‘‘पै कछु कहूँ कही मुनि यथा’’
तत्त्वज्ञान से युक्त ज्ञानीजनों के माध्यम से ही धर्म का प्रवर्तन होता है, बिन ज्ञान के धर्म का प्रचार नहीं हो सकता। रत्नत्रयधारक आचार्यों का हमारे ऊपर परम उपकार है जिन्होंने हमें श्रुत दिया जिसका अनुाशीलन कर तत्त्व-बोध प्राप्त करते हैं। आचार्य देवसेन ने तत्त्व व्यवस्था में आत्मा को स्वतंत्र तत्त्व और पाँच परमेष्ठियों को परगत तत्त्व रूप में प्रतिपादित किया है। सामान्य रूप से आत्मा की निजाराधना स्वतत्त्व है। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी परगत तत्त्व हैं। इनकी आराधना करना परमतत्त्व आराधना है। जैन परम्परा में साधु जीवन विशेष महत्त्वपूर्ण है। वे साधु विषय कषाय आरम्भ-परिग्रह से परे रहते हैं, ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं, लोकाचार की जिन्हें गंध भी नहीं है, लोकोत्तराचारभूत मोक्षमार्ग की साधना में रत रहते हैं।मग्गो मग्गफलं तिय, दुविहं जिणसासणे समक्खा मग्गो मोक्खउवायो, तस्य फलं होई णिव्वाणं ।। नियमसार, २
अर्थात् मार्ग तो रत्नत्रय धर्म है और मार्ग का फल निर्वाण है। तत्त्वसार की छठवीं गाथा में आचार्य देवसेन स्वामी निर्विकल्प-स्वतत्व की प्राप्ति का उपाय बतला रहे हैं कि जब तक मार्ग का ज्ञान नहीं होगा तब तक साध्य की प्राप्ति नहीं होगी। कारण का होना कार्य-सिद्धि के लिए अनिवार्य है। अत: निर्विकल्प तत्त्व की सिद्बि के लिए इन्द्रिय और मन का वशीकरण अत्यन्त आवश्यक है। आचार्य नागसेन स्वमी ने कहा है ‘‘गुप्तेन्द्रियमान् ध्याता’’ (तत्त्वानुशासन ३८/३०) जिसने इन्द्रियाँ तथा मन वश में कर लिया, उसे ध्याता कहते हैं। आचार्य विशुद्धसागर जी तत्त्वदेशना में निरूपति करते हैं। जबपित तक भोगाभिलाषा अन्तरंग में विद्यमान है, तब तक योगधारण संभव नहीं है। यदि किसी ने द्रव्य वेष को स्वीकार भी कर लिया, तो वह सफल नहीं हो सकेगा। आचार्य योगीन्द्रदेव ने परमात्म प्रकाश में लिखा है – जिस हृदय में मृगलोचनी (स्त्री) निवास कर रही है, वहाँ ब्रह्मनिवास कहाँ है, कारण एक म्यान में दो तलवारें नहीं रखी जातीं, एक ही समय में दो मौसम नहीं होते, उसी प्रकार एक ही साथ आत्मानुभव एवं विषयानुभव नहीं होता। एक समय में एक ही उपयोग हुआ करता है। मन की निश्चलता आवश्यक है। आचार्य देवसेन के अनुसार –‘समणे णिच्चलभूए णट्ठे सव्वे वियप्पसंदोहें’। थक्को सुद्धसहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो। तत्त्वसार।।
जिनशासन में आत्मज्ञ बनने की कला की शिक्षा प्रदान की गई है जो कि सर्वज्ञत्व शक्ति को जन्म देती है। आत्मा शक्ति के प्रकट हुये बिना सर्वज्ञ शक्ति प्रकट नहीं होती है। आत्मज्ञ पुरुष मन की चंचल वृत्ति के निरोध में अपना पुरुषार्थ लगाते हैं।जं अवियप्पं तच्यं तं सारं मोक्खकारणं तं च। तं णाऊण विसुद्धं झायहु होऊण णिग्गंथा ।।
बहिरब्भंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविह जोएण । सो णिग्गंथो भणिओ जिणलिंग समासिओ समणो ।।
तत्त्वसार ९, १०
जो निर्विकल्प तत्त्व है, वही सार है, प्रयोजनभूत है और वही मोक्षकारण है। उस विशुद्ध तत्त्व को जानकर, निर्गन्थ होकर ध्यान करो। इस लोक में जिसने मन, वचन, काय इन तीन प्रकार के योगों से बाहरी और भीतरी परिग्रहों को त्याग दिया है, वह जिनेन्द्रदेव के लिंग का आश्रय करने वाला श्रमण ‘निग्र्रन्थ’ कहा गया है। आगम में स्पष्ट कथन है कि बिना निग्र्रन्थ-मुद्रा धारण किये अप्रमत्तदशा नहीं बन सकती और अप्रमत्तदशा बिना निर्विकल्प ध्यान नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है –सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो ।
समणो समसुहदुक्खो भविदो सुद्दोवओगो त्ति ।।
प्रवचनसार।।
जिन्होंने अच्छी तरह से पदार्थ-सूत्रों को जान लिया है, संयम और तप से युक्त हैं, जिनका राग बीत गया है, जो सुख-दु:ख में साम्यभाव रखते हैं, ऐसे श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा है। जिस जीव ने इस लोक में त्रियोग के अन्तरंग एवं बहिरंग परिग्रह का त्याग कर दिया है तथा जो विषय-कषाय, आरंभ-परिग्रह से रहित हैं, ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन रहते हैं, वे निग्र्रन्थ लोकाचार को नहीं, लोकोत्तराचार को श्रेष्ठ मानते हैं। यदि कदाचित् लौकिक हो भी जाये तो शीघ्र भूल जाते हैं, उस बात को अधिक समय तक अपने अन्दर नहीं रखते। वे निग्र्रन्थ दस प्रकार के बाह्लय एवं चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रह से निस्पृह होते हैं। बहिरंग परिग्रह है – हिरण्य, स्वर्ण, दासी, दास, कुप्य, धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, भाण्ड। अतंरंग परिग्रह हैं – मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद।लाहालाहे सरिसो सुह-दुक्खे तह य जीविए मरणे । बंधु-अरियणसमाणो झाणसमत्थो हु सो जोई ।।
तत्त्वसार।।तत्त्वसार (तत्त्वदेशना) पृ. ७
जो लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख और उसी प्रकार जीवन-मरण में समान रहता है, बन्धु तथा शत्रु में समान भाव रखता है, निश्चय में वही योगी ध्यान करने में समर्थ है। साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्त-निरोध और शुद्धोपयोग में सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। योगीजन प्रतिपल सहज स्वरूप की प्राप्ति हेतु सम्यक् -पुरुषार्थ करते रहते हैं। वे लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जन्म-मरण, शत्रु-मित्रता में हर्ष-विषाद नहीं करते, क्योंकि उन्होनें संसार के स्वभाव को भली-भांति जान लिया है। आज भी रत्नत्रयधारी मनुष्य आत्मा का ध्यान कर स्वर्गलोक को जाते हैं और वहां से च्युत होकर उत्तम कुल में जन्म लेकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज सम्बोधन में कहते हैं कि भो चेतन! यदि आत्मा का उपकार चाहता है तो आत्मा का उपकार होगा त्याग तपस्या से, पर उससे शरीर सूखेगा, जो आप सुखाना नहीं चाहते और आत्मा-आत्मा की बात करके भगवान बनना चाहते हों। कैसे संभव है ? देखो ! जहाँ जीव का उपकार है, वहां शरीर का अपकार निश्चित है। भगवान् पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है कि तेरे पास एक देह उद्यान है और एक आत्म-उद्यान है। पानी उतना ही है तेरे पास। जिसमें देगा वह हरा रहेगा, जिसमें नहीं देगा वह सूख जायेगा। जिनशासन में गुणहीनों की वन्दना नहीं है। ‘‘वन्दे तद्गुणलब्धे’’ यहां गुणों की वन्दना है, गुणों की पूजा है। वे गुण गुणी के बिना होते नहीं हैं। ‘‘न धर्मो धार्मिकैर्विना’’ अर्थात् धर्म कभी धर्मात्मा के बिना नहीं होता। जिसने धर्मात्मा का विनाश किया, उसने अपने धर्म का विनाश किया इसलिए धर्म को समझने के लिए धर्मात्मा आवश्यक है। आत्मा का अहित करने वाले विषय और कषाय हैं। आचार्य देवसेन के अनुसार अहो ! पर्वत की तलहटी में बैठ करके उग्र से उग्र तपश्चरण करके प्रतिमा-योग धारण किये हैं, सूर्य-योग धारण किये हैं, परन्तु वे सूखे पर्वत पर खड़े होकर ध्यान कर रहे हैं। वे आत्म-सरोवर में मग्न होकर आत्म-शीतल में लीन हैं। उन्हें सूर्य की तपन महसूस नहीं हो रही है।ज्ञानी को सूर्य ताप इतना कष्टकारी नहीं होता जितना कि विषयों का ताप कष्टकारी होता है। जब तक सूर्य जैसी तपन तुझको विषयों की नहीं लगेगी तब तक हे मुमुक्ष! तू मुमुक्षु नहीं बन सकता। जो तपन सूर्य की है, उससे करोड़ों गुनी तपन विषयों और वासनाओं की है। सूर्य की तपन में मात्र शरीर तपता है, उस तपन से किसी को पश्चाताप नहीं होता, खिन्नता नहीं आती, लेकिन विषय और कषाय के ताप में तपने पर खिन्नता आती है। उस समय अपने आपको कितना हीन देखना पड़ता है, सिर ऊपर नहीं उठा पाता, किसी की आंखों से आंख नहीं मिला पाता, क्योंकि हृदय कह रहा है कि मैं पापी हूँ। जब यह विषय-कषाय की तपन समाप्त हो जायेगी, तो सम्पूर्ण विश्व की तपन समाप्त हो जायेगी। आचार्य विशुद्धसागर जी महाराज सम्बोधन में लिखते है कि हे ‘ज्ञानी’ तुमने संसार का बहुत अध्ययन किया अब भगवान् की आराधना करो, गुरुओं की सेवा करो तथा स्वाध्याय भी करो। जिनवाणी में लिखा है कि जब निग्र्रन्थ योगी बैठा हो, जिनवाणी विराजमान हो और अर्हन्तदेव की प्रतिमा विराजमान हो तो अब कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है, समवशरण बन चुका है। पंचमकाल का जीव आज भी समवशरण की अनुभूति कर सकता है। अत: मन को स्थिर करके तीर्थंकर की दिव्य देशना का श्रवण कर तुम्हारा कल्याण हो जायेगा।तत्त्वसार (तत्त्वदेशना) पृ. ८६-८७ जिनदेव की वाणी ही जगत् कल्याणी है। अहो! वे जीव लोक में भाग्यशाली हैं जिन्होंने साक्षात् अर्हत देशना का अपनी कर्णाञ्जुलि से पान किया है। आज हमारे सामने साक्षात् जिनेन्द्रदेव तो नहीं है परन्तु उनकी मुद्रा का ज्ञान कराने वाले निग्र्रन्थ दिगम्बर साधु परमेष्ठी हैं तथा उनकी देशना के रूप में जिनागम है। उन दोनों का दर्शन करके हम साक्षात् तीर्थंकर शासन का अनुभव कर लेते हैं। यह भी परम सौभाग्य का विषय है। इस दु:खद काल में अर्हत् शासन को समुज्जवल करने वाले साधु-पुरुष विद्यमान हैं उनके मुख से वाग्वादिनि सुनने का अवसर प्राप्त हो रहा है। वे नर भाग्यहीन हैं जो सद्धर्म, गुरु, जिनवाणी एवं जिनदेव से विमुख हैं।जो अप्पाणं झायदि संवेयणचेयणाइ उवजुत्तो । सो हवइ वीयराओ णिम्मलरयणत्तओ साहू ।।
तत्त्वसार ४४वही पृ. ११४
जो स्व-संवेदना चेतना से उपयुक्त साधु आत्मा को ध्याता है, वह निर्मल रत्नत्रय का धारक वीतराग हो जाता है। जो योगी सचेतन और शुद्ध भाव में स्थित आत्मा को ध्याता है उसको इस लोक में निश्चय दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहते हैं। संवेगपूर्वक जो संयम का अनुभव होता है, वही चारित्र है। सेवा करना यह कत्र्तव्य श्रावक का है, पर समता परिणाम रखना यह कत्र्तव्य साधक का है। यदि श्रावक की सेवा में कमी आ जाये तो उसकी सेवा में कमी मत समझो, अपनी समता की परीक्षा समझो। यह मुमुक्षु का लक्ष्य होता है, क्योंकि हमारा धर्म आत्मा को ध्याना है। जब आत्मा चेतना उपयोग से युक्त होगा तो क्या भक्त अभक्त ? इसलिए यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो जीवन में योगी के चरण में रहना योगी के कानों में नहीं जाना क्योंकि भक्त का स्थान परमेश्वर के चरणों में होता है। जो कर्मक्षय चाहता है, वह परमेष्ठी के चरणों में रहता है तथा जो मान प्रतिष्ठा चाहता है, वह कानों तक पहुंच जाता है। भो ज्ञानी! समता का अभ्यास तो श्रावक-अवस्था से ही होता है, इससे श्रावक का सामायिक शिक्षाव्रत होता है। समता में जीना योगी का धर्म है। सामायिक चारित्र चेतना उपयोग से युक्त है, ऐसे निर्मल रत्नत्रय की आराधना करने वाला साधु ही वीतरागता को प्राप्त होता है। जो अपने आपसे आपका वेदन कर रहा है, पर के वेदन को छोड़ दिया है, यही योगी है। अत: सबसे मुक्त होने पर ही आत्म-संवेदन की अनुभूति को प्राप्त किया जा सकता है। हमारे यहां साधु पूज्य नहीं हैं, हमारे यहां रत्नत्रयधारी साधु पूज्य हैं। वे तो तीन कम-नौ करोड़ मात्र हैं, जो कि छठवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के हैं तथा पूरे अढाई द्वीप में हैं। आचार्य देवसेन स्वामी के अनुसार नरक में निवास कर लेना, पर मूर्ख के साथ वास नहीं करना। जिनके संसर्ग से तेरी आत्मा का विघात होता है, ऐसे संसर्ग को छोड़कर गुणीजनों के साथ निवास करो। इष्टोपदेश में लिखा है –अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानि समाश्रय: । ददाति यत्तु यस्यास्ति सुप्रसिद्धमिदं वच: ।।२३।।
अज्ञानी की उपासना करोगे तो अज्ञान ही मिलेगा, ज्ञानी के पास जा कर ही ज्ञान मिलेगा। यह लोकप्रसिद्ध है जिसके घर में जो होगा, वही तो देगा। अज्ञानी रूप में जीता है, जबकि ज्ञानी स्वरूप में जीता है। सिद्धि चर्चा से नहीं, सिद्धि चारित्र से होगी। जिस चरण से करण विनाश हो, वह चरण नहीं, दुश्चरण है अर्थात् जिस चरण से परिणाम कलुषित हों उसे वीतरागवाणी में चारित्र संज्ञा नहीं दी। चारित्र उसे कहा जिससे परिणाम निर्मल हों।विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रह: । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स: प्रशस्यते ।।
-रत्नत्रकरण्डश्रावकाचार
जो पांचों इन्द्रियों के विषयों की आशा से रहित हैं, आरम्भ परिग्रह से रहित हैं और ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहते हैं, वे ही सच्चे गुरु हैं। भो ज्ञानी! प्रभु-द्वार नहीं होता, गुरु द्वार होता है। यदि गुरु का द्वार खुला हुआ है, तो प्रभु का द्वार अपने आप खुला होगा। चारित्र का फेन अपने आप टपकता है और जिसके अन्तरंग में परिणामरूपी दुग्ध नहीं है तो उसके चारित्र में फेन भी नहीं टपकता। वह जीव कोरी बातें तो कर सकता है कि मैं चैतन्य आत्मा का अनुभव कर रहा हूँ, परन्तु चारित्र दिख नहीं रहा है। अनुभूति कैसे ? हमारे आचार्यों ने कहा है कि ‘‘धर्मीसों गौ बच्छ प्रीमिसम’’ जिस तरह गाय को अपने बछढ़े के प्रति निष्काम दृष्टि से अनुराग होता है, उसी तरह धर्मात्मा के प्रति श्रावक का अनुराग होना चाहिए। धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन तभी संभव है जब दान तीर्थ का प्रवर्तन हो, बिना दान तीर्थ के धर्म तीर्थ प्रवहमान नहीं हो सकता जैसे रथ के दो चक्र होते हैं तथी रथ गतिमान होता है वैसे ही धर्म-रथ को चलाने के लिए गृहस्थ धर्म और यति धर्म माध्यम हैं और दोनों धर्म अपने आप में प्रवहमान हैं। भो ज्ञानी! इस लोक में दान तीर्थ एवं धर्म तीर्थ दोनों का प्रारंभ एक साथ हुआ है। यदि धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन भगवान् आदिनाथ के द्वारा हुआ तो दान-तीर्थ का प्रारम्भ राजा श्रेयांस द्वारा हुआ। आचार्य श्री विशुद्धसागर जी लिखते हैं कि अपने जीवन में भावना भाना कि हे प्रभो! मैं अपने जीवन में निग्र्रन्थ के हाथों में आहारदान दे सकू और ऐसा दिन कब आये, कि मैं स्वयं अपने हाथ आहार ले सकू और अक्षय सुख को प्राप्त कर सकू। आचार्य करुणाबुद्धि धारक होते हैं। उनकी यह उत्कट भावना रहती है कि भोग-विलासिता में आकण्ठ निमग्न जीवों को सद्बोध प्रदान कर उन्हें उन्मार्ग से दूर किया जाये। पूज्य विशुद्धसागर जी महाराज तपोनिष्ठ आचार्य हैं। आचार्य प्रणीत ग्रन्थों के हार्द को जन-जन के समक्ष रखकर उनको तमसावृत पथ से हटाकर ज्ञान के समीचीन पथ पर चलाते हैं। उनकी मंगलमयी देशना हमारे सम्यग्दर्शन की प्रशस्त भूमिका में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। उनके द्वारा यह पवित्र ज्ञानगंगा सतत प्रवहमान होकर हम सबको सद्बोध देकर मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर करती रहे।