डॉ. अनुभा जैन (संस्कृत)
यमुना नगर, हरियाणा
प्रत्येक धर्म में अहिंसा की बहुत महिमा है परन्तु जैन अहिंसा सैद्धान्तिक दृष्टि से सारे धर्मों की अपेक्षा असाधारण रही है। जैन दर्शन में अहिंसा का सर्वोत्तम स्थान है। प्रकृति में सब जीवों का अपना—अपना विशेष महत्व है।जैन धर्म उन सब जीवों की रक्षा करने व हिंसा को त्याग करने का मुक्त स्वर से उपदेश देता है। अहिंसा का सामान्य अर्थ है— हिंसा न करना। अहिंसा का व्यापक अर्थ है— किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई हानि न पहुंचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी के द्वारा भी कष्ट न देना तथा कर्म से किसी प्राणी की हिंसा न करना—अहिंसा कहलाता है। जैन दर्शन में ‘अहिंसा परमोधर्म:’ एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। जैन धर्म मानव को यह स्पष्ट सन्देश देता है। कि ‘‘ सभी प्राणी जीने की इच्छा रखते हैं। सभी जीवन में सुख की कामना करते हैं। कोई भी व्यक्ति दु:ख नहीं चाहता। जैन धर्म एवं दर्शन प्रकृति के अनुरूप है। इसलिए यह जीवनोपयोगी, व्यवहारिक एवं सैद्धान्तिक है। आधिभौतिक एवं व्यावहारिक जीवन में जैन धर्म की मान्यताएँ जितनी अनुकरणीय हैं उतनी ही विज्ञान की कसौटी पर ये खरीं उतरती हैं। जैन धर्म में अहिंसा का स्वरूप व अर्थ अत्यन्त विशाल है। इसके अनुसार मात्र घात न करना ही अहिंसा नहीं कहलाता अपितु करूणा, दया, मैत्री संयम, समता जैसे अन्य बहुत से गुण अहिंसा के प्रधान स्तम्भ हैं।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि में भिन्न—भिन्न व्यक्तित्व के धरक पृथक्—पृथक् जीव हैं। सब जीवों को दु:ख अप्रिय होता है, यह समझ कर मुमुक्षु को सब जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखना चाहिए। जैन ग्रन्थ आचारांगसूत्रा का समय सम्भवत: तीसरी—चौथी शताब्दी ई.पू. है। इस ग्रन्थ में उपदेश दिया गया है कि भूत, भविष्यत् और वर्तमान के अर्हत् के उपदेशानुसार किसी भी जीवित प्राणी को एवम् पदार्थ को, जिसमें आत्मा का वास है, कष्ट नहीं देना चाहिए क्योंकि न मारने के का संकल्प करके जो त्रास की हिंसा का त्याग है वह स्थूल हिंसा है और स्थूल हिंसा के त्याग से निर्मलता आती है छह ढाले में अहिंसा को लक्षित किया गया है कि त्रस हिंसा का सर्वथा परित्याग करना ही अहिंसा है। हिंसा के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए चार बातों का जानना अत्यावश्यक है— हिंस्य, हिंसक, हिंसा एवं हिंसा का फल । जो मारा जाए वह हिंसा है। जो मारने वाला है वह हिंसक है। जीव को मारने रूप किया हिंसा है तथा जो नीचातिनीच नरक में पर्याय धरण कर दु:ख भोगना है— हिंसा का फल है। पापों के परित्याग को व्रत कहते हैं। हिंसा , झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह—ये पाँच पाप हैं। इन पाँचों पापों से विरत होना व्रत है। यह व्रत अनुव्रत और महाव्रत भेद से दो प्रकार का है। पापों का परिपूर्ण त्याग महाव्रत तथा उनका आंशिक त्याग अणुव्रत कहलाता है। ‘हरिवंशपुराण’ में भी इस तथ्य का उल्लेख मिलता है कि हिंसादि पापों का एक देश छोड़ना अणुव्रत कहलाता है तथा त्रस—कायिक जीवों के विघात से विरत होना प्रथम अहिंसाणुव्रत है।
सर्वार्थसिद्धि में भी ५ व्रतों (हिंसा, असत्य,चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होना) में से अहिंसा को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। अहिंसा अणुव्रत के स्वरूप को वर्णित किया गया है कि त्रस जीवों का घात न करने वाले प्राणी को गणधर देव स्थूल हिंसा से विरक्त कहते हैं। अणुव्रत पाँच हैं— अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणुव्रत। सम्यक् वचनगुप्ति, भोजन के समय देखकर भोजन करना, ईर्या—समिति और आदाननिक्षेपण समिति—ये ५ अहिंसा व्रत की भावनाएँ हैं। सर्वार्थ सिद्धि में भी इनका उल्लेख मिलता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए रागद्वेष पूर्वक किसी जीव को मन—वचन—काय से पीड़ा पहुँचाना हिंसा है। प्रमतयोगात्य प्राणव्यपरोपणं हिंसा। प्रमाद योग से किसी जीव के प्राणों का व्यपरोपण करना अर्थात् पीड़ा देना हिंसा है। यत्खलु योगात्प्राणानां द्रव्यभाव रूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा कषाय रूप परिणाम जो मन वचन काय योग जिसके हेतु है द्रव्य भाव स्वरूप दो प्रकार प्राणों को पीड़ा देना या घात करना निश्चित ही वही हिंसा है। इस हिंसा के स्थूल त्याग को अहिंसाणु व्रत कहते हैं। जैन दर्शन में त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के जीव बताए गए हैं। उनमें संकल्प पूर्वक त्रस जीवों के घात का मन—वचन—काय से त्याग करना अहिंसाणु व्रत है। अहिंसा महाव्रत की ५ व्यक्तियों में से एक है। हिंसा के ४ भेद हैं— संकल्पी हिंसा, आरम्भी हिंसा, औद्योगिक हिंसा, विरोधी हिंसा। संकल्प पूर्वक किसी जीव का घात करना अथवा उसे कष्ट पहुँचाना संकल्पी हिंसा है। कसाइयों द्वारा प्रतिदिन असंख्य पशुओं को मारना इसी संकल्पी हिंसा का परिणाम है।
आतंकवाद, जातीय संघर्ष, साम्प्रदायिक दंगे एवं अपने मनोरंजन अथवा मांसाहार के लिए शिकार करना या कराना इसी संकल्पी हिंसा की पर्यायें हैं। इसके अतिरिक्त धार्मिक क्रियाओं के नाम पर की जाने वाली पशुओं की बलि भी इसी हिंसा की कोटि में सम्मिलित है। घरेलू काम—काजों, दैनिक कार्यों के निमित्त से होने वाली हिंसा आरम्भी हिंसा है। इसके अंतर्गत भोजन बनाना, झाड़ना—बुहारना, नहाना—धोना आदि क्रियाएँ समाविष्ट है। अपने राष्ट्र,धर्म, संस्कृति, समाज, कुटुम्ब और परिवार की अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा के लिए की जाने वाली हिंसा विरोधी हिंसा है। इन चार प्रकार की हिंसाओं में अहिंसाणुव्रती संकल्पी हिंसा का त्याग और काय से किसी भी प्राणी का घात अपने मनोरंजन एवं स्वार्थ पूर्ति के लिए नहीं करता तथा शेष तीन प्रकार की हिंसा को भी अपने विवेक से कम करता है। आचार्य जिनसेन के अनुसार हिंसा पाप बन्ध का कारण है। हिंसा करने से लोक तथा परलोक में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं । उनके अनुसार तो इस संसार में प्रमादी बन कर इन्द्रियादि प्राणों का विच्छेद करना हिंसा पाप है। यहाँ तक कि शयन, आसन स्थान, गमन आदि में असावधानी से चर्चा करना हिंसा है। सब जीवों के प्रति दया रखते हुए जब जैन साधु पृथ्वी पर विहार करते हैं तो वे कभी भी जीव को पीड़ा नहीं पहुँचाते। जैसे माता पुत्र का सदैव हित ही करती है उसी प्रकार वे सभी का हित करते हैं। मुनिराज वृण, वृक्ष, हरिता—इनका वेदन, बकुल, पत्ता, कोंपल कन्दमूल—इनका वेदन तथा प्रफल, पुष्प बीज—इनका घात न तो आप करते हैं और न ही दूसरों से करवावते हैं, न दूसरों को करने देते हैं। पापों का त्याग करना ही चारित्र कहलाता है।
हिंसा ही दुर्गति का द्वार पाप का समुद्र है तथा घोर नरक एवं महान्धकार है। क्योंकि हिंसक पुरूष की निस्पृहता महत्ता, दुष्कर तप करना काय क्लेश और दान करना आदि समस्त धर्म—कार्य व्यर्थ एवं निष्प्रफल हैं। तत्वार्थ सूत्रा में भी यह बात स्पष्ट रूप से उपदिष्ट है। दयावान व्यक्ति जीवों को मारने के भाव रूप संकल्प से तो त्रासजीवों का घात कभी करता ही नहीं अपितु मन—वचन—काय से भी घात नहीं करता। वह सदैव हिंसा भयभीत रहता है। समस्त लोक जीवों से हरा भरा है। हिंसा—अहिंसा अपने उपयोग बिना जीवों के मरने — जीने के आधार पर नहीं कही जाती अपितु जब व्यक्ति की क्रियाएँ उनके जन्म—मृत्यु से सम्बन्धित होती हैं तब वह हिंसा—अहिंसा कही जाती है। कषाय के वशीभूत होकर दूसरों के द्रव्य प्राणों और भावप्राणें का वियोग करने से निश्चित रूप से ही हिंसा होती है परन्तु यदि कोई व्यक्ति हिंसा से विरक्त हो कर भी हिंसा का त्याग नहीं करता, तो वह सोते हुए विलाव के समान सदाकाल हिंसक ही है। श्रेष्ठ आचरणों के विधान से युक्त शास्त्र ही वेद कहलाता है, हिंसा का उपदेश देने वाले वाक्य का कहा गया है। पुराण और धर्म शास्त्र भी वही है जो हिंसा का निषेध करने वाला है। प्राणियों की हिंसा करने में प्रयुक्त होने वाले दुर्मन्त्रा कहलाए जाते हैं। स्पष्टत: अहिंसा शुद्धि मात्रा उन्हीं की होती है जो दुर्भाव एवं परिग्रह से रहित हैं।
इन ग्रन्थों में उद्धृत मन्त्रों से सर्वथा स्पष्ट है कि ये हिंसादिक परिणाम पाप के कारण हैं तथा जो इस पाप कर्म में प्रवृत होते हैं वे पापचारी इहलोक व परलोक में दु:ख उठाते हैं। अत: विवेकी व बुद्धिमान व्यक्ति हिंसादि के दुष्परिणामों को देख कर बुद्धि से विवेक पूर्ण निर्णय कर के हिंसादिक कुकर्मों से विरत हो जाते हैं क्योंकि प्रमाद पूर्वक जीव का घात करना ही हिंसा है और से विरत होना प्रथम गुण कहा जाता है। हिंसा–अहिंसा के स्वरूप का वर्णन करते हुए पुरूषार्थ सिद्धयुपाय में कहा गया है कि आत्मा के परिणामों के राग—द्वेष आदि का उत्पन्न न होना अहिंसा है। जीवों पर दया करना धर्म है। निरन्तर हिंसा का त्याग करना दया है और अपने प्राण त्यागने के समय भी उस ओर लगे हुए मन, वचन, काय के द्वारा वध से दूर रहना हिंसा—त्याग है। जिनेन्द्र भगवान ने हिंसा त्याग को ही धर्म कहा है। धर्म कहा है क्योंकि यह विद्वज्जनों को अतिशय एवम् विस्तृत सुख में पहुँचा देता है। हिंसक प्रवृत्ति निरन्तर उत्तेजित करने वाली प्रवृत्ति है यह प्रवृत्ति सदैव वैर को बाँधे रहती है।इस लोक में वध , बन्ध और क्लेश आदि को प्राप्त कराने वाला है।
इसीलिए हिंसा को त्याग श्रेयस्कर है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भी यी स्वीकार करता है ककि स्व व पर के अन्तरंग व बाह्म प्राणों का हनन करना हिंसा है। रागादि की उत्पत्ति तो स्व हिंसा है ही अपितु षट्काय जीवों को मारना या कष्ट देना भी हिंसा है। परहिंसा भी स्वहिंसा पूर्वक होने के कारण परमार्थ से स्वहिंसा ही है। यथा तप्त लोहे के समान क्रोधी मनुष्य प्रथम स्वयं सन्तप्त होता है। तदन्तर वह अन्य पुरूष को सन्तप्त करता है। उसी प्रकार प्रमाद से युक्त व्यक्ति पहले स्वयं के अनुसार अपने द्वारा अपना घात करता है।
जैन गजट ४ अगस्त,