जैन धर्म में श्रावक उसे कहा जाता है जो श्रद्धावान हो विवेकवान व क्रियावान हो।भगवान महावीर से गौतम गणधर ने पूछा था— हे भगवान हमें किस प्रकार चलना चाहिए किस प्रकार बैठना चाहिए, किस प्रकार भोजन करना चाहिए, हम किस प्रकार पाप बंध से बच सकते हैं। भगवान ने उत्तर दिया— हमें यत्न से बैठना चाहिए, यत्न से चलना ,यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिए इस प्रकार सावधानीपूर्वक आचरण करने से पाप कर्म नहीं बंधते।’ चरणानुयोग के अनुसार जीवन जीने का प्रारंभ हमारे घर से ही प्रारंभ होता है। एक छोटा बच्चा जब चलना सीखता है, वह अपने पास चलने वाले कीड़े—मकोड़े को पकड़ने की कोशिश करता है। तो मां कहती है— बेटा यह मर जायेगा। इसे पकड़ो नहीं वह सावधानी पूर्वक उस जंतु को अलग कर देती है बच्चे के जीवन में यहीं से अहिंसा के संस्कार पड़ने लगते हैं। जैन धर्म, दर्शन या आचार की जननी है अहिंसा । अहिंसा के बिना किसी भी तरह के जैनाचार की कल्पना नहीं कर सकते। जैन आहार में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है। एक गृहणी जब प्रात: उठते ही अपने किचन में प्रवेश करती है तभी से उसकी प्रयोगशाला प्रारम्भ हो जाती है। वह जब सूती छन्ने से पानी छानती है तो न केवल परिवार के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखती है वरन् अहिंसा के सिद्धांत का बीजारोपण करती है। पानी छानकर पीना न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से स्वास्थ्य के अनुकूल है अपितु समूची सृष्टि के प्रति करूणा व मैत्री का संदेश है। जैनागम में रसोई के लिये चार प्रमुख शर्तें निर्धारित हैं
(१) द्रव्य शुद्धि— भोजन में प्रयुक्त सामग्री का मर्यादा सहित उपयोग।
(२) क्षेत्र शुद्धि—जिस स्थान पर भोजन बन रहा है उस स्थान को शुद्ध रखना।
(३) काल शुद्धि— रात्रि भोजन का निषेध
(४) मन शुद्धि—भोजन करते समय या बनाते समय हमारा मन विकारों से रहित हो। चारों शर्तों पर आधारित भोजन शुद्ध होता है जो संस्कारों के निर्माण में सहायक होता है। कहा भी है जैसा खावे अन्न वैसा बने मन। आहार से विचारों का गहरा संबंध है। खानपान में जरा भी शिथिलता आने पर स्वास्थ्य और संयम पर उसका दुष्प्रभाव पड़ सकता है। चरणानुयोग हमें सीखाता है हम संयम से खायें। बार—बार न खायें, हम खाने के लिये न जियें, जीने के लिये खायें। यदि हम इस रहस्य को तलस्पर्शिता से जान सके तो हमारी अनेक सामाजिक, परिवारिक और वैयक्तिक समस्याएं समाहित हो सकती है सुलझ सकती है। जैन चौके का भाल विवेक है और यदि हमारे जीवन में विवेक से कार्य करने की शैली है तो वहां अहिंसा का पालन खुद ब खुद हो जाता है । करूणा की झिरियां मन के भीतर से फूट निकलती है।यहीं तो चरणानुयोग है।