सभ्यता और संस्कृति में लगता है कुछ संपर्क है, परन्तु ध्यान से देखें तो बहुत बड़ा फर्क है। सभ्यता एक निश्चित काल तक ही रहती है परंतु संस्कृति एक नदी की तरह युग—युग तक बहती है। सभ्यता का आधार विज्ञान की सफलता पर होता है, मगर संस्कृति का बीज समय स्वयं अपने मन में बोता है।
सभ्यताएं तो बनती बिगड़ती रहती हैं, परंतु संस्कृति की धाराएँ अनंतकाल तक बहती हैं। सभ्यता मानव के जीवन का दर्पण बन कर उभरती है, मगर संस्कृति जीवन के मूल सिद्धांतों के सागर से गुजरती है। सभ्यता बाहर के रंगरूप से आंकी जाती है, परंतु संस्कृति भीतरी मूल्यों से आंकी जाती है। सभ्यता गौरव आविष्कारों से दर्शाती है, लेकिन संस्कृति, कला, साहित्य एवं ग्रन्थों में मुस्कुराती है।
सभ्यता बरसाती नदी की तरह रूक—रूक कर चलती है, संस्कृति समय की सशक्त भुजाओं में पलती है। सभ्यता में झूठ—सच, अच्छा—बुरा सब चलता है, परंतु संस्कृति का फूल आदर्शों की बगिया में पलता है। न्यूटन और आइन्सटाइन सभ्यता के लिए ठीक है, परंतु राम और सीता संस्कृति के प्रतीक हैं। सभ्यता के पाटन में मनुष्य अवश्य डर जाता है, परंतु संस्कृति के मरने से वह स्वयं ही मर जाता है। देखा आपने दोनों में कितना भारी अंतर है। सभ्यता मात्र एक श्लोक है, संस्कृति एक मूल मंत्र है।