ललितांग देव अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों का धारक ऐशान स्वर्ग के दिव्य भोगों का अनुभव कर रहा था। उस देव के चार हजार देवियाँ थीं और चार महादेवियाँ थीं। महादेवियों के नाम क्रमशः स्वयंप्रभा, कनकप्रभा, कनकलता और विद्युल्लता थे।
देवों की आयु सागर प्रमाण से रहती थी और देवियों की आयु पल्य के प्रमाण से रहती थी अतः उस देव की अनेकों देवियाँ अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर चुकीं और उनके-उनके स्थान पर अन्य-अन्य देवियाँ आती गयीं। जब ललितांग देव की आयु कुछ पल्य प्रमाण ही शेष रही, तब स्वयंप्रभा नाम की अतिशय प्यारी महादेवी उत्पन्न हुई।
धातकीखण्ड द्वीप के विदेह क्षेत्र में पलाल पर्वत नाम के ग्राम में देविल नाम के पटेल की पत्नी सुमति के उदर से धनश्री नाम की कन्या हुई। किसी दिन उसने पाठ करते हुए एक समाधिगुप्त नाम के मुनिराज के समीप में एक मरे हुए कुत्ते का दुर्गंधित कलेवर डाल दिया।
मुनिराज ने इस घटना से उसे सम्बोधित किया-पुत्री! तूने यह बहुत ही गलत कार्य किया है तुझे इस पाप के निमित्त से बहुत ही कटु फल भोगना पड़ेगा। सुनकर वह बालिका धनश्री घबरा गई एवं गुरु के चरणों में बार-बार नमस्कार कर क्षमायाचना करने लगी। उस क्षमायाचना से उसका पाप हल्का हो गया।
अपनी आयु पूर्ण कर वह धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिमविदेह में गंधिला देश के पाटली नामक ग्राम में नागदत्त वैश्य की पत्नी सुमति के गर्भ से कन्या हो कर जन्मी, उसका नाम निर्नामा रखा गया। एक दिन उसने अम्बरतिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञानी पिहितास्रव महामुनि के दर्शन किये।
पुनः प्रश्न किया- भगवन् ! मैं किस कर्म के उदय से इस दरिद्र कुल में जन्मी हूँ ? महामुनि ने कहा-पुत्री! तूने पूर्वभव में एक महामुनि के निकट में मृतक कुत्ते को डालकर पाप संचित किया था, यद्यपि तूने मुनि के सम्बोधन से क्षमायाचना कर बहुत कुछ पाप घटा लिया था फिर भी जो शेष पाप बच गया था, उसी के निमित्त से तू मनुष्य योनि में आकर भी दरिद्रावस्था को प्राप्त है।
पुनः पुनः कन्या के द्वारा इस पापक्षय का उपाय पूछने पर गुरुदेव ने बताया कि-बालिके! तू जिनेन्द्रगुणसंपत्ति व्रत एवं श्रुतज्ञानव्रत विधिवत् कर, जिससे तेरे समस्त पापों का क्षय होगा।
इसकी विधि इस प्रकार है-तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारण भूत सोलहकारण भावनाओं के १६ व्रत, पाँच कल्याणक के ५, आठ प्रातिहार्य के ८, चौंतीस अतिशय के ३४, ऐसे ६३ व्रत करने होते हैं।
यह व्रत जिनेन्द्रगुणसंपत्ति व्रत कहलाता है। दूसरे श्रुतज्ञानव्रत में मतिज्ञान के २८, ग्यारह अंगों के ११, परिकर्म के २, सूत्र के ८८, अनुयोग का १, पूर्व के १४, चूलिका के ५, अवधिज्ञान के ६, मनःपर्ययज्ञान के २ और केवलज्ञान का १, ऐसे १५८ व्रत होते हैं।
इन व्रतों की उत्तम विधि तो उपवास की ही है। मध्यम या जघन्यरूप से अपनी शक्ति एवं गुरु आज्ञा के अनुसार भी आज व्रत किये जाते हैं। यही निर्नामा कन्या इन व्रतों के प्रभाव से ईशान स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी हुई। वह देव स्वयंप्रभा देवी के साथ मेरु पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत आदि पर सदैव क्रीड़ा किया करता था।
किसी समय अकस्मात् ललितांग देव के गले की मंदार की माला मुरझा गई और भी अनेकों चिन्हों से देव ने अपनी आयु छह माह की अवशेष जान ली और शोक से पीड़ित हो गया। इस समाचार को जानकर सामानिक जाति के देवों ने आकर ललितांग देव को समझाना शुरू किया। उन्होंने कहा-हे देव! अधिक कहाँ तक कहा जावे, स्वर्ग से च्युत होने के सम्मुख देव को जो तीव्र दुःख होता है, वह नारकी को भी नहीं हो सकता।
इस समय आप प्रत्यक्ष उस दुःख का अनुभव कर रहे हैं, किन्तु स्वर्ग से च्युत होना अनिवार्य है। इसलिए हे आर्य! ऐसे धर्म का अवलम्बन करो जो कि जन्म-मरण के चक्कर से छुटाने वाला है यह धर्म परम शरण है। इस प्रकार देवों के सम्बोधन से ललितांग देव ने धैर्य को धारण कर धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिनचैत्यालयों की पूजा की।
अनन्तर अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा करता हुआ आयु के अन्त में स्थिरचित्त होकर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता हुआ अदृश्य हो गया अर्थात् मर गया। उधर ईशान स्वर्ग में स्वयंप्रभा देवी ललितांग देव के वियोग में बहुत ही संताप को प्राप्त हुई। तब दृढ़धर्म देव ने उसका शोक दूर करके उसे धर्म में स्थिर किया।
उस समय वह स्वयंप्रभा छह महीने तक बराबर जिन पूजा करने में उद्यत रही। तदनन्तर सौमनस वन संबंधी पूर्व दिशा के जिनमंदिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक प्राण त्याग कर स्वर्ग से च्युत हुई। पूर्व विदेह के पुण्डरीकिणी नगर के राजा वङ्कादन्त की रानी लक्ष्मीमती से ‘श्रीमती’ नाम की कन्या हो गई। क्रमशः श्रीमती कन्या ने यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया।