बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ और वाराणसी नगर दोनों का जैन परम्परा एवं कला में महत्व रहा है। वाराणसी का उल्लेख विभिन्न जैन ग्रन्थों यथा—प्रज्ञापना, ज्ञाताधर्मकथा उत्तराध्ययनचूर्णि, कल्पसूत्र, उपासकदशांग, आवश्यकनिर्युक्ति, निरयावलिका, अन्तकृतदशासत्येन्द्र मोहन जैन, दिगम्बर जैन श्रीपार्श्र्वनाथ जन्मभूमि मन्दिर, भेलूपुर, वाराणसी का ऐतिहासिक परिचय, वाराणसी, १९९५, पृ.३; मोतीचन्द्र, काशी का इतिहास, वाराणसी, १९८५, तिलोयपण्णत्ति (यतिवृषभ कृत), उत्तरपुराण (गुणभद्रकृत), पार्श्वनाथ चरित्र (वादिराजसूरि कृत) एवं आराधनाकथाकोष (नेमिदत्त कृत)बलभद्र जैन, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (प्रथम भाग), मुम्बई, १९७४, पृ. १११—१३४. में हुआ है। इनके अतिरिक्त विविधतीर्थकल्प में भी वाराणसी का विस्तार से वर्णन हुआ है जिसमें वाराणसी का परिचय देते हुए इसे चार भागों में बाँटा गया है, यथा—देव वाराणसी, राजधानी वाराणसी, मदन वाराणसी और विजय वाराणसी।विविधतीर्थकल्प (जिनप्रभसूरि कृत), (सम्पा.) जिनविजय, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक—१०, शान्ति निकेतन, १९३४, पृ. ७४. ऐतिहासिकता की दृष्टि से पार्श्वनाथ और उनका वाराणसी से सम्बन्ध सिद्ध हो चुका है। इसी प्रकार पुरातत्व की दृष्टि से जैन कला परम्परा में वाराणसी का महत्व गुप्तकाल से ही है जिसके प्रमाण हमें राजघाट एवं वाराणसी के विभिन्न स्थलों से प्राप्त होते हैं । वर्तमान में जैन धर्म से सम्बन्धित पुरातात्विक सामग्री भारत कला भवन वाराणसी, पुरातत्व संग्रहालय सारनाथ और राज्य संग्रहालय लखनऊ में सुरक्षित हैं। जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्तियों का निर्माण वाराणसी में गुप्तकाल से २० वीं शती ई. तक होता रहा है जिसके प्रमाण राजघाट, सारनाथ एवं भेलूपुर के उत्खनन तथा वाराणसी के अनेक स्थलों से प्राप्त एवं वाराणसी—सारनाथ स्थित अनेक जैन मन्दिरों (दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्परा के) में संग्रहीत मूर्तियों के रूप में देखा जा सकता है। सारनाथ— वाराणसी में स्थित जैन मन्दिर १८ वीं शती से २० वीं शती ई. के मध्य के हैं। प्रस्तुत शोध लेख में सारनाथ—वाराणसी का जैन परम्परा एवं कला में महत्व उद्घाटित करना हमारा अभीष्ट है। वस्तुत: सारनाथ वाराणसी का ही एक भाग रहा है। पुरातात्विक प्रमाण के रूप में काशिराज के दीवान जगतसिंह को अचानक ही सारनाथ से बौद्ध मंजूषा प्राप्त हुई, जिसने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, परिणाम स्वरूप सारनाथ में उत्खनन कार्य प्रारम्भ हुआ, । इस उत्खनन में विपुल मात्रा में बौद्ध, ब्राह्मण तथा जैन धर्मों से सम्बन्धित कला अवशेष प्राप्त हुए जिनसे इस स्थान का भारतीय कला और संस्कृति की दृष्टि से महत्व बढ़ गया। सारनाथ के उत्खनन में प्राप्त अवशेषों का संकलन दयाराम साहनी ने अपने ग्रन्थ में विस्तार से किया है।दयाराम साहनी, कैटलाग ऑव दि म्यूजियम ऑव आर्कियोलॉजी ऐट सारनाथ, कोलकाता, १९१४, पृ. १६४ एवं ३२७—३२८. यह सत्य है कि संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक बौद्ध अवशेष सारनाथ उत्खनन से प्राप्त हुए हैं, परन्तु ब्राह्मण और जैन परम्परा के अपेक्षाकृत कम संख्या में प्राप्त पुरातात्विक अवशेष सारनाथ की सामाजिक—धार्मिक समरसता की ओर संकेत करते हैं। वर्तमान में भी सारनाथ में बौद्ध धर्म के मन्दिरों के साथ ही शिव को समर्पित सारंगदेव का मन्दिर और धमेक स्तूप के पास स्थित दिगम्बर एवं सिहंपुरी स्थित श्वेताम्बर जैन मन्दिरों (दोनों ही श्रेयांसनाथ को समर्पित) की उपस्थिति भी उपरोक्त मान्यता को बल देता है। सारनाथ से प्राप्त मौर्यकाल से लेकर कुषाण, गुप्त एवं गाहडवाल काल तक के कलावशेष इस स्थान के धार्मिक, संस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियों के महत्व को रेखांकित करते हैं। जैन धर्म में २४ तीर्थंकरों को सर्वोच्च देवों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये तीर्थंकर जैनधर्म की त्याग एवं साधना की मूल भावना के शाश्वत प्रतीक हैं जो जैनधर्म का मूलाधार रहा है। अयोध्या के बाद काशी को ही जैन परम्परा में सर्वाधिक महत्व प्राप्त है क्योंकि २४ तीर्थंकरों में से चार तीर्थंकरों के विभिन्न कल्याणक (च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान) वाराणसी में ही सम्पन्न हुए। सातवें तीर्थंकर सुपाश्र्वनाथ और २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी नगर में क्रमश: वर्तमान भदैनी एवं भेलूपुर नामक स्थानों पर हुआ था जबकि आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जन्म वाराणसी नगर से २४ किमी. दूर स्थित चन्द्रपुरी नामक स्थान पर हुआ था। एम.एन.पी. तिवारी, जैन प्रतिमाविज्ञान, वाराणसी, १९८१, पृ. ३०—३१. १४वीं शती ई. के आचार्य जिनप्रभसूरि के अनुसार वाराणसी नगर से चन्द्रपुरी की दूरी ढाई योजन थी जो उपरोक्त दूरी से सामानता रखती हैं।ललित चन्द्र जैन, वाराणसी जैन तीर्थ दर्शन, वाराणसी, १९९७, पृ. १५.उन्होंने चन्द्रप्रभ के चार कल्याणकों के भी यहीं सम्पन्न होने का उल्लेख किया है। ११ वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के जन्मस्थल के रूप में सिंहपुरी का उल्लेख मिलता है जिसकी पहचान वर्तमान सारनाथ से की गयी है।विविधतीर्थकल्प, पृ.७४. श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली होने के कारण ही सारनाथ का जैन परम्परा में आज भी विशेष महत्व है। वाराणसी से सम्बद्ध चार तीर्थंकरों यथा— सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, श्रेयांसनाथ एवं पार्श्वनाथ के कल्याणक सम्पन्न होने के सन्दर्भ यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में उल्लिखित हैं। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार श्रेयांसनाथ का जन्म फाल्गुन कृष्ण एकादशी के श्रवण नक्षत्र में सिंहपुर में हुआ था। इनके माता—पिता वेणुदेवी और विष्णु नरेन्द्र थे।
श्रेयांसनाथ के जन्म एवं सथान के सन्दर्भ में उत्तरपुराण (५७/३२—५८) तथा त्रिषष्टिशलाका—पुरुषचरित्र में श्रेयांसनाथ का नाम ‘श्रेयांस’ रखने के कारण का भी उल्लेख हुआ है,कमल गिरि , मारुति नन्दन तिवारी एवं विजय प्रकाश सिंह , काशी के मन्दिर और मूर्तियाँ वाराणसी, १९९८, पृ.९७. जिसके अनुसार उनके गर्भ में आने के बाद से ही राजपरिवार और सम्पूर्ण राष्ट्र का श्रेय/ कल्याण हुआ।
जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा। अभिधां श्रेयसि दिने श्रेयांस इति चक्रतु: ।।
त्रिषष्टिशलाकापुरूषचरित्र, ४/१/८६
वाराणसी से ऋषभनाथ, अजितनाथ, सुपार्श्वनाथ , चन्द्रप्रभ, विमलनाथ, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ , महावीर आदि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। वाराणसी के जैन मन्दिरों में सुपाश्र्वनाथ , श्रेयासनाथ और पार्श्वनाथ की सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं। सम्भवत: इन तीर्थंकरों की मूर्तियो का अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियों की तुलना में अधिक प्राप्त होना इस बात का प्रमाण है कि वाराणसी उपरोक्त तीर्थंकरों की कल्याणक भूमि रही है। सारनाथ स्थित श्रेयांसनाथ मन्दिर के अतिरिक्त वाराणसी के अन्य सभी जैन मन्दिर सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ को समर्पित हैं।एस.एस.सिन्हा, ‘‘सिग्निफिकेन्स ऑव सारनाथ इन जैन ट्रेडिशन ऐण्ड आर्ट’’ जैन कन्ट्रीब्यूशन टू वाराणसी, (सम्पा.) आर.सी.शर्मा एवं घोषाल, वाराणसी, २००६, पृ.४९—६७. मूर्तियों के निर्माण में पूरे क्षेत्र को उसकी समग्रता में देखना अधिक समीचीन है। इस दृष्टि से न केवल श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली सारनाथ से ही जैन मूर्तियों के प्रमाण मिले हैं बल्कि सुपाश्र्वनाथ एवं पार्श्वनाथ की जन्मस्थली एवं वाराणसी के विभिन्न क्षेत्रों से भी तीर्थंकर मूर्तियों के पर्याप्त उदाहरण मिले हैं, जो लगभग छठी शती ई.से २०वीं शती ई. के मध्य के हैं । इनमें महावीर, यक्ष—यक्षी युक्त नेमिनाथ, गजलांछन युक्त अजितनाथ, प्रतिमासर्वतोभद्रिका एवं पंचातीर्थी आकृतियाँ मुख्य हैं। वर्तमान में पुरातत्व संग्रहालय, सारनाथ में डॉ. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी के प्रयास से प्रदर्शित जैन मूर्तियों के अतिरिक्त सारनाथ स्थित दिगम्बर जैन मन्दिर एवं सारनाथ से दक्षिण लगभग दो किमी. दूरी पर स्थित सिंहपुरी के श्वेताम्बर जैन मन्दिर (दोनों श्रेयांसनाथ को समर्पित) में जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं।वही संग्रहालय की जैन मूर्तियाँ गुप्तकाल से १० वीं शती ई. के मध्य की उदाहरण हैं जबकि उपर्युक्त मन्दिरों की मूर्तियाँ १८वीं से २०वीं शती ई. के मध्य की निर्मित हैं। दोनों मन्दिरों में सुरक्षित मूर्तियों में से कई उदाहरण दूसरे स्थलों पर बनने के बाद इन मन्दिरों में उपासकों द्वारा स्थापित किये गये, जैसे जीवराज पापड़ीवाल द्वारा संगमरमर में निर्मित मूर्तियाँ। व्यक्तिगन और डॉ. तिवारी के साथ संयुक्त सर्वेक्षण से उद्घाटित एवं सारनाथ के उत्खनन से प्राप्त कुल पाँच जैन मूर्तियाँ प्रकाश में आयी हैं। वर्तमान में इन जैन मूर्तियों को सारनाथ स्थित संग्रहालय में दर्शकों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित किया गया है, जिनका विस्तृत विवेचन इस प्रकार है—
श्रीवत्स—त्रिरत्न शिलापट्ट
यह शिलापट्ट (चित्र १) सम्भवत: पूजा के निमित्त निर्मित किया गया था। इस पट्ट की सबसे बड़ी विशिष्टता जैन धर्म के सर्वमान्य मंगल चिन्ह श्रीवत्स, त्रिरत्न, चक्र (धर्मचक्र) और ध्वजस्तम्भ का अंकन है। दायें से बायें अंकन में सर्वप्रथम ध्वजस्तम्भ का उकेरन है, जो तीन स्तरों वाली पीठिका पर स्थित है। यह ध्वजस्तम्भ मानस्तम्भ का भी सूचक हो सकता है क्योंकि जिस रूप में सामने विशाल श्रीवत्स बना है और उसके निचले सिरे में पद्मकलिकाओं का अंकन हुआ है वह श्रीवत्स चिन्ह पूजन के सन्दर्भ और महत्व से जुड़ता है। मध्यभाग में श्रीवत्स चिन्ह का अत्यन्त सुरुचिपूर्ण एवं कलात्मक अंकन है। सबसे अन्त में चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते चार त्रिरत्नों का अंकन चक्र के चारों ओर हुआ है। यह अंकन इस प्रकार हुआ है मानो सभी दिशाओं में ये त्रिरत्न चिन्ह इस कालचक्र को सुरक्षा प्रदान करते हुए उसको सहारा भी दे रहे हों। डॉ. तिवारी ने शैली के आधार पर इस पट्ट का निर्माण काल गुप्तकाल के उत्तरार्ध को माना है, जबकि डॉ. प्रमोद चन्द्र इसे कुषाणकाल का मानते हैं। परन्तु शैलीगत विशिष्टता और चुनार के बलुए प्रस्तर का प्रयोग प्रो. तिवारी की मान्यता को बल देता है। स्मरणीय है कि मथुरा से प्राप्त कई कुषाणकालीन आयागपट्टों पर भी चारों ओर चार त्रिरत्नों का अंकन द्रष्टव्य है, परन्तु उनमें मध्य में चक्र के स्थान पर तीर्थंकर आकृतियों का उत्कीर्णन हुआ है।
विमलनाथ
चुनार के बलुए प्रस्तर से निर्मित इस प्रतिमा में १३ वें तीर्थंकर विमलनाथ (चित्र २) कायोत्सर्ग में चमरधारी सेवकों से वेष्टित रूपायित हैं। इस मूर्ति का मस्तक खण्डित है। विमलनाथ के चरणों के पास पीठिका पर परम्परानुरूप तीर्थंकर का लांछन वराह उत्कीर्ण है। मूलनायक के वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह है। यह मूर्ति दिगम्बर परम्परा की है। इस मूर्ति का निर्माणकाल लगभग नवीं शती ई. है।
तीर्थंकर मूर्ति का शीर्ष भाग
तीर्थंकर की यह खंण्डित प्रतिमा (चित्र ३) भी चुनार के बलुए प्रस्तर से निर्मित है। इस मूर्ति में मस्तक सहित प्रभामण्डल के दायीं ओर का भाग ही सुरक्षित है। इस सौम्य—मुख मूर्ति में मूलनायक के मस्तक का भाग घुंघराले केश विन्यास वाला है। लम्बकर्ण,नासाग्रदृष्टि और पुष्पालंकृत प्रभामण्डल के आधार पर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह तीर्थंकर मूर्ति अपनी पूर्णता में अत्यन्त ही मनोहारी रही होगी। प्रो. तिवारी ने ही सर्वप्रथम शीर्षभाग के त्रिछत्र के आधार पर इसे तीर्थंकर मूर्ति के रूप में पहचाना था। इस मूर्ति में प्रभामण्डल वाले भाग के बायीं ओर एक मालाधारी नभचारी गन्धर्व आकृति को बादलों की पृष्ठ भूमि में मनोहारी रूप में दर्शाया है। मालाधारी गन्धर्व की मुखाकृति पर मन्द स्मिति का सुन्दर भाव है जो तीर्थंकर के प्रति आदरभाव का सूचक है। गन्धर्वाकृति के नीचे एक तीर्थंकर आकृति को ध्यानमुद्रा में दर्शाया गया है। सम्भवत: यह पूर्ण मूर्ति पंचतीर्थी प्रकार की मूर्ति रही हो।
पार्श्वनाथ की मूर्ति का शीर्ष भाग
यह खण्डित मूर्ति भी चुनार के बलुए प्रस्तर में निर्मित है। २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (चित्र ४) की पहचान सिर के ऊपर सुन्दर सप्त सर्पफणों से सुशोभित छत्र से स्पष्ट है। इस मूर्ति में तीर्थंकर के चेहरे पर मन्द स्मिति का भाव एवं नासाग्र दृष्टि उनके गहन तप और उससे उत्पन्न परमानन्द के आध्यात्मिक भाव की सुन्दरतम प्रस्तुति करता है। कुंचित केश एवं लम्बकर्ण तीर्थंकर मूर्तियों के लक्षण के अनुरूप द्रष्टव्य हैं। निश्चित ही यह मूर्ति भी उपरोक्त मूर्ति के समान अपनी पूर्णता में मनोहारी रही होगी। शैली की दृष्टि से यह मूर्ति नवीं शती के उत्तरार्ध और १० वीं शती ई. के पूर्वाद्ध के मध्य की जान पड़ती है।
तीर्थंकर मूर्ति का शीर्ष भाग
यह खण्डित शीर्ष (चित्र ५) भी चुनार के बलुए प्रस्तर में निर्मित है। पत्रावली युक्त त्रिछत्र से प्रतिमा की पहचान तीर्थंकर के रूप में स्पष्ट है। शीर्ष भाग में प्रभामण्डल, लम्बकर्ण और प्रफुल्लित चेहरे से स्पष्ट है कि यह मूर्ति निश्चित ही उपरोक्त मूर्तियों के बाद निर्मित हुई होगी। डॉ. तिवारी ने इस मूर्ति को शैली के आधार पर १०वीं शती ई. का माना है। सारनाथ के उपरोक्त पाँचों उदाहरण कुषाण—उत्तरगुप्त काल से १०वीं शती ई. के मध्य के हैं। इस कालावधि की सभी जैन मूर्तियाँ दिगम्बर परम्परा की हैं। सारनाथ से प्राप्त सभी तीर्थंकर मूर्तियाँ खण्डित हैं जो जैन मूर्तियों की उपेक्षा को दर्शाता है, परन्तु उपर्युक्त परिस्थितियों में एक ओर सारनाथ का जैन परम्परा में श्रेयांसनाथ की जन्मस्थली के रूप में उल्लेख और दूसरी और कम से कम उत्तरगुप्त काल से सारनाथ में जैन मूर्तियों का मिलना महत्वपूर्ण है और इस सम्भावना को जन्म देता है कि भविष्य में विशद् अध्ययन और सर्वेक्षण तथा होने वाले उत्खननों से और भी मूर्तियाँ मिल सकती हैं। बहुत सम्भव है कि प्रारम्भिक स्थिति में केवल बौद्ध कला केन्द्र के रूप में सारनाथ के महत्व के कारण जैन मूर्तियों की पहचान और रख—रखाव को सारनाथ में महत्व न मिला हो। यह भी कटु सत्य है कि जैन कला और मूर्तियों के प्रति बहुत बाद तक विद्वानों का ध्यान नहीं गया था और इस कारण उसे अपेक्षित महत्व भी नहीं प्राप्त है। किन्तु जैन परम्परा और कला बौद्ध परंपरा और कला के समान ही श्रमण परम्परा की एक सशक्त धारा रही है, जिसका प्रवाह वैदिक, ब्राह्मण एवं बौद्ध कला के समान ही निरन्तरता में मिलता है। इस प्रकार जैन तीर्थंकरों से सम्बन्धित होने के कारण ही पारम्परिक पृष्ठभूमि में सारनाथ एवं वाराणसी में गुप्तकाल से जैन मूर्तियाँ बननी प्रारम्भ हुई। ये मूर्तियाँ कितनी संख्या में बनी और कितनी आज हमें अनुपलब्ध हैं यह खोज का विषय हो सकता है। हम सभी जानते हैं कि गुप्तकाल में सारनाथ और वाराणसी का कला केन्द्रों के रूप में विकास हुआ।