प्रतिवर्ष सोलहकारण पर्व भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर आश्विन कृष्णा प्रतिपदा तक मनाया जाता है। सामान्यत: यह पर्व ३१ दिन का होता है। इस पर्व में सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन किया जाता है। शास्त्रों में १६ भावनायें कही गई हैं। इन भावनाओं से तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का बंध होता है। इस कर्मप्रकृति के उदय से समवशरण एवं पंचकल्याण रूप विभूति प्राप्त होती है। इन भावनाओं का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है—
१. दर्शनविशुद्धि —इस भावना का होना आवश्यक है। क्योंकि इसके न होने पर और शेष सबके अथवा कुछ के होने पर भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। दर्शन शब्द का अर्थ है यथार्थ श्रद्धान अर्थात् जिनेन्द्रदेव द्वारा बताये गये मार्ग का २५ दोषों से रहित और अंगों से सहित पूर्ण श्रद्धान करना ही दर्शन विशुद्धि भावनाहै।
२. विनयसम्पन्नता —सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं वीर्य की, इनके कारणों की तथा इनके धारकों की विनय करना तथा आयु में ज्येष्ठ जनों का यथायोग्य आदर करना विनय सम्पन्नता कहलाती है।
३. शीलव्रतेषु अनतिचार —अहिंसा आदि पाँच व्रत हैं तथा इनका क्रोधादि कषायों से रहित पालन करना शील कहलाता है। व्रत और शीलों का निर्दोष रीति से पालन करना ही शीलव्रतेशु अनतिचार है।
४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग —सदैव ज्ञानाभ्यास में लगे रहना अभीक्षण ज्ञानोपयोग है। जो व्यक्ति निरन्तर धार्मिक ज्ञानाभ्यास करता है, उसके हृदय में मोह रूपी महान् अन्धकार निवास नहीं करता है।
५. अभीक्षण संवेग —सांसारिक विषय भोगों से डरते रहना अभीक्षण संवेग है।
६. शक्तित: त्याग —अपनी शक्ति को न छिपाते हुए आहार, औषधि, अभय, उपकरण आदि का दान देना शक्तित: त्याग है।
७. शक्तित: तप —अपनी शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग में उपयोगी तपानुष्ठान करना शक्तित: तप है।
८. साधु समाधि —दिगम्बर साधु के तप में उपस्थित आपत्तियों का निवारण करना तथा उनके संयम की रक्षा करना, साधु समाधि है।
९. वैयावृत्यकरण —गुणी पुरुषों की साधना में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने का प्रयत्न करना एवं उनकी सेवा सुश्रूषा करना वैयावृत्यकरण है।
१०-१३. अर्हत्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचन भक्ति—अरिहन्त—आचार्य—बहुश्रुत—प्रवचन (शास्त्र)इन चारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना ही अरिहन्त—आचार्य—बहुश्रुत—प्रवचन भक्ति है। बहुश्रुत का अर्थ उपाध्याय है। प्रचन का अर्थ जिनवाणी है।
१४. आवश्यकापरिहाणिसामायिक, चतुर्विंषतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल अविच्छिन्न रूप से करते रहना आवश्यकापरिहाणि है।
१५. मार्गप्रभावना —अपने श्रेष्ठ ज्ञान और आचरण से मोक्षमार्ग का प्रचार—प्रसार करना मार्गप्रभावना है।
१६. प्रवचनवत्सलत्व —गाय के बछड़े की तरह साधर्मी जनों से निच्छल—निष्काम स्नेह रखना प्रवचन वत्सल्त्व है। इस तरह कहा जा सकता है कि ये सोलहकारण भावनायें संसार मार्ग से मोक्ष मार्ग की ओर ले जाने वाली हैं। कहा भी है–‘‘भावना भवनाशिनी’। तीर्थंकर प्रकृति के बंध के लिये इनमें से प्रथम दर्शन विशुद्धि भावना का होना अनिवार्य है। अन्य १५ में से कोई भी चल सकती है। अत: हमें अपने मन में यह भावना अवश्य ही भानी चाहिये कि उपुर्यक्त सोलह कारण भावनाओं को भाकर शीघ्र ही तीर्थंकर पद की प्राप्ति हो।