आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी आचार्यकुन्दकुन्द के यशस्वी शिष्य
ईसा पूर्व १०८ में आन्ध्र प्रदेश गुण्टूर तहसील के अन्तर्गत कोंडकुंदी (कुन्दकुन्दपुरम्) ग्राम में जन्मे सर्वश्रेष्ठ दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द की गौरवमयी यशेगाथा से आज समस्त अध्ययनप्रिय सज्जन परिचित हैं। शिलालेखों तथा अन्य ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों में आचार्य कुन्दकुन्द के अनन्य शिष्य के रूप में ‘आचार्य उमास्वामी’ का नाम भी आता है, जो कि ‘गृद्धंपिच्छ’ अपरनाम से अधिक विख्यात हुये। आपकी कालजयी कृति ‘तत्त्वार्थ’ जिसका अपरनाम आजकल ‘मोक्षशास्त्र’ भी प्रचलित है, की ख्याति जैन-वाङ्मय के प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में सर्वत्र व्याप्त है। मनुष्य की चिंतनशील प्रवृत्ति जहाँ अनेकों समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है, वहीं चिन्तन अथवा प्रज्ञा का अतिरंजित प्रयोग सीधी-सपाट बातों में मात्र संभावनाओं के आधार पर अनेकों विभ्रमों का भी सृजन कर देता है। लगभग यही स्थिति आचार्य उमास्वामी के बारे में हुई; जिससे उनके नाम, काल एवं साहित्य के बारे में कुछ भ्रमात्मक स्थिति का निर्माण हुआ है। प्रस्तुत आलेख में इन भ्रमों का समाधान करने का एक नैष्ठिक प्रयाय किया गया है।
नामकरण
दिगम्बर परम्परा में इनकानिर्विवाद नामकरण आचार्य ‘उमास्वामी’ ही है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में इसके ग्रन्थ ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के भाष्यग्रन्थ ‘तत्त्वार्थधिगमभाष्य’ के प्रणेता ‘वाचक उमास्वाति’ को मूलग्रन्थ का भी कर्ता सिद्ध करने की चेष्टा की गयी है। चूंकि दोनों नाम ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रन्थ से सम्पृक्त हैं, अत: इसके बारे में भ्रम की स्थिति आसानी से बन गयी। जबकि ‘वाचक उमास्वाति’ सूत्रकार ‘आचार्य उमास्वामी’ से पर्याप्त परवर्ती हैं। किन्तु भ्रम की स्थिति को दृढ़ करने की भावना से एक सुनियोजित प्रचार किया गया कि ‘वाचक उमास्वाति’ ने ही मूल ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रन्थ की रचना की, तथा उन्होंने ही ‘तत्त्वार्थधिगमभाष्य’ नाम से स्वोपज्ञ भाष्य का भी निर्माण किया। किन्तु यह सम्प्रदायगत-व्यामोह मात्र है, जिससे तथ्य की हानि ही हुई है। इसका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है – ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रन्थ के कर्ता के रूप में ‘उमास्वामी’ नाम शिलालेखों, वृत्तियों, टीकाओं एवं भाष्यग्रन्थों आदि में अपेक्षाकृत कम प्रयृक्त हुआ है; जबकि ‘गृद्धपिच्छ’ नाम अधिक प्रसुक्त हुआ है। जहाँ-जहाँ ‘उमास्वामी’नाम आया भी है, वहाँ अधिकांशत: उसके विशेषण के रूप में ‘गृद्धपिच्छ’ नाम का भी प्रयोग मिलता है। इस बिन्दु पर सूक्ष्मता से विचार किया जाये, तो हम पाते हैं कि श्वेताम्बर-परम्परा में इनको ‘गृद्धपिच्छ उमास्वामी’ क जगह ‘वाचक उमास्वाति’ अथवा ‘आचार्य उमास्वाति’ कहा गया है। इसके लिये ‘तत्त्वार्थसूत्र’ की प्रशस्ति का एक पद्य, जो दोनों परम्पराओं में पाया जाता है, तुलनार्थ देखें –
तुलना करने पर हम स्पष्टत: अनुभव करते हैं कि मात्र ‘गृद्धपिच्छोपलक्षितम् ’ पद से बचने के लिये ही ‘गुणमन्दिरम् ’– इस पादपूर्ति का प्रयोग किया गया है। इसका मूलकारण यह है कि दिगम्बर-परम्परा में श्रमण मयूर के पंखों की पिच्छी अहिंसा एवं जीवदया के पालनार्थ रखते हैं, जबकि श्वेतामबर-परम्परा के श्रमण कर्पास के सूत कर बनी हुई दण्ड में निबद्ध सम्मार्जिनी का प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि किसी भी पक्षी के पंखों की पिच्छी का प्रयोग उनके यहाँ नहीं होता है। जहाँ तक यह प्रश्न है कि दिगम्बर ‘मयूरपिच्छी’ धारण करते हैं, तो उमास्वामी आचार्य ने गृद्धपिच्छी क्यों धारण की? इसके बारे में प्रचलित कथानक तो यही है कि एक बार उनकी मायूरपिच्छी को जानवर या अन्य कोई उठा ले गया, तो उन्होंने तात्कालिक परिस्थितियों में गृद्धपक्षी के पंखों की पिच्छी धारण की थी; क्योंकि दिगम्बर जैन श्रमण ‘पिच्छिका’के बिना गमनागमन आदि कोई भी क्रिया नहीं करते हैं। उनमें तो यहाँ तक कह दिया गया कि ‘‘णिप्पिच्छे णत्थि णिव्वणं’’। हो सकता है कि यह घना सत्य हो, तथा इसी कारण उसका नाम ‘गृद्धपिच्छ’ पड़ा हो। परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि संभवत: उस परिस्थिति में उनकी समस्त व्यवहारचर्या रुक गयी होंगी। तथा जब किसी श्रावक ने नयी मायूरपिच्छी लाकर दी होगी; तभी उनकी व्यवहारचर्या पुन: प्रारम्भ हुई होगी; फलत: वे अपनी मायूरपिच्छी को अधिक संभालकर रखने लगे होंगे। ‘पिच्छी’ में उनकी गृद्धता (आसक्ति) को देखकर संभवत: किसी ने उन्हें ‘पीछी में गृद्धतावाले आचार्य’ (गृद्धपिच्छाचार्य) नाम दे दिया होगा। क्योंकि दिगम्बर जैन श्रमण मायूरपिच्छी ही धारण करते हैं।६ इसका मूलकारण् यही है कि मयूर पक्षी अपने पंखों का अहिंसक ढंग से कार्तिक मास में स्वत: विसर्जन करता है, अत; वे स्वत: आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। और चूंकि मयूर वन्य पक्षी है, अत: वनवासी जैनश्रमणों को यह सहज ही मिल जाते हैं। तथा मयूरपंक्षी के पंखों के कारण विषेले जीव-जन्तु (सर्प आदि) भी निकट नहीं आते हैं, अत: साधना भी निर्विध्न बनी रहती है। उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र के कत्र्ता का ‘गृद्धपिच्छ’ विशेषण स्वीकार नहीं था, जबकि सम्पूर्ण जैन-परम्परा एवं साक्ष्यों में ‘तत्त्वार्थसूत्र’ के कत्र्ता के लिए ‘गृद्धपिच्छ’ विशेषण इतना अधिक प्रयुक्त है कि कई लोग इसे उनका मूलनाम समझने लगे हैं। अत: ‘गृद्धपिच्छ’ उपनाम वाले आचार्य ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ग्रंथ के कत्र्ता हैं – यह तथ्य किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं रखता है। तथा ‘गृद्धपिच्छ’ विशेषण दिगम्बर-परम्परा का ही है, अत: दिगम्बर-परम्परा में मान्य नाम ‘उमास्वामी’ ही मूलनाम सिद्ध होता है, ‘उमास्वाति’ नहीं। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि दिगम्बर-परम्परा के कहे जाने वाले श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में उनका नाम ‘उमास्वाति’ क्यों मिलता है ? इसके उत्तर के लिये हमें उन शिलालेखों के बारे में कुछ जानकारी ले लेना अपेक्षित है। यह तथ्य है कि वे शिलालेख चाहे संस्कृत भाषा में हों या प्राकृतभाषा में, किन्तु उनकी लिपि कन्नड़ है। तथा कन्नड़ लिपि में ‘ति- एवं ‘मि’ के लेखन में घोर समानता है। देखें – ति मि अत; हो सकता है जिस शिल्पी ने ये शिलालेख उत्कीर्ण किये होंगे, उसको जो लिखकर पाठ दिया गया हो, उसमें पीछे की घुंडी लगाना छूट गयी हो; अत: उसने उमास्वामि की जगह उमास्वाति लिख दिया हो और फिर पाठ-दर-पाठ ऐसे पाठभेंद निर्मित होते गये। सम्पादन-कला के निष्णात विज्ञजन भली-भाूंति जानते हैं कि लिपिकत्र्ता बहुत विज्ञ एवं भाषाविद् नहीं हुआ करते थे, अत: उनसे ऐसी त्रृटियाँ प्राय: हो जाया करतीं थीं। इस बात के पक्ष में एक प्रबल आधार यह भी है कि ‘स्वामी’ नामान्तवाले कई आचार्य हुये हैं- यथा- समन्तभद्रस्वामी, वीरसेन स्वामी, विद्यानन्द स्वामी आदि तथा ‘स्वामी’ शब्द का व्यक्ति के नाम के साथ सार्थकता भी है। दक्षिण भारत में तो आज भी सम्मानसूचक शब्द के रूप में ‘स्वामी’ पद का प्रयोग करते हैं। किन्तु ‘स्वाति’ तो किसी नाम के साथ प्रयुक्त हुआ हो- ऐसे प्रमाण मुझे आज तक नहीं मिले; तथा यह शब्द भी मात्र नक्षत्रों के भेदों में परिगणित हुआ है, किसी के नाम के रूप में नहीं। अत: ‘उमास्वाति’ नाम की कोई तुक या सार्थकता प्रतीत नहीं होती है। तत्त्वार्थसूत्रकत्र्ता का मूलनाम ‘उमास्वामी’ था, – इस तथ्य के पोषण में एक अन्य प्रमाण भी मैं यहाँ प्रस्तुत करना चाहती हूँ – आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत ‘प्रवचनसार’ ग्रन्थ की ‘तात्पर्यवृत्ति’ टीका के कत्र्ता जयसेनाचार्य टीका के प्रारंभ में लिखते हैं –
इसके बारे में वचनिकाकार लिखते है कि ‘निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधन करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस ग्रन्थ (प्रवचनसार) की रचना करते हैं।’८ इसमें आगत ‘शिवकुमार’ नाम ध्यान देने योग्य है। तमिल प्रान्त शैवमतावलम्बियों का बहुत प्राचीनकाल से व्याप्क प्रभाव रहा है; तथा तदनुसार शिवप्पा, शिवभूति, उमापति आदि नाम वहाँ शैवों में बहुत प्रचलित रहे हैं। प्रतीत होता है कि शिवकुमार भी मूल में शैव थ तथा बाद में आचार्य कुन्दकुन्द से प्रभावित होकर उनके भक्त बन गये। उक्त उल्लेख से ज्ञापित होता है कि यह कुन्कुन्दाचार्य का साक्षात् शिष्य लगता हे; संभवत: इसी ने बाद में आचार्य कुन्दकुन्द से दीक्षा ले ली हो; कयोंकि आचार्य उमास्वामी भी कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। तथा दीक्षोपरान्त दिये जाने वाले नामों में कभी-कभी पुराने नाम की छवि निहित होती थी। तो ‘शिव जी’ उमा अर्थात् ‘पार्वती’ के ‘स्वामी’ अर्थात् ‘पति’ थे, अत: ‘उमास्वामी’ पद का अर्थ ‘शिव’ होता है। तो हो सकता है कि इन्हीं शिवकुमार का दीक्षोपरान्त नामकरण ‘उमास्वामी’ हुआ हो। – इस आधार पर भी तत्त्वार्थसूत्र-कत्र्ता का नामकरण ‘उमास्वामी’ ही सिद्ध होता है, ‘उमास्वाति’ कदापि नहीं। तथा आचार्य उमास्वामी आचार्य कुन्दकुन्द के न केवल साक्षात् शिष्य थे, अपितु उनके चिंतन एवं लेखन पर भी कुन्दकुन्दाचार्य के विचार एवं उनकी कृतियों के वाक्यों का घनिष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। तुलनार्थ नीचे लिखे वाक्यांश एवं सूत्रों को देखें– आचार्य कुन्दकुन्द के वाक्य‘तत्त्वार्थसूत्र’ के सूत्र १. ‘‘दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्त-संजुतं। सद् द्रव्य लक्षणम् (५/२९) गुणपज्जयासयं वा जं तं भणंति सव्वण्हू।।’’ उत्पाद-व्यय-ध्राव्ययुक्तं सत् (५/३०) (पंचास्तिकाय १/१०) गुणपर्ययवद् द्रव्यम् (५/३८) २. ‘‘देवा चउण्णिकाया ….’’ (पंचास्तिकाय १/१४) देवाश्चतुर्निकाया: (४/१) ३. ‘‘धम्मत्थिकायाभावे’’ (नियमसार, १८५) धर्मास्तिकायाभावात् (१०/८) ४. ‘‘दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो’’… (समयसार, ४१०) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: (१/१) ५. ‘‘मिच्छादंसण-अविरदि-कसाय-जोगा ….. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा: बंधस्स हेदव्वो।’’ (मूलाचार ११/२७) बन्धहेतव: (८/१) ६. ‘‘जीवो कसायजुत्तो … कम्मणो … जोग्गा सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् र्पोग्गलदव्वे गिण्हदि, सो बंधो।’’ पुद्गलानादत्ते स बन्ध: (८/१२) ७. पयडि-ट्ठिदि-अणुभागप्पदेसबंधो (वही ११/२१०) प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधय:। (८/१३) ८. णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेदणीय-मोहणियं। आद्यो ज्ञानदर्शनावरण-वेदनीय मोहनीय- आउग-णाम गोदं तहंतरायं च मूलाओ ।। यायुनार्म गोत्रान्तराया:। (८/४) (वही ११/२११) ९. सादमसादं दुविहं (वही ११/२१५) सदसद्वेद्ये। (८/८) १०. णिच्चुच्चगोंद च (वही ११/२२३) उच्चैर्नीचैश्च (८/१२) ११. मोहस्स सत्तरिं खलु वीसं णामस्स चेव गोदस्स। सप्ततिर्मोहनीयस्य (८/१५) तेतीसमाउगाणं उवमाओ सायराणं तु ।। विंशतिर्नामगोत्रयो: (८/१६) (वही २३०) त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष: (८/१७)इतने ही नहीं, और भी अनेकों ऐसे प्रसंग हैं, जो शब्दश: मात्र भाषान्तर के साथ कुन्दकुन्द-साहित्य से ‘तत्त्वार्थसूत्र’ में आगत हैं। स्थानाभाव के कारण सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया है। वस्तुत: यह विषय पूर्णत: शोधदृष्टि से अन्वेषणीय है। आचार्य कुन्दकुन्द एवं आचार्य उमास्वामी की समकालिकता को ‘विद्वज्जनबोधक’ ग्रन्थ में भी स्वीकार किया गया है।९ इतना ही नहीं, आधुनिक श्वेताम्बराचार्य आनंद ऋषि जी ने भी लिखा है कि ‘‘आचार्य उमास्वाति ने अचौर्य महाव्रत की भावनाओं में कुन्कुन्दाचार्य का अनुगमन किया है।’’१० इससे स्पष्ट है कि आचार्य उमास्वामी प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के साक्षात् शिष्य थे तथा लगभग समकालीन ही थे। साहित्य – आचार्य उमास्वामी के कृतित्व के रूप में एकमात्र रचना ‘तत्त्वार्थसूत्र’ ही सर्वमान्य एवं निर्विवादरूप से स्वीकृत है। इसका मूल नाम ‘तत्त्वार्थ’ मात्र है, किन्तु सूत्रशैली में रचित होने से इसे ‘तत्त्वार्थसूत्र’ कहा गया। इस तथ्य का पोषण इस ग्रंथ की टीकाओं से होता है, जिनमें इसके नाम के साथ ‘सूत्र’ पद का प्रयोग नहीं मिलता है।११ यह दस अध्यायों में निबद्ध ग्रंथ है। अन्य वैशेषिक आदि दर्शनों के मूलग्रंथ भी लगभग इसके समान ही है। दस अध्यायों में जीवाजीवादि सात तत्त्वार्थों का सूत्रात्मक शैली में वर्णन होने से इसकी ‘तत्त्वार्थसूत्र’ संज्ञा अन्वर्थिका है। यह मूल दिगम्बर ग्रन्थ है, इसका एक प्रधान आधार यह है कि इसमें तीर्थंकर प्रकृति की कारणभूत सोलह भावनाओं (दर्शनविशुद्ध्यिादि) का वर्णन है; जबकि श्वेताम्ब मान्यतानुसार तीर्थंकर प्रकृति की कारणभूत भावनाओं की संख्या बीस है। विद्वानों ने ऊहापोहपूर्वक इस तथ्य को अन्यत्र सिद्ध किया है, यहाँ विस्तार भय से विराम लेती हूँ।
सन्दर्भ सूची
१.द्रष्टव्य, कुन्कुन्द भारती, नई दिल्ली-६७ से प्रकाशित ‘समयसार’ की प्रस्तावना (मुन्नुडि)।
२.द्र०, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग १, परिशिष्ट ४४, पृ. ४९०-४९१।
३.द्र० सर्वार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन) की पं. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री-कृत ‘प्रस्तावना’।
४.(क) ‘‘तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिद तच्चत्थसुत्ते वि’’ वर्तना-परिणाम क्रिया-परत्वापरत्वे च कालस्य ‘‘इदि दव्वकालो परूविदो।’’ (आ० वीरसेनस्वामी कृत धवला, ४/१, ५, २/३१६ पृ.)