भाषा संस्कृति, वैचारिक और भावनात्मक समरसता की सेतु है। जब कोई दो भिन्न भाषा—भाषी नितान्त अजनबी लोग मिलते हैं तो वे आपसी संवाद के लिए क्या किसी तीसरी भाषा का उपयोग करते हैं? कदापि नहीं। वे दोनों अपनी—अपनी भाषा में बोलते हैं और सामने वाला उसकी बात समझ जाए इस हेतु भाषा को अर्थ देने वाली शारीरिक मुद्राओं का, संकेतों का प्रयोग करते हैं । इन संकेतों के माध्यम से धीरे—धीरे दोनों एक दूसरे की भाषा की ध्वनियों को, उच्चारणों को, शब्दों को सीख जाते हैं। जैसे—जैसे वे एक दूसरे की भाषा को सीखते जाते हैं, संकेतों का, शारीरिक मुद्राओं का प्रयोग अपने आप ही घटता चला जाता है क्योंकि जब वे दोनों एक दूसरे की भाषा को समझने लगते हैं तो संकेतों की, शारीरिक मुद्राओं की आवश्यकता नहीं रह जाती, भाषा ही संवाद का मुख्य माध्यम हो जाती है। अब उनके लिए एक दूसरे से संवाद करना आसान हो जाता है। इस भाषाई सेतु के माध्यम से धीरे—धीरे उनके बीच अजनबीपन समाप्त हो जाता है, एक अपनापन घटित होता है जो उन्हें एक दूसरे के विचार और संस्कृति के प्रति उत्सुक और ग्रहणशील बनाता है। यह विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है जिससे गुजर कर दोनों समृद्ध होते हैं। आजादी के बाद हमने विकास की इस स्वाभाविक प्रक्रिया से अपने देश की जनता को गुजरने दिया होता तो आज हम भी चीन की तरह वैचारिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से एक दूसरे के अधिक निकट होते, एक राष्ट्र के रूप में अधिक सुसंगठित होते और बहुत संभव था कि सड़सठ वर्षों के भाषाई आदान—प्रदान के फलस्वरूप हमारी अपनी भाषाओं में से ही कोई भाषा ऐसे विकसित हो गई होती जो राष्ट्र भाषा के रूप में उत्तर—दक्षिण, पूर्व — पश्चिम समग्र भारत को स्वीकार होती। कहना न होगा कि तब भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व पश्चिम मानसिक तौर पर भी इस तरह बंटे हुए न होते जैसे आज है। हम एक दूसरे को संदेह से देखने की अपेक्षा, परस्पर घृणा करने की अपेक्षा, डरने की अपेक्षा, एक स्वाभाविक अपनत्व से बंध चुके होते। तब हम मद्रासी, गुजराती, तमिल या बंगाली, हिन्दू—मुस्लिम, सिक्ख—ईसाई, जैन न होकर भारतीय हो गए होते क्योंकि यही स्वाभाविक था। यदि ऐसा होता तो देश में कोई विशिष्ट वर्ग नहीं होता, खास और आम का भेद न होता। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। आजादी के बाद न जाने किस दबाव में विकास की इस स्वाभाविक प्रक्रिया को न अपनाकर अपने आपसी संवाद के लिए हम पर तीसरी भाषा थोप दी गई है जो हमारी अपनी जमीन की उपज न होकर विदेश से आयातित है। विगत सड़सठ वर्षों से पूरा देश एक विदेशी भाषा को सीखने की जद्दोजहद से गुजर रहा है। यह संघर्ष स्वभाविक न होकर थोपा हुआ है। परिणाम स्वरूप सीखने की प्रक्रिया आनन्द का स्रोत बनने के बजाए असहनीय तनाव का कारण बन गई हैं। इस तनाव ने देश को बहुत बड़े प्रतिभावान वर्ग को इतनी गहरी हीनभावना से भर दिया है कि जब तक वह इस विदेशी भाषा में दक्ष नहीं हो जाता, पढ़ा लिखा होते हुए भी स्वयं को ही पढ़ा लिखा मान नहीं पाता। वह स्वयं को अपने देश में ही दोयम दर्जे का नागरिक मानता है। प्रतिभावना होकर भी कुंठीत रहता है। वह अपने लिए काम नहीं करता, अपने लिए कोई माँग नहीं करता, अपने लिए जीता नहीं है, वह अपने ही देश में उन मुठ्ठीभर अंग्रेजीदां लोगों के लिए जीता है जिन्हें सौभाग्य से जन्मजात ही अंगेजी सीखने के अवसर सुलभ थे, उनकी ही माँगों की पूर्ती के लिए कड़ी मेहनत कर सारा उत्पादन करता है, उन ही के लिए काम करता है और बदले में जो कुछ रूखा —सूखा मिल जाए उसे ही स्वीकार कर धन्य हो जाता है। नैतिकता के एक बहुत सामान्य से नियम के अनुसार दो के संवाद में तीसरे की दखलंदाजी अभद्रता मानी जाती है । इसी तरह हमारे देश की दो भाषाओं के बीच में विदेशी भाषा का क्या काम? इस तीसरी भाषा को अपने देशी संवाद का माध्यम बनाने के दुष्परिणाम अब बहुत स्पष्टता पूर्वक सामने आ चुके हैं। इससे जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है वह हैं सड़षठ वर्षों की आजादी के बावजूद देश व्यापी समरसता का विकास न होना। अत: उच्च शिक्षित भारतीयों के आपसी संवाद का दर्पयुक्त माध्यम बनती जा रही विदेशी भाषा को हटाने की नहीं, आवश्यकता है उसे एक कदम पीछे धकेल कर देशी भाषाओें को दो कदम आगे बढ़ाने की। यह बात हम भारतवासी जिस दिन समझ लेंगे, उसी दिन हम सच में स्वतंत्र होंगे, उसी दिन हम सच में एक राष्ट्र होंगे । इस समझ को पाने में पहले ही अत्यधिक विलम्ब हो चुका है। कहीं ऐसा न हो कि सड़सठ वर्षों में हो चुके नुकसान की भरपाई के अवसर भी शेष न रहें। अब जागना जरूरी है। जागो भारत जागो। हमारे मात्र चार कदम बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं, गुरूदेव के मंतव्य को पूरा कर सकते हैं
पहला कदम — हस्ताक्षर देशी भाषा में करें। दूसरा कदम — अपनी दुकानों , प्रतिष्ठानों के नाम पट देशी भाषा में लगायें। तीसरा कदम — मोबाइल, एटीएम, कम्प्यूटर, इंटरनेट, देशी भाषा में उपयोग करें क्या हम अपने गुरू और देश की खातिर इतना भी नहीं कर सकते ?