तित्थाहारा जुगवं सव्वं तित्थं ण मिच्छगादितिए।
तस्सत्तकम्मियाण तग्गुणठाणं ण संभवदि।।११०।।
तीर्थाहारा युगपत् सर्वं तीर्थं न मिथ्यकादित्रये।
तत्सत्वकर्मकाणां तद्गुणस्थानं न संभवति।।११०।।
अर्थ—मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में से क्रम से पहले में तीर्थंकर और आहारकद्वय एक काल में नहीं होते तथा दूसरे में सब (तीनों) हा किसी काल में नहीं होते और मिश्र में तीर्थंकर प्रकृति नहीं होती अर्थात् मिथ्यात्व में नाना जीवों की अपेक्षा सब १४८ प्रकृतियों की सत्ता है। सासादन में तीनों ही के किसी काल में न होने से १४५ की सत्ता है और मिश्र गुणस्थान में एक तीर्थंकर प्रकृति के न होने से १४७ प्रकृतियों की सत्ता है। क्योंकि एक इन सत्त्व प्रकृतियों वाले जीवों के वे मिथ्यात्वादि गुणस्थान ही संभव नहीं हैं।
भावार्थ —जिनके तीर्थंकर और आहारकद्वय की युगपत् सत्ता है वे मिथ्यादृष्टि नहीं हो सकते और तीनों में से किसी भी प्रकृति की सत्ता रखने वाला सासादन गुणस्थान वाला नहीं हो सकता तथा तीर्थंकर की सत्ता वाला मिश्र गुणस्थानवर्ती नहीं होे सकता।
चत्तारिवि खेत्ताइं आउगबंधेण होइ सम्मत्तं।
अणुवदमहव्वदाडं ण लहइ देवाउगं मोत्तुं।।१११।।
चतुणमिपि क्षेत्राणामायुष्कबंधेन भवति सम्यक्त्वम्।
अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुष्कं मुक्त्वा।।१११।।
अर्थ—चारों ही गतियों में किसी भी आयु के बंध होने पर सम्यक्त्व होता है परन्तु देवायु के बंध के सिवाय अन्य जीव आयु के बंध वाला अणुव्रत तथा महाव्रत नहीं धारण कर सकता है क्योंकि वहाँ व्रत के कारण भूत विशुद्ध परिणाम नहीं हैं। मनुष्यायु से अतिरिक्त आयु के सत्त्व में क्या-क्या नहीं होते?
णिरयतिरिक्खसुराउगसत्ते ण हि देससयलवदखवगा।
अयदचउक्कं तु अणं अणियट्टीकरणचरिमम्हि।।११२।।
निरयतिकर्मक्सुरायुष्कसत्वे न हि देशसकलव्रतक्षपका:।
अयतचतुष्कस्तु अनमनिवृत्तिकरणचरमे।।११२।।
जुगवं सजोगित्ता पुणोवि अणियट्टिकरणबहुभागं।
वोलिय कमसो मिच्छं मिस्सं सम्मं खवेदि कमे।।११३।।
जुम्मं युगपत् विसंयोज्य पुनरपि अनिवृत्तिकरणबहुभागम्।
व्यतीत्य क्रमशो मिथ्यं मिश्रं सम्यक् क्षपयति क्रमेण।।११३।।
अर्थ—नरक, तिर्यंच तथा देवायु के सत्त्व होने पर क्रम से देशव्रत, सर्वव्रत, (महाव्रत) और क्षपक श्रेणी नहीं होती और असंयतादि चार गुणस्थान वाले अनंतानुबंधी आदि सात प्रकृतियों का क्रम से क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं। उन सातों में से पहले अनंतानुबंधी चार का अनिवृत्तिकरण परिणामों के अंतर्मुहूर्त काल के अंत समय में एक ही बार विसंयोजन अर्थात् अनंतानुबंधी की चौकड़ी को अप्रत्याख्यानादि बारह कषाय रूप परिणमन करा देता है तथा अनिवृत्तिकरण काल के बहुभाग को छोड़ के शेष संख्यातवें एक भाग में पहले समय से लेकर क्रम से मिथ्यात्व, मिश्र तथा सम्यक्त्व प्रकृति का क्षय करते हैं। इस प्रकार सात प्रकृतियों के क्षय का क्रम है। यहाँ पर तीन गुणस्थानों का प्रकृति सत्त्व पूर्वोक्त ही समझना तथा असंयत से लेकर सातवें गुणस्थान तक उपशम सम्यग्दृष्टि तथा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि इन दोनों के चौथे गुणस्थान में अनंतानुबंधी आदि की उपशमरूप सत्ता होने से १४८ प्रकृतियों का सत्त्व है। पाँचवें गुणस्थान में नरकायु न होने से १४७ का, प्रमत्त गुणस्थान में नरक तथा तिर्यंचायु इन दोनों का सत्त्व होने न होने से १४६ का तथा अप्रमत्त में भी १४६ का ही सत्त्व है और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधी चार तथा दर्शनमोहनीय ३ इन सात प्रकृतियों के क्षय होने से सात-सात कम समझना और अपूर्वकरण गुणस्थान में दो श्रेणी हैं। उनमें से क्षपक श्रेणी में तो १३८ प्रकृतियों का सत्त्व है। क्योंकि अनंतानुबंधी आदि ७ प्रकृतियों का तो पहले ही क्षय किया था और नरक, तिर्यंच तथा देवायु इन तीनों की सत्ता ही नहीं है। इस प्रकार ७±३·१० प्रकृतियाँ कम होती हैं।
सोलट्ठेक्किगिछक्कं चदुसेक्कं बादरे अदो एक्क।
खीणे सोलसऽजोगे बायत्तरि तेरुवत्तंते।।११४।।
षोडशाष्टैवैककषट्कं चतुष्र्वेकं बादरे अत एकम्।
क्षीणे षोडशायोगे द्वासप्ततिस्त्रयोदश उपान्त्यान्त्ययो:।।११४।।
अर्थ—बादर अर्थात् अनिवृत्तिकरण के ८ भागों में से पाँच भागों से १६, ८, १, १, ६ प्रकृतियाँ उपशम करती हैं अर्थात् क्षय अथवा सत्ता से व्युच्छिन्न होती है तथा चार भागों में एक-एक ही की सत्ता से व्युच्छित्ति है। इसके बाद सूक्ष्म सांपरायनामा दशवें गुणस्थान में एक ही की व्युच्छित्ति है। ग्यारहवें में योग्यता ही नहीं। बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान के अंत समय में १६ प्रकृतियों की सत्त्व से व्युच्छित्ति होती है। सयोगी में किसी भी प्रकृति की व्यु च्छित्ति नहीं है। अयोग केवली के चौदहवें गुणस्थान के अंत के दो समयों से पहले समय में ७२ की तथा दूसरे समय में १३ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है।
णिरयतिरिक्खदु वियलं थीणतिगुज्जोवतावएइंदी।
साहरणसुहुमथावर सोलं मज्झिमकसायट्ठं।।११५।।
निरयतिर्यग्द्वि विकलस्त्यानत्रिकमुद्योतातपैकेन्द्रियम्।
साधारणसूक्ष्मस्थावरं षोडश मध्यमकषायाष्टौ।।११५।।
संढित्थि छक्कसाया पुरिसो कोहो य माण मायं च।
थूले सुहुमे लोहो उदयं वा होदि खीणम्हि।।११६।।
षण्ढस्त्री षट्कषाया: पुरुष: क्रोधश्च मानं माया च।
स्थूले सूक्ष्मे लोभ उदयो वा भवति क्षीणे।।११६।।युग्मम्
अर्थ—अनिवृत्तिकरण के पहले भाग की नरकगति आदि २, तिर्यंचगति आदि २, विकलेन्द्री ३, स्त्यानगृद्धि आदि ३, उद्योत, आतप, एकेन्द्री, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर ये १६ व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ हैं। दूसरे भाग की अप्रत्याख्यान चार तथा प्रत्याख्यान चार कषाय मिलकर आठ प्रकृतियाँ हैं। तीसरे भाग की नपुंसकवेद, चौथे भाग की स्त्रीवेद, पाँचवें की हास्यादि ६ नोकषाय और छठे, सातवें, आठवें, नवमें भाग में क्रम से पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान तथा माया है। इस प्रकार स्थूल अर्थात् बादर कषाय नवमें गुणस्थान में ३६ प्रकृतियाँ व्युच्छिन्न होती हैं और सूक्ष्मकषायनामा दशवें की लोभ संज्वलन प्रकृति है तथा क्षीणकषायनामा बारहवें की उदय की तरह ज्ञानावरण ५ दर्शनावरण ४ अंतराय ५ और निद्रा १, प्रचला १ इस प्रकार १६ प्रकृतियाँ हैं।
देहादीफास्संता थिरसुहसरसुरविहायदुग दुभगं।
णिमिणाजस णादेज्जं पत्तेयापुण्ण अगुरुचऊ।।११७।।
देहादिस्पर्शान्ता: स्थिरशुभस्वरसुरविहायोद्विकं दुर्भगम्।
निर्माणायशअनादेयं प्रत्येकापूर्णमगुरूचत्वारि।।११७।।
अणुदयतदियं णीचमजोगिदुचरिमम्मि सत्तवोच्छिण्णा।
उदयगबार णराणू तेरस चरिमम्हि वोच्छिण्णा।।११८।।
अनुदयतृतीयं नीचमयोगिद्विचरिमे सत्वव्युच्छिन्ना:।
उदयगद्वादश नरानु: त्रयोदश चरमे व्युच्छिन्ना:।।११८।।युग्मम्
अर्थ—पाँच शरीर से लेकर आठ स्पर्श तक ५०, स्थिर-शुभ-स्वर-देवगति-विहायोगति इनका-इनका जोड़ा, दुर्भग, निर्माण, अयशकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु आदि ४, तीसरे वेदनीयकर्म की दोनों में से अनुदय रूप १, नीचगोत्र ये ७२ प्रकृतियाँ अयोगकेवली के अंत के उदय अयोगी गुणस्थान में है ऐसी उदयगत १२ प्रकृतियाँ और एक मनुष्यगत्यानुपूर्वी इस प्रकार १३ प्रकृतियाँ अयोगी के अंत के समय में अपनी सत्ता से छूटती हैं।
णभतिगिणभइगि दोद्ढो दस दससोलट्ठगादिहीणेसु।
सत्ता हवंति एवं असहायपरक्कमुद्दिट्ठं।।११९।।
नभस्त्रयेकनभएकं द्वे द्वे वश दशषोडशाष्टकादिहीनेषु।
सत्ता भवन्ति एवमसहायपराक्रमोद्दिष्टम्।।११९।।
अर्थ—मिथ्यादृष्टि आदि अपूर्वकरण गुणस्थान तक क्रम से ०, ३, १ शून्य १, २, २, १० इतनी प्रकृतियाँ का असत्त्व जानना अर्थात् ये प्रकृतियाँ नहीं रहतीं और अनिवृत्तिकरण के पहले भाग से १०, दूसरे में १६, तीसरे आदिभाग में ८ आदि प्रकृतियाँ असत्त्व जाननी और इन असत्त्व प्रकृतियों का सब सत्त्व प्रकृतियों में घटाने से अवशेष प्रकृतियाँ अपने-अपने गुणस्थानों में सत्त्व प्रकृतियाँ हैं। ऐसी सहायतारहित पराक्रम के धारण करने वाले श्री महावीर स्वामी ने कहा है।
गुणस्थान | असत्त्व | सत्त्व | सत्त्व व्युच्छित्ति | विशेष |
---|---|---|---|---|
मिथ्यात्व | १० | ११७ | ५ | ५(तीर्थंकर,आहारकद्विक,सम्य िग्मथ्यातव् ि,सम्यक्त्व)१० (मिथ्यात्व,आतप,सूक्ष्म,अपर्याप्त,साधारण,स्थावर,एकन्द्रिय व विकलत्रय ) |
सासादन | ४ | १०६ | १६ | १६ (१० + ५ + १ नरकगत्यानुपूर्वी) ४ (नरकगत्यानुपूर्वी) |
मिश्र | १ | १०० | २२ | २२ (१६ + ४ + ३ नरकगत्यानुपूर्वी बिना १ सम्यग्मिथ्यात्व ) १ सम्यग्मिथ्यात्व( |
असंयत | १७ | १०४ | १८ | १८(२२ + १ – ५ आनुपूर्वी चार व सम्यक्त्वप्रकर्ति ) (अप्रत्याख्यानकषाय ४ वैक्रियकषट्क नरक व देवायु, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी दुर्भग,अनादेय व अयशस्कीर्ती) |
गुणस्थान !! असत्त्व !! सत्त्व !! सत्त्व व्युच्छित्ति !! विशेष “- ” मिथ्यात्व “” ० “” १४८ “” ० “” “- ” सासादन “” ३ “” १४५ “” ० “” ३ (आहारकद्विक-तीर्थंकर) “- ” मिश्र “” १ “” १४७ “” ० “” १ (तीर्थंकर) “- “असंयत “” ० “” १४८ “” १ “” १ (नरकायु) “- “देशसंयत “” १ “” १४७ “” १ “” असत्त्व १ (नरकायु) १ (तिर्यंचायु) “- ” प्रमत्त “” २ “” १४६ “” ० “” २ (नरकायु व तिर्यंचायु) “- ” अप्रमत्त “” २ “” १४६ “” ८ “” ८ (अनंतानुबंधीकषाय ४, देवायु, दर्शनमोहनीय की ३) “} ! गुणस्थान !! असत्त्व !! सत्त्व !! सत्त्व व्युच्छित्ति !! विशेष “- ” अपूर्वकरण “” १० “” १३८ “” ० “” १० (अनंतानुबंधीकषाय ४ दर्शनमोहनीय ३,नरक, तिर्यंच व देवायु) “- ” अनिवृत्तिकरण क्षपक-प्रथमभाग “” १० “” १३८ “” Example “” १६ (नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगति, तिर्यंगत्यानुपूर्वी, विकलत्रय ३, स्त्यानगृद्धि आदि निद्रा ३, उद्योत आतप, एकेन्द्रिय, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर) “- ” द्वितीयभाग “” २६ “” १२२ “” १६ “” ८ (अप्रत्याख्यान की ४ कषाय और प्रत्याख्यान की ४ कषाय) “- ” तृतीयभाग “” ३४ “” ११४ “”८”” १ (नपुंसकवेद) “- ” चतुर्थभाग “” ३५ “” ११३ “” १ “” १ (स्त्रीवेद) “- ” पंचमभाग “” ३६ “” ११२ “” १ “” ६ (हास्यादि नोकषाय) “- ” षष्ठभाग “” ४२ “” १०६ “” ६ “” १ (पुरुषवेद) “- ” सप्तमभाग “” ४३ “” १०५ “” १ “” १ (संज्वलन क्रोध) “- ” अष्टमभाग “” ४४ “”१०४ “” १ “” १ (संज्वलन मान) “- ” नवमभाग “” ४५ “” १०३ “” १ “” १ (संज्लवन माया) “- “सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक “” ४६ “” १०२ “” १ “” १ (संज्लवन लोभ) “- ” क्षीणमोह “” ४७ “” १०१ “” १६ “” १६ (५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अंतराय, निद्रा, प्रचला) “- ” सयोगकेवली “” ६३ “” ८५ “” ० “” ६३ (घातियाकर्म की ४७, नरक, देव और तिर्यंचायु, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रियादि चार जाति, आतप, उद्योत, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर) “} गुणस्थान !! असत्त्व !! सत्त्व !! सत्त्व व्युच्छित्ति !! विशेष “- ” अयोगकेवली द्विचरम समय में “” ६३ “” ८५ “” ७२ “” ७२ (५ शरीर, ५ बंधन, ५ सड़् घात, ६ संहनन, के ३ अंगोपांग, ६ संस्थान, ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस, ८ स्पर्श, स्थिर-अस्थिर, शुभ- अशुभ, सुस्वर-दुस्वर, देवगति- देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त-प्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, निर्माण, अयशकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, साता या असाता में से कोई एक, नीत्रगोत्र) “- ” अयोगकेवली चरम समय में “” १३५ “” १३ “” १३ “” व्यु.१३ (साता-असातावेदनीय में से एक, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, सुभग, त्रसबादर- पर्याप्त, आदेय, यशकीर्ति, तीर्थंकर, मनुष्यायु, उच्चगोत्र मनुष्यगत्यानुपूर्वी) “- “}
खवणं वा उवसमणे णवरि य संजलणपुरिसमज्झम्हि।
मज्झिमदोद्दो कोहादीया कमसोवसंता हु।।१२०।।
क्षपणामिव उपशमने नवरि च संज्वलनपुरुषमध्ये।
मध्यमद्वौ द्वौ क्रोधादिकौ क्रमश उपशान्तौ हि।।१२०।।
अर्थ—उपशम के विधान में भी क्षपणा विधान की तरह क्रम जानना परन्तु विशेष बात यह है कि संज्वलन कषाय और पुरुषवेद के मध्य में बीच के जो अप्रत्याख्यान तथा प्रत्याख्यान कषाय संबंधी दो-दो क्रोधादि हैं सो पहले उनको क्रम से उपशमन करता है, पीछे संज्वलन क्रोधादि का उपशम करता है।
भावार्थ क्षपकश्रेणी की तरह उपशम श्रेणी में ९ वें गुणस्थान के दूसरे भाग में मध्यम ८ कषायों का उपशम नहीं होता, किन्तु पुरुषवेद के बाद और संज्वलन के पहले होता है और उसका क्रम ऐसा है कि पुरुषवेद के बाद अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान दोनों के क्रोध के उपशम पश्चात् संज्वलन क्रोध का उपशम, इत्यादि। मानादि में भी ऐसा ही क्रम जानना।
णिरयादिसु पयडिट्ठिदिअणुभागपदेसभेदभिण्णस्स।
सत्तस्स य सामितं णेदव्वमिदो जहाजोग्गं।।१२१।।
निरयादिषु प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नस्य।
सत्वस्य च स्वामित्वं नेतव्यमितो यथायोग्यम्।।१२१।।
अर्थ—इसके बाद नरकगति आदि मार्गणाओं में भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश इन चार भेदों को लिए हुए जो प्रकृतियों का सत्त्व है वह यथायोग्य समझना।
सो मे तिहुवणमहियो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो।
दिसदु वरणाणलाहं बुहजणपरिपत्थणं परमसुद्धं।।१२२।।
स मे त्रिभुवनमहित: सिद्धो बुद्धो निरंजनो नित्य:।
दिशतु वरज्ञानलाभं बुधजनपरिप्रार्थनं परमशुद्धम्।।१२२।।
अर्थ—आचार्य महाराज प्रार्थना करते हैं कि जो तीन लोक कर पूजित, सिद्ध बुद्ध, कर्मरूपी अंजन कर रहित और नित्य अर्थात् जन्म-मरण रहित ऐसे श्रीनेमिचंद्र तीर्थंकर, मुझको ज्ञानीजनोंकार प्रार्थना करने योग्य, परमशुद्ध ऐसे उत्कृष्ट ज्ञान का लाभ दो अर्थात् मुझे उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हो ऐसी आचार्य प्रार्थना करते हैं।
उव्वेलणविज्झादो अधापवत्तो गुणो य सब्बो य।
संकमदि जेहिं कम्मं परिणामवसेण जीवाणं।।१२३।।
उद्वेलनविध्यातं अध:प्रवृत्त: गुणश्च सर्वश्च।
संक्रामति यै: कर्म परिणामवशेन जीवानाम्।।१२३।।
अर्थ—संसारी जीवों के अपने जिन परिणामों के निमित्त से शुभकर्म और अशुभकर्म संक्रमण करें अर्थात् अन्य प्रकृतिरूप परिणमे उसको भागहार कहते हैं। उसके उद्वेलन, विध्यात, अध:प्रवृत्त गुणसंक्रमण और सर्वसंक्रमण के भेद से पाँच भेद हैं।
बंधे संकामिज्जदि णो बंधे णत्थि मूलपयडीणं।
दंसणचरित्तमोहे आउचउक्के ण संकमणं।।१२४।।
बन्धे संक्रामति नोबन्धे नास्ति मूलप्रकृतीनाम्।
दर्शनचारित्रमोेहे आयुश्चतुष्के न संक्रमणम्।।१२४।।
अर्थ—अन्य प्रकृतिरूप परिणमन को संक्रमण कहते हैं। सो जिस प्रकृति का बंध होता है उसी प्रकृति का संक्रमण भी होता है। यह सामान्य विधान है कि जिसका बंध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस कथन का ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोहनी के बिना शेष सब प्रकृतियाँ बंध होने पर संक्रमण करती हैं, ऐसा नियम जानना तथा मूलप्रकृतियों का संक्रमण अर्थात् अन्य का अन्यरूप परस्पर में परिणमन नहीं होता। ज्ञानावरण की प्रकृति कभी दर्शनावरण रूप नहीं होती। इससे सारांश यह निकला कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है परन्तु दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय का तथा चारों आयुओं का परस्पर में संक्रमण नहीं होता।
आहारदुर्ग सम्मं मिस्सं देवदुगणारयचउक्कं।
उच्चं मणुदुगमेदेतेरस उव्वेल्लणा पयडी।।१२५।।
आहारद्विकं सम्यं मिश्रं देवद्विकनारकचतुष्कम्।
उच्चं मनुद्विकमेता: त्रयोदश उद्वेलना प्रकृतय:।।१२५।।
अर्थ—आहारकयुगल, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, देवगति का जोड़ा, नरकगति का चतुष्क, उच्चगोत्र और मनुष्यगति का युगल ये १३ उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं।
बंधुक्कट्ण करणं संकममोकट्टुदीरणा सत्तं।
उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।।१२६।।
बंधोत्कर्षणकरणं संक्रममपकर्षणोदीरणा सत्वम्।
उपयोपशांतनिधत्ति: नि:काचना भवति प्रतिप्रकृति।।१२६।।
अर्थ— १. बंध, २. उत्कर्षण, ३. संक्रमण, ४. अपकर्षण, ५. उदीरणा, ६. सत्त्व, ७. उदय, ८. उपशम, ९. निधत्ति, १०. निकाचना ये दश कारण (अवस्थायें) हर एक प्रकृति के होती हैं।
कम्माणं संबंधो बंधतो उक्कट्टणं हवे वड्ढी।
संकमणमणत्थगदी हाणी ओकट्टणं णाम।।१२७।।
कर्मणां संबंधो बंध उत्कर्षणं वृद्धिर्भवेत्।
संक्रमणमन्यत्रगति: हानिरपकर्षणं नाम।।१२७।।
अर्थ—कर्मों का आत्मा से संबंध होना अर्थात् मिथ्यात्वादि परिणामों से जो पुद्गलद्रव्य का ज्ञानावरणादि रूप होकर परिणमन करना जो कि ज्ञानादि का आवरण करता है वह बंध है। कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है। बंधरूप प्रकृति का दूसरी प्रकृतिरूप परिणमजाना संक्रमण है। स्थिति तथा अनुभाग का कम हो जाना अपकर्षण है।
अण्णथठियस्सुदये संधुहणमुदीरणा हु अत्थित्तं।
सत्तं सकालपत्तं उदओ होदित्ति णिद्दिटठो।।१२८।।
अन्यत्र स्थितस्योदये संस्थापनमुदीरणा हि अस्तित्वम्।
सत्वं स्वकालप्राप्तमुदयो भवतीति निर्दिष्ट:।।१२८।।
अर्थ—उदयकाल के बाहिर स्थित अर्थात् जिसके उदय का अभी समय नहीं आया है ऐसा जो कर्मद्रव्य उसको अपकर्षण के बल से उदयावली काल में प्राप्त करना (लाना) उसको उदीरणा कहते हैं। पुद्गल का कर्मरूप रहना सत्त्व है और कर्म का अपनी स्थिति को प्राप्त होना अर्थात् फल देने का समय प्राप्त हो जाना उदय है। ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
उदये संकममुदये चउसुवि दादुं कमेण णो सक्कं।
उवसंतं च णिधत्तिं णिकाचिदं होदि जं कम्मं।।१२९।।
उदये संक्रमोदययो: चतुष्र्वपि दातुं क्रमेण नो शक्यम्।
उपशांत च निधत्ति: निकाचितं भवति यत् कर्म।।१२९।।
अर्थ—जो कर्म उदयावली में प्राप्त न किया जाए अर्थात् उदीरणा अवस्था को प्राप्त न हो सके वह उपशांत करण है। जो कर्म उदयावली में भी प्राप्त न हो सके और संक्रमण अवस्था को भी प्राप्त न हो सके उसे निधित्ति करण कहते हैं तथा जिस कम की उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थायें न हो सके उसे निकाचित करण कहते हैं।
कहाँ कौन से करण होते हैं?
संकमणाकरणूणा णवकरणा होंति सव्वआऊमं।
सेसाणं दसकरणाअपुव्वकरणोत्ति दसकरणा।।१३०।।
संक्रमणाकरणोनानि नवकरणानि भवन्ति सर्वायुषाम्।
शेषाणां दशकरणान्यपूर्वकरण इति दशकरणानि।।१३०।।
अर्थ—नरकादि चारों आयुकर्मों के संक्रमणकरण के बिना ९ करण होते हैं और शेष बचीं सब प्रकृतियों के १० करण होते हैं तथा मिथ्यादृष्टि से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानपर्यंत १० करण होते हैं।
आदिमसत्तेव तदो सुहुमकसाओत्ति संकमेण विणा।
छच्च सजोगित्ति तदो सत्तं उदयं अजोगित्ति।।१३१।।
आदिमसप्तैव तत: सूक्ष्मकषाय इति संक्रमेण बिना।
षट् च सयोगीति तत: सत्वमुदय अयोगीति।।१३१।।
अर्थ—उस अपूर्वकरण गुणस्थान के ऊपर १० वें सूक्ष्मकषाय गुणस्थानपर्यंत आदि के ७ ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमणकरण के बिना ६ ही करण होते हैं। उसके बाद अयोग केवली के सत्त्व और उदय ये दो ही करण पाये जाते हैं।
गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटसिहरुवरि गोम्मटजिणो य। गोम्मटरायविणिम्मियदक्खिणकुक्कड जिणो जयउ।।१३२।।
गोम्मटसंग्रहसूत्रं गोम्मटशिखरोपरि गोम्मटजिनश्च।
गोम्मटरायविनिर्मितदक्षिणकुक्कटजिनो जयुत।।१३२।।
अर्थ—गोम्मटसार संग्रहरूप सूत्र गोम्मटशिखर के ऊपर चामुंडराय राजाकर बनवाये जिनमंदिर में विराजमान एक हाथ प्रमाण इंद्रनीलमणिमय नेमिनाथनाम तीर्थंकरदेव का प्रतिबिम्ब तथा उसी चामुंडरायकर निर्मापित लोक में रूढ़िकर प्रसिद्ध दक्षिणकुक्कटनामा जिनका प्रतिबिम्ब जयवंत प्रवर्तीं।
विशेषार्थ—जिस रायकर बनवाया गया जो जिनप्रतिमा का मुख वह सर्वार्थसिद्धिके देवों ने तथा सर्वावधि-परमावधिज्ञान के धारक योगीश्वरों ने देखा है वह ‘‘चामुंडराय’’ सर्वोत्कृष्टपने से वर्तो। जिसका अवनितल (पीठबंध) वज्रसरीखा है, जिसका ईषत्प्राग्भार नाम है, जिसके ऊपर स्वर्णमयी कलश हैं तथा तीन लोक में उपमा देने योग्य ऐसी अद्वितीय जिनमंदिर जिसने बनवाया ऐसा चामुंडराय जयवंत वर्तो।
जेणुब्भियथंभुवरिमजक्खतिरीटग्गकिरणजलधोया।
सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयउ।।१३३।।
येनोभिद्तस्तम्भोपरिमयक्षतिरीटाग्रकिरणजलधौतौ।
सिद्धानां शुद्धपादौ स रायो गोम्मटो जयतु।।१३३।।
अर्थ—जिसने चैत्यालय में खड़े किये हुए खंभे के ऊपर स्थित जो यक्ष के आकार है उनके मुकुट के आगे के भाग की किरणों रूप जल से सिद्धपरमोष्ठयों के आत्मप्रदेशों के आकार रूप शुद्ध चरण धोये हैं ऐसा चामुंडराय जय को पाओ। चैत्यालय के स्तंभ बहुत ऊँचा बना हुआ है उसक उपर यक्ष की मूर्ति है उसके मुकुट में प्रकाशवंत रत्न लगे हुए हैं।
।।इति शं भूयात्।।