भगवान ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर होने के साथ ही सम्पूर्ण सभ्यता के सूत्रधार भी थें २४ तीर्थंकरों में से ऋषभदेव ही एक ऐसे तीर्थंकर थे जिन्होंने अपने गृहस्थ जीवन में अपनी जनता को सभ्यता संस्कृति —धर्म , कला—कौशल, ज्ञान—विज्ञान, विद्या, वाणिज्य, राजनीति समाज नीति का प्रशिक्षण दिया। अपनी पुत्री ब्राह्मी व सुन्दरी को अक्षर व अंक विद्या की शिक्षा देकर उन्होंने नारी शिक्षा का सुन्दरतम इतिहास रचा।पुत्रों को राजकाज की शिक्षा दी और सुशासन की दृष्टि से देश को उनके मध्य विभाजित किया। इस प्रकार चिरकाल तक लौकिक क्षेत्र में जनता का मार्गदर्शन करने के पश्चात् उन्होंने धर्मतीर्थ की स्थापना हेतु समस्त वैभव का परित्याग करके निग्र्रंथ वनविहारी हो तपश्चरण किया। और केवलज्ञान प्राप्त कर अर्हन्त जिन हुए, अहिंसा एवं निवृत्ति प्रधान मानव धर्म की स्थापना करके आदि तीर्थंकर कहलाये। भगवान ऋषभदेव के सम्पूर्ण जीवन का अवलोकन करने पर हम देखते है कि ऋषभदेव के जीवन में स्वप्नों का अद्भुत संयोग है। ऋषभदेव के जीवन में जो घटित होने वाला है उसका पूर्वाभास परिवार के सदस्य को स्वप्न के माध्यम से होता है। तीर्थंकर के इस धरा पर आने की सूचना भी स्वप्न के माध्यम से होती है। माता मरूदेवी कोमल शय्या पर शयन करती है तो रात्रि के पिछले प्रहर में वे सोलह स्वप्न देखती हैं” सफेद हाथी, बैल, सिंह, अभिषेक को प्राप्त हुई लक्ष्मी,दो मालायें, चन्द्रमा,उगता हुआ सूर्य, मछलियों का युगल, जल से भरे कलश, कमलों से युक्त सरोवर, सिंहासन, स्वर्ग से आता हुआ विमान, नागेन्द्र भवन, रत्नों की राशि बालक आने की पूर्व सूचना बतलाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार चौंबिस तीर्थंकर के गर्भ में आने से पूर्व माता को सोलह स्वप्न आते है। यदि विविध धर्मों के साहित्य में देखा जाय तो भावी शिशु के आगमन को सूचित करने वाले उपरोक्त स्वप्न जिन माता के सिवाय अन्य माताओं को नहीं आते हैं। इन स्वप्न दर्शनों से हमें जिनेन्द्र तीर्थंकर की श्रेष्ठता स्वयं ही समझ में आ जाती है। ऋषभदेव की रानी यशस्वती के गर्भ में जब भरत आते हैं तब यशस्वती महारानी उत्तम—उत्तम स्वप्न देखती हैं। वे प्रात: काल मंगलस्नान कर हर्ष से रोमांचित शरीर हो तीर्थंकर ऋषभदेव के पास पहुँचती है व स्वप्न का फल पूछती है ऋषभदेव अपने दिव्य अवधिज्ञान से स्वप्न का फल बताते है। सुमेरु पर्वत देखने का फल यह है तुम्हारे चक्रवर्ती होगा। सूर्य व चन्द्रमा देखने का फल है वह प्रतापी एवं कांतिमय होगा। सरोवर देखने का फल है वह लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा। पृथ्वी को ग्रस जाना देखने से वह छ: खण्ड का अधिपति होगा। समुद्र देखने से वह चरम शरीरी होगा तथा संसार शरीर से पार होगा। उधर द्वितीय बल्लभा सुनन्दा महादेवी भी शुभ स्वप्न देखकर सर्वार्थ सिद्धि से च्युत हुए अहमिन्द्र के जीव को अपने उदर में धारण करती है। ऋषभदेव के पुत्र भरत जब अपने राज्य का विस्तार कर अपना बहुत सा समय सुखपूर्वक बिता रहे थे तब वे मध्यरात्रि में विशेष १६ स्वप्न देखते हैं। उन दु:स्वप्नों का फल जगतगुरु ऋषभदेव से पूछते है। भगवान ऋषभदेव उन स्वप्नों का फल बताते हुए भरत से कहते हैं। ये स्वप्न बहुत समय बाद अर्थात् पंचमकाल में फल देंगें। मुझसे इन स्वप्न का यथार्थ फल जानकर तू समस्त विघ्नों की शांति के लिये धर्म में अपनी बुद्धि कर। भरत के स्वप्न फल को जिस तरह ऋषभदेव ने दूरगामी परिणाम वाले बताया उससे यह प्रतीत होता है कि कर्मफल की तरह स्वप्नफल भी तत्काल व दूरगामी हो सकते हैं। जब भगवान ऋषभदेव मोक्ष जाते है तब ऋषभदेव के परिवार के कई लोग स्वप्न देखते है। भरत महाराज देखते हैं महामेरु अपनी लम्बाई से सिद्धक्षेत्र पहुँच गया। युवराज अर्ककीर्ति भी स्वप्न देखते है महौषधि का वृक्ष मनुष्यों के जन्म रूपी रोग को नष्ट कर फिर स्वर्ग जा रहा है। उसी दिन गृहपति देखते हैं एक रत्नदीप अनेक इच्छुक लोगों को रत्न का समूह देकर अब आकाश में जाने के लिये उद्यत हो रहा है। सेनापति देखते हैं एक सिंह वङ्का के पींजड़े को तोड़कर कैलाश पर्वत का उल्लंघन करने के लिये तैयार है। जयकुमार के पुत्र अनन्तवीर्य देखते है— चन्द्रमा तीनों लोकों को प्रकाशित कर ताराओं सहित जा रहा है। सुभद्रा महारानी देखती हैं—इन्द्राणी , यशस्वती व सुनन्दा के साथ बैठी हुई चिन्ता कर रही है। राजा चित्रागंद देखते है—सूर्य पृथ्वी तल को प्रकाशित कर आकाश में उड़ा जा रहा है। सूर्योदय होते ही सब अपने—अपने पुरोहित से स्वप्नों का फल पूछते है। पुरोहित कहते है— ये स्वप्न ऋषभदेव के सभी कर्मों को नष्ट कर मोक्ष जाने की सूचना दे रहे है। इस तरह स्वप्नों और भविष्य में घटित घटनाओं पर हम गौर करते है तो दोनों में जो संयोग नजर आता है उससे स्वप्न व स्वप्न फलों की सत्यता में कोई संशय नजर नहीं आता है। क्षत्रचूड़ामणि काव्य में कहा है— अस्वप्न पूर्व हि जीवानां नहि जातु शुभाशुभम् अर्थात् जीवों के कभी स्वप्न दर्शन के बिना शुभाशुभ नहीं होता है। अष्टांग निमित विद्या में भी एक भेद स्वप्न विद्या भी है। जिसके अनुसार नीरोग व स्वस्थ व्यक्ति के स्वप्नों द्वारा भविष्य का बोध होता है। आधुनिक विज्ञान भले ही स्वप्नों को एक चलचित्र की तरह माने किन्तु जैन आगम में तो सभी तीर्थंकर के जन्म की सूचना १६ स्वप्न से होती है। ऋषभदेव तीर्थंकर के जीवन में जिन स्वप्नों का अदभुत संयोग रहा है उस स्वप्न विद्या को अयथार्थ नहीं माना जाना चाहिए।