बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। एक युवा को जब उसके अपराधों के लिए फांसी की सजा सुनाई और उसकी अंतिम इच्छा पूछी तो उसने माँ से मिलने की इच्छा जाहिर की। माँ से मिलने पर उस व्यक्ति ने माँ का हाथ लेकर अपने गाल पर एक चांटा लगाते हुए कहा कि माँ तुमने मेरे अपराध पर यह चांटा मुझे लगाया होता तो आज यह दिन देखना नहीं पड़ता।
संभव है आज की युवा पीढ़ी कल हमसे यही प्रश्न करे। युवा पीढ़ी की चर्या आज एक ज्वलंत समस्या है। गत दो—तीन दशाब्दियों से भौतिकवाद के विस्तार के साथ ही युवा पीढ़ी के जीवन में जो खुलापन आया है, उसने सभी सामाजिक बंधन तोड़ दिए। संस्कार, नैतिकता जैसे शब्द युवा पीढ़ी के लिये मजाक के विषय बन गए हैं । आज उस समाज के भविष्य का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है, जहां बाल अपराधों का प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा है तथा जहां १५ वर्ष से कम उम्र के छोटे —छोटे बच्चे लाखों की तादाद में नशीली दवाओं का सेवन करने लगे हैं। हिंसा ने आज बच्चों के जीवन में कुछ इस तरह प्रवेश किया कि एक १४ साल का लड़का अपने ही दोस्त से विवाद होने पर उसके शरीर पर १७ बार चाकू से वार करता है। शायद यह घटना अपवाद लग सकती है, किंतु तभी दूसरी घटना प्रकाश में आती है, अपने सहपाठी को पढ़ाई में आगे बढ़ता देख दो दोस्त उसे घूमने ले जाने के बहाने नदी में धक्का दे देते हैं और एक मासूम अपने दोस्तों की मानसिक विकृति का शिकार हो जान गवां देता है।इस तरह की प्रवृत्ति किसी एक दिन की देन नहीं है अपितु इसके बीज बहुत पहले ही बो दिए जाते हैं यह घर में निरंतर होने वाली उपेक्षा व घृणा की प्रतिक्रिया होती है, जो धीरे—धीरे हितों का रूप ले लेती है।
एक प्रसिद्ध स्कूल के प्राचार्य ने अपने स्कूल के बच्चों के बारे में बताया कि किशोर पीढ़ी ने खुलेपन को कुछ इस तरह स्वीकार किया कि आज तमाम मर्यादाएं ही खत्म हो गई हैं। भोगवाद से पनपी यह संस्कृति चोरी करो, उधार मांगों पर ऐश करो को बढ़ावा दे रही है। यदि बच्चों के अभिभावक को उनके किसी भी अशोभनीय व्यवहार की शिकायत की जाती है तो हम पर ही बरस पड़ते हैं कि आप हमारे बच्चों के बारे में ऐसा कैसे कह देते हैं ? नि:संदेह आज हम अभिभावकों ने बच्चों के लिए सुविधाओं का अंबार तो लगा दिया, किंतु उन्हें समय नहीं दिया। बच्चों को आकाश में उड़ने के लिए पंख तो दे दिए, किंतु उनके सामनें कोई लक्ष्य नहीं रखा। और इस तरह सुविधासम्पन्न , किंतु दिशाहीन युवा पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक परम्परा व आजादी की पृष्ठभूमि से दूर हो गई तो समाज का प्रौढ़ वर्ग भी अपनी जवाबदारी से मुँह नहीं मोड़ सकता। यही नहीं माता—पिता की व्यस्तता के कारण बच्चों के मार्गदर्शक हैं टी.वी. पर प्रसारित विज्ञापन, जो उन्हें सिखाते हैं ऐसे रहो, ये पहनों, ये खाओ। इन विज्ञापनों ने नई पीढ़ी में ऐसा भ्रम पैदा किया है कि वे ऐसा मानने लगे हैं कि यदि वे इन उत्पादों को नहीं अपनाएंगे तो इस आधुनिक समाज में पिछड़ जाएंगे। आज घरों में अच्छे साहित्य की जगह उपलब्ध हैं नए—नए चैनलों द्वारा दिया गया फूहड़ मनोरंजन, जिसने समाज में विकृति दी है, विलास व हिंसा को बढ़ाया है। बच्चों के जीवन में असंस्कृति का मीठा जहर घोल दिया है।
प्रबुद्ध वर्ग के लिए यह चिंतन का विषय है कि परिवार के प्रौढ़ वर्ग ने ही जब उपभोक्तावाद को अपने को समर्पित कर दिया तो नई पौध में संस्कार के फल कैसे रोपे जा सकते हैं? मुझे याद आ रही है एक छोटी सी घटना जो हमारी मानसिकता के स्तर का परिचायक है। धार्मिक पर्व पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के संयोजकों ने जब फिल्मी नृत्य पर रोक लगा दी तो उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा। भाग लेने वाले कलाकारों का कहना था कि हमारे बच्चों के पैर तो धमाकेदार फिल्मी गीतों पर ही उठते हैं। इस तरह फूहड़ता को प्रश्रय तो हम ही देते हैं। रोकथाम उपचार से बेहतर है— यह बात स्वस्थ समाज के लिए भी उतनी ही आवश्यक है जितनी स्वस्थ शरीर के लिए। स्वस्थ समाज हमें मिलकर तैयार करना होगा। हमें करना होगा आत्मचिंतन, समझना होगा संस्कृति के मूल्यों को, बचाना होगा अपने को उपभोक्तावाद के आक्रमण से। तभी तो हमारी नई पौध पुष्पित व पल्लवित होती रहेगी संस्कार के फलों से।
मानवता का हो उद्धार — यदि बच्चों में है सुसंस्कार