अच्छा खासा लडाकू — खूंखार प्राणी बना दिया है। यों उसके पास न सिंह की गर्जना है। न इतने पैने दांत कि किसी को फाड़ खाए, न तेज नाखून वाले पंजे न विषधर का विष—शरीर में बहुत कम ताकत बची है, लेकिन उसने अपना जीवन जीने के लिये जिन उपकरणों को साधा है, उनसे प्रकृति का संहार हो रहा है। इंसान ही इंसान को काट रहा है। सिंह—बाघ या अन्य हिंसक प्राणियों के हमले से तथा सांप के डसने से आखिर कितने मनुष्य मरते हैं ?
हजार—हजार गुना मनुष्य तो आदमी के हत्या—कांडों से, संग्रहवृत्ति से, भुखमरी से, आगजनी से युद्धों से और राजनैतिक से मर रहे हैं। शायद हमारा ध्यान इस पर गया हि नहीं कि प्रकृति के दोहन में अपनी उपभोग की सामग्री के निर्माण में अपने उच्च जीवन स्तर की प्राप्ति में जिन उपकरणों को साधनों को फैला—फैला कर पूरी सृष्टि को पाट दिया है वे प्रकृति के विनाश के कारण बन गये है। हमारे स्वार्थ और अहंकार ने घृणा, द्वेष, बैर और क्रूरता रता की फौज खड़ी की है।
जिसने करूणा और प्रेम का रास्ता रोक लिया है। बेचारी अहिंसा मंदिरों में दुबक गई या रसोई घर में जा छुपी। व्रत उपवास और पूजा पाठ के चोले में कब तक मगन बैठी रहेगी ? उसे तो बाहर निकलकर संपूर्ण सृष्टि की धमनियों में प्रवेश करना है।
‘‘जीओ ओर जीने दो’’
महावीर की अहिंसा का सीधा संबंध सह—अस्तित्व — ‘‘जीओ ओर जीने दो’’ से है। अहिंसा धर्मी कहता है कि मैंने यही रास्ता तो पकड़ा है । हत्या करता ही नहीं, मेरी सभ्यता में तो हाथापाई भी वर्जित है। आँखों देखते मुझसे न मच्छर मारा जायेगा न चींटी मेरी थाली एकदम साफ सुथरी है।
मेरी जमात के कुछ शाकाहारी तो इतना आगे ब़ढ़े है कि दूध भी उन्होंने मांसाहार की सूची में डाल दिया है। मेरे नहीं करने की फैहरिश्त तो देखिये अपने तन को मैंने कितना बचाया है? अहिंसा धर्मी ने अपने व्यक्ति गत आचार—विचार के बहुत कड़े नियम साधे हैं।
लेकिन, धरती का और मनुष्य की पूरी जमात का एक्सरे तो लीजिये, क्या कहते हैं ये एक्सरे धरती को विनाश के खतरे के क्षेत्र में घसीट लाने का पूरा कलंक मनुष्य के माथे चढ़ गया है और साथ ही अपनी जमात के हजार—हजार दुख उसने ही न्योते हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को निगल रही है। आज के मनुष्य को न शेर का भय है न भेड़िये से। मनुष्य के सामने सबसे भयानक जानवर अब स्वयं मनुष्य है। उत्तर खोजिये— ऐसा क्यों हो गया ?
हम तो प्यार पैदा करने चले थे, करूणा जगाने चले थे, सब जीवों से मैत्री जोड़ने चले थे, लेकिन हमारे हाथ से क्यों सन गये ? आपकी तरह मैं भी उत्तर खोजना चाहती हूँ । कहीं ऐसा तो नहीं कि छोटी—छोटी हिंसाए तो हमने बचा ली और बड़ी—बड़ी विनाशकारी हिंसाओं से हम जुड़ते चले गये है। मैं बहुत ममता के साथ गाय को घास खिला रहा हूँ और पैर में लचीले कॉफ शू (बछड़े के मुलायम चमड़े से बने जूते) पहने हूँ।
पीने का पानी छान कर लेता हूँ और मेरे कारखाने का विषेला पानी मीलों तक मछलियाँ नष्ट किये जा रहा है। मैं अनाज और भाजी के शोधन में लगा हूँ पर मेरी कीटनाशक दवाईयों ने अरबों कीट पतंगों को स्वाहा कर दिया है। उस मौन से क्या होगा जो आप थोड़ी देर के लिये ‘‘ओम शान्ति’’ या ‘‘आमीन’’ बोलकर प्रार्थना—भवनों में साध रहे हैं।
उधर तो मनुष्य ने पूरी सृष्टि को कोलाहल से भर दिया है। इतना शोरगुल कि आपका गुस्सा आपके काबू से बाहर है। प्रेम के बदले मनुष्य के पल्ले चिड़चिड़ाहट ही आई है। हमने अपने जीवन को समृद्ध साधन सम्पन्न आराम देह बनाने की धुन में जिस सभ्यता को स्वीकार किया है। उसके तार हिंसा से नहीं बल्कि संहारक हिंसा से जुड़े हैं ।
हमें रासायनिक कपास से बने चिकने कपड़े भले लग रहे हैं। लेकिन उनके निर्माण मे जो मलबा धरती की छाती पर फैल रहा है उससे वह निर्जीव बनती जा रही है। मनुष्य को अपने लिये, अपने आस—पास के संपूर्ण प्राणि—जगत के लिये और समूची सृष्टि के लिये बहुत—बहुत प्यार और करूणा की जरूरत है।
सारी सृष्टि को अपने प्यार से समेट लेने वाला जीवन मनुष्य तभी जी सकेगा। जबकि वह अपने अस्तित्व की बजाय सह—अस्तित्व की बात सोचे और वैसा आचरण करे। सह अस्तित्व के लिये जीवन बदलना होगा। लौट तो सकते नहीं, कोई यह कहे कि आप सारे कपड़े फैककर या तो दिगम्बर हो जाईये या वल्कल लपेट लीजिये तो यह संभव नहीं है। न यह राह संभव है कि आप अपने रूचि के लजीज पदार्थ फैककर कंद—मूल पर टिक जाएं।
न यह संभव ही है कि ऊँचे भवनों से उतर कर आप घास फूस की झोपड़ी में चले जाएं उपभोग की अनंत सामग्रियों में से किस—किस को छोड़ सकेगे।
आज का मनुष्य न तो मिताहारी हो सकता है न मितभाषी और न मितव्ययी । थोड़े में उसका चलता ही नहीं। शायद अब हम पीछे लौटने की स्थिति में नहीं हैं। उपभोग की जिस मंजिल पर खड़े हैं,वहां से ऐसी कोई छलांग नहीं लगाई जा सकती कि मनुष्य फिर से पाषाण युग में लौट सके।
तो क्या जितना आत्म धर्म उसके हाथ लगा, अहिंसा के जितने डग उसने भरे, जितनी करूणा—जीव दया सब समाप्त ? संकट की महाघड़ी में दुनिया को महावीर की याद आई है। उन्होंने मनुष्य को जो अहिंसा धर्म दिया है वह केवल उसके निज जीवन के लिये नहीं है। उसका संबंध पूरी सृष्टि से है।
उसकी सांस सृष्टि के पूरे स्पन्दन से जुड़ी है। सृष्टि की यह धड़कन हमें सुननी होगी, एक मात्र यही रास्ता है। अहिंसा धर्मी ने हिंसा से बचने के लिये अपने आस—पास भक्ति, भोजन और भावना का जो कवच रच लिया है। उससे बाहर निकल कर उसे अपने संपूर्ण रहन—सहन कारोबार, राज और समाज की परिपाटी, जीवन व्यवहार और अपने उपभोग की तमाम वस्तुओं के साथ, अहिंसा को जोड़ना होगा।
इसके लिये महावीर ने एक ही कसौटी थमायी है सह अस्तित्व। तौलिये, आप जिन चीजों का निर्माण कर रहे हैं और रात दिन अपने सुखी जीवन के लिए जिन—जन वस्तुओं को काम में ले रहे है इस यंत्रीकरण से सृष्टि का विनाश तो नहीं हो रहा है? विचारिये! मानव जीवन में हमने जिन—जन परम्पराओं व्यवस्थाओं, राजकीय पद्धतियों विधि—वधानों और आंतकों को पुष्ट किया है। वे मनुष्य को तोड़ तो नहीं रहे हैं।
अहिंसा की जय—पताका लेकर हम कितना ही दौड़ें नीचे तो पटरियां स्वार्थ और अहंकार की बिछी हैं और सारा जीवन उसी पर टिका है। हाथ में अहिंसा और पैर में हिंसा दोनों साथ कैसे चलेंगें? आपका अस्तित्व और मेरा वर्चस्व दोनों कैसे मेल खायेगें ? आँखों में करूणा और करनी में मुँह में संवेदना और व्यवहार में उपेक्षा, साथ नहीं चलेंगे। भगवान महावीर के निर्वाण वर्ष में हम दौड़े तो बहुत हैं, पर उन्हीं विछी—विछाई पटरियों पर दौड़े है।
उन्हें उखाड़ फैकते और प्रेम करूणा की पटरियाँ बिछा देते तो २०१४ वर्ष पहले का महावीर हमारी रूह में आ जाता । हमें दृढ़ संकल्प लेना है कि हमारे प्यार का पहला क्षण हमसे ही शुरू हो और महावीर ने संपूर्ण सृष्टि के जिस प्रेम को अनुभूत किया था, उसे आपस में बांटेंगे। अपने अहिंसा धर्म को सह—अस्तित्व को अनेकांत और अपरिग्रह से जोड़ेगें। अहिंसा कलश टिकेगा तो इसी त्रिकोण पर टिकेगा।