जे के वि गया मोक्खं गच्छंति य के वि कम्म-खल-मुक्का ।
ते सव्वे विय जाणसु जिण-णवयारस्स भावेण ।।१७।।
इय एसो णवयारो भणियउ सुर-सिद्ध-खयर-पमुहेहि ।
जो पढइ भत्तितुत्तो सो पावई सासयं ठाणं ।।१८।।
अडवि-गिरि-राय-मज्झे भयं पणासेइ चिंतिओं संतो ।
रक्खइ भविय-सयाइ माया जह पुत्त-डिंभाइं ।।१९।।
थंभेइ जलं जलणं चिंतियमित्तेण जिण-णमोयारो ।
अरि-चोर-मारि-रावल-घोरुवसग्गं पणासेइ ।।२०।।
णो किंचि तह स पहवइ डाइणि-वेयाल-रिक्ख-मारि-भयं ।
णवयार-पहावेणं णासंति ते सयल-दुरियाइ ।।२१।।
सयल-भय-वाहि-तक्कर-हरि-करि-संगाम-विसहर-भयाइ ।
णासंति तक्खणेणं जिण-णवयारो पद्दावेणं ।।२२।।
हियइ-गुहाइ णवकार-केसरी जेण संठिओ णिच्चं ।
कम्मट्ठ-गंठि-गय-घट्टथट्टयंताण परणट्टं ।।२३।।
तव-संजम-णियम-रहो पंच-णमोकार-सारहि णिरुत्तो ।
णाण-तुरंगम-जुत्तो जेण फुडं परमणिव्वाणं ।।२४।।
जिणसाणस्स सारो चउदस- पुव्वाइ जो समुद्धारो ।
जस्स मणे णवयारो संसारो तस्स किं कुणइ ।।२५।।
जैन वाङ्मय में णमोकार या नमस्कार-मंत्र का वही स्थान है, जो वैदिक वाङ्मय में गायत्री-मंत्र का है। इस मंत्र में क्रमश: अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। यह णवकार-मंत्र-माहात्म्य नामक स्तोत्र अजमेर-शास्त्र-भंडार के एक गुटके से उपलब्ध हुआ है। इसके रचियता ने णमोकार-मन्त्र को अनादिमूलमन्त्र के नाम से संयुक्तिक सिद्ध कर उसे जिन-शासन का सार और चौदह पूर्व-महार्णव का समुद्धार बताया है। साथ ही उसे दु:ख को दलन करने और सर्व सुख को देने वाला तथा स्वर्ग-अपवर्ग का दाता प्रकट किया है। रचना इतनी सरल और सरस है कि पढ़ने के साथ ही उसका अर्थ-बोध हो जाता है। इसके रचियता के नाम आदि का उक्त रचना पर से कुछ पता नहीं चलता।