श्रीप्रभ नामक पर्वत पर ध्यान करते हुए प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो गया और देवों ने आकर गंधकुटी की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। ईशान स्वर्ग के श्रीधर देव ने भी अवधिज्ञान से जान लिया कि हमारे गुरु प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो चुका है, वह भी उत्तमोत्तम सामग्री लेकर पूजा के लिए वहाँ आया। पूजन आदि करके धर्म का स्वरूप सुना, अनंतर प्रश्न किया- हे भगवन् ! महाबल की पर्याय में जो मेरे तीन मंत्री मिथ्यादृष्टी थे, वे इस समय किस गति में हैं? उस समय सर्वज्ञदेव ने कहा कि हे भव्य! उन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो मंत्री तो निगोद पर्याय को प्राप्त हो चुके हैं जहाँ मात्र सघन अज्ञानांधकार ही व्याप्त है। वहाँ अत्यन्त तृप्त खौलते हुए जल में होने वाली खलबलाहट के समान अनेकों बार जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं। वहाँ निगोद पर्याय में यह जीव एक श्वांस के काल में अठारह बार जन्म-मरण कर लेता है। निगोद से निकलकर पुनः त्रस पर्याय पाना बहुत ही कठिन है। जैसे कि कोई मनुष्य समुद्र में एक राई का दाना डाल दे और हजार वर्ष के बाद उसको ढूंढ़े तो मिलना कठिन है, वैसे ही निगोद पर्याय से निकलना अत्यन्त कठिन है तथा शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण द्वितीय नरक में चला गया है। उस समय प्रीतिंकर गुरुदेव के वचनों को सुनकर वह श्रीधर देव सोचने लगा-अहो! निगोद पर्याय में जाकर संबोधा भी नहीं जा सकता है। देखो, पाँचों इन्द्रियों की प्राप्ति होना कितना कठिन है और ये जीव क्षणिक स्वार्थ में पड़कर मिथ्यात्व से मोहित होकर ऐसी दुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं। उस समय उसने द्वितीय नरक में जाकर शतमति मंत्री के जीव को समझाने का प्रयत्न किया। देव ने कहा-अरे मूढ़ शतमति! देख, क्या तू मुझ महाबल को जानता है? उस भव में तूने मुझे भी मिथ्यात्व का उपदेश दिया था और उसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष में तू इस नरक वेदना को भोग रहा है। अब तू शीघ्र ही सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को ग्रहण कर। इस प्रकार देव के बहुत कुछ उपदेश से उस नारकी ने मिथ्यात्व का वमन करके सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लिया। आयु के अंत में भयंकर नरक से निकलकर पुष्करद्वीप के पूर्व विदेह में महीधर चक्रवर्ती का पुत्र जयसेन हुआ। यौवन अवस्था में उसका विवाह हो रहा था, उस समय पुनः श्रीधर देव ने स्वर्ग से आकर उसे समझाया और नरकों के भयंकर दुःख की याद दिलाई जिससे वह जयसेन तत्क्षण ही विषयों से विरक्त हो गया और यमधर मुनिराज के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तपश्चरण करते हुए अंत में समाधिपूर्वक प्राण छोड़कर ब्रह्मस्वर्ग में इंद्र पद को प्राप्त कर लिया। देखो, कहाँ तो नारकी होना, कहाँ इंद्र पद की प्राप्ति होना? मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का यह प्रत्यक्ष फल देखकर हे भव्य जीवों! धर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो। अनंतर अवधिज्ञानी इस ब्रह्मेन्द्र ने अपने पूर्वभवों के वृत्तांत को याद कर ब्रह्मस्वर्ग से ईशानस्वर्ग में आकर श्रीधर देव की विशेष रूप से पूजा की क्योंकि उपकारी के उपकार को न भूलना, उनकी पूजा-भक्ति करना ही विनीत सम्यग्दृष्टि का कर्तव्य है।