जैनधर्म में मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना बतलाया गया है। मोक्ष प्राप्ति का प्रथम सोपान है। श्रावकाचार के द्वारा मनुष्य का जीवन सुसंस्कारित होता है। जिससे वह आत्म संशोधन के मार्ग पर आरूढ़ होने में समर्थ होता है। आत्म संशोधन हेतु प्रथम तो धर्म का आश्रय लेना पड़ता है और धर्माचरण का माध्यम होता है। क्षणभंगुर हमारा भौतिक शरीर। शरीर के माध्यम से भी धर्म का आचरण या धर्माराधन तब होता है जब शरीर पूर्ण स्वस्थ हो। अत: शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए विभिन्न उपाय किए जाते हैं जिनमें आहार—विहार का संयम तथा आचरण की शुद्धता मुख्य है। आरोग्य साधन के लिए स्वास्थ्य विज्ञान या आयुर्वेद शास्त्र में र्विणत उपायों की समीक्षा की गई तो ज्ञात हुआ कि श्रावकाचार के अन्तर्गत जो कुछ भी आचरणीय है वह आरोग्य साधन की दृष्टि से उपयोगी एवं महत्वपूर्ण हैं इसी क्रम में श्रावकाचार के अन्तर्गत प्रतिपादित भक्ष्याभक्ष्य विवेक जहाँ धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उपयोगी है वहाँ आरोग्य साधन के लिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि श्रावकाचार के अन्तर्गत जिन द्रव्यों के सेवन का निषेध किया गया है वे द्रव्य आरोग्य शास्त्र की दृष्टि से भी अहितकार होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में अनेक रोग मिथ्या आहार—विहार से होते हैं और आयुर्वेद शास्त्रानुसार मिथ्या आहार—विहार के रूप में जो कुछ भी अनाचरणीय है वह श्रावकाचार में भी र्गिहत (असेव्य) है। मानसिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन और मानसिक पर्यावरण को दूषित—विकृत करने वाले क्रोध—मान—माया—लोभ आदि विकार भाव धर्माराधन एवं सात्विक आचरण में तदैव बाधक है। अत: क्षमा आदि सहज भावों से उनका शमन या परिहार करना चाहिये। जैनधर्म में श्रावकाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वस्तुत: यदि देखा जाय तो सुव्यवस्थित मानव जीवन शैली का प्रमुख एवं सुदृढ़ आधार ही श्रावकाचार है। सुव्यवस्थित जीवन पद्धति में मानवीय गुणों के उत्तरोत्तर विकास की सुदृढ़ पृष्ठभूमि का निर्माण करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। श्रावकाचार मनुष्य जीवन का वह प्रथम सोपान है जिस पर आरूढ़ होकर वह जीवन की उस ऊँचाई तक पहुँच सकता है जहाँ जीवन की चरम परिणति विद्यमान है। श्रावकाचार के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्मता और गहराई से विस्तृत विवरण एवं विवेचन जैन शास्त्रों में प्राप्त होता है। उस श्रावकाचार का परिपालन करने का माध्यम हमारा शरीर और मन है—
‘शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम्’।
इनकी भी दो अवस्थाएँ होती हैं—एक स्वस्थावस्था और दूसरी विकारावस्था। शरीर और मन यदि स्वस्थ होते हैं तो जीवन के प्राय: समस्त कार्य निराबाध रूप से सम्पन्न होते हैं। आहार विहार आदि अपनी दैनिक क्रियाओं में वह सुख का अनुभव करता है, क्योंकि वह अनुकूल वेदना रूप होता है—
‘अनुकूल वेदनीयं सुखम्।’
इसके विपरीत जब शरीर अथवा मन में अस्वस्थता होती है तो उससे उसे दु:ख का अनुभव होता है। वह दु:ख प्रतिकूल वेदना कहलाता है—
‘प्रतिकूल वेदनीयं दुखम्’।
(पतंजलि) मनुष्य स्वयं को असन्तुलित एवं अव्यवस्थित अनुभव करता है तो सम्पूर्ण संसार ही उसे असन्तुलित और अव्यवस्थित सा लगने लगता है। इसीलिए मनुष्य के लिए प्रतिपादित चर्तुिवध पुरूषार्थ के साधन में शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता को प्रमुखता दी गई है—
‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्।’
शरीर की स्वस्थता एवं आरोग्य के सम्बन्ध में शरीर शास्त्रियों, स्वास्थ्य विज्ञानियों एवं विभिन्न विद्वानों ने अपनी दृष्टि से व्याख्याएँ की हैं, किन्तु आयुर्वेद शास्त्र में स्वस्थ पुरुष की जो व्याख्या/परिभाषा बताई गई है वह अत्यन्त व्यापक एवं सर्वाधिक निर्दुष्ट है—
समदोष: समाग्रिश्च समधातुमलक्रिय:।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमन: ‘स्वस्थ’ इत्यभिधीयते।।
अर्थात् जिस मनुष्य के वात—पित्त—कफ ये तीनों दोष सम हों, अन्न का पाचन करने वाली जातिराग्नि सम हो, सातों धातुएँ—रस—रक्त—मांस—मेद—अस्थित—मज्जा—शुक्र सम अवस्था में हों, तीनों मल—स्वेद—मूत्र—पुरीष सम अवस्था में हों (इनकी विसर्जन क्रिया नियमित एवं प्राकृत रूप से होती हो), जिसकी आत्मा, इन्द्रियाँ और मन प्रसन्न हों—वह स्वस्थ कहलाता है। स्वस्थ पुरुष या स्वास्थ्य के उपर्युक्त लक्षण के परिप्रेक्ष्य में जब हम स्वयं को अथवा अपने शरीर को देखते हैं तो लगता है कि हमारा शरीर और मन इस पर खरा नहीं उतर रहा है। इसके अतिरिक्त निरोग मनुष्य का एक और लक्षण बतलाया गया है जो आंशिक रूप से श्रावकाचार को स्पर्श करता हुआ प्रतिभासित होता है—
नित्यं हिताहारविहारसेवी, समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्त:।
दाता सम: सत्यपरो क्षमावान्, आप्तोपसेवी च भवत्यरोग:।।
अर्थात् नित्य हितकारी आहार और विहार का सेवन करने वाला, करने योग्य या नहीं करने योग्य कार्यों की सदैव समीक्षा करने वाला, इन्द्रियों के विषयें में आसक्त नहीं रहने वाला, दान (त्याग), की प्रवृत्ति वाला, सदैव सत्य में तत्पर रहने वाला, क्षमाभाव धारण करने वाला और आप्त पुरुषों की सेवा करने वाला मनुष्य रोग रहित होता है। इस कथन से स्वत: स्पष्ट है कि शरीर के स्वास्थ्य की रक्षा अथवा निरोगता के लिए प्रथम बिन्दु के रूप में हितकारी आहार और विहार की कितनी उपयोगिता है ? यहाँ बतलाया गया है कि नित्य हितकारी आहार और विहार का सेवन करने वाला व्यक्ति ही स्वस्थ होता है। आहार हमारे दैनिक जीवन की प्रमुख और महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
सामान्यत: आहार दो प्रकार से किया जाता है — नियमित और अनियमित। बहुत कम लोग हैं जो नियमित आहार करते हैं। अधिकांश लोग अनियमित आहार करते हैं, कभी कम करते हैं तो कभी अधिक खा लेते हैं, कभी विरुद्ध भोजन करते हैं तो कभी असन्तुलित। आहार वेत्ताओं एवं शरीर शास्त्रियों के अनुसार अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमारा दैनिक भोजन न तो अधिक मात्रा में होना चाहिये और न ही कम मात्रा में। अधिक मात्रा में खाए हुए अन्न (आहार) के पाचन में बाधा उत्पन्न होती है, जबकि कम मात्रा में किए गए आहार का सेवन अधिकांशत: मलोत्सर्जन में बाधा (रूकावट) उत्पन्न करता है। अत: सन्तुलित रूप में सम मात्रा में आहार का सेवन करना चाहिये। अधिक मात्रा में आहार का सेवन करना प्रत्येक दृष्टि से हानिकारक एवं दोषपूर्ण होता है। सामान्यत: हम जो आहार ग्रहण करते हैं वह प्रथमत: मुख मार्ग से प्रवेश कर अन्न नालिका के द्वारा आमाशय में पहुँचाया जाता है। आमाशय में सम्पन्न होने वाली पाचन क्रिया के द्वारा उस खाए हुए अन्न को लुगदी या घोल के रूप में परिर्वितत किया जाता है जो निर्धारित समयावधि तक आमाशय में रूकने के पश्चात् एक छोटी नालिका के द्वारा पाचन प्रणाली के अगले अवयव ‘ग्रहणी’ में पहुँचाया जाता है। यदि अपनी क्षमता से अधिक मात्रा में भोजन किया जाता है तो आमाशय में उसके पाचन के दौरान कुछ अंश अर्धपक्क अथवा अपक्क रह जाता है जो ‘आम’ कहलाता है।
शरीर के पोषण एवं संवर्धन में चूंकि इस ‘आम’ की कोई उपयोगिता नहीं होती है, अत: वह संचित होकर उदर शूल, शिर: शूल, आमतिसार, प्रतिश्याय—कास आदि कफज विकारों को उत्पन्न कर देता है। आहार सेवन के क्रम में एक दोष और होता है ‘अध्यशन’ जिसकी हम प्राय: उपेक्षा कर देते हैं। ‘भुक्तस्योपरि भोजनं पुनरध्यशनं मतम्’ अर्थात् भोजन करने के बाद उसका पाचन होने से पूर्व ही पुन: और कुछ खा लेना ‘अध्यशन’ कहलाता है। वह अध्यशन जब नियमित हो जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अर्धपक्क या अपक्क अन्न के द्वारा र्नििमत ‘आम’ जो चिरकारी विष रूप होता है का संचय नियमित रूप से होता जाता है जो भविष्य में भयंकर व्याधियों का कारण बनता है। अत: इस प्रकार के अध्यशन से बचने का यथा सम्भव प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिए यथा सम्भव दो खानों (भोजनों) का अन्तरा ३ से ५ घंटे का अवश्य होना चाहिये। अभिप्राय यह है कि हमारे द्वारा जो कुछ भी खाया जाता है उसके ३ घंटे से ५ घंटे का अवश्य होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि हमारे द्वारा जो कुछ भी खाया जाता है उसके ३ घंटे से ५ घंटे के मध्य कुछ भी नहीं खाया जाय—यह भोजन की सामान्य मर्यादा है। इसमें इतना अवश्य है कि जो आहार द्रव्य लघु (हल्के) सुपाच्य और मृदु होते हैं उनका पाचन सरलता पूर्वक शीघ्र हो जाता है–ऐसी स्थिति में आम संचय की सम्भावना क्षीण हो जाती है और मनुष्य दीर्घ काल तक स्वस्थ बना रहता है। अत: आवश्यक है कि हित और मित आहार का ही सदैव सेवन किया जाये—यही श्रावकाचार के अन्तर्गत ग्राह्य है। समीक्ष्यकारी—अपने दैनिक जीवन में मनुष्य को विभिन्न प्रकार के कार्य करना पड़ते हैं। उन कार्यों में कई बार ऐसे कार्य भी होते हैं जिनमें उसकी प्रवृत्ति प्रमाद वशात् होती है। किसी भी कार्य में यदि प्रमादवश प्रवृत्ति होती है तो वहां हिताहित विवेक लगभग शून्य हो जाता है। हिताहित विवेक की शून्यता पूर्वक किए गए कार्य की समीचीनता भी संदिग्ध हो जाती है। यही कारण है कि ऐसे कार्यों के परिणाम प्राय: अनुकूल नहीं होते हैं। अत: मनुष्य को सदैव समीक्ष्यकारी होना चाहिये।
कार्य की समीक्षा में सामान्यत: मन और बुद्धि की सापेक्षता अवश्यंभावी है। मन की उच्छ्रंखलता और चंचलता नियन्त्रित होती है संयम की लगाम से। संयम भी स्वेच्छा पूर्वक ही होना चाहिये, अन्यथा सही दिशा में चलने वाली मन की सक्रियता अवरूद्ध हो जाती है और वह मनुष्य को विपरीत दिशा की ओर अग्रसर कर देता है। आजकल भी लगभग ऐसा ही हो रहा है। अन्य कार्यों की भाँति आहार सेवन के विषय में भी मनुष्य का समीक्ष्यकारी होना आवश्यक है, तब ही श्रावकाचार धर्म का परिपालन सम्यकतया हो सकता है। स्वास्थ्य रक्षा अथवा आरोग्य साधन की दृष्टि से समीक्षा पूर्वक आहार ग्रहण करने का जो निर्देश दिया गया है यह दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु है जो हमें सम्यक् आहार—विहार के प्रति हमारे विवेक को सतत जागृत रखने की सतत् प्रेरणा देता है—अत्यन्त समीचीन है। क्योंकि आहार की समीक्षा स्पष्ट रूप से भक्ष्य—अभक्ष्य विवेक ही ओर संकेत करती है जो एक श्रावक या सद् गृहस्थ के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो थोड़ा सा दृष्टिपात करते है अभक्ष्य की ओर। अभक्ष्य क्या है ? सामान्यत: जो पदार्थ खाने योग्य नहीं होते हैं अथवा दोषपूर्ण होते हैं वे अभक्ष्य कहलाते हैं। जैनधर्म की दृष्टि से जिन पदार्थों के सेवन में हिंसा होती है या आहार में हिंसाजन्य—दोषपूर्ण द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है वे द्रव्य अभक्ष्य होते हैं।
जैसे — ओला, घोरबड़ा, निशि भोजन, बहुबीजक, बैंगन, संधान, बड़, पीपल, उमर, कठूमर, पाकर, कन्द, मूल, माटी, विष, अमिष, मधु, मक्खन, मदिरा, तुच्छफल, तुषार और चलित रस। इसके अतिरिक्त आचार्यों ने निम्न पांच प्रकार के आहार द्रव्य अभक्ष्य बतलाए हैं—
१. जिन पदार्थों के सेवन में अत्यधिक त्रस जीवों की हिंसा होती है। जैसे—मांस, मदिरा, मधु, मक्खन आदि। जिन द्रव्यों को इन पदार्थों का स्पर्श हुआ है वह अन्न भी नहीं खाना चाहिए और न छूना चाहिए।
२. जिन पदार्थों के सेवन से मादकता उत्पन्न होती है ऐसे मादक या नशीले पदार्थ भी अभक्ष्य कहे गए हैं। जैसे—शराब, गांजा, भांग, अफीम, चरस।
३. जिन वानस्पतिक या खाद्य पदार्थों के सेवन से फल की प्राप्ति अल्प प्रमाण में होती है, किन्तु त्रस जीवों की हिंसा अधिक मात्रा में होती है। जैसे—आलू, गाजर, मूली, फूलगोभी, उदुम्बर फल, मक्खन आदि। दो दिन का बासा दही और छाछ त्यागने योग्य है। नमक, तेल, घी में रखा हुआ फल और आचार दो मुहूर्त के बाद छोड़ देना चाहिए।
४. जो समस्त आहार अपने स्वभाव से अन्यथा भाव को प्राप्त होकर चलित रस वाला हो जाता है, जिसका रूप, रस, गंध व स्पर्श चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है, जिसमें फंगस लगा हुआ है, जिसको जन्तुओं ने स्पर्श किया है ऐसा अन्न अभक्ष्य बतलाया गया है। अत: नहीं खाना चाहिए।
५. सात्विक रूप से जिनका सेवन उचित नहीं है, प्रकृति के अनुकूल नहीं है, जो घृणित और वज्र्य है ऐसे द्रव्य अभक्ष्य एवं अनुपसेव्य कहलाते हैं।
जैसे—गोमूत्र, स्वमूत्र, शंख—सीप, जूठन, लार, कफ आदि।
यह एक सुज्ञात तथ्य है कि चाहे पक्काहार हो अथवा अपक्काहार, कुछ समय पश्चात् उसमें कोथ या सड़न उत्पन्न हो जाती है जिससे वही खाद्य पदार्थ अखाद्य बन जाता है। जैनधर्म में अत्यन्त सूक्ष्मता से इसका परीक्षण और अवलोकन हुआ है कि खाद्य पदार्थों में कितने समय पश्चात् कोथ या सड़न की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है ? तदनुसार ही उस की मर्यादा का निर्धारण किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी इस विषय में विचार किया गया है जिसके निष्कर्ष स्वरूप बतलाया गया है कि एक निश्चित अवधि के पश्चात् लगभग सभी खाद्य पदार्थ सूक्ष्म जीवों के आक्रमण से दूषित होने लगते हैं। अत: उस अवधि के पश्चात् उनका परिहार करते हुए उनके सेवन से बचना चाहिये। जैनधर्म की दृष्टि से खाद्य पदार्थों की जो सीमा मर्यादा बतलाई गई है वह निम्न प्रकार है—
१. आटे की मर्यादा वर्षा काल में ३ दिन, गर्मी में ५ दिन और शीतकाल में ७ दिन है। वर्षा काल में नमी अधिक होने और तापमान २३०—३५० से होने से एस्परजिलस, म्यूकर, राइजोपस, सेकेरो माइसिस आदि कवक के जीवाणु आटे की शीघ्र दूषित कर देते हैं। शेष दिनों में प्रभाव कम हो जाता है, इसलिए मर्यादा बढ़ जाती है।
२. दूध की मर्यादा दुहने के पश्चात तीनों ऋतुओं में दो घड़ी होती है तथा उबालने के बाद ८ पहर की होती है।
३. गर्म दूध से बनाये गये दही की मर्यादा ८ पहर होती है तथा छाछ की मर्यादा ४ पहर होती है। शक्कर, किशमिश, छुआरा आदि मधुर द्रव्य मिले हुए दही की मर्यादा मात्र ४८ मिनिट है, क्योंकि मीठे पदार्थ मिलने से दही में जीवाणुओं की उत्पत्ति प्रक्रिया एवं सक्रियता में स्वभावत: वृद्धि हो जाती है। गुड़ मिला हुआ दही व छाछ सर्वथा अभक्ष्य होता हैं
४. खिचड़ी, दाल, सब्जी की मर्यादा ६ घंटे की है। रोटी, चावल, हलुआ आदि की अवधि बारह घंटे और पुड़ी, लड्डू, खाजा आदि में मर्यादा २४ घंटे की है। इसमें वैज्ञानिक तथ्य यह है कि पक्की रसोई में जलीय अंश कम हो जाता है और चिकनाहट अधिक होने के कारण उसमें सुरक्षा कवच बन जाता है जिससे जीवाणुओं द्वारा इसको शीघ्र दूषित करने के प्रयास सफल नहीं होते। बिना चिकनाई वाले पक्के आहार द्रव्यों जिनमें जलीय अंश अधिक होता है में जीवाणुओं की उत्पत्ति अपेक्षाकृत शीघ्र होती है। अत: उनकी मर्यादा घट जाती है।
५. घी, तेल, गुड़ आदि की अवधि स्वाद नहीं बिगड़ने तक मानी गई है। स्वाद बिगड़ना जीवाणुओं की सक्रियता का सूचक है।
६. विधिवत् निर्दोष विधि से बनाए गए दही की मर्यादा २४ घंटे की है। चौबीस घंटे के उपरांत दही में स्वाभाविक रूप से एल्कोहलीय किण्वन (अल्कोहलिक फर्मन्टेशन) की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है जो उसे अखाद्य बना देती है।
७. पिसे हुए मसाले शीत ऋतु में ७ दिन, ग्रीष्म ऋतु ५ दिन और वर्षा ऋतु में ३ दिन सेवन योग्य होते हैं। नमक मिलाने पर तीनों ऋतुओं में इनकी मर्यादा ६ घंटे होती है।
८. जल के उबालने पर उसकी मर्यादा २४ घंटे है। सामान्य रूप से गरम किए हुए जल की अवधि १२ घंटे और मात्र छानने पर ४८ मिनट तक ही वह प्रासुक बना रहता है।
इस प्रकार एक निश्चित अवधि तक उपर्युक्त विधिपूर्वक जीवाणु रहित जल की स्थिति पूर्णत: विज्ञान सम्मत है। ऊपर जो अभक्ष्य निर्देशित किए गए है और जीवाणु संक्रमण की दृष्टि से जिस पक्क या अपक्क आहार की समयावधि या मर्यादा निर्देशित की गई है उसका अतिक्रमण या उल्लंघन यदि किसी श्रावक—गृहस्थ द्वारा किया जाता है तो यह निश्चित ही प्रतिकूल रूप से उसके स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। अत: श्रावकाचार के अनुसार किया गया आहार का सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है। जैनधर्म अथवा श्रावकाचार में प्रतिपादित आहारचर्या और तद्विषयक नियम केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए ही अनुकूल एवं लाभप्रद नहीं है, अपितु मानसिक स्वास्थ्य और आत्मिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उसकी उपयोगिता प्रतिपादित की गई। श्रावकाचार की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसके अंतर्गत संयम पूर्ण आचरण का भाव निहित है। हमारे आचरण में यदि उच्छ्रंखलता आती है तो सम्पूर्ण जीव जगत की व्यवस्था ही गड़बड़ा जाती है। एक सद् गृहस्थ अथवा उत्तरदायी परिवार का प्रत्येक सदस्य निम्न दिशा निर्देशों का पालन यदि कठोरतापूर्वक नियमित रूप से करता है तो निश्चय ही वह अपना और समाज का बहुत बड़ा उपकार करता है—
१. कोई भी व्यक्ति अपने वस्त्र किसी भी प्रवाहित पानी में नहीं धोवे और न ही किसी प्रकार की गन्दगी प्रवाहित जल में डाले। इससे जल की शुद्धि एवं सूक्ष्म जीवों के प्राणों की रक्षा हो सकेगी। यह व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक है।
२. कोई भी व्यक्ति अशुद्ध जल नहीं पिए। ऊपर बतलाई गई जल शुद्धि प्रक्रिया और मर्यादा को ध्यान में रखते हुए यदि मनुष्य जल सेवन करता है तो स्वास्थ और धर्म की दृष्टि से वह सर्वथा निरापद एवं उपयोगी होता है तथा वह यह सर्वथा विज्ञान सम्मत भी है।
३. किसी भी जल स्रोत से पानी निकालने के पश्चात् शेष बचे हुए पानी (बिलछानी) को उसी जल स्रोत तक पहुंचा दिया जाय ताकि जलगत सूक्ष्म जीवाणु अपने प्राकृतिक जैविक (संतुलन को बनाए रखें। स्वास्थ्य संरक्षण एवं अिंहसक पृष्ठभूमि की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
४. यथा सम्भव जल की एक बूंद भी व्यर्थ ही नष्ट नहीं होने देवें। पेड़—पौधों से अनावश्यक रूप से फूल पत्ते नहीं तोड़े, अनर्गल प्रलाप से बचें तथा अभक्ष्य और अखाद्य द्रव्यों के खाने का लोभ संवरण करें। सुस्वास्थ्य अथवा अरोग्य का तीसरा महत्वपूर्ण बिन्दु है ‘विषयेष्वसक्त:’ अर्थात् विषयों में आसक्त नहीं होना।
सामान्यत: मनुष्य अपनी पांच इन्द्रियों के माध्यम से विभिन्न विषयों का उपभोग करता हुआ उनमें अनुरक्त रहता है और उनमें ही रत रहता हुआ उस आनंद की अनुभूति करता है जो क्षणिक या अस्थिर होता है। इन्द्रिय जन्य विषयों का उपभोग करते हुए भी मनुष्य की तृष्णा पूर्ण होने के बाद भी कभी शांत नहीं होती। यही कारण है कि वह अनवरत उसी में अनुरक्त रहता है। भौतिक विषयों की लालसा इतनी तीव्र होती है कि तञ्जनित भौतिक सुख और आनंद को वह छोड़ नहीं पाता है। विषयों के सेवन अथवा उपभोग की यह तीव्र अभिलाषा और निरंतर उन में संलग्नता ही मनुष्य के सुस्वास्थ्य एवं आरोग्य में बाधक है। कई बार यह तृष्णा ही उसके रोग का कारण भी बनती है। जैसे रसनेन्द्रिय जिह्वा के वशीभूत होकर जब वह सुस्वादु आहार को अधिक मात्रा में सेवन कर लेता है तो परिणाम स्वरूप अजीर्ण, अतिसार, अग्निमांद्य आदि रोग से ग्रस्त होकर कष्ट का ही अनुभव करता है। लगातार इस प्रकार की प्रवृत्ति होने पर अर्श, भगन्दर, अश्मरी, आमवात आदि कष्टदायी रोगों से भी पीड़ित हो जाता है। विभिन्न सांसारिक विषयों में मनुष्य की आसक्ति या अनुरक्ति केवल शारीरिक या मानसिक रोगों के जन्म का कारण ही नहीं बनती है, अपितु वह विभिन्न प्रकार के सांसारिक दु:खों एवं जन्म—मरण रूप संसार परिभ्रमण का भी कारण होती है। वह आसक्ति इस प्रकार की मृग तृष्णा को उत्पन्न करती है जिसमें फंसकर या उसके वशीभूत होकर मनुष्य विवेक शून्य बन जाता है और विभिन्न सांसारिक दु:खों और रोग रूपी कष्टों को भोगता हुआ जीवन यापन करता है। विभिन्न सांसारिक विषयों में आसक्ति या अनुराग होने से किस प्रकार वह रोग का कारण बनता है वह निम्न कथन से स्वत: स्पष्ट है—
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात् संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद् भवति सम्मोह: सम्मोहात् स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।।
अर्थात् विषयों पर ही निरन्तर ध्यान जमा रहने से ही विषय मन में रम जाते हैं—उनमें राग एवं आसक्ति भाव उत्पन्न हो जाता है जिससे काम भाव उत्पन्न होता है। विकार रूप उस काम की र्पूित या काम से तृप्ति नहीं होने पर क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से सम्मोह अर्थात् कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान की शून्यता हो जाती है। क्रोध का आवेश मनुष्य को विवेक रहित बना देता है। परिणाम स्वरूप स्मृति विभ्रम हो जाता है। स्मृति का भ्रंश होने से मनुष्य में विचार शून्यता आ जाती है जिस की परिणति बुद्धि के विनाश में होती है और जब बुद्धि का विनाश होता है तो सर्वनाश तो अवश्यम्भावी है। मनुष्य के शरीर और मन में होने वाले विभिन्न प्रकार के रोगों का मूल कारण, मनुष्य द्वारा किया गया मिथ्या आहार, विहार होता है। वह मिथ्या आहार, विहार इन्द्रियों की विषयाभिमुख दुष्प्रवृत्ति का ही दुष्परिणाम है। इसलिये आरोग्य के सूत्र के रूप में तीसरा बिन्दु बतलाया गया है—
‘विषयेष्वसक्त’।
अर्थात् जो मनुष्य इन्द्रियजनित विषयों में अत्यधिक रूप से अनुरक्त नहीं होता है, सीमित या संयमित होता है वही निरोग होता है। इन्द्रियों के विषयों के प्रति यदि अत्यधिक आसक्ति का भाव नहीं हो तो शारीरिक और मानसिक प्रसाद का अनुभव होता है, जैसा कि प्रतिपादित किया गया है—
रागद्वेष विमुत्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यै विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
अर्थात् इन्द्रियां राग— द्वेष से विमुक्त होकर विषयों का सेवन करती हैं और आत्मा स्वयं के वशीभूत हो जाती है तो वह प्रसाद—आत्म संतोष को प्राप्त होता है। मनुष्य के आरोग्य सूत्र का चतुर्थ बिन्दु हैं—‘दाता’। दाता का सामान्य अर्थ है दान करने वाला। अर्थात् मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिए निर्लोभी या लोभ रहित होना चाहिये। लोभ यद्यपि एक मानसिक भाव या प्रवृत्ति हैं जिसे अनेक प्रकार के दोषों और विकारों का जनक माना गया है, फिर भी वह शारीरिक रोगों की उत्पत्ति में कारण भूत होता है। लोभी मनुष्य संचय वृत्ति वाला होता है, जिससे वह केवल अर्थ संचय में ही संलग्न नहीं होता, अपितु अपने स्वास्थ्य के प्रति भी उदासीनता का भाव रखता है। स्वास्थ्य के प्रति उपेक्षा के कारण भी शरीर में विभिनन रोगों का उद्भव होता है। इसके विपरीत जो मनुष्य उदार स्वभाव एवं दान करने वाला होता है उसके चित्त में निर्मलता होती है जिससे वह शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ एवं निरोग रहता है। सद्गृहस्थ एवं श्रावक के आवश्यक कर्मों में भी दान की गणना की गई है। इस प्रकार दान को भी मनुष्य के आरोग्य का महत्वपूर्ण आधार प्रतिपादित किया गया है।
मनुष्य के मन में दान का भाव होना एक अंत: प्रवृत्ति है जो उसके अंत:करण की शुद्धता और अंत: करण में विद्यमान करूणा भाव का द्योतक है। सेवा भाव पूर्वक नि:सहार्यों, गरीबी और जरूरतमंदों की नि:स्वार्थ भाव से सहायता करना ही वास्तविक दान और दान में अंर्तिनहित मूलभावना है। बड़ी—बड़ी सभाओं में मंचासीन प्रतिष्ठित लोगों के मध्य सहस्रों और लाखों रूपयों के दान की जो घोषणां की जाती हैं उनके मूल में चूंकि अहंभाव एवं आत्म यशोगान का भाव अंतनिहित रहता है, अत: वे घोषणाएं दान की मूल भावना से परे होती है। वस्तुत: मात्र परोपकार की भावना से दिया गया दान ही दान की श्रेणी में आता है। ऐसा दान देने से पर कल्याण तो होता है, दानी व्यक्ति भी परम संतोष का अनुभव करता है और इसीलिए वह सदैव स्वस्थ एवं दु:खी रहता है। आरोग्य सूत्र का पाँचवा बिन्दु है—‘सम’। अर्थात् मनुष्य के अंत:करण में समता का भाव होना। समता का भाव आन्तरिक मनोविकारों के शमन का परिचायक है। जब मनोविकारों का शमन होता है तो मानसिक दोषों रज और तम का उद्रेक मन में नहीं होता है तथा शारीरिक दोषों वात—पित्त—कफ की भी समस्थ्तिि बनी रहती है जो मनुष्य को स्वस्थ बनाए रखने में सहायक होती है। मनुष्य के अंत:करण में समताभाव होने से जो संतुलन र्नििमत होता है। वह उसके ‘प्रसननात्मेन्द्रिय मन:’ भाव का परिचायक है जो स्वस्थता अथवा आरोग्य का मूल है। क्योंकि जब तक मनुष्य की आत्मा—इन्द्रिय और मन में प्रसन्नता अर्थात् निर्मलता का भाव नहीं हो तब तक वह ‘स्वस्थ’ की परिभाषा में नहीं आ सकता।
आरोग्य सूत्र का छठा बिन्दु है—‘सत्यपर:’ अर्थात् सदैव सत्य बोलने वाला। मनुष्य के लिए वर्तमान समय में सत्य बोलने की मर्यादा का पालन कर पाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। सत्य का पालन करने का सीधा सा अर्थ है निर्भयता पूर्वक आत्मानुशासन। सत्य का पालन वही व्यक्ति कर सकता है जो निर्भय हो। ऐसा व्यक्ति कभी भी अनर्गल प्रलाप नहीं करता है और सदैव अपनी वाणी में संयम रखते हुए संतुलित वचन ही बोलता है। संतुलित अर्थात् प्रलाप नहीं करता है और सदैव अपनी वाणी में संयम रखते हुए संतुलित वचन ही बोलता है। संतुलित अर्थात् नपा—तुला बोलने से वचन सम्बन्धी कर्म वर्गणाओं के शुभाशुभ बन्धन से बच जाता है, यह है सत्य वचन बोलने अथवा सत्य का पालन करने का आध्यात्मिक पक्ष। इसका मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक पक्ष है आरोग्य का साधन। सत्य बोलने वाला व्यक्ति कभी भी तनाव में नहीं होता है। क्योंकि प्रत्येक परिस्थिति में वह अनिर्णय की अवांछित स्थिति से बचा रहता है। अनिर्णय की स्थिति विभिन्न मनोविकारों की जनक होती है जिसमें दोनों मानस दोष—रज और तप प्रत्यक्षत: प्रभावित होते हैं इसका सीधा प्रभाव शरीर दोषों—वात—पित्त—कफ पर पड़ता है जो शारीरिक रोगों की उत्पत्ति में मूल कारण भूत होते हैं। असत्य भाषण करने वाला व्यक्ति यदि आवेश युक्त स्थिति में है तो उसका मानस दोष ‘रज’ और शरीर दोष ‘पित्त’ विभिन्न तत्सदृश रोगों को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाते हैं। असत्य भाषण करने वाला यदि आवेश युक्त स्थिति में नहीं है तो निश्चय ही वह धूर्त होता है और उसके स्वभाव में तमोदोष की तीव्रता एवं कफ दोष का प्रकोप निरंतर बना रहता है जिससे बार—बार कफज रोगों—विकारों के उत्पन्न होने की प्रबल सम्भावना रहती है। ऐसी स्थिति में वह सदैव स्वस्थ नहीं रह पाता है। इसके विपरीत सत्य का पालन एवं आचरण करने से चित्त—स्वभाव में निर्मलता आती है और ऐसा मनुष्य सदैव निरोगी बना रहता है।
आरोग्य सूत्र का सातवां बिन्दु है—‘क्षमावान्’ अर्थात् क्षमाशील या शांत चित्त वाला होना। क्षमा शील व्यक्ति के स्वभाव में उग्रता का अभाव होता है और निरन्तर सौभ्यता बनी रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि वह सभी प्रकार की उत्तेजनाओं से शून्य हो जाता है। प्राय: देखा गया है कि मनुष्य में वाणी संयम का अभाव होने से जब वह मर्यादा हीन अनर्गल शब्दों का प्रयोग पारस्परिक वार्तालाप के दौरान करता है तो सुनने वाला व्यक्ति निश्चय ही असहिष्णु होकर आवेश युक्त हो जाता है और उसका प्रतिकार करता है। किन्तु जो व्यक्ति सहनशील होता है वह क्रोध का परिहार करते हुए अपने हृदय में सौम्य भाव और चित्त (मन) में शांति रखता है—यही है क्षमा शीलता। इस अपूर्व गुण के कारण मनुष्य उत्तेजना और आवेश रूपी विकार भावों से बच जाता है जो आजकल रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) जैसे रोगों का मूल कारण होता है। क्षमा भाव का अभिप्राय मात्र किसी को क्षमा कर देना या किसी से क्षमा मांग लेना ही नहीं है, अपितु हृदय (अंत:करण) में सहज स्थिति का निर्माण होना जो सहनशीलता आदि गुणों से परिपुष्ट हो क्षमा भाव का परिचायक है। यद्यपि क्षमाभाव धारण करने वाले व्यक्ति में क्रोधावेश की भावना अल्प प्रमाण में होती है या समाप्त हो जाती है, किन्तु जब तक उसके हृदय में करूणा का स्रोत प्रवाहित नहीं होता है और अहिंसा भाव व्याप्त नहीं होता है तब तक वह क्षमाशीलता अपूर्ण है। सीधी सी बात है कि जब प्राणि मात्र के प्रति करूणा की भावना हृदय की गहराई में पहुँच जाती है और आचरण में पूर्णरूप से अहिंसा व्याप्त हो जाती है तब वहां क्षमा शीलता या क्षमाभाव का मूर्त या साकार रूप दिखलाई पड़ता है। उसके स्वभाव में सरलता और सौम्यता स्वत: ही आ जाती है। क्षमाशीलता एक सात्विक भाव है जो मन में सत्वगुण की प्रबलता का द्योतक है।
सत्व गुण के कारण रज और तमो दोष स्वत: ही मंद हो जाते हैं। सत्व गुण के प्रभाव से विभिन्न मनोविकार भी स्वत: ही निर्मल हो जाते हैं जिसका प्रभाव शारीरिक दोषों वात—पित्त—कफ पर पड़ता है। यदि मनुष्य शारीरिक इन्द्रियों के प्रभाव वश किसी प्रकार का मिथ्या आहार—विहार नहीं करता है तीनों दोषों पर सत्व गुण भी अनुकूल रूप से प्रभाव डालता है और वे सम अवस्था में होते हैं जिससे शरीर सदैव निरोग बना रहता है। अत: निर्वावाद रूप से यह सिद्ध है कि शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य के सम्पादन में क्षमा शीलता अथवा क्षमाभाव की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आरोग्य सूत्र का आठवां बिन्दु है ‘आप्तोपसेवी’ अर्थात् आप्त पुरुषों की सेवा करना। जैनधर्म के अनुसार अर्हंत और सिद्ध परमेष्ठी के पश्चात् क्रमश: आचार्य, उपाध्याय, और साधु को महत्व दिया गया है और ये तीनों ही आप्त कहलाते हैं। वैसे तो पांचो परमेष्ठियों में आप्तत्व स्वयं सिद्ध है। अत: इस विषय में अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है और उपर्युक्त कथनानुसार आप्त पुरुषों की सेवा में संलग्न व्यक्ति निरोग होता है—यह असंदिग्ध है। जैनधर्म की दृष्टि से यदि इस पर विचार किये जाय तो यह कथन अक्षरश: सार्थक प्रतीत होता है, क्योंकि आप्त पुरुष की सेवा करने वाले व्यक्ति के कर्मों का क्षय होता जाता है जिससे रोग का उपशमन या नाश होता है और वह निरोग या स्वस्थ हो जाता है। जिस आरोग्य शास्त्र (आयुर्वेद) के अनुसार यह प्रतिपादित किया गया है कि ‘आप्तोपसेवी च भव्त्यरोग:’। उस शास्त्र में आप्त पुरुष के विषय में भी सम्यक् तया बतलाया गया है। चरक संहिता में आप्तपुरुष के लक्षण के सम्बन्ध में निम्न कथन प्राप्त होता है—
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्ता: तपो ज्ञानबलेन ये।
येषां त्रिकालममलं ज्ञानमव्याहतं सदा।।
आप्ता: शिष्टा: वबुद्धास्ते तेषांवाक्यमसंशयम्।
सत्यं वक्ष्यन्ति ते कस्मादसत्यं नीरजस्तम:।।
अर्थात् जो अपने तप और ज्ञान बल से रज और तम इन दो दोषों से निर्मुक्त हो गए हों, सदैव जिनका ज्ञान त्रैकालिक निर्मल और अव्याहत हो ऐसे पुरुष आप्त, शिष्ट और विबुद्ध होते हैं तथा उनके द्वारा कहे गऐ वचन संशय रहित होते हैं। वे सदैव सत्य वचन ही बोलते हैं तथा रज और तम से रहित होने के कारण असत्य भाषण क्यों करेंगे? ऐसे आप्त पुरुषों की सेवा करने से मनुष्य के मन—वचन—काय की शुद्धि हो जाती है। मन—वचन—काय से शुद्ध पुरुष नवीन कर्मों के आस्रव से अधिकांशत: बचा रहता है। कम से कम ऐसे कर्मों का आस्रव तो नहीं ही करता है जो रोगों की उत्पत्ति में कारण हों। अत: आप्तों (गुरूजनों) की सेवा करने वाला पुरूष निरोगी होता है। श्रावकाचार के अंतर्गत भी श्रावक के दैनिक षट्कर्म में ‘गुरूपास्ति’ कथन के द्वारा गुरू की सेवा का निर्देश जैन शास्त्रों में दिया ही गया है। इससे स्पष्ट है कि श्रावकाचार के अन्तर्गत जो कुछ भी प्रतिपादित है वह मनुष्य के आरोग्य की दृष्टि से सर्वथा अनुकूल और समीचीन है।