विमल शब्द में प्रतिबिम्बत होता है विमल जगत ।.विमलनाथ के चरण पकड़ लो होगा विजित जगत् ।। नहीं मैल का लेश जितेन्द्रिय आतम विमल अमल । तेरहवें तीर्थंकर जिन की ‘भारती’ पूजा करे जगत् ।।जैनधर्म के १३वें तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान् सम्पूर्ण जगत् को ‘विमल’ बनाने के लिए अपनी दिव्य ध्वनि से संसार की असारता को दिग्दर्शित कर आत्मा को परमात्मा बनाने की मंगल प्रेरणा देते हैं। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर प्राणी ‘समल’ से ‘विमल’ हो जाते हैं, आत्महित करते हैं। पश्चिम धातकी खण्ड द्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर स्थित रम्यकावती देश का राजा पद्मसेन प्रजा के लिए कल्पवृक्ष के समान इच्छित फल देने वाला था। उसके नीतिपूर्ण प्रजापालक स्वरूप की स्थिति यह थी कि –
अर्थात् वहाँ की प्रजा कभी न्याय का उल्लंघन नहीं करती थी, राजा प्रजा का उल्लंघन नहीं करता था, धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता था और त्रिवर्ग परस्पर एक-दूसरे का उल्लंघन नहीं करता था। राजा पद्मसेन ने एक दिन प्रीतिकर वन में स्वर्गगुप्त केवली के समीप धर्म का स्वरूप और अपने दो भव शेष जानकर अपने पुत्र ‘पद्मनाभ’ को राज्य सौंपकर दीक्षित हो उत्कृष्ट तपश्चरण प्रारम्भ किया और ग्यारह अंगों का अध्ययन कर दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं के भावन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था, अन्त समय में चार आराधनाओं की आराधना पूर्वक मरण कर सहस्रार स्वर्ग में सहस्रार नामक इन्द्रपद प्राप्त किया और सुखपूर्वक अठारह सागर की आयु पूर्ण की। इधर भरत क्षेत्र के कम्पिल्य (कम्पिला) नगर में तीर्थंकर ऋषभदेव के वंशज (इक्ष्वाकुवंशी) ‘कृतवर्मा’ राजा की रानी ‘जयश्यामा’ ने ज्येष्ठ कृष्ण दशमी को रात्रि के पिछले पहर में उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के रहते सोलह स्वप्न देखे, उसी समय उसने अपने मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। प्रात: राजा से इन स्वप्नों का फल पूछा तो राजा ने बताया कि हे महारानी जयश्यामा! आप तीर्थंकर पुत्र की माता बनोगी। इस तरह सहस्रार स्वर्ग के इन्द्र का जीव महारानी ‘जयश्यामा’ के गर्भ में अवतरित हुआ। देवों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। नौ माह व्यतीत हो जाने पर महारानी जयश्यामा ने माघ शुक्ल चतुर्थी (अथवा चतुर्दशी) के दिन अहिर्बुध्न योग में जिस महान् बालक को जन्म दिया वह जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि, तीन ज्ञान का धारी, जगत् पूज्य और १००८ शुभ लक्षणों से सुशोभित था। सौधर्म इन्द्र ने तीर्थंकर-शिशु के जन्म को अपने कम्पित आसन से जाना और वह देव-परिकर के साथ भगवान् का जन्मकल्याणक महोत्सव मनाने काम्पिल्य नगरी में राजा कृतवर्मा के महल में आया और उस शिशु को ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरु पर्वत की पाण्डुक शिला पर ले गया। वहाँ क्षीरसागर के जल से उनका १००८ कलशों से अभिषेक किया और उनका नाम श्री विमलनाथ रखा तथा अष्ट प्रासुक द्रव्यों से पूजा की। तीर्थंकर श्री वासुपूज्य भगवान् के तीर्थ के बाद ३०००० वर्ष बीत जाने और पल्य के अंतिम भाग में उनका जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी। उनकी आयु साठ लाख वर्ष, शरीर साठ धनुष ऊँचा था, पन्दह लाख वर्ष कुमार काल बीत जाने पर उनका राज्याभिषेक हुआ, कान्ति सुवर्ण के समान, चिन्ह शूकर था। आचार्य गुणभद्र कृत ‘उत्तरपुराण’ के अनुसार-
लक्ष्मी: सहचरी तस्य कीर्तिर्जन्मान्तारागता ।
सरस्वती सहोत्पन्ना वीरलक्ष्म्या स्वयं वृत: ।।
गुणा: सत्यादयस्तस्मिन् वद्र्धन्ते स्म यथा तथा ।
मुनीन्द्रैरपि सम्प्राथ्र्या वर्णना तेषु का परा ।।
अर्थात् लक्ष्मी उनकी सहचारिणी थी, कीर्ति जन्मान्तर से साथ आयी थी, सरस्वती साथ ही उत्पन्न हुई थी और वीर लक्ष्मी ने उन्हें स्वयं स्वीकृत किया था। उस राजा में जो सत्यादि गुण बढ़ रहे थे वे बड़े-बड़े मुनियों के द्वारा भी प्रार्थनीय थे। इससे बढ़कर उनकी और क्या स्तुति हो सकती थी ? उन्होंने राज्यभोग के साथ कामभोग भी किया। इस तरह भोगोपभोग के साथ तीस लाख वर्ष व्यतीत होने के बाद एक दिन मेघ को विच्छिन्न होते देखकर उन्हें संसार की असारता का ज्ञान हुआ और उन्होंने संसार से मुक्ति हेतु जिनदीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। उत्तरपुराण में वैराग्य का कारण हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को देखते ही तत्क्षण विलीन होना माना है। लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्यमय विचार की पुष्टि एवं अनुमोदना की। वैराग्य का दृढ़ निश्चय जानकर सौधर्म इन्द्र देव परिकर सहित आया और देवदत्ता नामक पालकी में भगवान् को विराजमान किया। सर्वप्रथम भूमिगोचरी मनुष्यों ने पालकी उठायी, देवों ने सहयोग किया। इस तरह उन्होंने कम्पिला के समीपवर्ती सहेतुक वन में जाकर जम्बूवृक्ष के नीचे माघ शुक्ल चतुर्थी के दिन पंचमुष्टि केशलोंच कर एक हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर ली और ध्यानस्थ हो गये। दीक्षा ग्रहण करते ही उन्हें मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति हुई। द्वितीय/तृतीय उपवास के बाद वे आहार के लिए निकले। उन्होंने नन्दनपुर में राजा कनकप्रभु के यहाँ नवधाभक्तिपूर्वक गो-क्षीर में निष्पन्न अन्य (खीर) का आहार ग्रहण किया। आहार के परिणाम स्वरूप दाता के घर पंचाश्चर्य प्रकट हुए। तीन वर्ष की घोर तपस्या के पश्चात् उन्हें पौष शुक्ल दशमी (उत्तरपुराण के अनुसार माघ शुक्ल षष्ठी) के अपराह्न में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के रहते सहेतुक वन में जम्बूवृक्ष के नीचे चार घातिया कर्मों का नाश होने पर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। देवों ने आकर केवलज्ञान महोत्सव मनाया और भगवान के चरण कमलों की पूजा की। देवों द्वारा पूजित होने के कारण वे देवाधिदेव कहलाए। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समोशरण की रचना की। देव दुन्दुभि आदि अष्टप्रतिहार्य प्रकट हुए। केवली/सर्वज्ञ/ अरहंत जिन विमलनाथ भगवान् गंधकुटी के मध्य सिंहासन के ऊपर अंतरिक्ष में विराजमान हुए। उनके प्रमुख गणधर मन्दर बने। वे कुल ५५ गणधरों से युक्त थे। उनके छ: योजन विस्तृत समोशरण में ग्यारह सौ पूर्वधारी, ३२,५३० शिक्षक, ४,८०० अवधिज्ञानी, ५,५०० केवलज्ञानी, ९,००० विक्रियाऋद्धिधारक, ५,००० मन:पर्ययज्ञानी, ३,६०० वादी; इस तरह ६८,००० मुनि तीर्थंकर भगवान् की स्तुति करते थे। पद्मा सहित १,०३,००० आर्यिकाएं थीं। १,००,००० श्रावक तथा ४,००,००० श्राविकाएं थीं। मुख्य श्रोता ‘राजा पुरुषोत्तम’ थे। असंख्यात देव-देवियां और संख्यात तिर्यंच उनके समोशरण में थे। उनका केवल्यकाल १४९९९९७ वर्ष का था। तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान् ने समोशरण में दिव्यध्वनि के माध्यम से धर्म का उपदेश दिया। हिंसा को पाप बताया, अहिंसा को जीवन और जीवों के लिए हितकारी बताया। अपरिग्रह उनकी काया से ही प्रकट हो रहा था। वीतरागता उनके उपदेशों में झलक रही थी। आचार्य श्री गुणभद्र ने लिखा है कि-
अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ही जिसके दो दाँत हैं; गुण ही जिसका पवित्र शरीर है, चार आराधनाएँ ही जिसके चरण हैं और विशाल धर्म ही जिसकी सूँड है; ऐसे सन्मार्ग रूपी हाथी को पाप रूपी शत्रु के प्रति प्रेरित कर भगवान् विमलवाहन ने पाप रूपी शत्रु को नष्ट किया था इसलिए ही लोग उन्हें विमलवाहन (विमलं वाहनं यानं यस्य स: विमलवाहन:) कहते थे। इस तरह धर्मोपदेश पूर्वक विहार करते हुए तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान् अंत में सम्मेदशिखर पहुंचे वहाँ उन्होेंने एक माह का योग निरोध किया। ८,६०० मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया। अनन्तर आषाढ़ कृष्ण/शुक्ल अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में प्रात:काल समुद्घात कर सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती नामक शुक्ल ध्यान धारण कर खड़गासन से निर्वाण प्राप्त किया। सौधर्म इन्द्रादि देवों ने आकर भगवान् का निर्वाण कल्याण मनाया और अग्निकुमार देवों ने केश और नख के साथ मायामयी शरीर का निर्माण कर अग्निसंस्कार के साथ अन्त्येष्टि क्रिया सम्पन्न की। श्री विमलनाथ भगवान् के तीर्थ में धर्म और स्वयंभू नाम के बलभद्र तथा नारायण हुए थे। जो प्राणी अपने समस्त दोषों को नष्ट करना चाहते हैं, अपनी निर्मल आत्मा को प्राप्त करना चाहते हैं वे श्री विमलनाथ भगवान् का भक्तिपूर्वक स्मरण करें तथा उनके अनुसार ही तपश्चरण करें, ध्यान करें, पवित्र भावना भायें तो वे भी मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। उनके उपदेश आज भी सार्थक हैं। हम सबको कम्पिल जी (वर्तमान में ग्राम-कम्पिल, तहसील कायमगंज, जिला फर्रूखाबाद, उ.प्र.) तीर्थं वन्दना अवश्य करना चाहिए जहाँ भगवान् श्री विमलनाथ के चार कल्याणक हुए थे। भगवान् श्री विमलनाथ की यहाँ दो फुट अवगाहना वाली पद्मासन प्रतिमा स्थित है।
कर्मयोगी डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन, जैन तीर्थवंदना जनवरी २०१५