जैन धर्म में प्रतिपादित षट्आवश्यकों की प्रासंगिकता
भूमिका
जैनधर्म को निवृत्ति प्रधान कहकर तथा वेदों को अपौरूषेय एवं ईश्वर को सृष्टिकर्ता न मानने के कारण नास्तिक की संज्ञा दी जाती रही है तथापि आगे के विवेचन से हम देखेंगे कि जैनधर्म में देव, शास्त्र और गुरु की उपासना भक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है और उन्हें श्रावक के दैनिक षट्कर्मों के अन्तर्गत प्रतिपादित किया है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि जैनधर्म में समय और तप पर जितना बल दिया गया, उतना ही बल देवपूजा, गुरू की उपासना, स्वाध्याय और दान पर भी दिया गया है। इतना ही नहीं आगे चलकर श्रावक की आचार संहिता में व्रतों के अन्तर्गत इन्हें कुशलतापूर्वक समाहित कर दिया गया है। भगवान महावीर ने गृहस्थों और साधुओं के लिये भिन्न—भिन्न आचार संहिता का प्रतिपादन किया है। महावीर द्वारा प्रतिपादित आचार संहिता संपूर्ण जीवन का आधार एवं चारित्र निर्माण में अति महत्त्वपूर्ण अंग है। मनुष्य की सहज दुर्बलताओं के प्रति सजग व जानकार होने के कारण उन्हें पता था कि त्याग के मार्ग को अपना पाना सभी के लिये सहज नहीं है। अत: उन्होंने उपदेश दिया ‘दुविहे धम्मे। आगार धम्मे अणगार धम्मे’ अर्थात् धर्म के दो प्रकार हैं। एक गृहस्थ धर्म और दूसरा मुनिधर्म। इसीलिये भगवान महावीर ने साधुओं तथा गृहस्थों के लिये दो अलग—अलग आचार संहिताएँ बनाई व उपदेशित की तथा दोनों को ही उन्होंने धर्म की संज्ञा दी। भगवान महावीर के साक्षात उपदेश पर आधारित जैनाचार का मूलप्राण षट्आवश्यक है। जीवन शुद्धि और दोष परिमार्जन के लिये, गुणों की अभिवृद्धि के लिये षट्आवश्यक का प्रतिपादन किया गया है। ये षट्आवश्यक मुनि तथा गृहस्थों के दोनों के धर्म हैं। मुनियों के २८ मूलगुण में छह आवश्यक हैं तथा गृहस्थ के भी छह आवश्यक हैं।
आवश्यक का स्वरूप
जो वश में नहीं है (इन्द्रियों के आधीन नहीं है) वह अवश है, अवश के कार्य आवश्यक हैं। ऐसे आवश्यक छह ही हैं। गृहस्थ के छह आवश्यक—
देवपूजा—वीतरागी देव की अष्ट द्रव्य से जो क्रिया है वह पूजन है। गुरु उपासना—साधु, मुनियों की नवधा भक्ति, उन्हें शुद्ध आहार देना, वसतिका आदि की व्यवस्था करना यह गुरु उपासना है। स्वाध्याय—जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये शास्त्रों का अध्ययन मनन करना स्वाध्याय है। संयम—षट्काय के जीवों के घात के भावों के त्याग को प्राणीसंयम और पंचेन्द्रियों तथा मन के विषयों के त्याग को इन्द्रिय संयम कहते हैं। तप—इच्छा निरोधस्तप: इच्छाओं के रोकने को तप कहते हैं। दान—उपकार के हेतु से धन आदि अपनी वस्तु को देना सो दान है। दूसरे का उपकार हो इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है।
प्रासंगिकता
देवपूजा—आराधना करने से हमारे जीवन का अमूल्य समय धर्ममार्ग में लगाने से समय का सदुपयोग होगा। अन्य संसार के बुरे कार्यों में हमारा उपयोग नहीं लगता है। अष्ट द्रव्य के उपयोग से स्तवन में एकाग्रता बढ़ती है। हम जिसे कहते हैं कि परिणामों में निर्मलता आती है अर्थात् स्वभाव में सरलता का संचार होता है। प्रभु की महानता ख्याल में आते ही बड़ों के प्रति आदर सम्मान की प्रमुखता बढ़ती है। जीवन में शांति आती है। गुरू स्तवन—गुरु का जीवन तथा गुरु की चर्या देख कर हमारे अंदर भी एक सरल जीवन जीने की इच्छा जागृत होती है। भाग दौड़ भरी जिन्दगी की अपेक्षा जीवन सरलता पसंद करने लगता है। गुरु की आहारचर्या को देख शुद्धता का ख्याल आता है। साथ ही शुद्ध आहार की क्रिया से अनेक प्रकार के सांसारिक रोगों से हमारा बचाव होता है। जहाँ व्यक्ति प्रतिसमय जोड़ना—जोड़ना इकट्ठा करने के प्रति अग्रसर हो रहा है। सीधा कहे परिग्रह की आरे अपना मुख मोड़ रहा है। गुरु की निस्पृह वृत्ति को देख अपरिग्रह गुण देख हमारा मन भी यही चाहता है कि इन सब जगजाल प्रपंचों से बचा जाए। स्वाध्याय—जहाँ व्यक्ति पराध्ययन की ओर अग्रसर है। पर अध्ययन का मतलब दूसरों की ओर अपने ज्ञान को मोड़ना है। जहाँ स्वाध्याय की ओर अग्रसर होता है। स्व अध्ययन में रुचि बढ़ने से स्व के प्रति िंचतवन प्रारंभ हो जाता है। अध्ययन किसी प्रकार का हो सकता है। पर जहाँ स्व के प्रति अध्ययन हो वहाँ अपने के प्रति रुचि होने से अपने को सचेत करने का मौका मिलता है। संयम—संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करने से व्यक्ति के जीवन में दिखाई देने वाला असंतोष, अनर्गल प्रवृत्तियाँ इन सभी पर नियंत्रण होगा तथा देश में व्याप्त महंगाई, भ्रष्टाचार, जनसंख्या वृद्धि आदि का भी संयम से नियंत्रण किया जा सकता है। तप—तप से मनुष्य दृढ़ तथा आत्मविश्वास से पूर्ण पवित्र आचरण की दिशा में प्रेरित होकर अंतरंग चारित्र का निर्माण कर सकता है और आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। दान—दान परोपकार की भावना से दिया जाता है। दान से वर्तमान में कई विद्यालय, भोजनालय, औषधालय, मंदिर, धर्मशालाएँ जो समाज व देश का अंग हैं, इन सभी का दान से ही निर्वहन होता है। दान देय मन हरष विशेखे, इह भव जस परभव सुख देखे। निष्कर्ष—अत: निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि षट् आवश्यकों से मानव के ऐहिक मूल्यों एकता, अहिंसा, समभाव, नम्रता, संयम, शांति, प्रकृति सद्गुणों का निरूपण हुआ है, जिसका अनुगमन कर मानव अपने समस्त द्वन्दों, विषमताओं,हिंसाओं, तनावों से निवृत्ति पा सकता है और अपने जीवन में सुख शान्ति को प्रतिष्ठित कर सकता है। साथ ही साथ परिवार, समाज तथा राष्ट्र में राग—द्वेष द्वारा समुत्पन्न स्वार्थपरता, विषमता, संघर्ष,हिंसा आदि को विनष्ट कर एकता, समता, अहिंसा, प्रकृति, सद्गुणों को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इन जीवन मूल्यों को अपनाकर परिवार, समाज व राष्ट्र सुन्दर स्वस्थ समृद्ध एवं आदर्श स्वरूप को प्राप्त हो सकता है। षट् आवश्यक में ऐहिक मूल्यों के साथ साथ आध्यात्मिक मूल्यों की भी स्थापना हुई है। जिससे साधक साध्यावस्था को प्राप्त होता है। वर्तमान में मानव भौतिकता की आँधी में बहिर्मुखी बनकर उन जीवन मूल्यों का परित्याग कर रहा है जिससे वह सुख, समृद्धि शांति विनयशीलता आदि गुणों को प्राप्त करता है। मानव बहिर्मुखी बनकर विषमता,हिंसा, संघर्ष, स्वार्थ, अन्याय इत्यादि को अपना रहा है जिससे वह स्वयं अशानत व व्यथित है। परिवार, समाज व राष्ट्र परेशान है, िंचतित है, यह प्रगति नहीं है। प्रत्युत प्रगति के नाम पर विकसित होने वाला भ्रम है। समस्त परिस्थितियों का मूल राग—द्वेष है। अत: इन सब परिस्थितियों के परिहार के लिये जैनधर्म में प्रतिपादित षट्आवश्यक सभी परिस्थितियों में सभी कालों में पूर्णत: प्रासंगिक हैं।