अत्तिमब्बे ने धार्मिक कार्यों में बेशुमार धन बहाया। वह अपने पूर्वजों के रास्ते पर चली तथा उनसे भी श्रेष्ठ कार्य आपने किया। पूर्वजों से भी अधिक मात्रा में जैन धर्म की प्रभावना की आपकी श्रेष्ठता के बारे में रन्न कवि ने अपनी रचना में इस प्रकार लिखा है।
इस पद्य में वर्णित सभी महापुरुष और स्त्रियाँ—दसवीं शताब्दी के दानवीर, धर्मवीर जैन समाज के आधार स्तंभ हैं। इम्मडि बूतुग, पुणसेय मरुल, मारसिंह—आप तीनों गंग वंश के राजा हैं और आपने , जैन धर्म का प्रचार, प्रसार और प्रभावना की है। चामुंडराय गंग राजाओं के श्रेष्ठ—सचिव और सेनाधिपति थे। शंकरगंड भी राष्ट्रकूट राज्य में जिनमंदिरों का निर्माण करवाकर प्रख्यात हुए। अत्तिमब्बे इन पाँचों दानियों से भी श्रेष्ठ मानी जाती है। इसलिए कवि रत्र ने अत्तिमब्बे को सर्वश्रेष्ठ दानी कहा है। इस प्रकार अत्तिमब्बे अपने जीवन काल में ही एक अपूर्व व्यक्तित्त्व वाली बन गई थी। आपके जीवन काल में सात अतिशय घटनाएँ घटीं जिनका वर्णन शिलालेखों में मिलता है। १. श्रवणबेलगोल के उन्नत कुक्कुटेश्वर—गोम्मटेश के दर्शन होने तक अन्नाहार त्यागकर दिए। निराहारी होकर पर्वतपर चढ़ते समय, उनकी थकावट दूर करने के लिये असमय ही वर्षा हुई। वर्षा काल न होने पर भी, जो वर्षा हुई, कहा जाता है, अत्तिमब्बे की थकावट दूर करने के लिए, शीतल हवा बहाने के लिए, प्रकृति ने इस प्रकार का अतिशय कर दिखाया। २. चालुक्य चक्रवर्ती की सेना जाते समय, बीच में गोदावरी में बाढ़ आई थी। इस कारण से नदी पार न कर सकी। उस समय चक्रवर्ती के आदेश के अनुसार, अत्तिमब्बे अपने सिर पर भगवान जिनदेव की प्रतिमा लेकर, गोदावरी नदी पार करने लगी। जैसे—जैसे वह चलने लगी वैसे—वैसे बाढ़ घटने लगी। नदी बाढ़ मुक्त हुई, सेना उस पार चली गई। ३. एक मदोन्मत हाथी अपना बंधन तोड़कर, क्रोध से लोगों में घुस आया। लोग भयभीत होकर भाग गए, लेकिन अत्तिमब्बे, अधीर न होकर वहीं खड़ी रही। धैर्यशाली अत्तिमब्बे को देखकर हाथी ने भक्ति से नमस्कार किया। ४. अत्तिमब्बे अधिक भक्ति से जिस—प्रतिमा की पूजा करती थी, वह प्रतिमा, नदी पार करते समय नदी में गिर गई। ढूंढ़ने पर भी नहीं मिली। वह जिनमूर्ति फिर मिलने तक आहार छोड़ने का व्रत धारण किया। आठवें दिन वह जिनमूर्ति मिल गई। ५.एक बार छावनी में आग लग गई थी। अत्तिमब्बे ने निर्मल जिनगंधोदक छिड़काया तो आग बुझ गई। ६. एक बार अत्तिमब्बे की एक सौत उसके साथ नाव में बैठ कर नदी पार कर रही थी, सौत ने अत्तिमब्बे को जोर से धक्का देकर नदीं में गिराने की कोशिश की उस समय वह नाव—इधर उधर टक्कर खाने लगी, भयभीत सौत पश्चाताप के साथ, अत्तिमब्बे के चरणों पर गिर पड़ी। ७. एक बार अत्तिमब्बे ने, नर्मदा नदी के ‘कुरुलपावे’ के स्तोत्र पात्र भगवान जिनदेव के दर्शन होने तक उपवास व्रत धारण किया। यह उसके जीवन पर्यंत प्रसिद्ध रहा। इस प्रकार कवियों ने सात महिमाओं का, अतिशयों का वर्णन किया है। यह अत्तिमब्बे के बारे में, तत्कालीन समाज, कवियों की दृष्टि का द्योतक है। इन कारणों से अत्तिमब्बे ने अपने जीवित समय में ही दैवत्व का स्थान पाया था। यहाँ की अतिशय घटनाएँ, कर्नाटक के इतिहास से अध्ययन करने वालों के लिए अधिक महत्वपूर्ण हैं। कन्नड़ वाङ्मय में अत्तिमब्बे की कीर्तिलता, सभी ओर फैली हुई है। आपकी यशोगाथा सदियों तक अनुशीलनीय और अनुकरणीय है। लगभग २४ शिलालेखों में आपका स्मरण है। अत्तिमब्बे के अंतिम दिनों के बारे में स्पष्ट विवरण प्राप्त नहीं है। इस बारे में, थोड़ी सी जानकारी देने का एक मात्र साक्ष्य एक शिलालेख है। बीजापुर जिला के मुददेबिहाल तहसील में कुंटोजी नाम का एक गाँव है । वहाँ एक ईश्वर देवालय है। देवालय के कुंए के पास एक तृटित शिलालेख है। उसका और एक भाग मिल जाएगा तो अत्तिमब्बे के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त हो जायेगी। इससे कर्नाटक के इतिहास और अत्तिमब्बे के जीवन चरित्र पर एक नया प्रकाश आ जायेगा। कुंटोजी गाँव में प्राप्त तृटिल शिला लेख में अत्तिमब्बे का वर्णन है। इस शिलालेख की तिथि की कल्पना की जा सकती है। चालुक्य जगदेकमल्ल जयसिंह के शासन काल का शिलालेख है। ई. सन. १००६—१०४२ उस समय की रचना है यह शिलालेख। शिलालेख में इस प्रकार लिखा हुआ है— ‘सहस्र फल’ भोग भागिनि दानचिंतामणि आश्रित जन कल्पलते यंते, जितरूपे विलास वर्ति सकल कलावती स्वस्तिव— यहाँ से आगेवाला भाग तृटित हो गया है।अंतर्बाह्य—आधारों से प्रमाणों के इसकी तिथि — ई. सन—१०१८ से १०२० तक की मानी जाती है। यह शिलालेख अत्तिमब्बे के बारे में प्राप्त अंतिम साक्ष्य—आधार है। इस आधार से कह सकते हैं कि अत्तिमब्बे लगभग ई. सन् ९५० से १०२० के काल में सत्तर वर्षों तक जीवित थी। अत्तिमब्बे दान और रक्षा जैसे उच्च गुणों से, तत्कालीन समाज में एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में समाज से सम्मानित थी। कर्नाटक संस्कृति का प्रतिरूप थी। उसने सन्यास स्वीकार नहीं किया, लेकिन सन्यास के निष्ठुर नियमों का पालन किया। दीक्षा नहीं ली लेकिन दीक्षा के सभी व्रत नियमों का पालन किया। योग में संसार भोग ही राजयोग है। इस गृह तपस्विनी ने संसार योग का पालन किया। कमल जिस तरह पानी में रहते हुए भी पानी न चिपकाए, कमल पत्तों पर जो बूँदें होती हैं, उसी तरह निर्लिप्त चित्त से, उन्होनें अपना जीवन बिताया। अत्तिमब्बे—संकटों से डरकर भागने वाली नहीं थी। उन्होंने जीवन की सभी समस्याओं का सामना किया। न संन्यासिनी बनी और न महासती लेकिन उनसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व अपनाया। अत्तिमब्बे ने अपने जीवन भर के परिश्रमों से महासाधना अपना ली। यह श्रेय सिर्फ—एक दो वर्ष की साधना का फल नहीं, जीवन पर्यन्त जो कंटकों की सेज पर चलती आई, कई वर्षों तक वैधव्य, तपस्विनी सा व्रत— नियमों का पालन किया, समाज सेवा की, दान धर्म किया, उसका फल है । उनका नाम हजारों साल तक स्मरणीय रहेगा। प्रदर्शित सात अत्तिशयों के साथ अत्तिमब्बे स्वयं ही एक आठवें अतिशय के समान है। अत्तिमब्बे का जीवन एक आदर्श जीवन है।‘ जिनेन्द्र पद प्रयोज संजात—भक्ति निर्भरता से पूरित उनका दैवी व्यक्तित्व था। इन्द्र सिंहासन तक को प्रकंपित करने की शक्ति, उनके व्यक्तित्व में थी। इस प्रकार शिलालेखों में कवियों ने उनका वर्णन किया है। चावुंडराय ने पत्थर में भगवान गोमटेश्वर की मूर्ति खड़ी कर दी है तो महाकवि रन्न ने, अपने अजित पुराण में अत्तिमब्बे की अमृत पुतली खड़ी कर दी है। ये दोनों तत्कालीन भव्य मूर्तियाँ हैं। सहस्त्राब्दी पार की हुई ये मूर्तियाँ कर्नाटक की महिमा के अक्षय साक्ष्य के रूप में प्रज्वलित हैं।
बिलियरलेयंते गंगा जलदंते सेवजितसेन मुनि पतिय गुणा
बलियलेयंते नेगलद कोपणा चलदंते पवित्र अत्तिमब्बेय चरितं।।
अत्तिमब्बे श्रेष्ठ सच्चारित्रवाली स्त्री थी। उनके व्यक्तित्व में किसी प्रकार के भी काले दाग नहीं थे। शुभ्र सफेद, धवल चारित्रवाली थी, पवित्र गंगा जल के समान आपका चारित्र था। मुनिपति अजितसेन मुनिजी के गुणों की तरह और पुराण प्रसिद्ध कोप्पल के पर्वत की तरह आपकी कीर्ति प्रसिद्ध थी।’