श्री रामचन्द्र अपने समय में एक ऐसे महापुरुष हुये हैं कि उन जैसे आदर्श जीवन का उदाहरण अन्य दूसरा भारतीय इतिहास में ढू़ंढे भी नहीं मिलता है। उनका संपूर्ण जीवन पद-पद पर अनेक संघर्ष से परिपूर्ण रहा है और उन सभी संघर्षों में वे महामना विजयी हुये हैं मर्यादा की रक्षा में तो इन्होंने अद्भुत ही कार्य किया है, यही कारण है कि भारतीय जैन-अजैन सभी इन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। केकयी के द्वारा भरत के राज्य का वचन लेने पर पिता के सत्य की रक्षा के लिये इन्होंने वन-वन में भटकना मंजूर किया किन्तु राज्य की इच्छा नहीं की। अनंतर वापस आने पर भी भरत को दीक्षा के ग्रहण से रोकने में कोई कमी नहीं रखी। प्रजा में उच्छृंखलता न फैले इसलिये सीता के निर्वासन के समय वे कितने निर्मोही बने, यही थी उनकी मर्यादा की सुरक्षा।
वनवास के प्रसंग में इन्होंने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये हैं जिससे इनके गौरवपूर्ण जीवन का कण- कण चमक उठता है। जैन रामायण में एक घटना बहुत ही सुंदर है-
राम, लक्ष्मण और सीता दशांगनगर से निकल कर आगे बढ़ते हुये एक मनोहर बगीचे में पहुंचते हैं वहाँ पर श्री रामचन्द्र और सीता एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं। लक्ष्मण जल लेने के लिये समीपवर्ती सरोवर पर पहुँचते हैं। उस समय उस सरोवर में क्रीड़ा करने के लिये वहीं पास के नगर के स्वामी कल्याणमाल नाम का राजकुमार आया हुआ है। वह नीलकमल के समान आभा वाले लक्ष्मण कुमार को देखकर मंत्रमुग्ध हुआ उन्हें देखता ही रह जाता है। अनंतर वह अपने सेवक से कहता है कि जाओ, इन्हें यहाँ बुला लाओ। चतुर मनुष्य लक्ष्मण के निकट पहूँचकर हाथ जोड़कर प्रणाम करता है और निवेदन करता है-
‘‘हे स्वामिन् ! निकट के तंबू में यहाँ के राजकुमार हैं वे प्रसन्नता से आपसे मिलना चाहते हैं।’’
लक्ष्मण उसकी बात स्वीकार कर वहाँ पहुंचते हैं। उस समय राजकुमार कल्याणमाल हाथी से उतरकर सन्मुख आकर उनका स्वागत करता है और वस्त्र निर्मित तंबू में उन्हें ले जाता है। अत्यंत विश्वस्त हो पूछता है-
‘‘हे सखे ! आप कौन हैं ? और कहां से आये हैं ?’’
‘‘मेरे वियोग से मेरे बड़े भाई दु:खी होंगे अत: पहले मैं उनके लिये भोजन लेकर जाता हूं, अनंतर मैं तुम्हें सब समाचार बताऊँगा ।’’
तब वह कल्याणमाल अपने सेवकों से स्नान की सामग्री, वस्त्र आदि और उत्तम-उत्तम भोजन की सामग्री अपने घर से वहीं मंगवा लेता है पुन: शीघ्रगामी मनुष्यों को राम के पास भेज देता है वे लोग वहाँ पहुंचकर निवेदन करते हैं-
‘‘हे देव ! पास के तंबू में आपके भाई बैठे हुये हैं वहीं पर यहाँ के राजकुमार भी हैं कृपाकर आप इतना सा मार्ग और तय करके उस स्थान को पवित्र कीजिये ।’’
रामचन्द्र सीता के साथ वहाँ पहुंचते हैं। लक्ष्मण और राजकुमार भी उठकर सामने आकर उनका स्वागत कर उन्हें अंदर लाकर उच्च आसन पर बिठाकर अर्घदान आदि से उनका सन्मान करता है। पुन: स्नान आदि के लिये प्रार्थना करता है। उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ये तीनों स्नान करके भोजन करते हैं।
कुछ देर विश्रांति के बाद राजकुमार इन तीन के सिवाय अन्य सभी लोगों को बाहर करके दरवाजे पर सशस्त्र योद्धाओं को बिठाकर यह आदेश दे देता है कि मेरी आज्ञा के बगैर जो अंदर आएगा वह मेरे द्वारा वध्य होगा । पुन: वह रामचन्द्र से कहता है कि मैं कुछ कार्यवश अन्दर जाता हूँ अभी आऊंगा। अंदर जाकर कुछ देर बाद वह बीच के पर्दे को खोल देता है। पर्दा खुलते ही ऐसा लगता है कि वहाँ पर मानो कोई देवकन्या ही अकस्मात् नीचे आकर पड़ी है, वह कन्या सुंदर वेषभूषा से सुसज्जित हुई लज्जा से अपना मुख नीचे करके रामचन्द्र और लक्ष्मण को प्रणाम कर सीता के पास आकर बैठ जाती है। ये तीनो आश्चर्यचकित हो देखते हैं, पुन: रामचन्द्र पूछते हैं-
‘‘ हे कन्ये ! विविध वेष को धारण करने वाली तू कौन है ? जो इस तरह क्रीड़ा करती है ?’’
‘‘हे देव! मेरा वृत्तांत सुनिये । इस नगर का स्वामी ‘‘बालिखिल्य’’ इस नाम से प्रसिद्ध है। वह सात्विक प्रकृति का धारक परम धर्मात्मा है। उस की रानी का नाम पृथिवी है। जिस समय वह गर्भवती हुई उस समय म्लेच्छों के द्वारा उपद्रव होने पर बालिखिल्य राजा ने उन म्लेच्छों के साथ युद्ध किया विंâतु म्लेच्छ राजा ने उसे पकड़कर अपने यहाँ बंदीगृह में डाल दिया। राजा सिंहोदर भी उन म्लेच्छों से बालिखिल्य को छुड़ा नहीं सके तब उन्होंने यह कहा कि रानी पृथ्वीमती के गर्भ से यदि पुत्र का जन्म होगा तो वह इस नगर का राजा होगा ।
तदनंतर दुर्र्भाग्य से मैं पुत्री हो गई तब मंत्री ने माता को समझाकर सर्वत्र पुत्रजन्म की सूचना दी और मंगलसूचक मेरा नाम ‘‘कल्याणमाल’’ रखा। अब तक मंत्री और माता के सिवाय किसी को भी नहीं मालूम है कि मैं पुत्री हूँ, युवावस्था से राज्य व्यवस्था मैंने संभाली है। आज पुण्योदय से आप लोगों के दर्शन हुये हैं। मेरे पिताजी म्लेच्छों के यहाँ बंदीगृह में दु:ख भोग रहे हैं। इस कारण मेरी माता सदा ही शोक से संतप्त रहती हैं। रो-रोकर वह अपने नेत्रों को तो सुजा लेती हैं विंâतु शरीर उसका बिल्कुल सूखता चला जा रहा है। इस देश में जो कुछ भी धन उत्पन्न होता है वह सब म्लेच्छ राजा को देना पड़ता है।
नाथ! अब मैं माता-पिता के इन दु:खों को देखने में समर्थ नहीं हूँ ।
इतना कहकर वह कन्या सिसक-सिसक कर रोने लगती है। तब रामचन्द्र मधुर शब्दों से उसे सान्त्वना देते हुये कहते हैं-
हे शुभे! हे कल्याणमाले ! तुम चिंता छोड़ो, शोक मत करो, अब शीघ्र ही अपने पिता को छूटा हुआ समझो। अभी तुम इसी वेष से राज्य करो, धैर्य धारण कर समय की प्रतीक्षा करो, इन म्लेच्छों को जीतना मेरे लिये कौन सी बड़ी बात है ?’’
सीता ने भी उसे अपनी गोद में बिठाकर सान्त्वना दी और अश्रु पछकर उसका मुख धुलवाया। तदनंतर उस मनोहर वन में अनेक प्रकार से वार्तालाप करते हुये वे सब लोग तीन दिन तक वहीं ठहरे, पुन: अर्धरात्रि में जब राजकुमार गहरी नींद में सो रहा था, तब ये तीनों लोग चुपचाप उठकर तंबू से बाहर निकलकर आगे के लिये प्रस्थान कर देते हैं।
नर्मदा नदी को पार कर अनेक देशों में विचरण करते हुये ये लोग विंध्याचल की महाअटवी में पहुंचते हैं। आगे मार्ग सेना के संचार से खुदा हुआ दिख रहा है इसलिये कुछ गोपाल और हलवाहक लोग सन्मुख आकर नमस्कार कर निवेदन करते हैं-
‘‘हे देव! इस मार्ग से आगे मत जाओ’’।
किन्तु ये लोग रुकते नहीं हैं। कुछ आगे बढ़ने पर सीता कहती हैं-‘‘हे देव! देखो, कनेरवन के बीच में बाई ओर कंटीले वृक्ष की चोटी पर बैठा हुआ कौवा बार-बार क्रुर शब्द कर रहा है सो शीघ्र ही कलह होने वाली है,’’ ऐसी सूचना कर रहा है और इधर क्षीरवृक्ष पर बैठा हुआ दूसरा कौवा ‘‘हम लोगों की विजय होगी’’ यह सूचित कर रहा है इसलिये आप लोग मुहूर्तमात्र प्रतीक्षा कर लें क्योंकि कलहानंतर जय प्राप्त करना भी मेरे मन में बहुत अच्छा नहीं जंचता है।’’
इतना सुनकर कुछ क्षण विलंब कर वे लोग पुन: आगे बढ़ते हैं, कुछ दूर चलते ही पुन: वैसे ही निमित्त दिखते हैं। यद्यपि सीता पुन: आगे बढ़ने से रोकना चाहती है और कुछ निवेदन करती है किन्तु ये लोग सुना अनसुना कर आगे बढ़ते ही चले जाते हैं। कुछ दूरी पर उन्हें म्लेच्छों की सेना मिलती है, सो उत्तम धनुष के धारक तथा निर्भय राम-लक्ष्मण को आते देख सेना भयभीत हो क्षण भर में भाग जाती है। ऐसा समाचार सुनकर अन्य म्लेच्छ लोग सामने आते हैं विंâतु लक्ष्मण लीलामात्र मेें उन्हें पराजित कर देते हैं। तब ये सभी म्लेच्छ अपने स्वामी के पास पहुंचकर निवेदन करते हैं। अतीव क्रोध और धनुष को धारण करता हुआ म्लेच्छ राजा काले-काले म्लेच्छों की बहुत भारी सेना लेकर युद्धभूमि में आ जाता है। यह म्लेच्छपति ‘‘काकोनद’’ इस नाम से प्रसिद्ध है। ये सभी म्लेच्छ जंंतुओं का मांस खाने वाले हैं, अत्यंत व्रूâर हैं और दुर्जेय हैं।
लक्ष्मण सामने से आती हुई सेना को देखकर कुपित हो धनुष की डोरी चढ़ा लेते हैं और ऐसी टंकार लगाते हैं कि सारा वन कांप उठता है।
लक्ष्मण को डोरी पर बाण चढ़ाते देख सभी म्लेच्छ चक्कर खाने लगते हैं। म्लेच्छों का राजा कोकनद अत्यंत भयभीत हुआ रथ से उतर कर हाथ जोड़ कर इनके पास आता है और प्रणाम करके विनयपूर्वक निवेदन करता है-
‘‘हे स्वामिन् ! कौशाम्बी नगरी में विश्रानल नाम के पवित्र आचरण वाले ब्राह्मण मेरे पिता है और प्रतिसंध्या मेरी माता का नाम है। मैं रौद्रभूति नाम से प्रसिद्ध था, शस्त्र तथा जुए की कला में पारंगत था, मैं बाल्यकाल से ही निरंतर खोटे कार्य करने में निपुण था। किसी समय चोरी के अपराध में पकड़ा गया और मुझे शूली पर चढ़ाने का हुक्म हो गया। प्राणदण्ड सुनते ही मैं कांप उठा तब एक विश्वस्त धनिक ने जमानत देकर मुझे छुड़वा लिया। पुन: मैं देश छोड़कर यहाँ आ गया। कर्मों के प्रभाव से इन म्लेच्छों का राजा बन गया हूँ और भव काकोनद मेरा नाम प्रसिद्ध हो गया है, मैं सदाचार से भ्रष्ट हो पशुओं के समान यहाँ रहता हूँ । इतने समय तक बड़ी-बड़ी सेनाओं से युक्त राजा भी मेरे सन्मुख खड़े रहने में समर्थ नहीं हो सके परंतु आपने मुझे दृष्टिमात्र से ही दीन कर दिया है। मैं धन्य हो गया हूं कि जो आज आप जैसे पुरुषोत्तम के दर्शन हुए हैं।
हे नाथ! आज्ञा दीजिये, क्या सेवा करूँ ? क्या मस्तक के पवित्र करने में योग्य ऐसी आपकी चरणपादुकाओं को शिर पर धारण करूँ ? यह विंध्याचल निधियों तथा उत्तमोत्तम स्त्री आदि समस्त वस्तुओं से परिपूर्ण है इसलिये हे देव! मुझसे किसी अच्छे भारी राजस्व की इच्छा प्रगट करो।’’
इतना कहकर प्रणाम करता हुआ वह म्लेच्छपति अतिविह्वल होकर कटे वृक्ष के सदृश श्रीराम के चरणों में गिर पड़ा। तब दयाद्र्रमना श्रीराम उससे बोलते हैं-
‘‘हे सुबुद्धि! उठ उठ, डर मत, राजा बालिखिल्य को बंधनरहित कर तथा उसे उत्तम सम्मान प्राप्त कराकर यहाँ ले आ। तू उसी का इष्ट मंत्री होकर सज्जनों की संगति कर और इन म्लेच्छों की संगति छोड़ इस देश का हितकारी बन। यदि तू यह सब काम ठीक-ठीक करता है तो उससे तुझे शांति प्राप्त होगी अन्यथा आज ही मारा जावेगा।’’श्रीराम के इन शब्दों को सुनकर वह पुन:-पुन: चरण स्पर्श करते हुये कहता है-
‘‘हे प्रभो! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है ऐसा ही करूँगा।’’
वह वहां से जाकर बालिखिल्य को बंदीगृह से निकालकर सेवकों को आज्ञा देता है ‘‘इन्हें शीघ्र ही तेल, उबटन आदि लगाकर स्नान कराओ और सुंदर वस्र पहनाकर भोजन कराओ।’’
उसकी आज्ञानुसार ऐसा ही होता है। पुन: बालिखिल्य को रथ पर बैठाकर वह रौद्रभूति ब्राह्मण (कोकनद म्लेच्छपति) श्रीराम के पास चल देता है। इस तरह आदर से ले जाया गया बालिखिल्य मन ही मल सोच रहा है कि-
‘‘पता नहीं, आज मुझ पर क्या आपत्ति आने वाली है ? कहां तो यह कुकर्मी, अत्यंत निर्दयी, महावैरी म्लेच्छ ? कहां इसके द्वारा आज मेरा ऐसा सम्मान ? मालूम पड़ता है कि आज प्राण नहीं बचेंगे।’’
इस प्रकार बालिखिल्य दीनचित्त होकर मन ही मन सोच रहा है। इसी बीच रथ वन में आ गया और उसे दूर से ही श्रीराम-लक्ष्मण दिखाई दिये, तब कहीं उसके जी में जी आया। उसने रथ से उतर कर श्रीराम-लक्ष्मण को नमस्कार किया और कहा-
‘‘हे नाथ! मेरे पुण्योदय से ही आप महानुभाव यहाँ पधारे हैं इसीलिये मैं आज बन्धनमुक्त हुआ हूं।’’
‘‘हे भद्र! अब तुम शीघ्र ही अपने घर जाओ और इष्टजनों से मिलो। वहाँ पहुंचने पर तुम हम लोगों को जान सकोगे ।’’
इतना सुनकर पुन:-पुन: उन राम-लक्ष्मण और सीता को नमस्कार कर वह बालिखिल्य अपने घर की ओर चला। उधर जब तंबू से श्रीराम आदि रात्रि में निकलकर चले गये थे तभी से वह कल्याणमाल खिन्नमना होकर उनके गुणों का चिंतन किया करता था। आज सहसा पिता को बंधनमुक्त हुआ सुनकर और रथ पर बैठकर आ रहे हैं, ऐसा समझकर उत्सव के साथ पिता के स्वागत के लिये निकला और सन्मुख पहुंचकर पिता को नमस्कार किया। पिता ने पुत्र कल्याणमाल को दोनों हाथों से उठाकर हृदय से लगा लिया, बार-बार आशीर्वाद देते हुये उसके मस्तक पर हाथ पेâरा और अपने रथ पर उसे बिठा लिया। रानी पृथ्वीमती पतिदेव के दर्शन कर हर्षातिरेक से रोमांचित हो गई। मंत्रीगण भी अतीव हर्ष को प्राप्त हुये । शहर में महान् उत्सव मनाया गया। यह रौद्रभूति ब्राह्मण राजा बालिखिल्य का निश्छल मित्र बन गया और श्रीराम की आज्ञानुसार उसे मंत्री पद का अधिकार प्राप्त हुआ । पुत्र कल्याणमाल अब असली वेष में रहते हुये कल्याणमाला के नाम से लोगों की प्रशंसा का विषय बन गया।
उस रौद्रभूति ने अब तक चोरी में तत्पर रहकर नाना देशों को लूटपाट कर जो विशाल धन इकट्ठा किया था वह सब बालिखिल्य राजा के कोष में दे दिया गया। अब वह म्लेच्छपति बालिखिल्य की आज्ञा में रहते हुये अपने को भाग्यशाली समझ रहा है।
जब सिंहोदर इन सारी बातों को सुनते हैं तब वे भी बालिखिल्य के साथ-साथ उस रौद्रभूति पर बहुत स्नेह प्रगट करते हैं। उधर श्रीरामचन्द्र कल्याणमाला के पिता का उद्धार कर कृतकृत्य होते हुये अन्यत्र चले जाते हैं।
उदारमना श्रीरामचन्द्र का परोपकार, मर्यादा की रक्षा, गंभीरता आदि गुण सर्वजन प्रसिद्ध हैं। वैसे ही लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति भी अलौकिक ही रही है। सीता के शील का माहात्म्य तो मनुष्यों तक ही नहीं देवों की श्रीराम के इन शब्दों को सुनकर वह पुन:-पुन: चरण स्पर्श करते हुये कहता है-
‘‘हे प्रभो! आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है ऐसा ही करूँगा।’’
वह वहां से जाकर बालिखिल्य को बंदीगृह से निकालकर सेवकों को आज्ञा देता है ‘‘इन्हें शीघ्र ही तेल, उबटन आदि लगाकर स्नान कराओ और सुंदर वस्र पहनाकर भोजन कराओ।’’
उसकी आज्ञानुसार ऐसा ही होता है। पुन: बालिखिल्य को रथ पर बैठाकर वह रौद्रभूति ब्राह्मण (कोकनद म्लेच्छपति) श्रीराम के पास चल देता है। इस तरह आदर से ले जाया गया बालिखिल्य मन ही मल सोच रहा है कि-
‘‘पता नहीं, आज मुझ पर क्या आपत्ति आने वाली है ? कहां तो यह कुकर्मी, अत्यंत निर्दयी, महावैरी म्लेच्छ ? कहां इसके द्वारा आज मेरा ऐसा सम्मान ? मालूम पड़ता है कि आज प्राण नहीं बचेंगे।’’
इस प्रकार बालिखिल्य दीनचित्त होकर मन ही मन सोच रहा है। इसी बीच रथ वन में आ गया और उसे दूर से ही श्रीराम-लक्ष्मण दिखाई दिये, तब कहीं उसके जी में जी आया। उसने रथ से उतर कर श्रीराम-लक्ष्मण को नमस्कार किया और कहा-
‘‘हे नाथ! मेरे पुण्योदय से ही आप महानुभाव यहाँ पधारे हैं इसीलिये मैं आज बन्धनमुक्त हुआ हूं।’’
‘‘हे भद्र! अब तुम शीघ्र ही अपने घर जाओ और इष्टजनों से मिलो। वहाँ पहुंचने पर तुम हम लोगों को जान सकोगे ।’’
इतना सुनकर पुन:-पुन: उन राम-लक्ष्मण और सीता को नमस्कार कर वह बालिखिल्य अपने घर की ओर चला। उधर जब तंबू से श्रीराम आदि रात्रि में निकलकर चले गये थे तभी से वह कल्याणमाल खिन्नमना होकर उनके गुणों का चिंतन किया करता था। आज सहसा पिता को बंधनमुक्त हुआ सुनकर और रथ पर बैठकर आ रहे हैं, ऐसा समझकर उत्सव के साथ पिता के स्वागत के लिये निकला और सन्मुख पहुंचकर पिता को नमस्कार किया। पिता ने पुत्र कल्याणमाल को दोनों हाथों से उठाकर हृदय से लगा लिया, बार-बार आशीर्वाद देते हुये उसके मस्तक पर हाथ फेरा और अपने रथ पर उसे बिठा लिया। रानी पृथ्वीमती पतिदेव के दर्शन कर हर्षातिरेक से रोमांचित हो गई। मंत्रीगण भी अतीव हर्ष को प्राप्त हुये । शहर में महान् उत्सव मनाया गया। यह रौद्रभूति ब्राह्मण राजा बालिखिल्य का निश्छल मित्र बन गया और श्रीराम की आज्ञानुसार उसे मंत्री पद का अधिकार प्राप्त हुआ । पुत्र कल्याणमाल अब असली वेष में रहते हुये कल्याणमाला के नाम से लोगों की प्रशंसा का विषय बन गया।
उस रौद्रभूति ने अब तक चोरी में तत्पर रहकर नाना देशों को लूटपाट कर जो विशाल धन इकट्ठा किया था वह सब बालिखिल्य राजा के कोष में दे दिया गया। अब वह म्लेच्छपति बालिखिल्य की आज्ञा में रहते हुये अपने को भाग्यशाली समझ रहा है।
जब सिंहोदर इन सारी बातों को सुनते हैं तब वे भी बालिखिल्य के साथ-साथ उस रौद्रभूति पर बहुत स्नेह प्रगट करते हैं। उधर श्रीरामचन्द्र कल्याणमाला के पिता का उद्धार कर कृतकृत्य होते हुये अन्यत्र चले जाते हैं।
उदारमना श्रीरामचन्द्र का परोपकार, मर्यादा की रक्षा, गंभीरता आदि गुण सर्वजन प्रसिद्ध हैं। वैसे ही लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति भी अलौकिक ही रही है। सीता के शील का माहात्म्य तो मनुष्यों तक ही नहीं देवों की भी प्रशंसा का विषय बना हुआ है।
यही कारण है कि आज भी कोई कैसे भी नीच, दुराचारी, पापी क्यों न हों फिर भी वह अपने पुत्रों का नाम रावण और पुत्रियों का नाम सूर्पनखा नहीं रखता है प्रत्युत रामचन्द्र, लक्ष्मण अथवा सीता इन नामों को रखते हुए अतीव गौरव का अनुभव करते हैं।
श्रीरामचन्द्र की जीवनलीला पढ़कर- देखकर सभी लोगों का कर्तव्य हो जाता है कि हम पिता के वचनों को पालन करने वाले, भ्राता के प्रति सर्वस्व समर्पण करने वाले और माता-बहनों की रक्षा करने वाले बनें। महिलाओं का भी कर्तव्य हो जाता है कि वे पतिभक्तपरायणा बनकर दु:ख में भी पति की सेवा करें और अपने शील की रक्षा में प्राणों की भी बाजी लगा दें। तब देखिये अपने देश में, घर में कितनी सुखशांति निवास करेगी।