स्वामी समन्तभद्र का आसन जैन समाज के प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानों तथा लेखकों और सुपूज्य महात्माओं में बहुत ऊँचा है। आप जैनधर्म के मर्मज्ञ थे, वीर शासन के रहस्य को हृदयंगम किये हुये थे, जैनधर्म की साक्षात् जीती जागती मूर्ति थे और वीर—शासन का अद्वितीय प्रतिनिधित्व करते थे। इतना ही नहीं बल्कि आपने अपने समय के सारे दर्शनशास्त्रों का गहरा अध्ययन कर उनका तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया और आप सब दर्शनों, धर्मों अथवा मतों का सन्तुलनपूर्वक परीक्षण कर यथार्थ वस्तुस्थिति रूप सत्य को ग्रहण करने में समर्थ हुए थे और उस असत्य का निर्मूलन करने में भी प्रवृत्त हुए थे जो सर्वथा एकान्तवाद के सूत्र से संचालित होता था। इसी से महान आचार्यश्री विद्यानन्द स्वामी ने युक्त्यनुशासन—टीका के अन्त में आपका परीक्षेक्षण—परीक्षानेत्र से सबको देखने वाले लिखा है और अष्टसहस्री में आपके वचन—माहात्म्य का बहुत कुछ गौरव ख्यापित करते हुए एक स्थान पर यह भी लिखा है कि—स्वामी समन्तभद्र का वह निर्दोष प्रवचन जयवन्त हो—अपने प्रभाव से लोक—हृदयों को प्रभावित करे—जो नित्यादि एकान्तगर्तों में—वस्तु कूटस्थवत् सर्वथा नित्य ही है—अथवा क्षण—क्षण में निरन्वय विनाशरूप सर्वथा क्षणिक (अनित्य) ही है—इस प्रकार की मान्यता रूप एकान्त गड्ढों में पड़ने के लिए विवश हुए प्राणियों को अनर्थ समूह से निकालकर मंगलमय उच्चपद प्राप्त कराने के लिए समर्थ है, स्याद्वादन्याय के मार्ग को प्रख्यात करने वाला है अथवा प्रेक्षावान्—समीक्ष्यकारी—आचार्य महोदय के द्वारा जिसकी प्रवृत्ति हुई है और जिसने सम्पूर्ण मिथ्याप्रवाद को विघटन अथवा तितर—बितर कर दिया है और दूसरे स्थान पर यह बतलाया है कि जिन्होंने परीक्षावानों के लिए कूनीति और कुप्रवृत्तिरूप नदियों को सुखा दिया है, जिनके वचन निर्दोष—नीति—स्याद्वादन्याय को लिए हुए होने के कारण मनोहर हैं तथा तत्त्वार्थ समूह के संद्योतक हैं वे योगियों के नायक, स्याद्वादमार्ग के अग्रणी नेता, शक्ति—सामथ्र्य से सम्पन्न—विभु और सूर्य के समान देदीप्यमान—तेजस्वी श्री स्वामी समन्तभद्र कलुषित आशय रहित प्राणियों को सज्जनों अथवा सुधीजनों को—विद्या और आनन्द घन के प्रदान करने वाले होवें—उनके प्रसाद से (प्रसन्नतापूर्वक उन्हें चित्त में धारण करने से) सबों के हृदय में शुद्ध ज्ञान और आनन्द की वर्षा होवे।
साथ ही एक—तीसरे स्थान पर यह प्रकट किया है कि जिनके नय—प्रमाण—मूलक अलंघ्य उपदेश से प्रवचन को सुनकर—महा उद्धतमति वे एकान्तवादी भी प्राय: शान्तता को प्राप्त हो जाते हैं जो कारण् से कार्यादिक का सर्वथा भेद ही नियम मानते हैं अथवा यह स्वीकार करते हैं कि कारण कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही हैं—एक ही हैं, वे निर्मल तथा विशालर्कीित से युक्त अति प्रसिद्ध योगिराज स्वामी समन्तभद्र सदा जयवन्त रहें। इसी तरह विक्रम की ७वीं शताब्दी के सातिशय विद्वान श्री अकलंकदेव जैसे मर्हिद्धक आचार्य ने अपनी अष्टशती में समन्तभद्र को भव्यैकलोकनयन—भव्य जीवों के हृदयान्धकार को दूर करके अत:प्रकाश करने तथा सन्मार्ग दिखलने वाला अद्वितीय—सूर्य—और स्याद्वादमार्ग का पालक (संरक्षक) बतलाते हुए यह भी लिखा है कि—उन्होंने सम्पूर्ण पदार्थ तत्त्वों को अपना विषय करने वाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि तीर्थ को इस कलिकाल में भव्यजीवों के आंतरिक मल को दूर करने के लिए प्रभावित किया है—उसके प्रभाव को सर्वत्र व्याप्त किया है और ऐसा लिखकर उन्हें बारंबार नमस्कार किया है। स्वामी समन्तभद्र यद्यपि बहुत से उत्तमोत्तम गुणों के स्वामी थे, फिर भी कवित्व, गमकत्व, वादित्व नाम के चार गुण आपस में असाधारण कोटि की योग्यता को लिये हुये थे—ये चारों शक्तियाँ उनमें खासतौर से विकास को प्राप्त हुई थी—और इनके कारण उनका निर्मल यश दूर—दूर तक चारों ओर फैल गया था। उस समय जितने कवि थे—नये—नये सन्दर्भ अथवा नई–नई मौलिक रचनायें तैयार करने वाले समर्थ विद्वान् थे, ‘गमक’ थे—दूसरे विद्वानों की कृतियों के मर्म एवं रहस्य को समझने तथा दूसरों को समझाने में प्रवीणबुद्धि थे, विजय की ओर वचन प्रवृत्ति रखने वाले ‘वादी’ थे और अपनी वाक्पटुता तथा शब्द—चातुरी से दूसरों को रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेने में निुपण ऐसे ‘वाग्मी’ थे, उन सब पर समन्तभद्र के यश की छाया पड़ी हुई थी। वह (समन्तभद्र का यश) चूड़ामणि के समान सर्वोपरि था और बाद को भी बड़े—बड़े विद्वानों तथा महान आचार्यों के द्वारा शिरोधार्य किया गया है। जैसा कि विक्रम की ९वीं शताब्दी के विद्वान भगवज्जिनसेनाचार्य के निम्न वाक्य से प्रकट है—
‘‘कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि।
यश: समन्तभद्रीयं र्मूिघ्र्न चूडामणीयते।।’
’स्वामी समन्तभद्र के इन चारों गुणों की लोक में कितनी धाक थी, विद्वानों के हृदय पर इनका कितना सिक्का जता हुआ था और वे वास्तव में कितने अधिक महत्त्व को लिये हुए थे, इन सब बातों का कुछ अनुभव कराने के लिए कितने ही प्रमाण—वाक्यों को स्वामी समन्तभद्र नाम के उस ऐतिहासिक निबंध में संकलित किया गया है जो माणिकचन्द्र ग्रंथमाला में प्रकाशित हुए रत्नकरण्ड—श्रावकाचार की विस्तृत प्रस्तावना के अनन्तर २५२ पृष्ठों पर जुदा ही अंकित है और अलग से भी विषय—सूची तथा अनुक्रमणिका के साथ लगा हुआ है। यहाँ संक्षेप में कुछ थोड़ा सा ही सार दिया जाता है और वह इस प्रकार है—
(१)भगवज्जिनसेन ने आदिपुराण में समन्तभद्र को महान् कविवेधा—कवियों को उत्पन्न करने वाला महान विधाता (ब्रह्मा) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी वङ्कापात से कुमतरूपी पर्वत खण्ड—खण्ड हो गये थे।
(२)वादिराजसूरि ने यशोधरचरित में समन्तभद्र के काव्य को माणिक्यों का रोहण (पर्वत) लिखा है और यह भावना की है कि वे सूरि हमें रत्नों के प्रदान करने वाले होवें।
(३)वादीभिंसह सूरि ने गद्यचिन्तामणि में समन्तभद्र मुनीश्वर का जयघोष करते हुए उन्हें सरस्वती की स्वछन्द विहारभूमि बतलाया है और लिखा है कि उनके वचनरूपी वज्र के निपात से प्रतिपक्षी सिद्धान्त रूप पर्वतों की चोटियाँ खण्ड—खण्ड हो गईं थीं—अर्थात् समन्तभद्र के आगे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों का प्राय: कुछ भी मूल्य या गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े हो सकते थे।
(४)वद्धमानसूरि ने वरांगचरित में समन्तभद्र को महाकवीश्वर कुवादिविद्याजश—लब्ध कीर्ति और सुतर्कशास्त्रामृतसारगसागर लिखा है और यह प्रार्थना की है कि वे मुझ कवित्वकाक्षी पर प्रसन्न होंवे—उनकी विद्या मेरे अन्त:करण में स्फुरायमान होकर मुझे सफल मनोरथ करें।
(५)श्री शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव में यह प्रकट किया है कि समन्तभद्र जैसे कवीन्द्र सूर्यों की जहाँ निर्मलसूक्तिरूप किरणें स्फुरायमान हो रही हैं, वहाँ वे लोग खद्योत—जुगनूँ की तरह हँसी के ही पात्र होते हैं जो थोड़े से ज्ञान को पाकर उद्धत हैं—कविता नूतन संदर्भ की रचना करके गर्व करने लगते हैं।
(६)भट्टारक सकलकीर्ति ने पार्श्र्वनाथचरित में लिखा है कि जिनकी वाणी (ग्रंथादिरूप भारती) संसार में सब ओर से मंगलमय है और सारी जनता का उपकार करने वाली है उन कवियों के ईश्वर समन्तभद्र का मैं सादर वंदन (नमस्कार) करता हूँ।
(७)ब्रह्म अजित ने हनुमच्चरित में समन्तभद्र को दुर्वादियों की वादरूपी खाज—खुजली को मिटाने के लिए अद्वितीय महौषधि बतलाया है।
(८)कवि दामोदर ने चन्द्रप्रभचरित में लिखा है कि जिनकी भारती के प्रताप से—ज्ञानभंडाररूप मौलिक कृतियों के अभ्यास से—समस्त कविसमूह सम्यग्ज्ञान का पारगामी हो गया उन कविनायक—नई–नई मौलिक रचनाएँ करने वालों के शिरोमणि योगी समन्तभद्र की मैं स्तुति करता हूँ।
(९) वसुनन्दी आचार्य ने स्तुतिविद्या की टीका में समन्तभद्र को सद्बदोधरूप सम्यग्ज्ञान मूर्ति और वरगुणालय— उत्तम गुणों का आवास—बतलाते हुए यह लिखा है कि उनके निर्मल यश की कांति से ये तीनों लोक अथवा भारत के उत्तर दक्षिण और मध्य ये तीनों प्रदेश कान्तिमान थे—उनका यशस्तेज सर्वत्र फैला हुआ था।
(१०)विजयवर्णी ने शृंगारचन्द्रिका में समंतभद्र को महा कवीश्वर बतलाते हुए लिखा है कि उनके द्वारा रचे गये प्रबंध—समूहरूप सरोवर में जो रसरूप जल तथा अलंकार रूप कमलों से सुशोभित है और जहाँ भावरूप हंस विचरते हैं, सरस्वती क्रीड़ा किया करती है—सरस्वती देवी के क्रीड़ास्थल (उपाश्रय) होने से समन्तभद्र के सभी प्रबन्ध (ग्रंथ) निर्दोष पवित्र एवं महती शोभा से सम्पन्न हैं।
(११)अजितसेनाचार्य ने अलंकार—चिन्तामणि में कई पुरातन पद्य ऐसे संकलित किये हैं जिनसे समन्तभद्र के वाद—माहात्म्य का कितना ही पता चलता है। एक पद्य से मालूम होता है कि समन्तभद्रकाल में कुवादीजन प्राय: अपनी स्त्रियों के सामने तो कठोर भाषण किया करते थे—उन्हें अपनी गर्वोक्तियाँ अथवा स्त्रियों के सामने तो कठोर भाषण किया करते थे—उन्हें अपनी गर्वोक्तियाँ अथवा बहादुरी के गीत सुनाते थे—परन्तु जब योगी समन्तभद्र के सामने आते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें ‘पाहि—पाहि’—रक्षा करो, रक्षा करो अथवा आप ही हमारे रक्षक हैं, ऐसे सुन्दर मृदुल वचन ही कहते बनता था और यह सब समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व का प्रभाव था। दूसरे पद्य से यह जाना जाता है कि जब महावादी श्रीसमन्तभद्र (सभास्थान आदि में) आते थे तो कुवादीजन नीच मुख करके अँगूठों से पृथ्वी कुरेदने लगते थे अर्थात् उन लोगों पर समन्तभद्र का इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते ही विषण्णवदन हो जाते और किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाते थे। और एक तीसरे पद्य में यह बतलाया गया है कि वादी समन्तभद्र की उपस्थिति में चतुराई के साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटि की—तन्नामक महाप्रतिवादी विद्वान की जिह्वा ही जब शीघ्र अपने बिल में घुस जाती है—उसे कुछ बोल नहीं आता तो फिर दूसरे विद्वानों की तो कथा (बात) ही क्या है ? उनका अस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्तव नहीं रखता। वह पद्य जो कवि हस्तिमल्ल के विक्रांत कौरवनाटक में भी पाया जाता है, इस प्रकार है—
यह पद्य शक संवत् १०५० में उत्कीर्ण हुए श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ५४ (६७) में भी थोड़े से पाठ—भेद के साथ उपलब्ध होता है। वहाँ ‘धूर्जटेजिह्वा’ के स्थान पर ‘धूर्जटेरपि जिह्वा’ और ‘सति का कथाऽन्येषा’ की जगह ‘तव सदसि भूप ! कास्थाऽन्येषां’ पाठ दिया है और इसे समंतभद्र के वादारम्भ समारम्भ समय की उक्तियों में शामिल किया है। पद्य के उस रूप में धूर्जटि के निरुत्तर होने पर अथवा धूर्जटि की गुरुतर पराजय का उल्लेख करके राजा से पूछा गया है कि धूर्जटि जैसे विद्वान की ऐसी हालत होने पर अब आपकी सभा के दूसरे विद्वानों की क्या आस्था है,क्या उनमें से कोई वाद करने की हिम्मत रखता है।
(१२)श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. १०५ में समन्तभद्र का जयघोष करते हुए उनके सूक्ति—समूह को सुन्दर प्रौढ़ युक्तियों को लिये हुए प्रवचन को वादीरूपी हाथियों को वेश में करने के लिए वङ्काांकुश बतलाया है और साथ यह लिखा है कि उनके प्रभाव से यह सम्पूर्ण पृथ्वी एक बार दुर्वादुको की वार्ता से भी विहीन हो गई थी—उनका कोई बात भी नहीं करता था।
(१३) श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. १०८ में भद्रमूर्ति समन्तभद्र को जिनशासन का प्रणेता (प्रधान नेता) बतलाते हुए यह भी प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी वज्र के कठोरपात से प्रतिवादीरूप पर्वत चूर—चूर हो गये थे। कोई भी प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठहरता था।
(१४)तिरुम कूडलुनरसीपुर के शिलालेख नं. १०५ में समन्तभद्र के एक वाद का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जिन्होंने वाराणसी (बनारस) के राजा के सामने विद्वेषियों को पराजित कर दिया था, वे समन्तभद्र मुनीश्वर किसके स्तुतिपात्र नहीं है ?—सभी के द्वारा भली प्रकार स्तुति किये जाने के योग्य हैं।
(१५)समन्तभद्र के गमकत्व और वाग्मित्व जैसे गुणों का विशेष परिचय उनके देवागमादि ग्रंथों का अवलोकन करने से भले प्रकार अनुभव में लाया जा सकता है तथा उन उल्लेख—वाक्यों पर से भी कुछ जाना जा सकता है जो समन्तभद्र—वाणी का कीर्तन अथवा उसका महत्त्व ख्यापन करने के लिए लिखे गए हैं। ऐसे उल्लेख वाक्य अष्टसहस्री आदि ग्रंथों में बहुत पाये जाते हैं। कवि नागराज का समन्तभद्र—भारती—स्तोत्र तो इसी विषय को लिये हुये हैं और वह सत्साण्धुस्मरण—मंगलपाठ में वीरसेवा मन्दिर से सानुवाद प्रकाशित हो चुका है।यहॉ। दो—तीन उल्लेखों का और सूचन किया जाता है, जिससे समन्तभद्र की गमकत्वादि शक्तियों और उनके वचन—माहात्म्य का और कुछ पता चल सके।
(क)श्री वादिराजसूरि ने न्यायविनिश्चयालंकार में लिखा है कि सर्वत्र फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकार के कारण जिसका तत्त्व लोक में दुर्बोध हो रहा है, ठीक समझ में नहीं आता वह हितकारी वस्तु—प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थमाला—श्री समन्तभद्र के वचनरूप देदीप्यमान रत्न दीपकों के द्वारा हमें सब ओर से चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभासित होवे अर्थात् स्वामी समन्तभद्र का प्रवचन उस महाजाज्वल्यमान रत्नसमूह के समान है, जिसका प्रकाश अप्रतिहत होता है और जो संसार में फैले हुए निरपेक्षनय रूपी महामिथ्यान्धकार को दूर करके वस्तुतत्व को स्पष्ट करने में समर्थ है। उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करें।
(ख)श्री वीरनन्दी आचार्य ने चन्द्रप्रभचरित में लिखा है कि गुणों से सूत के धागों से—गूँथी हुई निर्मल गोल मोतियों से युक्त और उत्तम पुरुषों के कण्ठ का विभूक्षण बनी हुई हारयष्टि को श्रेष्ठ मोतियों की माला को प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है, जितना कठिन कि समन्तभद्र की भारती (वाणी) को पा लेना, उसे खूब समझकर हृदयंगम कर लेना है जो कि सद्गुणों को लिए हुए है, निर्मल वृत्त (वृत्तांत, चरित्र, आचार, विधान तथा छन्द) रूपी मुक्ताफलों से युक्त है और बड़े—बड़े आचार्यों तथा विद्वानों ने जिसे अपने कण्ठ को आभूषण बनाया है। ये नित्य ही उसका उच्चारण तथा पाठ करने में अपना गौरव मानते और अहोभाग्य समझते रहे हैं अर्थात् समन्तभद्र की वाणी परम दुर्लभ है—उनके सातिशय वचनों का लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रम से होता है।
(ग)श्री नरेन्द्रसेनाचार्य, सिद्धान्तसारसंग्रह में यह प्रकट करते हैं कि श्री समंतभद्रदेव का निर्दोष प्रवचन प्राणियों के लिए ऐसा ही दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्व का पाना अर्थात् अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों को जिस प्रकार मनुष्यभाव का मिलना दुर्लभ होता है, उसी प्रकार समंतभद्रदेव के प्रवचन का लाभ होना भी दुर्लभ है। जिन्हें उसकी प्राप्ति होती है वे नि:संदेह सौभाग्यशाली है। ऊपर के इन सब उल्लेखें पर से समंतभद्र की कवित्वादि शक्तियों के साथ उनकी वादशक्ति का जो परिचय प्राप्त होता है, उससे सहज ही यह समझ में आ जाता है कि वह कितनी असाधारण कोटि की तथा अप्रतिहत—वीर्य थी और दूसरे विद्वानों पर उसका कितना अधिक सिक्का तथा प्रभाव था जो अभी तक भी अक्षुण्णरूप से चला जाता है—जो भी निष्पक्ष विद्वान् आपके वादों अथवा तर्कों से परिचय होता है वह उसके सामने नतमस्तक हो जाता है। यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि समंतभद्र का वादक्षेत्र संकुचित नहीं था। उन्होंने उसी देश में अपने वाद की विजयदुन्दुभि नहीं बजाई जिसमें वे उत्पन्न हुए थे, बल्कि उनकी वाद—प्रीति, लोगों के अज्ञान भाव को दूर करके उन्हें सन्मार्ग की ओर लगाने की शुभ भावना और जैन सिद्धान्तों के महत्त्व को विद्वानों के हृदय—पटल पर अंकित कर देने की सुरुचि इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्होंने भारतवर्ष को अपना लीला—स्थल बनाया था। वे कभी इस बात की प्रतीक्षा में नहीं रहते थे कि कोई दूसरा उन्हें वाद के लिए निमंत्रण दे और न उनकी मन:परिणति उन्हें इस बात में संतोष करने की ही इजाजत देती थी कि जो लोग अज्ञानभाव से मिथ्यात्वरूपी गर्तों (खड्डों) में गिरकर अपना आत्मपतन कर रहे हैं, उन्हें वैसा करने दिया जाए और इसलिये उन्हें जहाँ कहीं किसी महावादी अथवा किसी बड़ी वादशाला का पता चलता था तो वे वहीं पहुँच जाते थे और अपने वाद का डंका बजाकर विद्वानों को स्वत: वाद के लिये आह्वान करते थे। डंके को सुनकर वादीजन यथानियम, जनता के साथ वाद—स्थान पर एकत्र हो जाते थे और तब समंतभद्र उनके सामने अपने सिद्धान्तों का बड़ी ही खूबी के साथ विवेचन करते थे और साथ ही इस बात की घोषणा कर देते थे कि उन सिद्धान्तों में से जिस किसी सिद्धांत पर भी किसी को आपत्ति हो वह वाद के लिए सामने आ जाए। कहते हैं कि समंतभद्र के स्याद्वाद—न्याय की तुलना में तुले हुए सत्यभाषण को सुनकर लोग मुग्ध हो जाते थे और उन्हें उसका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था। यदि कभी कोई भी मनुष्य अहंकार के वश होकर अथवा नासमझी के कारण कुछ विरोध खड़ा करता था तो उसे शीघ्र ही निरुत्तर हो जाना पड़ता था। इस तरह समंतभद्र भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर प्राय: सभी देशों में एक अप्रतिद्वन्द्व सिंह के समान क्रीड़ा करते हुए निर्भयता के साथ वाद के लिये घूमे हैं। एक बार आप घूमते हुए कर्नाटक नगर में भी पहुँचे थे जो उस समय बहुत से भटों से युक्त था, विद्या का उत्कट स्थान था और साथ ही अल्प विस्तार वाला अथवा जनाकीर्ण था। उस वक्त आपने वहाँ के राजा पर अपने वाद—प्रयोजन को प्रकट करते हुए उन्हें अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्य में दिया था वह श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५४ में निम्न प्रकार से संग्रहीत है—
‘‘पूर्व पाटलिपुत्र—मध्यनगरे भेरी मया ताडिता।
पश्चान्मालव—सिन्धु—ठक्क—विषये कांचीपुरे वैदिशे।।
प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं।
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं।।’’
इस पद्य में दिये हुए आत्मपरिचय से यह मालूम होता है कि कर्नाटक पहुँचने से पहले समन्तभद्र जिन देशों तथा नगरों में बाद के लिये विहार किया था, उनमें पाटलिपुत्रनगर, मालव (मलावा) सिन्धु, ठक्क (पंजाब) देश, कांचीपुर (कांजीवरम्) और वैदिश (भिलसा) ये प्रधान देश तथा जनपद थे जहाँ उन्होंने वाद की भेरी बजाई थी और जहाँ पर प्राय: किसी ने भी उनका विरोध नहीं किया था। यहाँ तक के इस सब परिचय से स्वामी समंतभद्र के असाधारण गुणों, उनके अनुपम प्रभाव और लोकहित की भावना लेकर धर्म प्रचार के लिये उनके सफल देशाटनादि का कितना ही हाल तो मालूम हो गया, परन्तु अभी तक यह मालूम नहीं हो सका कि समंतभद्र के पास वह कौन—सा मोहनमंत्र था, जिसके कारण वे सदा इस बात के लिये भाग्यशाली रहे हैं कि विद्वान लोग उनकी वाद—घोषणाओं और उनके तात्त्विक भाषणों को चुपके से सुन लेते थे और उन्हें उनका प्राय: कोई विरोध करते नहीं बनता था। वाद का तो नाम ही ऐसा है जिससे चाहे—अनचाहे विरोध की आग भड़कती है, लोग अपनी मानरक्षा के लिए अपने पक्ष को निर्बल समझते हुए भी उसका समर्थन करने के लिए खड़े हो जाते हैं और दूसरे की युक्तियुक्त बात को भी जानकर नहीं देते। फिर भी समंतभद्र के साथ यह सब प्राय: कुछ भी नहीं होता था। यह क्यों ? अवश्य ही इसमें कोई खास रहस्य है, जिसके प्रकट होने की जरूरत है और जिसको जानने के लिए पाठक भी उत्सुक होंगे। जहाँ तक मैंने इस विषय की जाँच की है—इस मामले पर गहरा विचार किया है—और मुझे समंतभद्र के साहित्यादिक पर से उसका विशेष अनुभव हुआ है, उसके आधार पर मुझे इस बात के कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि समंतभद्र की इस सारी सफलता का रहस्य उनके अन्त:करण की शुद्धता, चरित्र की निर्मलता, उनकी वाणी के महत्त्व में सन्निहित है। अथवा यों कहिये कि यह सब अन्त:करण की पवित्रता तथा चरित्र की शुद्धता को लिये हुए उनके वचनों का ही माहात्म्य है जो वे दूसरों पर अपना इस प्रकार सिक्का जमा सके हैं। समंतभद्र की जो कुछ भी वचन—प्रवृत्ति होती थी, वह सब प्राय: दूसरों की हितकामना को ही साथ में लिये हुये होती थी। उसमें उनके लौकिक स्वार्थ की अथवा अपने अहंकार को पुष्ट करने और दूसरों को नीचा दिखाने रूप कुत्सित भावना की गन्ध तक भी नहीं रहती थी। वे स्वयं सन्मार्ग पर आरूढ़ थे और चाहते थे कि दूसरे लोग भी सन्मार्ग को पहिचाने और उस पर चलना आरम्भ करें। साथ ही उन्हें दूसरों को कुमार्ग में फसा हुआ देखकर बड़ा ही खेद तथा कष्ट होता था और इसलिए उनका वाक्प्रयत्न सदा उनकी इच्छा के अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा लोगों के उद्धार का अपनी शक्ति भर प्रयत्न किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि स्वात्म—हित—साधन के बाद दूसरों का हित साधन करना ही उनके लिए एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी योग्यता के साथ उसका सम्पादन करते थे। उनकी वाक्परिणति सदा क्रोध से शून्य रहती थी, वे कभी किसी को अपशब्द नहीं करते थे और न दूसरों के अपशब्दों से उनकी शांति भंग होती थी।
उनकी आँखों में कभी सुर्खी नहीं आती थी, वे हमेशा हँसमुख तथा प्रसन्न—वदन रहते थे। बुरी भावना से प्रेरित होकर दूसरों के व्यक्तित्व पर कटाक्ष करना उन्हें नहीं आता था और मधुर भाषण तो उनकी प्रकृति में ही दाखिल था। यही वजह भी कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके सामने आकर मृदुभाषी बन जाते थे। अपशब्द—मदान्धों को भी उनके आगे बोल तक नहीं आता था और उनके वज्रपात तथा बज्रांकुश की उपमा को लिए हुए वचन भी लोगों को अप्रिय मालूम नहीं होते थे। समंतभद्र के वचनों में एक खास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वाद—न्याय की तुला में तुले हुये होते थे। और इसलिये उन पर पक्षपात का भूत कभी सवार होने नहीं पाता था। समंतभद्र स्वयं परीक्षा—प्रधानी थे, वे कदाग्रह को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, उन्होंने सर्वज्ञ—वीतराग भगवान महावीर तक की परीक्षा की है और तभी उन्हें आप्त रूप में स्वीकार किया है। वे दूसरों को भी परीक्षा—प्रधानी होने का उपदेश देते थे—सदैव उनकी यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व अथवा सिद्धांत की बिना परीक्षा किये केवल दूसरों के कहने पर ही न मान लेना चाहिए। बल्कि समर्थ युक्तियों के द्वारा उसकी अच्छी तरह से जाँच करनी चाहिये। उसके गुण—दोषों का पता लगाना चाहिये।
ऐसी हालत में वे अपने किसी भी सिद्धान्त को जबरदस्ती दूसरों के गले उतारने अथवा उनके सिर मँढ़ने का कभी यत्न नहीं करते थे। वे विद्वानों को निष्पक्ष दृष्टि से स्व—पर सिद्धान्तों पर खुला विचार करने का पूरा अवसर देते थे। उनकी सदैव यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तु को एक पहलू से—एक ही ओर से—मत देखो, उसे सब ओर से और सब पहलुओं से देखना चाहिये। तभी उसका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म अथवा अंग होते हैं—इसी से वस्तु अनेकान्तात्मक है—उसके किसी एक धर्म या अंग को लेकर सर्वथा उसी रूप से वस्तु का प्रतिपादन करना एकांत है और एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञान का विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है। स्याद्वाद—न्याय इसी एकान्तवाद का निषेध करता है—सर्वथा सत्—असत् एक—अनेक नित्य—अनित्यादि सम्पूर्ण एकांतों से विपक्षीभूत अनेकांततत्त्व ही उसका विषय है। अपनी घोषणा के अनुसार समंतभद्र प्रत्येक विषय के गुण—दोषों को स्याद्वाद—न्याय की कसौटी पर कसकर विद्वानों के सामने रखते थे, वे उन्हें बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्व में अमुक—अमुक एकांत पक्षों के मानने से क्या—क्या अनिवार्य दोष आते हैं और वे दोष स्याद्वाद—न्याय को स्वीकार करने पर अथवा अनेकांतवाद के प्रभाव से किस प्रकार दूर हो जाते हैं और किस तरह पर वस्तुतत्त्व का सामंजस्य ठीक बैठ जाता है। उनके समझाने में दूसरों के प्रति तिरस्कार का कोई भाव नहीं होता था। वे एक मार्ग भूले हुए को मार्ग दिखाने वाले की तरह प्रेम के साथ उन्हें उनकी त्रुटियों का बोध कराते थे और इससे उनके भाषणादिक का दूसरों पर अच्छा ही प्रभाव पड़ता था—उनके पास उसके विरोध का कुछ भी कारण नही रहता था।