जैन परम्परा में ज्ञान की प्रधानता के साथ भक्ति का भी प्रमुख स्थान रहा है। आचार्य समन्तभद्र उसी को सुश्रद्धा कहते हैं जो ज्ञानपूर्वक की गई हो। उनके अनुसार ज्ञान के बल पर ही श्रद्धा सुश्रद्धा बन जाती है, अन्यथा वह अन्ध-श्रद्धा भर रह जाती है। उन्होंने ही दूसरे स्थान पर लिखा है– जिस प्रकार पारस पत्थर के स्पर्श से लोहा स्वर्ण रूप में हो जाता है, उसी प्रकार भगवान की भक्ति से सामान्य ज्ञान केवलज्ञान हो जाता है।
भक्ति का अर्थ– भ्वादिगणीय ‘भज् सेवायाम्’ धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर भक्त शब्द निष्पन्न होता है। ‘भक्ति’ का अर्थ है भाव की विशुद्धि प्रेम से युक्त अनुराग। देव, गुरु या धर्म आदि में होने वाले विशुद्ध प्रेम या अनुराग को ही भक्ति कहा जाता है। पूज्यपाद आचार्य ने ‘भक्ति’ व्याख्या में लिखा है – अर्हदाचार्येषु बहुश्रतेषु प्रवचने च भापविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:अर्थात् अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, बहुश्रुत, जिन-प्रवचन आदि में होने वाले विशुद्ध प्रेम, अनुराग को भक्ति कहते हैं। भगवती आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि के अनुसार- ‘अर्हदादिगुणानुरागो भक्ति:।’ आचार्य सोम देव ने लिखा है–
अर्थात् जिन, जिनागम, तप और श्रुत में परायण आचार्य में सद्भाव विशुद्धि से सम्पन्न अनुराग भक्ति कहलाता है। भक्ति शब्द से अनुराग, प्रीति, रुचि, श्रद्धान और सम्यक्त्व भी सुने जाते हैंं जहां-जहां मनुष्यों की प्रीति होती है, श्रद्धा भी वहीं देखी जाती है और जहां-जहां श्रद्धा होती है, मन भी वहीं स्थिर हो जाता है। आचार्य श्री पूज्यपाद ने लिखा है–
दोष रहित जिनदेव, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चार प्रकार का संघ, रत्नत्रयाराधक मुनि तथा गर्भजन्मादि पंच कल्याणकों का महोत्सव इत्यादि प्रसंगों में सम्यग्दृष्टि अन्त:करण पूर्वक इच्छा और कपट रहित जो आराधना करता है वह उसका भक्ति नामक गुण कहा जाता है। यह गुण भव्य अर्थ का अर्थात् पुण्यफलरूप संपत्ति की प्राप्ति करने वाला है। परिणामों की निर्मलता से देवादियों पर अनुराग करना भक्ति है।
सम्यग्दर्शन और भक्ति
मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन का प्रमुख स्थान है। उसी के आधार पर जैन धर्म में सिद्धान्त और आचार आदि का विकास हुआ। संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति वात्सल्य और अनुकम्पा ये सम्यक्तत्व के आठ गुण है। आचार्य उमास्वामी ने तत्व के यर्थाथ श्रद्धान में सम्यग्दर्शन कहा है।५ उत्तरवर्ती आचार्यो ने उसकी व्याख्या में देव, शास्त्र, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा भक्ति या अनुराग के साथ जोड़ा। इससे जन-जीवन की पृष्ठभूमि से वह विशेष रूप से अनुस्यूत हुआ क्योंकि श्रद्धा, भक्ति और अनुराग से अन्त:स्थल में सहजयता सात्विक भावों का उद्भव होता है। ये भाव जब आमुष्मिक – पारलौकिक या आध्यात्मिक भूमिका से समायुक्त होकर अपने आराध्य के चरणों में सम्प्रेषित होते हैं तो संस्तुति या संस्तवन का रूप ले लेते हैं। इसका सार यह है कि भक्ति का उद्गम सम्यक्त्त्वे (श्रद्धा) के मूलस्रोत्र से होता है जो अन्तत: मोक्षात्मक परम लक्ष्य तक पहुचाता है। महाकवि वादिराज ने अपने ‘एकीभावस्तोत्र’ में लिखा है ––
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो । मुक्तिद्वारं परिदृष्ढमहा मोह मुद्रांकपाटम् ।।
हे प्रभो ! शुद्ध ज्ञान और पवित्र चारित्र के होने पर भी यदि असीम सुख देने वाली कुंजी स्वरूप तुम्हारी उत्कृष्ट भक्ति नहीं है तो महामोहरूपी ताले से बन्द मोक्षद्वार को मोक्षार्थी कैसे खोल सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है –
अरहंते सुहभत्ती सम्मतं दंसणेण विसुद्धं ।।
–लिंग पाहुड़ गाथा ४०
भक्ति ही मिथ्यात्व रूपी ताले को खोलने के लिए कुंजी (चाबी) की तरह है। जब तक यह भक्ति रूप सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता तब तक ज्ञान और चारित्र के रहते हुए भी मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता है अर्थात् भक्ति, ज्ञान और चारित्र से भी श्रेष्ठ है।
भक्ति के भेद
१. दर्शन भक्ति :– जिनेन्द्र देव ने तत्त्वों में मन की अत्यन्त रुचि को सम्यग्दर्शन कहा है। इस सम्यग्दर्शन के दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण के द्वारा सम्यग्दर्शन की पहचान होती है, उसके नि:शंकित, नि:कांक्षित आदि गुण हैं। सम्यग्दर्शन भुवनत्रय से पूजित है, तीन प्रकार की मूढ़ता से रहित है।संसार रूपी लता का अन्त करने वाला है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि दर्शन तभी सम्यक् हो सकता है, जब जीव जिनेन्द्र का भक्त हो। उन्होंने जिनेन्द्र-भक्ति का पर्यायवाची माना है- देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि हे देव ! जिनकी आपके वचनों में एकनिष्ठ श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो रुचि दुष्कर्म रूपी अंक के समूह को भस्म करने के लिए वङ्कााग्नि के प्रकाश की तरह निर्मल हैं, वे दुर्बुद्धि कितनी ही तपस्या करें, कितना भी ज्ञानार्जन करें और कितना ही दान दें, फिर भी जन्म-परम्परा का छेदन नहीं कर सकते। और भी आगे लिखते हैं हे नाथ ! संसार रूपी समुद्र के लिए सेतुबन्ध के समान, क्रम से उत्पन्न होने वाले रत्नत्रय रूपी वन के विकास के लिए अमृत के मेघ के समान, तीनों लोकों के लिए चिन्तामणि रत्न के समान और कल्याणकारी कमल समूह की उत्पत्ति के लिए तालाब में तुल्य सम्यक्त्वरूपी रत्न को जो पुण्यात्मा हृदय में धारण करता है उसे स्वर्ग और मोक्ष रूप लक्ष्मी की प्राप्ति सुलभ है।७
२. ज्ञान भक्ति :- इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाले मतिज्ञान का विषय बहुत थोड़ा है। अवधिज्ञान भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेकर केवल रूपी पदार्थों को ही विषय करता है। मन:पर्यय का भी विषय बहुत थोड़ा है और वह भी किसी मुनि के हो जाय तो आश्चर्य ही है। केवलज्ञान महान है किन्तु उसकी प्राप्ति इस काल में सुलभ नहीं है। एक श्रुतज्ञान ही ऐसा है जो समस्त पदार्थों को विषय करता है और सुलभ भी है। जिसे देवों ने सिर पर धारण किया, गणधरों ने अपने कान का भूषण बनाया, मुनियों ने अपने हृदय में रखा, राजाओं ने जिसका सार ग्रहण किया और विद्याधरों के स्वामियों ने अपने हाथ में, आंखों के सामने और मुख में स्थापित किया वह स्याद्वाद श्रुत रूपी कमल मेरे मानसरूपी हंस की प्रसन्नता के लिए हो। आगम में कहे हुए तत्त्वों की मन में भावना करता हुआ मैं मिथ्यात्व रूपी अन्धकार के पटल को दूर करने वाले, स्वर्ग और मोक्ष नगर का मार्ग बतलाने वाले तथा तीनों लोकों के लिए मंगलकारक जैन आगम को सदा नमस्कार करता हूँ।८
३. चारित्र भक्ति :- जिसके बिना अभागे मनुष्य के शरीर में पहनाये गये भूषणों की तरह ज्ञान खेद का ही कारण होता है, तथा सम्यक्तत्व रत्नरूपी वृक्ष ज्ञानरूपी फल की शोभा को ठीक रीति से धारण नहीं करता और जिसके न होने से बड़े-बड़े तपस्वी भ्रष्ट हो गये। हे देव ! संयम, इन्द्रिय निग्रह और ध्यान आदि के आवास उस तुम्हारे चारित्र को में नमस्कार करता हूँ। जो इच्छित वस्तुओं को देने के लिए चिन्तामणि है, सौन्दर्य और सौभग्य का घर है, मोक्ष रूपी लक्ष्मी के पाणिग्रहण के लिए कंकण-बंधन है और कुल, बल और आरोग्य का संगम स्थान है अर्थात् तीनों के होने पर ही चारित्र धारण करना संभव होता है, और पूर्वकालीन योगियों ने मोक्ष के लिए जिसे धारण किया था, स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिए उस पांच प्रकार के चारित्र को मैं नमस्कार करता हूं। संवर का सातवां साधन चारित्र है। जिसके द्वारा हित की प्राप्ति और अहित का निवारण होता है उसे चारित्र कहते हैं। एक परिभाषा के अनुसार आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर होने का प्रयत्न करना चारित्र है। विशुद्धि की तारतम्यता की अपेक्षा, चारित्र पांच प्रकार का कहा गया है– सामायिक, छेदोस्थापना, परिहाविशुद्धि, सूक्ष्म-सामम्पराय और यथाख्यात।
१. सामायिक– साम्यभाव में स्थित रहने के लिए समस्त पाप-प्रवृत्तियों का त्याग करना ‘सामायिक’ चारित्र है।
२. छेदोपस्थापना– गृहीत चारित्र में दोष लगने पर, उनका परिहार कर, मूल रूप में स्थापित होना ‘छेदोपस्थापना’ चारित्र है।
३. परिहारविशुद्धि– विशिष्ट तपश्चर्या से चारित्र को अधिक विशुद्ध करना ‘परिहार-विशुद्धि’ कहलाती है। इस चारित्र के प्रकट होने पर इतना हल्कापन बन जाता है कि चलते-फिरते, उठने-बैठने रूपी सभी क्रियाओं को करने के बाद भी किसी जीव का घात नहीं हो पाता। परिहार का अर्थ है ‘हिंसादिक पापों से निवृत्ति’। इस विशुद्धि के बल से हिंसा का पूर्णतया परिहार हो जाता है अत: इसकी परिहारविशुद्धि, यह सार्थक संज्ञा है। इस चारित्र का धनी साधु जल में पड़े कमल के पत्तों की तरह पापों से अलिप्त रहता है। यह किसी विशिष्ट साधना सम्पन्न तपस्वी को ही प्राप्त होता है।
४. सूक्ष्म-साम्पराय– जिस साधक की समस्त कषायें नष्ट हो चुकी हैं, मात्र लोभ कषाय अति सूक्ष्म रूप में शेष रह गयी है तथा जो उसे भी क्षीण करने में तत्पर है, उसके चारित्र को ‘सूक्ष्म-साम्पराय चारित्र’ कहते हैं।
५. यथाख्यात– समस्त मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर, प्रकट आत्मा के शान्त स्वरूप में रमण करने रूप चारित्र ‘यथाख्यात’ चारित्र है। इसको वीतराग चारित्र भी कहते हैं। यहां यह विशेष ध्यताव्य है कि सामायिक के अतिरिक्त शेष चारों चारित्र सामायिक रूप में ही है परन्तु आचार गुणों की विशेषता होने के कारण उन चार को अलग किया है।
४. अर्हन्त भक्ति :– हे जिनेन्द्र ! आपको जन्म से ही अन्तरंग और बहिरंग इन्द्रियों से होने वाला मतिज्ञान, समस्त कथित वस्तुओं को विषय करने वाला श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है, इस प्रकार आपको स्वत: ही सकल वस्तुओं का ज्ञान है तब पर की सहायता की आपको आवश्यकता ही क्या है ? हे देव ! ध्यानरूपी प्रकाश के द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकार का फैलाव दूर होने पर जब आपने केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को धारण किया तो तीनों लोकों ने अपना काम छोड़कर एक नगर की तरह महान उत्सव किया।छत्र लगाऊं या चमर ढ़ोरु अथवा जिनदेव के चरणों में स्वर्णकमल अर्पित करूं। इस प्रकार जहां इन्द्र स्वयं ही हर्षित सेवा के लिए तत्पर है वहां मैं क्या कहूं। हे देव ! तुम सब दोषो से रहित हो, तुम्हारे वचन सुनयरूप हैं- किसी वस्तु के विषय में इतर दृष्टिकोणों का निराकरण न करके विवक्षित दृष्टिकोण से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं तथा तुम्हारे द्वारा बतलायी गयी सब विधि प्राणियों के प्रति दया भाव से पूर्ण है। फिर भी लोक यदि तुमसे सन्तुष्ट नहीं होते तो इसका कारण उनका कर्म है। जैसे उल्लू को सूर्य का तेज पसन्द नहीं है किन्तु उसमें सूर्य का दोष नहीं है बल्कि उल्लू के कर्मो का दोष है। हे देव ! तुम्हारे चरणों में पूजा के पाद पीठ संसर्ग- मात्र से फूल तीनों लोकों के मस्तक का भूषण बन जाता है अर्थात् उस फूल को सब अपने सिर लगाते हैं जबकि दूसरों के सिर पर भी रखा हुआ फूल अस्पृश्य माना जाता है। अत: अन्य सूर्य, रुद्रादि देवताओं से तुम्हारी क्या समानता की जावे। हे देव! पहले मिथ्यात्वरूपी गाढ़ अन्धकार से आच्छादित होने के कारण ज्ञानशून्य होकर यह जगत संसार रूपी गड्ढे में पड़ा हुआ था। उसका नेत्र-कमल और हृदय-कमल को विकसित करने वाली स्याद्वादरूपी किरणों के द्वारा तुमने ही उद्धार किया है। हे देव ! जिसके मन रूपी स्वच्छ सरोवर में तुम्हारे दोनों चरण-कमल विराजमान है उसके पास लक्ष्मी स्वयं आती है तथा स्वर्ग और मोक्ष को यह सरस्वती नियम से उसे वरण करती है।१०
५. सिद्ध भक्ति :– जिन्होंने अपनी छदमस्थ अवस्था में मति, श्रुत और अवधिज्ञान के द्वारा सब ज्ञेय तत्वों को विस्तार से जाना, फिर ध्यान रूपी वायु के द्वारा समस्त पाप रूपी धूलि को उड़ाकर केवल ज्ञान प्राप्त किया, फिर इन्द्रादिक के द्वारा किये गये बड़े उत्सव के साथ सर्वत्र विहार करके जीवों का उपकार किया, तीनों लोकों के ऊपर विराजमान हैं वे सिद्ध परमेष्ठी हम सबकी सिद्धि में सहायक हों। मन को दान, ज्ञान, चारित्र, संयम आदि से युक्त करके और अन्तरंग तथा बहिरंग इन्द्रियों और प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांचों वायुओं का निरोध करके फिर अज्ञान रूपी अन्धकार की परम्परा को नष्ट करने वाले निर्विकल्प ध्यान को करके जो मुक्त हुए उन्हें भी मैं हाथ जोड़ता हूँ। इस प्रकार समुद्र, गुफा, तालाब, नदी, पृथ्वी, आकाश, द्वीप, पर्वत, वृक्ष और वन आदि में ध्यान लगाकर जो अतीत काल में मुक्त हो चुके, वर्तमान में मुक्त हो रहे हैं और भविष्य में मुक्त होंगे, तीनों लोकों के द्वारा स्तुति करने के योग्य वे भव्यशिरोमणि सिद्ध भगवन्त हमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र रूपी मंगल को देवें।
६. चैत्य भक्ति :– भवनवासी और व्यन्तरों के निवास स्थानों में, मत्र्यलोक में, सूर्य और देवताओं के श्रेणी विमानों में, स्वर्गलोक में, ज्योतिषी देवों के विमानों में, कुलाचलों पर, पाताल लोक तथा गुफाओं में जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की प्रतिमायें हैं, जिन्हें उन स्थानों में रक्षक अपने मुकुटों में जड़े हुए रत्नरूपी दीपकों से पूजते हैं, मैं साम्राज्य के लिए उन्हें नमस्कार करता हूँ।
७ पञ्चगुरुभक्ति :– समवशरण में विराजमान अर्हन्तों की मुक्तिरूपी लक्ष्मी से आलिंगित सिद्धों को, समस्त शास्त्रों ने पारगामी आचार्यों को, शब्द शास्त्र में निपुण उपाध्यायों को और संसार रूपी बन्धन का विनाश करने के लिए सदा उद्योग शील, योग का प्रकाश करनेवाले और अनुपम गुणवाले साधुओं को क्रिया कर्म में उद्यत मैं नमस्कार करता हूं।
८. शान्ति भक्ति :–संसार के दु;ख रूपी अग्नि को शान्त करने वाले और धर्मामृत की वर्षा करके जनता में शान्ति करने वाले तथा मोक्षसुख के विध्नों को शान्त नष्ट कर देने वाले शान्तिनाथ भगवान शान्ति करें। जो केवल मानसिक संकल्प से होने योग्य पुण्य बन्ध के लिए भी प्रयत्न नहीं करता, उस हताश मनुष्य के मनोरथ कैसे पूर्ण हो सकते हैं।
९. आचार्य भक्ति :–तत्वों के यथार्थ प्रकाश से तृष्णारूपी अन्धकार को दूर कर देने वाला जिनकी चित्तवृत्ति का प्रचार बाह्य बातों में नहीं होता और परिग्रह रूपी समुद्र के उस पार रहता है, तथा शान्ति रूपी समुद्र के इस पार या उस पार रहता है। अर्थात् जिसकी चित्तवृत्ति परिग्रह की भावना से मुक्त हो चुकी है और शान्ति रूपी समुद्र में सदा वास करती है, उन आचार्यों की पूजा विधि में अर्पित की गयी जल की धारा तुम्हारा (हमारा) कल्याण करें।
अमरसेण चरिउ की प्रस्तावना पृ.- २३ में लिखा है कि –
ते (पय) धण्ण वि तुवतित्थि जंति । ते पाणि सहल पूया-रयति । ते सोय धण्ण गुणगण-सुणंति ।
ते णयण धण्ण तव तुइणि यंति ।। सा रसणा तुव गुणलोललुलइ । सो साहु इत्थु तुव पडि चलइ ।।
नरदेह पाकर अपने अंगों को पुण्य कार्यों में लगावे। जैन पैर तीर्थाटन करते हैं, जो हाथ जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं, जो कान जिनेन्द्र के गुणों को सुनते हैं, जो नेत्र जिनेन्द्र की छवि को निहारते हैं, जो रसना जिनेन्द्र का गुण-गान करती है और जिस हृदय में जिनेन्द्रदेव विराजते हैं वे धन्य हैं। उनका होना सार्थक है। धन वही श्रेयस्कर है जो जिनेन्द्र की पाद-पूजा में व्यय होता है। मनुष्य के अंगों और धन की सफलता इसी में है।
भक्ति का प्रयोजन :–मूलाचार में लिखा है –
अरहंत णमोक्कारो, भावेण य जो करेदि पयदमदी । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावई अचिरेण कालेण ।। गाथा नं. ७५
जो भावपूर्वक अरहंत भगवान को नमस्कार करता है, वह शीध्र ही सर्व दु:खों से छूट जाता है। आगे और भी लिखा है
भतीए जिणवराणां खीयदि जं पुव्वसंजियं कम्मं ।। गाथा नं. ७८
जिनेन्द्र की भक्ति रूप शुभ भाव से पूर्वसञ्चित कर्मों का क्षय हो जाता है। भावपाहुड़ में लिखा है–
जिणवर वरणंबुरुहं पणमंति जे परभत्तिरायेण । ते जस्मवेल्लिमूलं हणंति वरभाव सत्थेण ।।१५३।।
जो भव्य जीव उत्तम भक्ति और अनुराग से जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में नमस्कार करते हैं वे उस भक्तिमय शुभ शास्त्र के द्वारा संसार रूपी बेल को जड़ से उखाड़ डालते हैं। धवला में लिखा है –
जिस प्रकार वङ्का के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से पापसंघात रूपी कुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं। और भी लिखा है –
जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्ति और निकाचित रूप भी मिथ्याात्वादि कर्मकलाप (समूह) का क्षय देखा जाता है। ‘आवश्यक निर्युक्ति’ में भक्ति के फल की चर्चा करते हुए कहा गया है कि जिन-भक्ति से पूर्व संचित कर्म क्षीण होते है और आचार्य के नमस्कार से विद्या और मंत्र सिद्ध होते हैंं पुन: जिनेन्द्र की भक्ति से राग-द्वेष समाप्त होकर आरोग्य, बोधि और समाधि लाभ होता है।१२ स्तुति, प्रार्थना, वंदना, उपासना, पूजा, आराधना, सेवा, श्रद्धा आदि सभी भक्ति के ही अनेक रूप हैं। मरणककण्डिका में लिखा है–
अकेली जिन भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है और मोक्ष प्राप्ति होने तक इन्द्र पद, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती पद और तीर्थज्र्र पद आदि सारभूत अभ्युदय सुख-परम्परा को देने वाली है।
जैसे विधि का अर्थात् धन्य उत्पन्न करने के सम्पूर्ण कार्यों का आश्रय कर जमीन में बीज बोने के अनन्तर जल वृष्टि होने के फल की निष्पत्ति होती है वैसे ही अर्हतादि पूज्य पुरुषों की भक्ति करने से ही दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र रूपी फल उत्पन्न होते हैं। पद्मनन्दि – पञ्चविशंतिका में लिखा है –
प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये । ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ।।
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां धिक् च गृहाश्रयम् ।।६/१४,१५
जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान का दर्शन, पूजन और स्तुति किया करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन ओर स्तुति के योग्य बन जाते हैं। जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं और न स्तुति ही करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहाश्रम को धिक्कार है।
भक्ति से परिपूर्ण हदयशील स्तोत्रकार यहां तक कह देता है कि चित्त की शुद्धि प्रभु भक्ति से ही होती है। पुराणों की मान्यता है कि गंगा नदी हिमालय पर्वत से प्रकट हुई और समुद्र पर्यन्त लम्बी है, इसमें स्नान करने वाला पापरहित हो शुद्ध हो जाता है। इसी बात को लक्ष्यकर स्त्रोत में कहते हैं कि प्रभु के अनेकान्त नय को देखकर मेरी भक्ति उत्पन्न हुई है और यह भक्ति तब तक रहेगी जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो जाए तथा यह भक्ति हमेशा प्रभु के चरण कमलों में रहती है। हम भक्ति के उद्देश्यों को निम्न शीर्षकों में वर्णन कर सकते हैं :- ==१. तद्गुणप्राप्ति :– == उपासक अपने उपास्य की भक्ति करता है, उनका गुणों का संस्तवन करता है, उसके पीछे केवल उनकी कृपा प्राप्त करना नहीं, अपितु उन जैसा बनने की भावना सम्मिलित रहती है। उसके हृदय में यह अन्तर्निहिन रहता है कि वह साधना के द्वारा वैसे गुणों का जो उसके आराध्य में है, पात्र बने। भक्ति एवं स्तवन के साथ वहां आत्म-प्रेरणा का भाव अनुस्यूत रहता है तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है–
यहाँ भक्त कहता है– मैं मोक्ष मार्ग के नेता, कर्म रूपी पर्वतों के भेत्ता और विश्व तत्त्वों के ज्ञाता को उसके गुणों की प्राप्ति के लिए वन्दन करता हूँ। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रभु में विद्यामान गुणों को अपने में उद्भूत करने के उद्देश्य से उपासक, गुणवान् उपास्य की उपासना करता है।
२. शान्ति-प्राप्ति :– जगत का प्रत्येक प्राणी जन्म, जरा एवं मरण के दु;खों से पीड़ित है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों से ग्रस्त होने से अशान्त है। भव्य जीव संसार के इन जन्ममरणादि कष्टों से मुक्त होकर रागादि विकारों का नाश करके आत्मशान्ति प्राप्त करना चाहता है। जिस मन रूपी मन्दिर में ज्योतिस्वरूप प्रभु विराजमान हैं, प्रकाशमान हैं, उस मन्दिर में विकार रूपी अन्धकार को कोई अवकाश नहीं रहता। अत: स्तुतिकार स्तोत्रों की रचना कर प्रभु से आत्मशान्ति की कामना करते हैं। इस दृष्टों से ‘स्वयम्भूस्तोत्र’ का निम्न श्लोक दृष्टव्य है–
भूयाद् भवक्लेशभयोपशान्त्यै शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य: ।।
जिन शान्तिनाथ भगवान ने अपने दोषों की शान्ति करके आत्मशान्ति को प्राप्त किया है और जो शरणागतों के लिए शान्ति के विधाता हैं, वे भगवान् शान्ति जिन मेरे शरण हैं। ऐसे ही श्री शान्ति जिन मेरे भवभ्रमण के क्लेशों की और भयों की अपशान्ति के लिए निमित्त बनें।
पाप-क्षय :– वीतरागदेव के अनन्त ज्ञानादि पवित्र गुणों का स्मरण चित्त (आत्मस्वरूप) को पाप मलों से पवित्र करता। इसलिए स्तुतिकार पापमुक्ति के उद्देश्य से भी स्तोत्र-रचना करते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने ‘स्तुतिविद्या’ के प्रारम्भ में स्पष्ट रूप से कहा है स्तुति रूप विद्या की सिद्धि में भली प्रकार संलग्न होने से शुभ परिणामों द्वारा पापों पर विजय प्राप्त होती है और उसी का फल कामस्थान मोक्ष की प्राप्ति है। इसलिए मैं जिनेन्द्र देव के पद सामीप्य को प्राप्त करके, पापों को जीतने के लिए – मोहादिक पाप कर्मों अथवा हिंसादिक दुष्कृतों पर विजय प्राप्त करने के लिए स्तुति विद्या की प्रसाधना करता हूँ। श्री अर जिन स्तवन में लिखा है – ‘गुणकृशमपि किञ्चनोदितं मम भवताद् दुरितासनोदितम्’ जिनेश्वर के विषय में जो अल्प गुणों का कीर्तन किया गया है, वह पाप कर्मों के विनाश में समर्थ होवे। मानतुङ्गाचार्य ने लिखा है –
अर्थात् मानव हृदय में श्री जिनेन्द्रदेव के गुणों का प्रकाश होते ही देहधारी प्राणियों के जन्म जन्मान्तरों से उपार्जित एवं बद्ध पाप कर्म तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
मुक्ति-प्राप्ति :–जैन दर्शन के अनुसार जीवन का चरम एवं परम लक्ष्य है मोक्ष।
मोक्ष का अर्थ है –अष्टविध कर्मों से विमुक्त होकर शुद्ध चैतन्य स्वरूप परमात्म पद को प्राप्त करना। संसारी जीव निरन्तर मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के द्वार से पापास्रव करके कर्म-बन्धन में बंधता रहता है। परिणाम स्वरूप जन्म-जन्मातरों तक चतुर्गतियों में परिभ्रमण करता रहता है। इस अनन्तानन्त संसार की भव-परम्परा को काटने का सबसे सरल एवं सुगम साधन भगवद्-भक्ति है। इसलिए जैन स्तोत्रकारों ने स्तोत्र रचना का प्रमुख उद्देश्य मुक्ति प्राप्त माना है। आचार्य समन्तभद्र लिखते है कि इस संसार में स्तोता को माक्ष पथ सुलभ है, स्तोता के अधीन है, अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की श्रद्धापूर्वक स्तुति करके स्तोता सम्यग्दर्शनादि रूप मोक्ष मार्ग को प्राप्त करता है और परम्पराया मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है तब ऐसा कौन विवेकी पुरुष है जो श्री नमि जिन की स्तुति न करें।
सद्यो भुजंगम-मया इव मध्य-भाग- मम्यागते वन शिखनण्डि निचन्दनस्य ।।
अर्थात् हे प्रभो! आप अब प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं तब उनके सघन कर्मों के बन्धन क्षण भर में ढीले हो जाते हैं। जैसे वन में मयूर के आने पर चन्दन वृक्ष के मध्य भाग में लिपटे हुए भयंकर सर्प तत्काल ढ़ीले पड़ जाते हैं।
सन्दर्भ :
१. रुचं बिभर्ति ना धीरं नाथामि स्पष्टवेदन:। वचस्ते भजनात्सांर यथाय: स्पर्शवेदिन: ।। आचार्य समन्तभद्र -स्तुति विद्या ६०
२. सवार्थसिद्धि में ६/२४ का भाष्य
३. उपासकाध्ययन २०२
४. संवेओ निव्वेओ णिंदण गरहा य उवसमो भत्ती। वच्छलं अणुकम्पा अटठगुण हुंति सम्मत्ते ।। लाटी संहिता में उद्धृत २/१८