पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमति माताजी ने कतिपय विद्वानों एवं श्रद्धालु भक्तों के विशेष आग्रह पर अपने संघर्षशील जीवन पर आधारित आत्मकथा के रूप में ‘‘मेरी स्मुतियां’’ नामक ग्रंथ लिखकर दिगम्बर जैन चतुर्विध संघ परम्परा का एक जीवन्त दस्तावेज प्रस्तुत किया है। इसे पढ़ने वाले पाठक एक रोमांचक उपन्यास की भांति दिन-रात एक करके इसमें पूर्ण तल्लीन हो जाते हैं और जीवन निर्माण की नई दिशा प्राप्त कर पुन: पुन: इसे पढ़ने की भावना करते हैं। गंधोदक कहां लगाना चाहिए इस बारे में इस पुस्तक में से उद्धृत निम्न संस्मरण पठनीय है- गंधोदक मस्तक पर चढ़ाने का प्रमाण- एक दिन पं. खूबचन्द जी ने किसी साधु को पड़गाहन कर नवधा भक्ति करते समय गंधोदक मस्तक पर नहीं लगाया प्रत्युत उसका वंदन कर लिया। इस पर आचार्य श्री के पास चर्चा चली। पंडित जी ने कहा- महाराज जी गंधोदक लेने का श्लोक तो यही है कि –
इसमें जिन गंधोदक को वंदन करने के लिए कहा है न कि मस्तक पर लगाने के लिए। इसी बीच मैं भी (गणनी ज्ञानमती माताजी) आहार करके आ गई थी। उस समय वहीं बैठी थी। मैने पद्मनंदिपंचविंशतिका में जो प्रकरण पढ़ा था सो उन्हें दिखा दिया जो कि इस प्रकार है-
‘‘किं ते गृहा: किमिह ते गृहिणो नु येषामन्तर्मनस्सु मुनयो न हि संचरन्ति ।
अर्थात् जिन मुनियों के चरण कमल के जल के स्पर्श से जिन घरों की भूमि पवित्र हो जाती है तथा जिन गहस्थों के मस्तक भी पवित्र हो जाते हैं उन उत्तम मुनियों का जिन घरों में संचार नहीं है तथा जिन गृहस्थों के मन में भी जिन मुनियों का प्रवेश नहीं है वे घर तथा गृहस्थ दोनों ही बिना प्रयोजन के हैं इसलिए गृहस्थों को उत्तम आदि पात्रों को अवश्य दान देना चाहिए जिससे मुनियों के आगमन से उनके घर पवित्र बने रहें तथा उनका गृहस्थपना भी कार्यकारी गिना जाये। यह देखकर सभी प्रभावित हुए और बाद में सभी मुनि आर्यिकाओं के चरण प्रक्षालन के बाद गंधोदक लेकर बड़े आदर से नेत्रों में और मस्तक पर लगाने लगे। गंधोदक कहां लगाना ? यह एक अत्यन्त विवेकपूर्ण प्रश्न है। क्योंकि आजकल तो लोग गन्धोदक को सारे शरीर पर तेल-मालिश की तरह प्रयोग करने लगे हैं जबकि यह इसकी स्पष्टत: अविनय है। चर्मरोग से ग्रसित लोग समस्त शरीरा में ऊध्र्व भाग में और अधोभाग में गंधोदक लगाते हुए देखे जाते हैं। आचार्यों ने गन्धोदक लगाने के लिए शरीर के तीन ही स्थान निर्धारित किये हैं- १. मस्तक, २. ललाट और ३. नेत्र युगल। इसके बारे में स्पष्टत: निर्देश करते हुए आचार्य वासुपूज्य लिखते हैं-
तेषां स्पर्शनतस्त एव सकला: पूता: अभोगोचितम् । भाले नेत्रयुगे च मूध्र्नि तथा सवैर्पानैर्धार्यताम् ।।’’
दान शासन, ८४, पृष्ठ ५८
अर्थात् भगवान के चरणों में चढ़ाया हुआ जल अरिहन्त भगवान के पावन चरणों के स्पर्श से पवित्र हो जाता है अतएव वह देवेन्द्रादि के द्वारा ललाट, मस्तक तथा नेत्रों में धारण करने योग्य है। इसके स्पर्शमात्र से ही पूर्व में अनेकों जन पवित्र हो चुके हैं इसलिये इस गन्धोदक को भव्य जीव सदैव ललाट, नेत्र युगल तथा मस्तक पर सदाकाल भक्तिपूर्वक धारण करें। ये इन स्थानों में गन्धोदक को लगाने का सुफल बताते हुए लिखते हैं-
अर्थात् मोक्षस्थान को प्राप्त अरिहन्तों के चरणों में अर्पित जल (गन्धोदक) को ललाट में इसलिये लगाया जाता है ताकि सिद्धालय में हमारा शीघ्र गमन हो। दोनों नेत्र युगल (के ऊपरी भाग) में लगाने का प्रयोजन सम्यग्दर्शन की विशुद्धि की कामना है तथा मस्तक पर लगाने का उद्देश्य निर्मल सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा है। इस प्रकार आत्म तत्व की सिद्धि एवं रत्नत्रय की प्राप्ति की भावना से उपर्युक्त तीनों स्थानों में गंधोदक लगाना चाहिये। गंधोदक लगाने की विधि– गंधोदक को संस्पर्श करने के पूर्व अंगुलियों को शुद्ध प्रासुक जल से धो लेना चाहिए तथा फिर गंधोदक को स्पर्श कर अपने शरीर के उपर्युक्त तीनों अंगों पर लगाना चाहिए। तदुपरान्त पुन: शुद्ध प्रासुक जल से अंगुलियां धो लेनी चाहिए। साथ ही यह पद्य भी बोला जा सकता है-
अर्थात् मैने जिनेन्द्र देव के गंधोदक की अपने नेत्रों एवं ललाट पर वंदना की, जिसके फलस्वरूप मेरे चिर संचित पाप क्षण भर में दूर हो गये हैं। हे जिनेन्द्र देव ! आपके चरण कमल के संस्पर्श से पावन गंधोदक संसार रूपी ताप को हरण करने वाला जानकर मैंने आदर से धारण किया है। आपके सुकृत रूपी जल से सिक्त होकर मेरे ये दोनों नेत्र सफल हो गये एवं मेरा मनुष्य जन्म ज्ञानीजनों के लिए गिनती योग्य हो गया। मेरे द्वारा अपने मस्तक पर आपका चरणोदक धारण करने से शुभ कर्मों का आगमन हुआ तथा सत्पुण्य रूपी पुंज आपकी पूजन विधि से मुझे प्राप्त हुआ। गंधोदक शब्द का सामान्यत: अर्थ होता है सुगन्धित जल किन्तु जैन-परम्परा में यह शब्द एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है जिसके अनुसार इसके सामान्य अर्थ का अभिप्राय सुरक्षित रखते हुए भी उसमें विशेष अर्थ गौरव किया गया है तथा भगवान के अभिषके के पावन एवं सुगन्धित जल के रूप में इसे जाना जाता है। इसके भी दो अलग-अलग सन्दर्भ हैं एक तो बाल तीर्थंकर के जन्माभिषेक के जल को भी गन्धोदक कहा गया है और दूसरे सन्दर्भ में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा की दैनिक शुद्धि या प्रक्षालन के लिये जो जल प्रयोग होता है जिनेन्द्र प्रतिमा के संस्पर्श से पावन हुए उस जल को भी गन्धोदक संज्ञा प्रयुक्त हुई है। यहां एक जिज्ञासा संभव है कि तीर्थंकर के समवशरण-निर्माण एवं विहार आदि के अवसरों पर देवगण जिस गन्धोदक की वृष्टि करते हैं तथा जिसे तीर्थंकरों के अतिशयों में परिगणित किया गया है वह गन्धोदक उपर्युक्त दोनों सन्दर्भों में से कौन-सा होता है ? इसका समाधान यह है कि वह इन दोनों से भिन्न सामान्य अर्थ वाला दिव्य सुगंधित जल ही होता है क्योंकि जिनेन्द्र परमात्मा के अभिषेक के गंधोदक को इतस्तत: बिखरने के रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है। जबकि तीर्थंकर के अतिशयों में परिगणित गंधोदक की वृष्टि तो देवगण पर्यावरण-शुद्धि की दृष्टि से करते हैं। कहा भी गया है ‘‘गन्धोद बिन्दु-शुभमन्दमरूत्प्रपाता: ……।’’ जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक या प्रक्षाल से निर्मित गन्धोदक की महिमा जैन वांगमय में व्यापक रूप से पायी गई है। अंत में हम श्रद्धालु भक्तों से यही निवेदन करना चाहेंगे कि गन्धोदक को लगाते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसकी अविनय नहीं हो तथा इसे सदैव ललाट, नेत्रयुगल तथा मस्तक पर सदाकाल भक्ति पूर्वक धारण करना चाहिए।