एक बार फिर चातुर्मास का काल हम सबके बीच है। हमारे पूज्य संतों और साध्वियों की पूरे भारतवर्ष में जगह—जगह भव्य तरीके से चातुर्मास की स्थापना हो चुकी है। चातुर्मास का समय आत्मसाधना व धर्माराधना का काल होता है । अहिंसा धर्म के पालन के लिए हमारे पूज्य संत वर्षाकाल के चार माह में एक स्थान पर रहकर आत्मसाधना और धर्म प्रभावना करते हैं। यह समय साधु और श्रावक दोनों के लिए महत्वपूर्ण होता है। साधुओं का योग मिलने से जैन समाज की लोक प्रभावना में वृद्धि होती है। उनके उपदेश व प्रेरणा से सामाजिक एकता का विकास होता है। स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला आदि के निर्माण के द्वार खुलते हैं। चातुर्मास के दौरान जो धर्म की प्रभावना होती है। वह अपने आप में देखने योग्य होती है। साधु के समागम से मानों उस स्थान पर एक नयी स्फूर्ति और जागरूकता देखने को मिलती है। अनेक ऐसे आयोजन इस दौरान परवान चढ़ते हैं जो वाकई प्रशंसनीय होते हैं, लेकिन हमारे पूज्य संतों व श्रावकों को यह भी साथ में ध्यान रखना होगा कि कहीं भी चातुर्मास मात्र प्रदर्शन की भेंट न चढ़ जाये। प्रभावना के चक्कर में साधना कहीं खो न जाए। पिछले चातुर्मास की संख्या को संख्यात्मक वृद्धि करने वाला न साबित हो। नये जोश और जज्बे के साथ एक ऐसी उपलब्धि लेकर यह चातुर्मास जाये कि समाज के लिये सर्दियों तक यादगार बना रहे और साधु की साधना में भी ऐसी वृद्धि हो कि वह अपने रत्नत्रय का पालन कुछ इस तरह करें कि वे अपने मोक्ष मार्ग को जल्द प्राप्त कर सके। बाह्य प्रदर्शन के लिए धन को पानी की तरह बहाया जाता है, चातुर्मास के दौरान मंदिरों में अनेक बहुरंगीन बड़ी—बड़ी पत्रिकाएं भारी मात्रा में देखने को मिलती हैं, जिनमें करोड़ों रूपये व्यय किए जाते हैं, बाद में यह पत्रिकायें रद्दी में चली जाती हैं चातुर्मास के दौरान और भी अनेक ऐसे आयोजन होते हैं । अनेक जगह चातुर्मास कमेटियों में झगड़े और समाज में विघटन जैसी घटनाएं भी सुनने को मिलती हैं। इस चातुर्मास में कुछ ऐसा करें कि हमें स्वयं लगे कि हमने साधना और प्रभावना दोनों की है। हम क्या करें, कुछ इस प्रकार कर सकते हैं— चातुर्मासरत साधु— साध्वियों के दर्शन करने प्रतिदिन अवश्य जावें। प्रतिदिन प्रवचन श्रवणकर उन्हें आत्म जीवन में उतारने का प्रयास करें। नौकरीपेशा श्रावकों के लिए प्रतिदिन संभव न हो तो रविवार और अवकाश के दिनों में तो प्रवचन श्रवण अवश्य करें। अपने बच्चों को भी साथ लायें, यह बहुत आवश्यक है।
१.हरे पत्ते वाली साग— सब्जी, डिब्बा बंद वस्तुएं, आचार मुरब्बा तथा जमीकंद का प्रयोग न स्वयं करें न अपने परिवार में करने दें। उन्हें इनकी लाभ — हानि समझाकर स्वेच्छा से त्याग करने की प्रेरणा दें।
२. श्रावक के षट् आवश्यकों का पालन जरूर करें तथा त्यौहार एवं व्रतों में संयम का पालन करें।
३. चार माह तक तो नियम से घर में प्याज, लहसून, आलू आदि का उपयोग न करें।
४. होटल, बाजार आदि के खाने का त्याग करें। घर का बना भोजन ही करें। वैसे घर का भोजन ही शुद्ध और पौष्टिक तथा लाभकारी होता है, अत: हम सब का प्रयास होना चाहिए कि हम हमेशा घर के भोजन को ही महत्व दें।
५.यथासंभव अष्टमी,चतुर्दशी एवं अन्य पर्व के दिनों में एकासन / उपवास करें। इससे आपके स्वास्थ्य को भी लाभ होगा और धर्म का भी पालन होगा। जिनसे न सधे व सिर्फ दिन में दो बार भोजन का नियम लें।
६.चातुर्मास में अपनी भूमिका का निर्वाह पूरी जिम्मेदारी पूर्वक करें। चातुर्मास साधुजन के स्वास्थ्य आदि का पूरा ध्यान रखें तथा उनकी साधना के लिए अनुकूलता बनाए रखने में अपने कर्तव्य निभायें।
७. श्रमणों की आहार व्यवस्था आगम के अनुकूल तथा संतो के रत्नत्रय वृद्धि हेतु समीचीन हो।
८. बाहर से आने वाले अतिथियों के साथ वात्सल्य भाव से भोजन व निवास की समुचित व्यवस्था हो।
९. चौका लगाकर आहारदान का पुण्य लेने से वंचित न रहें। कोई भी साधु किसी भी संघ का हो, पूरी श्रद्धा और भक्ति पूर्वक आहारदान दें, अपने पूरे परिवार को इस प्रक्रिया में शामिल कर उन्हें आहारदान में शामिल कर उन्हें आहारदान के महत्व को बतायें।
१०. स्वयं तथा अपने बच्चों को शाम को आचार्य भक्ति, आरती, वैयावृत्ति आदि में शामिल करें। पूरे मनोयोग जितना अधिक समय चातुर्मास में दे सके देने का प्रयास करें। किसी अनावश्यक विसंवाद में न फसे। अपनी धर्माराधना से मतलब रखें। समाज को तोड़ने वाले कार्यों को तवज्जों प्रदान न करें।
११. अधिकाधिक समय धर्मध्यान में लगायें। चातुर्मासरत साधु की चर्या में साधक बनें। लेकिन ध्यान रहे हम साधु की साधना , चर्या में साधक ही बनें। चर्चा में साधक ही बनें, उनकी चर्चा में दोष लगने के निमित्त न बनें, न ही साधना में बाधक बनें।
१२. अपने बच्चों को चातुर्मास में चलने वाली विभिन्न कक्षाओं, स्वास्थ्य, पूजन विधान, प्रवचन, सांस्कृतिक आयोजन आदि में सक्रिय रूप से भाग लेने की प्रेरणा दें।
१३.चातुर्मास के दौरान आप ऐसा कोई अमर्यादित या अशोभनीय कार्य न करें जिससे समाज व साधु दोनों के लिए कष्टकारी हो। चातुर्मास को हमेशा विवादों से परे रखें। किसी संतवाद या पंथवाद के चक्कर में न पड़े तथा पूजन—अभिषेक की पद्धति के विवादास्पद पहलुओं से दूर रहें। समाज के पैसे का अपव्यय न हो, ऐसे कार्य को प्रमुखता दी जानी चाहिए जिनसे दीर्घकालीन लाभ की प्राप्ति समाज को हो। चातुर्मास की प्रभावना की आड़ में प्रदर्शन की भेंट न चढ़ने दें।
१४. संस्कारों के रोपण के लिए पाठशाला का संचालक आवश्यक है। जहाँ पर पाठशाला न चलती हो, वहां पाठशाला का शुभारंभ हो। शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की जरूरत हमारी समाज को है, इसके लिए जैन विद्यालय की स्थापना की जाये तो कितना अच्छा रहेगा। जहां की समाज सक्षम है वहां उच्च शिक्षा के केन्द्र खोलने की पहल की जाये। औषधालय खोलकर हम रोगियों को उपचार सुगम तरीके से उपलब्ध कराने की पहल कर सकते हैं।
१५. हमारी समाज में आर्थिक रूप से कमजोर भाईयों की संख्या काफी अधिक है। क्यों न इस चातुर्मास में आप समाज में एक ऐसा फण्ड बना लें, जो अपने असहाय भाइयों की मदद के लिए आगे आ सके। उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए हम साधन उपलब्ध करा सके। यदि यह कार्य हो गया तो मैं समझता हूँ चातुर्मास कि बहुत बड़ी उपलब्धि हो गई ।
१६. वर्षाकाल में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति अत्यधिक होती है । अत: गृहस्थ जीवन में समरंभ, समारम्भ, आरम्भ करने में पूर्ण सावधानी रखने का प्रयास किया जाये। हमारे किसी भी आरम्भ कार्यों से जीवों की हिंसा न हो।
१७. प्रत्येक जगह की जैन समाज में एक ऐसा स्थान होना चाहिए, जहां हमारा पूरा समाज एक जगह एकत्रित होकर अपने आवास के लिए पर्याप्त जगह आदि हो। इसके लिए पर्याप्त जगह में धर्मशाला, हाल आदि का निर्माण भी आवश्यक है, जो सभी सुविधाओं से पूर्ण हो। १८.चातुर्मास कमेटी और समाज कमेटी में आपस में सद्भावना बनी रहे, किसी प्रकार का कोई विसंवाद या विरोधाभास न हो।
पूज्यनीयसाधु—साध्वियों से प्रार्थना और निवेदन— हमारे पूज्य संत समाज के नैतिक विकास व कुरीतियों को मिटाने हेतु उपदेश दें। जहां आवश्यक हो वहां जिनालय निर्माण व जिनबिंब स्थापना हेतु उपदेश तथा शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति हेतु विद्यालयों की स्थापना, स्वास्थ्य के लिए औषधालय की स्थापना। समाज में किसी तरह का भेदभाव आदि की प्रवृत्ति न पनपे। प्रभावना की आढ़ में साधना कहीं खो न जाय। पत्रिका, पंपलेट, स्वयं की फोटो, बैनर, विज्ञापनबाजी, दोष पूर्ण सजावट आदि फिजूलखर्ची से समाज को बचने की प्रेरणा दें। किसी प्राचीन अप्रकाशित आचार्य प्रणीत ग्रंथ के प्रकाशन की समाज को प्रेरणा दें। अपने उपदेशों में युवा पीढ़ी को धर्म से जोड़ने और अंधविश्वासों की समाप्ति की पहल हो। चातुर्मास में समाज को कुछ ऐसा दें जाय जो धर्म व समाज के लिए उपयोगी व उपकारी हो। धर्म प्रभावना तो करें लेकिन देह प्रभावना से दूरी बनाए रखें। समाज के पैसे का व्यय मितव्ययता के साथ हो जो उपयोगी और सार्थक हो। ऐसे उपदेश से दूरी बनायें रखें जिससे समाज के पैसे का व्यय मित्व्ययता के साथ हो जो उपयोगी और सार्थक हो । ऐसे उपदेश से दूरी बनायें रखें जिससे समाज के टुकड़े हों। समाज में बढ़ रही अनैतिक घटनाओं के प्रति समाज को जागरूक करें। दिनोंदिन पारिवारिक जीवन में अपने ही लोगों से बढ़ रहीं दूरी के प्रति लोगों को उपदेश देकर आपस में हिल—मिलकर रहने की ऊर्जा प्रस्फुटिक करें। जो आपकी चर्या में दूषण लगाये ऐसा कोई भी कार्य गृहस्थ को न करने दें। समाज को व्यसन मुक्त बनाने का उपदेश देकर उन्हें सही मार्ग दिखायें। चातुर्मास के दौरान ऐसा कार्य किया जाय जिससे पूरी समाज लाभान्वित हो तथा समाज के पैसे की अनावश्यक बर्बादी न हो तथा तनिक भी अप्रभावना न हो पाये। प्रदर्शन वाले कार्यों की जगह दीर्घकालीन लाभ वाले कार्यों को प्रमुखता दें। मंदिर और साधुओं से युवा पीढ़ी दूर क्यों हो रही हैं, इस बात पर भी चिंतन करें और प्रेरणा दें कि वह मंदिर और साधुओं से जुड़े और प्रतिदिन मंदिर जायें, साधुओं के दर्शन, प्रवचन, आहारदान आदि की प्रेरणा युवावर्ग को दें। नैतिकता के प्रति युवावर्ग को मार्गदर्शित करें। जहाँ जो पूजा—पद्धति चल रही है, उससे छेड़छाड़ न की जाय, यदि पूजा की थाली पर समाज बँटा नजर आए तो उसे एक करने का प्रयास किया जाय। अपने प्रवचन में समाज में एकता के लिये हमेशा लोगों को मार्गदर्शित करते रहें। जैन कुलाचार से श्रावकों को परिचितद करायें। कुछेक ऐसे आयोजन समाज में हमेशा होते रहें जिसमें पूरी समाज एकसाथ एकत्रित हो सके, इसकी प्रेरणा दी जाय। नशा से मुक्ति के उपाय और नैतिकता की शिक्षापरक उपदेश भी समय—समय पर दिये जाये । पूरी समाज को एकता के सूत्र में बांधते हुए उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए मार्गदर्शित किया जाय। स्वाध्याय की परम्परा को प्रोत्साहित किया जाय।चातुर्मास को व्यर्थ के आडम्बरों से मुक्त रखने का प्रयास किया जाय। चातुर्मास पूर्ण सफल एवं सार्थक तभी माना जा सकेगा जब श्रमण का समय चार प्रकार की आराधना में व्यतीत हो एवं श्रावक का चार प्रकार की शुद्धियों से समन्वित हो। चातुर्मास में हमारे पूज्य साधु—साध्वियों को चाहिए कि वे दिशाविहीन युवा शक्ति को व्यसनों एवं भौतिकता में भटक चुकी है उसे सदुपदेश के माध्यम से सन्मार्ग प्रदान करें । समाज में मृत प्राय: स्वाध्याय की परम्परा को विकसित करें। सामूहिक रूप से स्वाध्याय की परंपरा प्रारंभ हो। घर बैठे ज्ञान की अच्छी—अच्छी बाते पढ़ने को मिलें एवं जीवन सत्संस्कारित बने इस हेतु सत्साहित्य सुलभ करवाने हेतु वाचनालय प्रारंभ हो। चातुर्मास की सार्थकता के लिए मेरा पूजनीय संतों से विनम्र निवेदन है कि — जाति, पंथ एवं संत के नाम पर विभक्त समाज को प्रेम, वात्सल्य के माध्यम से अखण्डता की प्रेरणा प्रदान करें। समाज में चल रहे मृत्युभोज,रात्रि भोजन, बफै सिस्टम आदि बंद करवाकर दिवा भोजन, दिवा विवाह की प्रेरणा देकर एक आदर्श समाज तैयार कर सकते हैं। बच्चों में सत्संस्कारों का बीजारोपण करने की दृष्टि से रात्रि कालीन दैनिक एवं साप्ताहिक संस्कार शालाएं प्रारंभ करवा सकते हैं। शास्त्र—भंडारों का व्यवस्थित सूचिकरण करवा दें। आर्ष प्रणीत दुर्लभ ग्रंथ प्रकाशित करवाकर साहित्य प्रचार—प्रसार करवा सकते हैं। युवाओं का प्रतिदिन पूजन अभिषेक की प्रेरणा देकर उनकी दिनचर्या को सुव्यवस्थित कर समाज के भविष्य निर्माण में अपनी भूमिका निर्वाह कर सकते हैं। जैन परिवारों में अपनी भूमिका निर्वाह कर सकते हैं। जैन परिवारों में आये दिनों ऐसी अनैतिक घटनाएं घट रही हैं जो पहले कभी देखी—सुनी भी नहीं गई जो आज हमें शर्मसार करती हैं, उनकी रोकथाम के लिए अपने प्रवचनों के माध्यम से प्रेरणा देकर ऐसी घटनाएं समाप्त की जा सकती हैं। जैन समाज की एकता पर बल देते हुए समाज को एक सूत्र में पिरोने की प्रेरणा अपने प्रवचनों में दे, आज सबसे अधिक एकता की जरूरत हमें है। शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए मदद की विभिन्न योजनाओं की प्रेरणा दें, ताकि हमारी समाज का कोई भी व्यक्ति आर्थिक तंगी से न जूझ सके, ताकि वह अपना व परिवार का लालन—पालन ठीक ढंग से कर सके। चातुर्मास में जो अपव्यय होता है, यदि वह समाजोपयोगी कार्यों में लगा दिया जाय तो एक बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है। चातुर्मास इसलिए होता है कि साधु—संत अहिंसा का व्रत का पालन कर सके, साथ ही अपनी आत्मसाधना भी पूरी एकाग्रता के साथ कर सके। लेकिन दुखद यह है कि आज चातुर्मास के दौरान बहुत—सी विसंगतिया देखने को मिलती हैं, जो ठीक नहीं है। भारत की वसुन्धरा पर जैन संस्कृति के विकास का प्रतिफल ही चातुर्मास है। सन्तों को चातुर्मास के कारण अनेक क्षेत्रों में विकास की धारा प्रवाहित हुई है। श्रुतज्ञान के संरक्षण, गुफा, मंदिरों एवं ध्यान केन्द्रों के निर्माण, शास्त्र लेखन तथा श्रुत भणडारों की व्याख्या तथा उतंग भवन जिनालयों के निर्माण हमारे महान आचार्य श्रमण संघों के चातुर्मास के मूर्तिमान प्रतीक हैं। जहाँ संतों का चातुर्मास होता है, वह तीर्थ बन जाता है। चारों ओर विकास की संभावनायें स्वर्णिम हो जाती हैं। बेशक, आज भी अनेक संतों के चातुर्मास परंपरा के निर्वाह के साथ समाज को बहुत कुछ देते हुए नजर आते हैं परन्तु आज चातुर्मासों में धन का अपव्यय एक चिंता का विषय है, क्या हम इस पर रोक नहीं लगा सकते ? जरूरत हमारे संतों, विद्वानों और समाज कि श्रेष्ठियों को इस विषय पर गंभीर चिंतन की। चातुर्मास के चार माहन केवल हमारे चतुर्विध संघ के लिए बल्कि पूरे जैन समाज के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। यह वह महीने होते हैं जिनके हमें अनेक उपलब्धियों की प्राप्ति होती है, जो दीर्घकालीन लाभ देने वाली होती है परन्तु यह भी उतना ही सच है कि अनेक जगह चातुर्मासों में समाज में विघटन, तनाव, विसंवाद और धन का अपव्यय देखा जाता है, जो चिंता का विषय है। परिग्रह के त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले हमारे संत ही यदि परिग्रह के मायाजाल में फसे नजर आएं तो किसके पास शिकायत लेकर जाएं ? हमारे पूज्य संत ही हमें सही दिशा और दशा में रूबरू करा सकते हैं, विघटन से हमारे संत ही हमारे समाज को बचा सकते हैं। हमें ऐसे प्रसंगों से बचना चाहिए जो तोड़ने का कार्य करें। समाज को भी चाहिए कि संत का पूरा ध्यान रखें और पूरी जिम्मेदारी के साथ चातुर्मास सम्पन्न कराएं। तभी चातुर्मास की सार्थकता हो पायेगी।